Tuesday, January 26, 2016

9>Sage-Monk_ঋষি = সন্ন্যাসী + नागा साधु

9>आ =Post=9>***Sage-Monk_ঋষি = সন্ন্যাসী***( 1 to 12 )

1----------------इस सम्पूर्ण सृष्टि का जो रक्षक," गोरखनाथ "
2----------------ऋषि भृगु
3-----------------महर्षि व्यास जी यही कहते है :-
4-----------------शुकदेव = महात्मा शुकदेव
5-----------------दत्तात्रेय"
6------------------दत्तात्रेय मंत्र,,
7------------------दत्तात्रेय भगवान, हिन्दू धर्म की त्रिवेणी
8-------------------Naga Sadhu== नागा साधु
9>----------------श्यामाचरण लाहिड़ी:----
10>--------------योगिराज श्यामा चरण लाहिरी महाशय - संक्षिप्त परिचय Part 1
11>-------------योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय part 2
12>-------------Lahiri Mahasaya= Shyama Charan Lahiri


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9>Sage-Monk_ঋষি = সন্ন্যাসী


1>इस सम्पूर्ण सृष्टि का जो रक्षक," गोरखनाथ "

इस सम्पूर्ण सृष्टि का जो रक्षक, स्वामी और प़भु है, वही ‘नाथ’ है। गोरखनाथ भारतीय मानस में देवाधिदेव शिव रुप में प़तिष्ठित है। वे अनादि है। जब से ब्रह्माण्ड है, तब से नाद है, जब से नाद है तब से नाथ सम्प्रदाय है।


वस्तुत: नाथ शब्द (नाथ्+अच्) से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ प़भु, स्वामी, रक्षक होता है। ‘नाथ’ इस भुवनत्रय की स्थिति का कारण है। वह आदि, मध्य, अवसान रहित है। वह ‘शिव’ से अभिन्न है। गोरक्षनाथ ‍को पुराणों में शिव का अवतार माना गया ‍है। शिवपुराण में ब़ह्मा जी शिव के अवतारों का वर्णन करते हुए कहतें हैं -:

।। शिवो गोरक्षरूपेण, योग शास्त्रं जुगोपह
मद्यङैर्यथा स्थाने, स्थापिता योगिनोऽपि च ।।

गोरखनाथ का प्रदुर्भाव:

गोरखनाथ दो रूपों में देखे जाते हैं—व्यक्तित्व के रूप में और व्यक्ति के रूप में। व्यक्तित्व के रूप मे आदिनाथ शिव और गोरखनाथ तत्वत: एक ही है। सर्वनिरपेक्ष, कालातीत, नित्य, सर्वव्यापी, परमचैतन्य रूप होने के कारण वे सभी युगों और सभी कालों में विद्यमान रहते है। नाथ योगी सर्वनिरपेक्ष अलक्ष्य सत्ता को ही अपने अन्तस् में लक्षित करता है।

योगी गुरू गोरक्षनाथ-अवतार कथा:

नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण ने ज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को ‍अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना।

वह ‍द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।

जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट ‍हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित ‍हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव कथा सुनाते ही रहे।

भगवान आदिनाथ ने ‍द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो। बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा, इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो। अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो, यही हम दोनो का आदेश है।

मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बु‍द्धि के लिए वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं, स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें। मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या ‍विकास करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग, विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है। हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे से पृथक आप नही है।

जगदम्बा ‍के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ -जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ- जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने अपने आत्मबल समुदाय ‍को दो भागों मे विभाजित किया। एक समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षना‍थ रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये। महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप मे ‍विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ‍ही कथन का उत्तर देने के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई ‍हो? योगी की परीक्षा का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता, माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति ‍को कुछ नही समझा। वह अपनी समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी ! संसार का कल्याण ‍हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।

जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी ! जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है, और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे। इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता ‍को प्राप्त किया इसी भगवान आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन ‍तीन शिक्षाओं के द्वारा अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया।
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2> ऋषि भृगु

सप्तऋषियों में एक ऋषि भृगु थे, वो स्त्रियों को तुच्छ समझते थे। वो शिव जी को गुरु तो मानते थे, किन्तु माँ पार्वती को वो अनदेखा करते थे।एक तरह से वो माँ को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे।

महादेव भृगु के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न थे।

एक दिन शिव जी ने माता से कहा, आज ज्ञान सभा में आप भी चले।
माँ शिव जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार की और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गई।
सभी ऋषिगण और देवताओ ने माँ और परमपिता को नमन किया और उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किआ किन्तु भृगु माँ और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे, उन्हें समझ नही आ रहा था कि वो शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करे।
बहुत विचारने के बाद भृगु ने महादेव जी से कहा कि वो पृथक खड़े हो जाये।
शिव जी जानते थे भृगु के मन की बात।
वो माँ को देखे, माता उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिव जी के आधे अंग से जुड़ गई और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गई।

अब तो भृगु और परेशान, कुछ पल सोचने के बाद भृगु ने एक राह निकली और भवरें का रूप ले कर शिव जी के जटा का परिक्रमा किये और अपने स्थान पे खड़े हो गए।

माता को भृगु के ओछी सोच पे क्रोध आ गया।

उन्होंने भृगु से कहा, भृगु तुम्हे स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यूँ न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाये, और माँ ने भृगु से स्त्रीत्व को अलग कर दिया।

अब भृगु न तो जीवितों में थे न मृत थे। उन्हें आपार पीड़ा हो रही थी, वो माँ से क्षमा याचना करने लगे, तब शिव जी ने माँ से भृगु को क्षमा करने को कहा।

माँ ने उन्हें क्षमा किया और बोली - संसार में स्त्री शक्ति के बिना कुछ भी नही। बिना स्त्री के प्रकृति भी नही पुरुष भी नही। दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नही देता वो जीने का अधिकारी नही।

आज संसार में अनेको भृगु है, उनसे मेरी विनती है कि वो स्त्रियों से उनका सम्मान न छीने।खुद जिए और स्त्रियों को भी चैन से जीने दे।
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3>महर्षि व्यास जी यही कहते है :-

यह मनुष्य देह हमे बड़े पुण्यों से मिला है । इतना ही नहीं, भारत वर्ष जैसा देश, हिन्दू धर्म जैसा धर्म और कलियुग जैसा युग – हमे प्राप्त हुआ है । महात्माओं ने कलियुग को सभी युगों की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया है । अन्य युगों की अपेक्षा इसमें कल्याण बहुत ही सुगमता से हो सकता है ।

गोसाई तुलसीदास जी ने कहा है :-
कलिजुग सम जग आन नहीं जों नर कर बिस्वास ।
गाई राम गुन गन बिमल भव तर बिनही प्रयास ।।

ऐसे अपूर्व संयोग को पाकर भी यदि हम सच्चे सुख से वन्चित रहे, अनित्य विषय-सुखों में ही रमा किये और पाप बटोरने में ही यदि अपना अमूल्य जीवन खो दिया तो फिर हमसे बढ़कर मूर्ख और कृतघ्न कौन होगा ?

गोसाई तुलसीदास जी ने ऐसे लोगो को आत्महत्यारा कहा है :-

तो न तरई भवसागर नर समाज अस पाइ ।
सो कृतनिंदक मंदमति आत्माहन गति जाई ।।

परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी

सचमुच भक्त तो अपने को भक्त मानता ही नहीं । नम्रता और विनय के ख्याल से नहीं, भक्तोचित व्यवहार की दृष्टी से नहीं, सचमुच ही उसके मन में स्पष्ट अनुभव होता है की ‘मैं भक्त नहीं हूँ । दींन, मलीन साधनहीन पर भी करुणामय भगवान कृपा करते है – यह उनका महत्व है । मुझमे तो भक्ति का लेश भी नहीं है ।

श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी

श्री शरणानन्द जी महाराज नये दार्शनिक थे । उनका दर्शन छहों दर्शनों से निराला है । उनकी बात को कोई काट नहीं सकता , जबकि अन्य दर्शनों की बातें एक - दूसरे को काटती हैं । परंतु लोगों ने श्री शरणानन्द जी महाराज की बातों को कितना आदर दिया? सच्ची जिज्ञासा नहीं है ।

स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

स्वामी श्री शरणानन्दजी महाराज की अमर वाणी -

जो दूसरो के हित के लिये जीता है , वह महान है | जो अपने लिए जीता है वह अभागा है | दूसरों के हित के लिए जिओ | सुख-भोग के लिए जीना पाप है | दूसरों के लिए जीना महान पुण्य है |

सेवा सभी की करना, किन्तु आशा किसी से मत करना |

सेवा का मूल्य प्रभु देता है , संसार नहीं दे सकता |

जो प्रभु का होकर रहेगा मै उसका ऋणी हूँ |

किसी को भी जो वस्तु मिलती है , वह भाग्य से अथवा प्रभु-कृपा से मिलती है | वस्तु के लिए परस्पर झगड़ना नहीं चाहिये |

कोई बात पूरी नहीं होती, तो समझो कि वह जरूरी नहीं है |

प्रभु-विश्वासी होकर रहो यही मेरी सेवा है, बुराई-रहित होकर रहो यही विश्व-सेवा है, अचाह होकर रहो यही अपनी सेवा है |

या अल्लाह, या खुदा कोई यह न समझना कि शरणानन्द का कोई मजहब या संप्रदाय है | जो खुदा का है वह शरणानन्द का है | मानव सेवा संघ, मानव मात्र का है ।

किसी एकदेशीय साधना का समर्थक मै नहीं हूँ |

मानव सेवा संघ कोई दल नहीं है , मानव मात्र का सत्य है | उसको अपनाने से योग, बोध , प्रेम की प्राप्ति अनिवार्य है |

सत्संग से जीवन मिलता है | सत्संग, स्वधर्म है, शरीर-धर्म नहीं है | सत्संग-योजना को सजीव बनाकर मानव-जाती को जगा दो, अर्थात सोई हुई मानवता को जाग्रत कर दो |

बुराई करो मत, भलाई का फल मत चाहो, प्रभु को अपना करके अपने में स्वीकार करो |

मन, वचन, कर्म से जो बुराई-रहित हो जाता है, और जो भलाई का फल नहीं चाहता है, वह स्वाधीन हो जाता है | जो स्वाधीन हो जाता है, उससे जगत और प्रभु प्रसन्न होते हैं | प्रभु सबको स्वाधीनता प्रदान करें |

दवा कर्त्तव्य के लिए देते रहो | दवा कर्त्तव्य के लिए है, जीवन के लिए नहीं | अपने लिए तो प्रभु ही हैं |

शरणागत अमर होता है, उसकी मौत नहीं होती | जो कर्त्तव्य रूप में कर सकते हो , करो | जो नहीं कर सकते हो, उसकी परवाह मत करो ।
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4>शुकदेव = महात्मा शुकदेव

महात्मा शुकदेव भगवान वेदव्यास के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है। एक कथा ऐसी भी है कि जब जब इस धराधाम पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिकाजी का अवतरण हुआ, तब श्रीराधिकाजी का क्रीडाशुक भी इस धराधाम पर आया। उसी समय भगवान शिव पार्वतीजी को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी कथा सुनते-सुनते निद्रा के वशीभूत हो गयीं और उनकी जगह पर शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये उसका पीछा किया। शुक भागकर व्यास जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। भगवान
शंकर वापस लौट गये। यही शुक व्यासजी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद,
दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले।
जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे 'हा पुत्र! पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया।
श्रीशुकदेव जी का जीवन वैराग्य का अनुपम उदाहरण है। ये गाँवों में केवल गौ दुहने के समय ही जाते और उतने ही समय तक ठहरने के बाद जंगलों में वापस चले आते थे। व्यास जी की हार्दिक इच्छा थी कि शुकदेव जी श्रीमद्भागवत-जैसी परमहंस संहिता का अध्ययन करें, किन्तु ये मिलते ही नहीं थें श्रीव्यास जी ने श्रीमद्भागवत की श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को रटा दिया। वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा लाने के लिये जाया करते थे।
एक दिन शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्रीकृष्णलीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव जी अपने  पिता श्रीव्यास जी के पास लौट आये। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन  किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित जी ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। श्रीव्यास जी के आदेश पर श्रीशुकदेव जी  महाराज परम तत्त्वज्ञानी महाराज जनक के पास गये और उनकी कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया।

आज भी महात्मा शुकदेव अमर हैं। ये समय-समय पर अधिकारी पुरुषों को दर्शन देकर उन्हें अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा  कृतार्थ किया करते हैं।
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5>"दत्तात्रेय"

भगवान दत्तात्रेय ब्रह्माजी के मानस पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम अनुसूइया था। कई ग्रंथों यह बताया गया है कि ऋषि अत्रि और अनुसूइया के तीन पुत्र हुए। ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा, शिवजी के अंश से दुर्वासा ऋषि, भगवान विष्णु के अंश दत्तात्रेय का जन्म हुआ। कहीं-कहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि भगवान दत्तात्रेय ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सम्मिलित अवतार हैं।

{भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु :}

1-पृथ्वी- सहनशीलता व परोपकार की भावना सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।

2-पिंगला वेश्या- पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। वह वेश्या सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।

3-कबूतर- कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा स्नेह दु:ख ही वजह होता है।

4-सूर्य- सूर्य से दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।

5-वायु- जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोडऩा नहीं चाहिए।

6-हिरण- हिरण उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।

7-समुद्र- जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।

8-पतंगा- जिस प्रकार पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।

9-हाथी- हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। अत: हाथी से सीखा जा सकता है कि संयासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।

10-आकाश- दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।

11-जल- दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।

12-मधुमक्खी - मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।

13-मछली- हमें स्वाद का लोभी नहीं होना चाहिए। मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अंत में प्राण गंवा देती है। हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, ऐसा ही भोजन करें जो सेहत के लिए अच्छा हो।
14-कुरर पक्षी- कुरर पक्षी से सीखना चाहिए कि चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। कुरर पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है, लेकिन उसे खाता है। जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को देखते हैं तो वे कुरर से उसे छिन लेते हैं। मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही कुरर को शांति मिलती है।

बालक- छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।

15-बालक- छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।

16-आग- आग से दत्तात्रेय ने सीखा कि कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढल जाना चाहिए। जिस प्रकार आग अलग-अलग लकडिय़ों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी ही नजर आती है।

17-चन्द्रमा- आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे घटने-बढऩे से भी चंद्रमा की चमक और शीतलता बदलती नहीं है, हमेशा एक-जैसे रहती है। आत्मा भी किसी भी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।

18-कुमारी कन्या- कुमारी कन्या से सीखना चाहिए कि अकेले रहकर भी काम करते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक कुमारी कन्या देखी जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूडिय़ां आवाज कर रही थी। बाहर मेहमान बैठे थे, जिन्हें चूडिय़ों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूडिय़ों आवाज बंद करने के लिए चूडिय़ां ही तोड़ दी। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी ही रहने दी। इसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया। अत: हमें ही एक चूड़ी की भांति अकेले ही रहना चाहिए।
19-शरकृत या तीर बनाने वाला- अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक तीर बनाने वाला देखा जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।
20-सांप- दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संयासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। साथ ही, कभी भी एक स्थान पर रुककर नहीं रहना चाहिए। जगह-जगह ज्ञान बांटते रहना चाहिए।

21-मकड़ी- मकड़ी से दत्तात्रेय ने सीखा कि भगवान भी माय जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है, ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।

22-भृंगी कीड़ा- इस कीड़े से दत्तात्रेय ने सीखा कि अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे मन वैसा ही हो जाता है।

23-भौंरा - भौरें से दत्तात्रेय ने सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार भौरें अलग-अलग फूलों से पराग ले लेती है।
24-अजगर- अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए। जो मिल जाए, उसे ही खुशी-खुशी सीकार लेनाचाहिए।।
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6> दत्तात्रेय मंत्र,,

ॐ दत्तात्रेयाय नमः दत्तात्रेय मंत्र,,जगदुत्पति कर्त्रै च स्थिति संहार हेतवे। 
भव पाश विमुक्ताय दत्तात्रेय नमो॓‍ऽस्तुते॥
जराजन्म विनाशाय देह शुद्धि कराय च। दिगम्बर दयामूर्ति दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
कर्पूरकान्ति देहाय ब्रह्ममूर्तिधराय च। वेदशास्त्रं परिज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
ह्रस्व दीर्घ कृशस्थूलं नामगोत्रा विवर्जित। पंचभूतैकदीप्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
यज्ञभोक्त्रे च यज्ञाय यशरूपाय तथा च वै। यज्ञ प्रियाय सिद्धाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णु: अन्ते देव: सदाशिव:। मूर्तिमय स्वरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
भोगलयाय भोगाय भोग योग्याय धारिणे। जितेन्द्रिय जितज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
दिगम्बराय दिव्याय दिव्यरूप धराय च। सदोदित प्रब्रह्म दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
जम्बूद्वीपे महाक्षेत्रे मातापुर निवासिने। जयमान सता देवं दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
भिक्षाटनं गृहे ग्रामं पात्रं हेममयं करे। नानास्वादमयी भिक्षा दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वक्त्रो चाकाश भूतले। प्रज्ञानधन बोधाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
अवधूत सदानन्द परब्रह्म स्वरूपिणे। विदेह देह रूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
सत्यरूप सदाचार सत्यधर्म परायण। सत्याश्रम परोक्षाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
शूल हस्ताय गदापाणे वनमाला सुकंधर। यज्ञसूत्रधर ब्रह्मान दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
क्षराक्षरस्वरूपाय परात्पर पराय च। दत्तमुक्ति परस्तोत्र दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
दत्तविद्याठ्य लक्ष्मीशं दत्तस्वात्म स्वरूपिणे। गुणनिर्गुण रूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥
शत्रु नाश करं स्तोत्रं ज्ञान विज्ञान दायकम।सर्वपाप शमं याति दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥ ,,


ॐ श्रीं ह्रीं क्रों ग्लौं द्रां । ,,,,द्रां दत्तात्रेयाय नमः । ,,,,आं ह्रीं क्रों द्रां एहि दत्तात्रेय स्वाहा ।
ॐ दत्तात्रेयहरे कृष्ण उन्मत्तानन्ददायक । दिगम्बर मुने बाल पिशाच ज्ञानसागर ।।
ॐ अत्रेरात्मप्रदानेन यो मुक्तो भगवान् ऋणात । दत्तात्रेयं तमीशानं नमामि ऋणमुक्तये ।।
ॐ आं ह्रीं क्रौं एहि दत्तात्रेय स्वाहा । ,,,,,,, ॐ दत्तात्रेयाय नमः ।
श्रीं ह्रीं क्लीं दत्तात्रेयाय स्वाहा । ,,,,,,,,द्रां दत्तात्रेयाय नमः । ,,,,,,,,,द्रां ॐ दत्तात्रेयाय नमः ।
ॐ परं ब्रहम परमात्मने नमः ।

उतपत्ति स्धिति प्रलय कारिणे ब्रहम हरि हराय त्रिगुणात्मने सर्व कौतुकानि दर्शय,

दत्तात्रेयाय नमस्तन्त्राणाम सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा
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7>दत्तात्रेय भगवान, हिन्दू धर्म की त्रिवेणी

ब्राह्मण और श्रमणों में ही शुरुआत में भारत में दो धाराएं थी पहली वेद की और दूसरी तंत्र की। वेद और तंत्र में विरोध रहा है। वेद से वैष्णव और तंत्र से शैव सम्प्रदाय की उत्पत्ति मानी जाती है।

भगवान दत्तात्रेय ने वेद और तंत्र मार्ग का विलय किया था। इसके अलावा ब्रह्म विद्या का प्रचार भी किया था। इस तरह उनमें तीनों ही धाराएं समाहित हो जाती है। उनके तीन शिष्य थे जो तीनों ही राजा थे। दो यौद्धा जाति से थे तो एक असुर जाति से।

दत्तात्रेय को शिव का अवतार माना जाता है, लेकिन वैष्णवजन उन्हें विष्णु के अंशावतार के रूप में मानते हैं। मूलत: उन्होंने शैव, वैष्णव और शाक्त धर्म को एक करने का कार्य भी किया। उनके शिष्यों में भगवान परशुराम का भी नाम लिया जाता है। तीन धर्म (वैष्णव, शैव और शाक्त) के संगम स्थल के रूप में त्रिपुरा में उन्होंने लोगों को शिक्षा-दीक्षा दी।

तंत्र से जुड़े होने के कारण दत्तात्रेय को नाथ परंपरा और संप्रदाय का अग्रज माना जाता है। इस नाथ संप्रदाय की भविष्य में अनेक शाखाएं निर्माण हुई। उनमें से एक भगवान दत्तत्रेय से शुरू होने वाली मालिका प.पु. स्वामी नरेंद्रचार्यजी तक निम्नलिखित रूप से आई है। भगवान दत्तात्रेय नवनाथ संप्रदाय से संबोधित किया गया है।

रोचक कथा (dattatreya story) :नारदजी जब लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती के पास पहुंचे और उन्हें अत्रि महामुनि की पत्नी अनुसूया के असाधारण पतिव्रत्य के बारे में बताया तब इस पर तीनों देवियों के मन में अनुसूया के प्रति ईर्ष्या का जन्म होने लगा। तीनों देवियों ने सती अनुसूया के पतिव्रत्य को खंडित करने के लिए अपने पतियों को उसके पास भेजा।

विशेष आग्रह पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सती अनुसूया के सतीत्व और ब्रह्म शक्ति की परख करने की सोची। जब अत्रि ऋषि आश्रम से कही बाहर गए थे तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश यतियों का भेष धारण करके अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुंचे और भिक्षा मांगने लगे।

अतिथि-सत्कार की परंपरा के चलते सती अनुसूया ने त्रिमूर्तियों का उचित रूप से स्वागत करके उन्हें खाने के लिए निमंत्रित किया। लेकिन यतियों के भेष में त्रिमूर्तियों ने एक स्वर में कहा, ‘हे साध्वी, हमारा एक नियम है कि जब तुम नग्न होकर भोजन परोसोगी, तभी हम भोजन करेंगे।'

अनुसूया ने 'जैसी आपकी इच्छा' यह कहते हए यतियों पर जल छिड़क कर तीनों को तीन प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया। तब अनुसूया के हृदय में मातृत्व भाव उमड़ पड़ा। फिर शिशुओं को दूध-भात खिलाया और तीनों को गोद में सुलाया तो तीनों गहरी नींद में सो गए।

अनुसूया माता ने तीनों को झूले में सुला कर कहा- ‘तीनों लोकों पर शासन करने वाले त्रिमूर्ति मेरे शिशु बन गए, मेरे भाग्य को क्या कहा जाए। फिर वह मधुर कंठ से लोरी गाने लगी।

उसी समय कहीं से एक सफेद बैल आश्रम में पहुंचा, एक विशाल गरुड़ पंख फड़फड़ाते हुए आश्रम पर उड़ने लगा और एक राजहंस कमल को चोंच में लिए हुए आया और आकर द्वार पर उतर गया। यह नजारा देखकर नारद, लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती आ पहुंचे।

नारद ने विनयपूर्वक अनुसूया से कहा, ‘माते, अपने पतियों से संबंधित प्राणियों को आपके द्वार पर देखकर ये तीनों देवियां यहां पर आ गई हैं। ये अपने पतियों को ढूंढ रही थी। इनके पतियों को कृपया इन्हें सौंप दीजिए।'

अनुसूया ने तीनों देवियों को प्रणाम करके कहा, ‘माताओं, झूलों में सोने वाले शिशु अगर आपके पति हैं तो इनको आप ले जा सकती हैं', लेकिन जब तीनों देवियों ने तीनों शिशुओं को देखा तो एक समान लगने वाले वे तीनों शिशु गहरी निद्रा में सो रहे थे। इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती भ्रमित होने लगीं।

नारद ने उनकी स्थिति जानकर उनसे पूछा- ‘आप क्या अपने पति को पहचान नहीं सकतीं? 'कृपया आप हास्य का पात्र न बनें और जल्दी से अपने-अपने पति को गोद में उठा लीजिए।'
देवियों ने जल्दी में एक-एक शिशु को उठा लिया। वे शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों के रूप में खड़े हो गए। तब उन्हें मालूम हुआ कि सरस्वती ने शिवजी को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है। तीनों देवियां शर्मिंदा होकर दूर जा खड़ी हो गईं।

उसी समय अत्रि महर्षि अपने घर लौट आए। अपने घर त्रिमूर्तियों को पाकर हाथ जोड़ने लगे। तभी ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ने एक होकर दत्तात्रेय रूप धारण किया। उक्त कथा को दत्तात्रेय के जन्म से जोड़कर भी देखा जाता है !
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8>Naga Sadhu== नागा साधु

नागा साधु - सम्पूर्ण जानकारी और इतिहास |||||

सभी साधुओं में नागा साधुओं को सबसे ज्यादा हैरत और अचरज से देखा जाता है। यह आम जनता के बीच एक
कौतुहल का विषय होते है। यदि आप यह सोचते है की नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच है।
नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंड दान और श्राद्ध तर्पण करना पड़ता है। पुराने समय में अखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नाग साधुओं ने कई लड़ाइयां भी लड़ी है। आज इस लेख में हम आपको नागा साधुओं के बारे में उनके इतिहास से लेकर उनकी दीक्षा तक सब-कुछ विस्तारपूर्वक बताएंगे।

नाग साधुओं के नियम :-

वर्त्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े है। वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं।

1- ब्रह्मचर्य का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ  दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले  यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।
2- सेवा कार्य- ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है।

यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है।
ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।

3- खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना।
इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है।
इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।

4- वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो
सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु
धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है।

5- भस्म और रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है।
नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है।

6- एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है।
अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद
को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है।

7- केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता।
यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं।
यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।

8- मंत्र में आस्था- दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की
सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है।

9- अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल  संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं।

नागा साधु बनने की प्रक्रिया :-

नाग साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही
नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष
बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है-
तहकीकात- जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में
शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है?
उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु  यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।
महापुरुष- अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से
महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति,  सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं।
अवधूत- महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं।
इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।
लिंग भंग------
 इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना
पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर  निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु  बन जाता है।

नागाओं के पद और अधिकार- -----

नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और
अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत,
दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है।

महिलाएं भी बनती है नाग साधू :-

वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है। इनमे विदेशी महिलाओं
की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है।
फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही
वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं।

अजब-गजब है नागाओं का श्रंगार :-

श्रंगार सिर्फ महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ
इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है।
उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी को। नागा साधु
प्रेमानंद गिरि के मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन

नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते हैं-

भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी
जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं।
रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म भी ताजी होती है।
भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।

फूल-----

 कईं नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इसके पीछे कारण है गेंदे के फूलों का अधिक समय तक ताजे बना रहना। नागा साधु गले में, हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते भी हैं। यह निजी पसंद और विश्वास का मामला है।

तिलक---
 नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं।

रुद्राक्ष---

 भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएसाधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के वारे-न्यारे हो जाते हैं।
लंगोट----

 आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।

हथियार----

 नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही इनके लुक का भी हिस्सा हैं।

चिमटा ----

 नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है। चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है। ऐसा उल्लेख भी कई जगह मिलता है कि कई साधु चिमटे से ही अपने भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो जाए।

रत्न----

 कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं।

जटा- ---

जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।

दाढ़ी----

 जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं।

पोषाक चर्म----

 जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है, फिर भी कई साधुओं के पास जानवरों की खाल देखी जा सकती है।

नाग साधुओं का इतिहास :-

भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।

आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।

नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े :-

भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-

1. श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।

2. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।

3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।

4. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।

5. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।

6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।

7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।

8.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866 में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।

9. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। 1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था। परंतु 1848 में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।

10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:- इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।

11. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।

12. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1784 में स्थापित हुआ। 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।

13. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती
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9>श्यामाचरण लाहिड़ी:----


श्यामाचरण लाहिड़ी (30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895) 18वीं शताब्दी के उच्च कोटि के साधक थे जिन्होंने सद्गृहस्थ के रूप में यौगिक पूर्णता प्राप्त कर ली थी। आपका जन्म बंगाल के नदिया जिले की प्राचीन राजधानी कृष्णनगर के निकट धरणी नामक ग्राम के एक संभ्रांत ब्राह्मण कुल में अनुमानत: 1825-26 ई. में हुआ था। आपका पठनपाठन काशी में हुआ। बंगला, संस्कृत के अतिरिक्त अपने अंग्रेजी भी पड़ी यद्यपि कोई परीक्षा नहीं पास की। जीविकोपार्जन के लिए छोटी उम्र में सरकारी नौकरी में लग गए। आप दानापुर में मिलिटरी एकाउंट्स आफिस में थे। कुछ समय के लिए सरकारी काम से अल्मोड़ा जिले के रानीखेत नामक स्थान पर भेज दिए गए। हिमालय की इस उपत्यका में गुरुप्राप्ति और दीक्षा हुई। आपके तीन प्रमुख शिष्य युक्तेश्वर गिरि, केशवानंद और प्रणवानंद ने गुरु के संबंध में प्रकाश डाला है। योगानंद परमहंस ने 'योगी की आत्मकथा' नामक जीवनवृत्त में गुरु को बाबा जी कहा है। दीक्षा के बाद भी इन्होंने कई वर्षों तक नौकरी की और इसी समय से गुरु के आज्ञानुसार लोगों को दीक्षा देने लगे थे।

सन्‌ 1880 में पेंशन लेकर आप काशी आ गए। इनकी गीता की आध्यात्मिक व्याख्या आज भी शीर्ष स्थान पर है। इन्होंने वेदांत, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की। इनकी प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। आपने अपने सहज आडंबररहित गार्हस्थ्य जीवन से यह प्रमाणित कर दिया था। धर्म के संबंध में बहुत कट्टरता के पक्षपाती न होने पर भी आप प्राचीन रीतिनीति और मर्यादा का पूर्णतया पालन करते थे। शास्त्रों में आपका अटूट विश्वास था।

जब आप रानीखेत में थे तो अवकाश के समय शून्य विजन में पर्यटन पर प्राकृतिक सौंदर्यनिरीक्षण करते। इसी भ्रमण में दूर से अपना नाम सुनकर द्रोणगिरि नामक पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ थोड़ी सी खुली जगह में अनेक गुफाएँ थीं। इसी एक गुफा के करार पर एक तेजस्वी युवक खड़े दीख पड़े। उन्होंने हिंदी में गुफा में विश्राम करने का संकेत किया। उन्होंने कहा 'मैंने ही तुम्हें बुलाया था'। इसके बाद पूर्वजन्मों का वृत्तांत बताते हुए शक्तिपात किया। बाबा जी से दीक्षा का जो प्रकार प्राप्त हुआ उसे क्रियायोग कहा गया है। क्रियायोग की विधि केवल दीक्षित साधकों को ही बताई जाती है। यह विधि पूर्णतया शास्त्रोक्त है और गीता उसकी कुंजी है। गीता में कर्म, ज्ञान, सांख्य इत्यादि सभी योग है और वह भी इतने सहज रूप में जिसमें जाति और धर्म के बंधन बाधक नहीं होते। आप हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी को बिना भेदभाव के दीक्षा देते थे। इसीलिए आपके भक्त सभी धर्मानुयायी हैं। उन्होंने अपने समय में व्याप्त कट्टर जातिवाद को कभी महत्व नहीं दिया। वह अन्य धर्मावलंबियों से यही कहते थे कि आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदर और अभ्यास करते हुए क्रियायोग द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। पात्रानुसार भक्ति, ज्ञान, कर्म और राजयोग के आधार पर व्यक्तित्व और प्रवृत्तियों के अनुसार साधना करने की प्रेरणा देते। उनके मत से शास्त्रों पर शंका अथवा विवाद न कर उनका तथ्य आत्मसात्‌ करना चाहिए। अपनी समस्याओं के हल करने का आत्मचिंतन से बढ़कर कोई मार्ग नहीं।

लाहिड़ी महाशय के प्रवचनों का पूर्ण संग्रह प्राप्य नहीं है किंतु गीता, उपनिषद्, संहिता इत्यादि की अनेक व्याख्याएँ बँगला में उपलब्ध हैं। भगवद्गीताभाष्य का हिंदी अनुवाद लाहिड़ी महाशय के शिष्य श्री भूपेंद्रनाथ सान्याल ने प्रस्तुत किया है। श्री लाहिड़ी की अधिकांश रचनाएँ बँगला में हैं।
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10>योगिराज श्यामा चरण लाहिरी महाशय - संक्षिप्त परिचय Part 1

पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट , मिलिटरी ईन्जीनीयरिंग वर्क्स का आफिस. स्थान - दानापुर.
आफिस के लाहिरी महाशय कुछ फाईलें लेकर बड़े साहब के कमरे के पास आकर कहा-``क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ, सर?``
भीतर से कोई जवाब नहीं आया तो लाहिरी महाशय ने धीरे से भीतर जाकर उनकी मेज पर फाईलें रख दी. साहब दार्शनिकों की तरह खिडकी के बाहर का दृश्य देख रहे थे.
आधे घंटे बाद पुनः कुछ फाईलें लेकर लाहिरी महाशय आये तो देखा- साहब पहले की तरह खोये खोये से हैं.
``सर``
साहब ने गौर से लाहिरी महाशय की ओर देखते हुए कहा-`` आज मन नहीं लग रहा है. आप फाईलें रख कर जा सकते हैं.``
लाहिरी महाशय ने नम्रतापूर्वक पूछा -``क्षमा करें सर. आखिर क्या बात है? मेरे योग्य कोई सेवा हो तो हुक्म कीजिए.``
साहब ने गहरी सांस लेते हुए कहा-``ईनग्लेंड से पत्र आया है मेरी पत्नी सख्त बीमार है. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ. ? वहां होता तो देखभाल करता.``
लाहिरी महाशय ने कहा-`` तभी सोच रहा हूँ कि क्या बात है जो साहब फाईल में हाथ नहीं लगा रहे हैं. मैं थोड़ी देर बाद आता हूँ.``
लाहिरी महाशय की बातें सुनकर साहब का उदास चेहरा मुस्कान में बदल गया. आफिस के सभी बाबू इस करानी बाबू को -पगला बाबू- कहते थे. हमेशा न जाने कहाँ खोये से रहते थे. बातें करते समय हमेशा मुस्कुराते रहते थे. आँखें ढापी ढापी सी रहती थीं. अपने में मस्त रहते थे.
थोड़ी देर बाद साहब के कमरे का दरवाजा खुला और लाहिरी महाशय भीतर आये. साहब ने कहा-``आज मैं कुछ भी नहीं करूँगा. आप कृपया मुझे तंग न करें. अब फाईलों का काम कल होगा.``
साहब की बातें सुनकर लाहिरी महाशय ने कहा-``सर, आप बिलकुल बेफिक्र रहिये. मेम साहब स्वस्थ हो गयीं हैं. वे आपको आज की तारीख में पत्र लिख रहीं हैं. अगली मेल से आपको पत्र मिल जाएगा. सिर्फ यही नहीं, टिकट मिलते ही वे अगले जहाज़ से भारत के लिए रवाना हो जायेंगी. ``
इधर लाहिरी महाशय अपनी बात कह रहे थे उधर साहब मुस्कुरा रहे थे. साहब ने कहा-`` आप तो इस तरह कह रहे हैं जैसे मेरी पत्नी से मिलकर आ रहे हों. पगला बाबू आपकी बातों से निःसंदेह मुझे सांत्वना मिली है. इसके लिए आपको धन्यवाद, अब आप अपनी टेबुल पर चले जाईये.``
लाहिरी महाशय मुस्कुरा कर अपने टेबुल पर चले गए. गोरे साहब ने बात पर ध्यान नहीं दिया.
एक महीने बाद साहब के चपरासी ने लाहिरी महाशय को कहा कि साहब ने याद किया है.
साहब इन्हें देखते ही बोले-`` पगला बाबू क्या आप ज्योतिष वगैराह जानते हैं.?? आप कमाल के आदमी हैं. आपकी बात सही निकली.``
श्यामाचरण जी अनजान बनते हुए बोले-``कौन सी बात सर जी``
साहब बड़ी प्रसन्नता से बोले-`` आपने मेरी पत्नी के बारे में जो कुछ कहा सब सच निकला. वो बिलकुल ठीक हो गयी है. और भारत के लिए रवाना हो चुकी हैं. मैं बहुत चिंता में था. मैडम को आने दो. उनकी मुलाक़ात आपसे करवाऊंगा. ``
इस घटना के २०-२५ दिन बाद एक दिन लाहिरी महाशय को फिर साहब ने बुलवा भेजा. साहब के कमरे में पहुँचते ही साहब बोले-``आओ पगला बाबू येही हैं मेरी मैडम और ये हैं.......``
``माई गाड``-कहने के साथ ही मेम साहिबा अपनी कुर्सी से उछल पड़ी जैसे करेंट लगा हो.
साहब ने चौंक कर पूछा-``क्या बात है?``
मेम साहब लाहिरी महाशय को देखते बोली-``आप कब आये?``
साहब ने कहा-``ये क्या कह रही हो, क्या मजाक है? पगला बाबू कब आये मतलब. ये तो यहीं काम करते हैं.``
लाहिरी महाशय मुकराते हुए बिना कुछ बोले बाहर निकल गए. उनके जाने के बाद मेम साहिबा बोलीं-`` बड़े आश्चर्य की बात है जैसे मैं यहाँ आकर जादू देख रही हूँ. घर में जब बीमार थी तब एक दिन यही आदमी मेरे सिरहाने खडा होकर सर पर हाथ फेरता रहा. मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि ये आदमी आखिर घर में घुस कैसे गया. लेकिन दुसरे ही क्षण इसने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर जब बैठाया तो मेरी सारी बीमारी दूर हो गयी. मुझे अजीब सा लगा. इसने कहा- बेटी तुम बिलकुल ठीक हो गयी हो. अब तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा. भारत में तुम्हारे पति बड़े बेचैन हैं. उन्हें अभी पत्र लिख कर पोस्ट कर दो. कल ही जहाज़ का टिकट बुक करा कर भारत चली जाओ, वरना साहब नौकरी छोड़ कर वापिस आ जायेंगे.- इतना कहकर आपके पगला बाबू गायब हो गए. और आज इस आदमी को यहाँ देख कर डर गयी हूँ.``
मेम साहिबा की बातें सुनकर साहब को भी कम आश्चर्य नहीं हुआ.
बंगाल में तीन संतों की चर्चा पिछले सौ सालों से होती आ रही है. सर्वश्री लोकनाथ ब्रह्मचारी, श्यामाचरण लाहिरी महाशय और श्री विशुद्धानंद सरस्वती (गंध बाबा). इन संतों के चमत्कारिक जीवन चरित्र की अनेक कहानियाँ अभी भी भक्त जन श्रद्धाभाव से सत्संग रूप में भगवत शक्ति के स्मरण के रूप में सुनते सुनाते हैं.
लाहिरी महाशय को संत समाज में योगियों का बाप कहा जाता है. उनके समान योगी कई सौ वर्षों में नहीं सुनने में आया. और इससे भी बड़ी बात थी कि वे गृहस्थ थे. इसलिए भी उनकी मान्यता बहुत अधिक है. किसी ने अगर योगानंद परमहंस द्वारा रचित जगत प्रसिद्द पुस्तक- योगिकथाम्रित पढी हो तो उसमें उनका सुन्दर वर्णन हैं. क्रियायोग सरल रूप में जनमानस के अध्यात्मिक लाभ का योगदान लाहिरी महाशय का ही है. आत्मसाक्षात्कार के रास्ते को बड़े सरल ढंग से शिष्य परम्परा के रूप में आगे दिया.
लाहिरी महाशय का जन्म नदिया जिले के घूर्णी गाँव में ३० सितम्बर सन १८२८ को हुआ था. आपके पिता गौरमोहन लाहिरी की प्रथम पत्नी से दो पुत्र और एक पुत्री हुयी थी. आपकी प्रथम पत्नी के निधन के बाद गौरमोहन ने दूसरा विवाह किया. द्वीतीय पत्नी के गर्भ से लाहिरी महाशय प्रथम पुत्र हुए. अपने पैत्रिक गाँव को छोड़ कर गौरमोहन लाहिरी काशी आ गए और बंगाली टोला स्थित एक भवन में सपरिवार रहने लगे.

बचपन से ही लाहिरी महाशय अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे. बँगला, अंग्रेजी, हिन्दी के अलावा फारसी भाषा की शिक्षा आप लेने लगे. यहाँ शिक्षा सम्पूर्ण कर संस्कृत कालेज में संस्कृत का अध्ययन करने लगे.

गौरमोहन के पड़ोसी देवनारायण सान्याल थे. अपनी मैत्री को सुद्रढ़ करने के लिए बेटे श्यामाचरण का विवाह देवनारायण की पुत्री काशीमणि देवी के साथ कर दिया. इस प्रकार लाहिरी महाशय के विवाह पश्चात दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ. सन १८५१ में ब्रिटिश सरकार के सैनिक ईन्जीनीयरिंग विभाग में अकाउनटेंट के पद पर आपकी नियुक्ती हुयी. शांतिप्रिय लाहिरी महाशय कई जगह बदली होने के बाद दानापुर पोस्ट पर लग गए.

इस बीच परिवार में संपत्ति को लेकर विवाद हुआ. लाहिरी महाशय सबकुछ अपने सौतेले भाई को सौंप कर गरुडेश्वर में एक मकान ले लिया. इस बीच उनकी पोस्टिंग दानापुर से रानीखेत हो गयी. अपने परिवार को काशी में छोड़कर अकेले ही लाहिरी महाशय रानीखेत पहुँच गए. अपने कार्य करने के बा लाहिरी महाशय कई मील दूर पैदल चल कर हिमालय के सौन्दर्य का निरीक्षण करने निकल पड़ते थे.

यहीं रानीखेत से उनके अनोखे चमत्कारिक यौगिक जीवन की शुरुआत हुयी. अब तक वे एक साधारण गृहस्थ की तरह रह रहे थे. पढ़ाई करके नौकरी पर लगे. पारिवारिक विवाद को देखा. शांतिप्रिय और मधुर व्यवहार के लाहिरी महाशय की संतानें हुयीं. अब रानीखेत से जिन्दगी के दुसरे ही अद्भुद चेप्टर का आरम्भ हुआ. ये एक बहुत ही अनोखी स्वप्न जैसी कहानी है. पर सत्य है. अहोभाग्य भारत भूमि का जो ऐसे महान आत्माएं इस भारत भूमि को पवित्र कर गयीं. सांस्कृतिक गरिमा को उस उच्च स्तर पर पहुंचा दिया कि सभी भारतवासी गर्व कर सकें.
एक दिन आप टहलते हुए द्रोणगिरी पर्वत पर चले गए. सहसा आपको लगा जैसे कोई आपका नाम लेकर पुकार रहा हो. पुकारने वाले ने एक या दो बार पुकारा होगा, पर पहाड़ों से टकराकर उसकी आवाज बार बार गूंजने लगी. आपको बड़ा आश्चर्य हुवा कि इस सुनसान स्थान पर मेरा परिचित कौन हो सकता है? आप पुकारने वाले व्यक्ती को चारों ओर दृष्टी दौड़ाकर खोजने लगे. थोड़ी देर बाद एक ऊँचे शिखर पर एक युवक दिखाई दिया जो हाथ के इशारे से पास आने का संकेत कर रहा था.
उसके पास जाने पर भी युवक को लाहिड़ी महाशय पहचान नहीं सके. उक्त अपरिचित युवक ने कहा-``मैंने ही तुम्हें पुकारा था. तुम मुझे नहीं पहचान पा रहे हो.``
लाहिड़ी महाशय ने नकारात्मक भाव से सर हिलाया कि, नहीं. उन्हें साथ लेकर वह युवक एक गुफा के पास गया और भीतर रखे कम्बल तथा कमंडल को दिखाते हुए कहा-`` क्या इन सामग्रियों को पहचान रहे हो.?``
``नहीं महाराज, मैं तो आपको भी नहीं पहचान पा रहा हूँ. इधर देख रहा हूँ कि आप मेरा नाम तक जानते हैं.?``
``मैं तुम्हें बहुत दिनों से जानता हूँ, एक विशेष कार्य के लिए तुम्हें दानापुर से यहाँ बुलवाया है. कुछ दिनों बाद तुम्हें यहाँ से वापिस चले जाना पड़ेगा.``
लाहिड़ी महाशय का विस्मय अभी दूर नहीं हुआ था. वे जड़भरत की तरह खड़े उस युवक को देख रहे थे. तभी उस युवक ने श्यामाचरण के ललाट को स्पर्श किया. उनके स्पर्श से ही लाहिड़ी महाशय का समस्त शरीर झनझना उठा. धीरे धीरे उनकी पूर्व जन्म की स्मृतियाँ जागृत हो गयी. उन्हें स्मरण हो आया कि पिछले जन्म में वे इसी गुफा में तपस्या करते थे. यह कमंडल उन्ही का है, इसी आसन पर बैठते थे. अब उनका चेहरा आनंद से खिल उठा. उन्होंने उक्त व्यक्ती को प्रणाम करते हुए कहा-``हाँ, अब पहचान गया. आप मेरे गुरुदेव हैं. यह गुफा मेरी साधना भूमि है. अज्ञान के लिए मुझे क्षमा कर दें.``
``मैं पिछले चालीस वर्षों से यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था. यहाँ से वापिस जाने के बाद से मैं सायें की तरह तुम्हारे पीछे लगा रहा. जन्म लेने के बाद से तुम पर मेरी दृष्टी रही. अब जाकर तुम मेरे पास आये हो. अब तुम्हारी शुद्धी होगी. इस पात्र से थोड़ा तेल पीकर नदी किनारे जाकर लेट जाओ.``
गुरुदेव की आज्ञानुसार लाहिड़ी महाशय तेल पीकर नदी किनारे जाकर वहीँ लेट गए. पहाड़ की ठंडी हवा बदन से टकराने लगी. वेगवती नदी की प्रखर ध्वनि को परास्त करती हुयी कभी कभी वन्य पशुओं की दहाड़ सुनाई देती रही. धीरे धीरे लाहिड़ी महाशय ने अनुभव किया कि उनके शरीर की उष्मा बढ़ रही है.
कुछ देर तक इस स्थिति में पड़े रही. सहसा किसी की पगध्वनि सुनाई पड़ी. एक ब्रह्मचारी ने पास आकर कुछ सूती वस्त्र देते हुए कहा-``आप इन्हें पहन लीजिये और मेरे साथ चलिए. गुरुदेव आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. ``
उस ब्रह्मचारी के साथ काफी दूर आगे जाने पर लाहिड़ी महाशय ने एक अद्भुद दृश्य देखा. विस्मय से उन्होंने पूछा-``क्या सूर्योदय हो रहा है.?``
साथी शिष्य ने मुस्करा कर कहा-``नहीं, अभी तो अर्ध रात्री है, आप जिस प्रकाश को देख रहे हैं, वह स्वर्ण महल है.इसकी सृष्टि आज एक विशेष कारण से गुरुदेव ने की है. आज इसी महल में आपकी दीक्षा होगी ताकि आपके पिछले सभी कर्म बंधन समाप्त हो जाएँ.``
धड़कते हुए ह्रदय से लाहिड़ी महाशय उस अपूर्व महल के पास आकर खड़े हो गए. चकित दृष्टि से उन्होंने देखा- चारों ओर पृथ्वी से प्राप्त विभिन्न रत्नों से महल का श्रृंगार किया गया था. जड़े हुए रत्नों की आभा से जो प्रकाश निकल रहा था उसी से उन्होंने सूर्योदय होने का अनुमान लगाया था. दरवाजे के पास कई गुरुभाई खड़े थे. हवा में तैरती अपूर्व सुगंध मन को उत्फुल्ल कर रही थी.
महल के भीतर आने पर लाहिड़ी महाशय ने देखा- भीतर अनेक संत विराजमान हैं. इन संतों के आसपास स्थित दीपकों से रंग बिरंगे प्रकाश निकल रहे हैं. वहीँ कुछ विद्यार्थी मन्त्र पाठ कर रहे हैं. समस्त दृश्य जादू जैसा लगने लगा. अपने जीवन में इस प्रकार का दृश्य देखने को मिलेगा, इसकी परिकल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी.
कुछ दूर आगे बढ़ने पर गुरुदेव के दर्शन हुए. तुरंत उनके चरणों पर सर रखकर लाहिड़ी महाशय ने प्रणाम किया.
गुरुदेव ने कहा-``जागो वत्स, आज तुम्हारी सारी भौतिक इच्छाएं सर्वदा के लिए शांत हो जायेंगी. ईश्वरीय राज्य की प्राप्ति के लिए क्रिया योग की दीक्षा ग्रहण करो. ``
सामने स्थित होमकुंड के आगे गुरुदेव ने ज्योंही हाथ फैलाया त्योहीं उसके चारों ओर फूलों के ढेर लग गए. प्रज्वलित कुंड के सामने गुरुदेव ने लाहिड़ी महाशय को क्रिया योग दीक्षा दी. दीक्षा लेने के बाद लाहिड़ी महाशय ने एक बार महल को जी भर के देखा. इसके बाद गुरुदेव के समीप आकर बैठ गए.
लाहिड़ी महाशय ने अपनी आँखें बंद कर ली. कुछ देर बाद गुरुदेव के आदेश पर अपनी आँखें खोली. उस वक्त वहां न सोने का महल था और न वे संत थे जिन्हें आते समय लाहिड़ी महाशय ने देखा था. इस समय वे चिर परिचित गुफा के सामने शिष्यों से घिरे हुए अपने गुरुदेव के सामने बैठे हुए थे.
यह दृश्य लाहिड़ी महाशय के लिए अद्भुद विस्मयकारी था. अभी इसी विषय पर कुछ सोच रहे थे कि तभी गुरुदेव ने उन्हें भोजन करने की आज्ञा दी. इसके बाद उन्होंने कहा-``श्यामाचरण, अब तुम अपनी गुफा में जाकर ध्यानस्थ हो जाओ.``
गुरुदेव के आदेशानुसार लाहिड़ी महाशय गुफा के भीतर जाकर कम्बल पर बैठ गए. गुरुदेव ने उनके मस्तक पर हाथ फेरा और वे समाधिस्थ हो गए. इसी प्रकार ये क्रिया कई दिनों तक चलती रही.
आठवें दिन गुरुदेव ने कहा-``वत्स, अब मेरा कार्य पूरा हो गया है. शीघ्र ही तुम्हें यहाँ से जाना पडेगा. मैंने तुम्हारे हेड आफिस को प्रेरणा देकर इसी कार्य के लिए बुलाया था. अब उन्हें अपनी भूल मालूम हो गयी है अतेव वे लोग शीघ्र तुम्हें अपने यहाँ वापिस बुला लेंगे.``
इस बात को सुनकर लाहिड़ी महाशय व्याकुल हो उठे. उन्होंने कहा-``गुरुदेव, अब मुझे वापिस मत भेजिए. अपने चरणों की सेवा का अवसर दीजिये. मैं आपके सानिध्य में रहना चाहता हूँ. ``
गुरुदेव ने कहा-``नहीं वत्स, तुम्हें वापिस जाना ही होगा. संन्यासी के वेश में नहीं, बल्कि गृहस्थ के रूप में रहते हुए जन कल्याण का कार्य करना होगा. आगे चल कर अनेक लोग तुमसे दीक्षा ग्रहण करेंगे. तुम्हें देखकर लोग यह जान सकेंगे कि उच्चस्तर की साधना से गृहस्थ भी लाभ उठा सकते हैं. तुम्हें गृहस्थी से अलग होने की आवश्यकता नहीं है. तुम उस बंधन से मुक्त हो गए हो. यह याद रखना कि योग्य व्यक्ति को ही दीक्षा देना. ईश्वर प्राप्ति के लिए जो सर्वस्व त्याग कर सकता है, वही इस मार्ग के योग्य है. ``
यहाँ इस बात का उल्लेख कर दूं कि लाहिड़ी महाशय के मन में सोने के महल को देखने और रहने की इच्छा थी. इसी मन की इच्छा के निर्मूलन के हेतु उनके गुरुदेव- बाबाजी महाराज (क्रिया योगियों के मध्य वे इसी नाम से जाने जाते हैं.), ने स्वर्ण महल का योगशक्ति से निर्माण किया था. महल में ही दीक्षा देने का कारण भी यही था.
इस घटना के बाद लाहिड़ी महाशय में अभूओत्पूर्व परिवर्तन हो गया. वे पुनः इस स्वर्ग को छोड़कर कर्मक्षेत्र में जाना नहीं चाहते थे. मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि गुरुदेव हमेशा के लिए अपने पास रख लें. लाहिड़ी महाशय के मनोभाव को समझने के बाद गुरुदेव ने कहा-``इस जन्म में तुम अनेक जन्मों की साधना से धन्य हो चुके हो. मैंने तुम्हें यहाँ तब तक नहीं बुलाया जब तक तुम विवाहित नहीं हो गए. अब तुम्हें एक आदर्श गृहस्थ के रूप में आगे का जीवन व्यतीत करना होगा. अगणित लोग तुमसे क्रिया योग की दीक्षा लेकर अध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करेंगे. परम सत्ता का साक्षात्कार करेंगे. साथ ही गीता के एक श्लोक को दीक्षा के वक्त सुनाने का भी निर्देश दिया-
नेहाभिक्रमनोशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते.
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात.
आगे गुरुदेव ने फिर कहा-``केवल योग्य शिष्यों को क्रिया योग की दीक्षा देना जो ईश्वर प्राप्ति के लिए अपना सर्वस त्याग करने का संकल्प ले सकतें हैं. ऐसे ही लोग इस क्रिया के पात्र होते हैं.``
दुसरे दिन गुरुदेव से बिछुड़ते समय लाहिड़ी महाशय रोने लगे. यह देखकर गुरुदेव ने उन्हें कंठ से लगाया. और सांत्वना देते हुए बोले-``तुम मुझसे बिछुड़ नहीं रहे हो. मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगा. जब जहां स्मरण करोगे तब वहीँ उपस्थित हो जाऊँगा. मेरे लिए व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है. ``
वहां से जब वे अपने कार्यालय में वापिस आये तो उनके सहयोगियों को अपार प्रसन्नता हुई. पिछले दस दिनों से लाहिड़ी महाशय गायब रहे थे. लोग यह समझ चुके थे कि वे किसी वन्य पशु का शिकार हो गए हैं अथवा किसी दुर्घटना के कारण उनका निधन हो गया है. सहकर्मियों के बार बार प्रश्न करने पर भी लाहिड़ी महाशय ने अपने अज्ञातवास के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया.
उन लोगों की उत्सुकता समाप्त करने के लिए केवल इतना बोले- ``मैं जंगल में भटककर दूर चला गया था. नयी जगह होने के कारण मुझे वापिस आने में इतना समय लग गया.``
कई दिनों बाद प्रधान कार्यालय से आदेश आया कि आफिस की गलती से लाहिड़ी महाशय का तबादला रानीखेत कर दिया गया था. उन्हें अविलम्ब यहाँ भेज दिया जाय. वहां का कार्य देखने के लिए जिनकी नियुक्ति की गयी थी, उन्हें शीघ्र भेजा जाएगा.
रानीखेत से वापिस आते समय लाहिड़ी महाशय कुछ मित्रों के अनुरोध पर मुरादाबाद में रुक गए. एक दिन न जाने किस बात पर एक सज्जन ने कहा-``आजकल वास्तविक संत हैं कहाँ? सभी `क्षेत्रे भोजन मठे निद्रा`वाले हैं. इन लोगों का राजशाही ठाटबाट देखकर ईर्ष्या होती है. बड़े बड़े मठ बनवा कर, आम जनता को उपदेश देकर मूर्ख बनाते हैं. असली संत कभी इन ऐश्वर्यों को स्पर्श भी नहीं करते``
इस बैठक में लाहिड़ी महाशय भि मौजूद थे. उन्होंने कहा-``आपका ख्याल गलत है. भारत में अभी भी उच्च कोटि के संत हैं. हम उनको पहचान नहीं पाते हैं. वे घरों से दूर रहकर अपनी साधना में निमग्न रहते हैं. मेरे गुरुदेव ऐसे ही महान संत हैं. जिनकी कृपा से मुझे नया जीवन मिला है.``
इतना कहकर लाहिड़ी महाशय अपने परम पूज्य गुरुदेव से मिलने की अनोखी कहानी सुनाने लगे.
उनकी बातों पर किसी ने विश्वास नहीं किया. गुरुदेव की कृपा तथा पूर्व जन्म के संस्कार के कारण लाहिड़ी महाशय योगारूढ़ तो हो गए पर साधारण मनुष्यों की तरह अपने गर्व का शमन अभी नहीं कर पाए थे.
अपना मजाक उड़ता देखकर लाहिड़ी महाशय ने उत्तेजनावश कहा-``आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा है? अगर मैं चाहूँ तो अभी इसी क्षण, यहीं, अपने गुरुदेव को बुला सकता हूँ.``
अब लोगों ने विश्वास करना भी क्यों था. अचानक लाहिड़ी महाशय इस अपमान से अत्यंत क्षुब्ध हो उठे. वे यह भूल गए कि ऐसे ही किसी के सामने पराशक्ति व पराइच्छा का उपयोग नहीं करना चाहिए जो इसके योग्य नहीं हैं.
लाहिड़ी महाशय एक दुसरे कमरे में चले गए और अन्दर न आने का निर्देश देकर ध्यानस्थ हो गए. कुछ ही देर में कमरे में प्रकाश हुआ और गुरुदेव प्रकट हुए. उनकी दृष्टि कठोर थी. उन्होंने गंभीर स्वर में कहा-``श्यामाचरण, तुमने इन पापिष्ठ अकर्मण्य मित्रों के कारण मुझे बुलाया? अब मैं जा रहा हूँ, अब ऐसे तुच्छ कारणों पर मैं कभी नहीं आऊंगा.``
गुरुदेव के इस कथन से लाहिड़ी महाशय का मन काँप उठा. तुरंत जमीन पर माथा टेकते हुए कहा-``अपराध के लिए क्षमा कर दें गुरुदेव. उत्तेजनावश मैं बाल हठ कर बैठा. अविश्वासी मन वाले इन अंधों को बताना चाहता था कि भारत में अभी भी उच्चस्तर के योगी हैं. अब आप आ ही गायें हैं तो इन अविश्वासियों को दर्शन देकर इनके भ्रम को दूर करने की कृपा करें. ``
गुरुदेव ने अभय वाणी देते हुए कहा-``ठीक है. भविष्य में कभी विनोद के निमित्त मेरा स्मरण मत करना. जब वास्तव में तुम्हें आवश्यकता होगी तब ही आऊंगा. ``
इस आश्वासन को पाते ही लाहिड़ी महाशय ने कमरे का दरवाजा खोल दिया. लोग चकित दृष्टि से उनके गुरुदेव को देखने लगे.
फिर भी एक अविश्वासी बोल उठा-``यह तो सामूहिक सम्मोहन है. वास्तविक नहीं है. ``
गुरुदेव मुस्कुराए आगे बढ़ कर सभी को स्पर्श किया और प्रसाद के रूप में हलुवा दिया. ज्यों ही लोगों ने हलुवा मुह में डाला त्यों ही वह प्रकाश लुप्त हो गया. इन दर्शनार्थियों में से एक ने आगे चलकर लाहिड़ी महाशय से दीक्षा प्राप्त की.
अब आप अनुमान लगा लीजिये की स्वयं बाबाजी महाराज प्रकट हुए. दर्शन दिए. तब भी लोगों को विश्वास नहीं हुआ. कभी कभी तो लगता है कि इंसान अविश्वास पर ही विश्वास करना चाहता है. :)))
रानीखेत से वापिस आकर वे अपने कार्यालय में पूर्व की भांति कार्य करने लगे. गुरु द्वारा बतायी गयी क्रियायों की साधना भी चलती रही. इस प्रकार लाहिड़ी महाशय ने सन १८८० तक सरकार की सेवा में रहने के बाद अवकाश ग्रहण किया था.
अवकाश लेने के बाद लाहिड़ी महाशय की कठिनाईयां बढ़ गयी. पेंशन के रुपयों से गृहस्थी न चलती देखकर वे काशी नरेश महाराज ईश्वरीयनारायण सिंह के सुपुत्र प्रभुनारायण सिंह को शास्त्रादी पढ़ाने के लिए कुछ दिनों तक तीस रुपये मासिक वेतन पर गृह शिक्षक का कार्य करते रहे. राजा की ओर से नित्य उन्हें लेने नाव आती थी और फिर रामनगर किले से घर तक पहुंचा जाती थी.
लाहिड़ी महाशय की प्रतिभा से काशी नरेश के उच्च पदाधिकारी श्री गिरीश चन्द्र परिचित थे. बचपन में दोनों ने जयनारायण कालेज में पढाई की थी. एक दिन उन्होंने महाराज से कहा-``महाराज जी, कृपया अपने गृह शिक्षक का विशेष रूप से ध्यान रखें. उनका असम्मान किसी से न होने पाए. लाहिड़ी महाशय सामान्य अध्यापक नहीं हैं. आप एक महान योगी हैं. इस बात को हर कोई जान न ले. इसलिए अपने को छिपाए रखते हैं. मैं इनकी योग विभूतियों को देख और सुन चुका हूँ. ``
महाराज ने कहा-``मेरा भी ऐसा ही विचार है. इनके ज्ञान और अध्ययन को देखकर में यह समझ गया था. आप स्वयं ही इनका विशेष रूप से ख्याल रखें ताकि इन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो.``
आगे चलकर ईश्वरीयनारायण सिंह लाहिड़ी महाशय से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने और उनके पुत्र ने भी श्यामाचरण लाहिड़ी को गुरु रूप में स्वीकार किया.
कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी लाहिड़ी महाशय जात पात के अहम् को नहीं मानते थे. उनकी दृष्टि में सभी सम थे. इलाहाबाद में होने वाले कुम्भ के मेले में गए थे. वहाँ एक घटना को देखकर वे समदर्शी हो गए थे. कहा जाता है की लाहिड़ी महाशय मेले में घूम रहे थे. अचानक उनकी दृष्टि एक ऐसे जटाजूट धारी महात्मा पर पड़ी जिनके सामने वीर आसन में बैठकर उनके गुरुदेव श्रद्धा पूर्वक पैर धो रहे थे.
यह दृश्य देखकर लाहिड़ी महाशय ने पूछा-``गुरुदेव, आप..और इनकी सेवा में.?``
लाहिड़ी महाशय की ओर बिना देखे बाबाजी महाराज बोले- ``इस समय में इन महात्मा के चरण धो रहा हूँ. इसके बाद इनके बर्तनों को साफ़ करूँगा.``
लाहिड़ी महाशय को समझते देर नहीं लगी कि इस उदाहरण को प्रस्तुत करते हुए गुरुदेव मुझे शिक्षा दे रहे हैं. भविष्य में उंच नीच का भेद न करूँ. प्रत्येक मानव में ईश्वर का निवास होता है, इसे मान कर चलूँ.
गुरुदेव ने उस दिन कहा था-``मैं ग्यानी अज्ञानी साधुओं की सेवा कर नम्रता सीख रहा हूँ.``
इस घटना के बाद से ही लाहिड़ी महाशय के स्वभाव में परिवर्तन हो गया. भेद भाव पूर्ण रूप से समाप्त हो गया.
योगीराज का भवन श्रद्धालुओं के लिए तीर्थस्थल था. हर वर्ग के लोग वहां उनके श्रीमुख से गीता की व्याख्या सुनने के लिए आते थे. इन भक्तों में राम प्रसाद जायसवाल भी थे. कलवार होने के कारन लोग उन्हें अछूत समझते थे. योगीराज के यहाँ आने वाले ब्राह्मणों को ये पसंद नहीं था कि एक कलवार उनके निकट बैठे. एक दिन एक पंडित ने घृणा के साथ कहा-``तुम्हें शर्म नहीं आती? कलवार होकर तुम किनारे बैठना दूर रहा, हमारे सर पर चढ़ जाते हो. चलो, हटो, किनारे बैठो.``
योगिराज ने इस कटु वचन को सुना. कुछ देर बाद वे आसन से उठ कर खड़े हो गए और राम प्रसाद की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोले-``राम प्रसाद, तुम मेरे इस आसन पर आकर बैठो.``
इतना कहकर लाहिड़ी महाशय दूसरी ओर बैठ गए. राम प्रसाद मन ही मन कुंठाग्रस्त हो गए. एक तो पंडित की फटकार और अब योगिराज यह मजाक कर रहे हैं. शायद मुझसे ही गलती हो गयी, इस उधेड़बुन में पड़ गए. रामप्रसाद को उहापोह करते देख कर योगिराज ने कहा-``मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ. आओ यहाँ बैठो.``
राम प्रसाद भय से सिहर उठा. योगिराज के सामने हाथ जोड़कर उसने कहा-``महाराज, ऎसी आज्ञा मत दीजिये. मुझसे ये अपराध नहीं होगा.``
राम प्रसाद को फटकारने वाले सज्जन काशिमपुर के जमींदार राय बहादुर गिरीश प्रसन्न थे. उन्हें तुरंत अपनी गलती मालूम हुयी. उन्होंने पहले योगिराज से और तब रामप्रसाद से क्षमा मांगी. इसके बाद अपनी बगल में बैठाया.
महापुरुष लोग कभी भेदभाव नहीं करते. सामान्य जन भेदभाव के आधार पर जीवन यापन करता है. कुछ सीखना चाहिए. मन के भेद को मिटाने की साधना ही सबसे बड़ी साधना है.
स्वामी युक्तेश्वर और राम घनिष्ठ मित्र ही नहीं, बल्कि गुरुभाई थे. योगिराज के दोनों प्रिय शिष्य थे. एक बार राम हैजे से पीडित हुआ. सारी दवादारू के बाद भी वो ठीक नहीं हुआ. हालत बद से बदतर हो गयी.
व्याकुल होकर युक्तेश्वर लाहिड़ी महाशय के पास आये. लाहिड़ी महाशय बोले-``डाक्टर जब उसकी चिकित्सा कर रहा है. तो ठीक हो जाएगा. चिंता मत कर और उसकी देखभाल करो. ``
इस आश्वासन के बाद युक्तेश्वर चुपचाप आकर सेवा करने लगे. डाक्टर ने अंत में कहा-``अब राम को मैं बचा नहीं सकता. ये दो घंटे का मेहमान है. ``
इस बात को सुनते ही युक्तेश्वर फिर दौड़े लाहिड़ी महाशय के पास. वे बोले-`` नहीं युक्तेश्वर वो ठीक हो जाएगा. ``
वापिस आकर युक्तेश्वर ने देखा, राम की हालत और खराब है और डाक्टर का पता नहीं. एकाएक राम झटके से उठा और बोला-``युक्तेश्वर मैं जा रहा हूँ, गुरुदेव से कहना कि मेरे शरीर को आशीर्वाद अवश्य दें.``
इतना कहकर राम धडाम से बिस्तर पर गिर गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए. युक्तेश्वर फफक फफक कर रोने लगा. काफी देर बाद जब एक अन्य शिष्य और आया तो शव के पास उसे बैठकर वे समाचार देने लाहिड़ी महाशय के पास चले गए.
सुनते ही लाहिड़ी महाशय समाधि में लीं हो गए. तीसरे प्रहर का समय था. शाम गुजरी, रात बीती, पर गुरुदेव की समाधि भंग नहीं हुयी. भोर समय में उनकी आँखें खुली.
उन्होंने कहा-``सामने पड़े दीपक से थोडा सा तेल शीशी में भर लो. इसे ले जाकर राम के मुह में एक एक करके सात बूँद डाल दो. ``
``गुरूजी राम तो कल ही मर चुका है. अब इस तेल से क्या होगा.?``
``मैं जो कह रहा हूँ वही करो. चिंता की बात नहीं है.``
लाचारी में युक्तेश्वर तेल लेकर गए. यहाँ आने के बाद उन्होंने देखा- राम का शरीर सख्त हो गया है. मित्र की सहायता से बड़ी मुश्किल से मुह खोलकर एक एक करके सात बूँद तेल डाल दी. सातवी बूँद डालते ही राम के शरीर में कम्पन शुरू हो गया. धीरे धीरे उठकर वो बैठ गया.
राम ने कहा-``मैंने एक प्रकाश के भीतर गुरुदेव को देखा. उन्होंने कहा कि राम अब निद्रा त्यागकर अब उठ बैठो. युक्तेश्वर के साथ अविलम्ब मेरे पास आओ.``
तुरंत तीनो शिष्य गुरुदेव के पास आये. इन्हें आया देखकर गुरुदेव प्रसन्न हो गए. उन्होंने कहा-``युक्तेश्वर, मैंने तुमसे दो बार कहा था कि चिंता की बात नहीं है, राम अच्छा हो जाएगा. लेकिन तुमको मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ. मैं डाक्टरी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था. अब आगे से अपने पास रेडी का तेल रखोगे, किसी के मृत व्यक्ति के मुह में डालोगे तो वह यम की शक्ति को बेकार कर देगा . ``
गुरुदेव के परिहास युक्त वचन सुनकर प्रेमसहित तीनों ने गुरुदेव के चरण स्पर्श किये.
यहाँ बता दूं कि युक्तेश्वर स्वामी योगानंद के गुरु हुए जिनकी विश्व प्रसिद्द पुस्तक- योगी कथामृत है. किसी को मौक़ा लगे तो पढ़ ले. बहुत अच्छी पुस्तक है मैंने दसवी क्लास में पढ़ी थी. :))

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11>योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय part 2

एक सिद्ध योगी की पहचान यही है कि उनके चेले या शिष्य किस स्तर के हैं. भारत वर्ष की शक्ति या योग परम्परा में ये एक विशेषता है. शक्ति का प्रवाह है. गुरु शिष्य की परम्परा है. लाहिड़ी महाशय के भी अनगिनत शिष्य हुए जो कि योगैश्वर्य से युक्त थे. ये बात सही है कि शिर्डी वाले साईं बाबा या रमण महर्षि के शिष्यों का उल्लेख कम मिलता है या बिलकुल नहीं मिलता. अच्छा, भक्त में और शिष्य में अंतर होता है. ये बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए. भक्त वो जो साफ़ मन से साधू के निकट आये और शिष्य वो जो साधू के मार्ग पर चलने आये और साधू को गुरुरूप में ग्रहण करके परमात्म सिद्धि की तरफ चले. शिष्य बनाना कोई आसान नहीं, गुरु मिलना और भी कठिन है. जीवन का कठिन व्रत है. अस्तु लाहिड़ी महाशय के जीवन के विषय में और जानने के लिए आगे बढ़ते हैं.

योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय अपने पूज्य गुरुदेव को <बाबाजी> कहा करते थे. वे इस युग के सिद्ध पुरुष हैं. स्वामी विशुद्धानंद परमहंस के गुरु महातपा जी जिस प्रकार अलक्ष्य मठ <ज्ञानगंज> में रहते हैं उसी प्रकार से लाहिड़ी महाशय के गुरुदेव बद्रीनारायण के आगे अलक्ष्य रूप से विराजमान हैं. कुछ बातें मैं पाठकों से शेयर नहीं कर सकता पर एक दम अद्भुद प्रकरण मेरी दृष्टि में भी है. उनके प्रशिष्य परमहंस योगानंद ने उनके बारे में लिखा है-``बाबाजी के बारे में ऎसी कोई जानकारी प्राप्त नहीं है जो इतिहासकारों को बहुत प्रिय होती है. उन्होंने अपने लिए <बाबाजी> का सीधासाधा नाम ग्रहण किया है. लाहिड़ी महाशय के शिष्य उन्हें श्रद्धा के साथ महामुनि बाबाजी, महाराज, महायोगी, त्रयम्बक बाबा, और शिव बाबा जैसे सम्मानजनक विशेषणों से संबोधित करतें हैं.
इस अमर महागुरु के शरीर पर आयु का कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता. वे अधिक से अधिक पच्चीस वर्ष के युवक दिखाई पड़ते हैं. गहुआ रंग, मध्यमा कृतिवाले बाबाजी का शरीर सुंदर और बलिष्ट देह है, नेत्र काले, शांत और दयार्द्र हैं, उनके लम्बे चमकीले केश ताम्रवर्ण के हैं.

लाहिड़ी महाशय के शिष्य केवलानंद ने एक घटना का जिक्र स्वामी योगानंद से किया था जिसके वे प्रत्यक्षदर्शी थे.
एक रात कुछ शिष्य एक अग्नीइकुन्द के पास बैठे थे. कुंद से जलती हुयी एक लकड़ी उठाकर बाबाजी ने पास बैठे एक शिष्य पर प्रहार किया.
शिष्य चीख उठा. यह देखकर केवलानंद ने कहा-``गुरूजी ये तो निष्ठुरता है.``
बाबाजी ने कहा-``पिछले कर्मफल की आग में यह तुम्हारे सामने भस्म हो जाए, क्या यह उचित होगा?``
इतना कहने के बाद उन्होंने शिष्य के जले हुए स्थान पर हाथ रखा. जब उन्होंने वहां से हाथ हटाया तब देखा गया कि वहां घाव के निशान नहीं थे.

इसी प्रकार एक दिन एक व्यक्ति आया और बाबाजी से कहा-``गुरुदेव आपकी तलाश में इन पहाड़ियों पर मैं महीनों से परेशान था. आज आपके पास एक प्रार्थना लेकर आया हूँ. आप मुझे शिष्य रूप में ग्रहण करें.``
बाबाजी ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया. यह देखकर वह व्यक्ति उतावला हो उठा. उसने कहा-``अगर आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं इस पहाड़ से कूदकर अपनी जान दे दूंगा.``
बाबाजी ने कहा-``कूद पड़ो मैं विकास कि इस अवस्था में तुम्हें ग्रहण नहीं कर सकता.``
बाबाजी की बात सुनते ही उसने छलांग लगा दी और नीचे कूद पड़ा. वस्तुतः यह आज्ञा पालन की कठिन परीक्षा थी. वह अपनी परीक्षा में सफल रहा. बाद में बाबाजी ने अपने शिष्यों से कहा कि उसके शव को उठा लाओ.
कई एक नीचे से शव को उठा लाये. बाबाजी ने उसके सर पर हाथ रखा. सभी लोगों ने चकित दृष्टि से देखा कि वह व्यक्ति जीवित हो गया है और उसने गुरुदेव को प्रणाम किया. केवलानंद के बताये अनुसार उस वक्त वहां लाहिड़ी महाशय भी उपस्थित थे.
मेरा व्यक्तिगत मत मैं जोड़ दूँ. कोई छलांग न लगाये. ये साधारण जगत की घटना नहीं है. मैं स्वयं चाहे कुछ हो जाए छलांग नहीं लगाने वाला. :))
बाबाजी ने प्रसन्न होकर कहा-``तुम कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हो. अब तुम शिष्य बनने के अधिकारी हो. मृत्यु तुम्हे अब स्पर्श नहीं करेगी.

लाहिड़ी महाशय अपने महान गुरु के बारे में कहा करते थे कि वे अवतारी पुरुष हैं. बाबाजी ईसा मसीह के साथ संपर्क बनाए रखते हैं. जब कोई व्यक्ति श्रद्धा के साथ बाबाजी महाराज का नाम उच्चारण करता है तब तत्क्षण उस पर आध्यात्मिक आशीर्वाद की वर्षा होती है.
यहाँ तक कि लाहिड़ी महाशय के शिष्यों ने बाबाजी को स्थूल शरीर में देखा है. लाहिड़ी महाशय के प्रिय शिष्य युक्तेश्वर ने एक बार नहीं, कई बार देखा है.
ईश्वर की प्रेरणा से युक्तेश्वर जी प्रयाग के कुम्भ मेले में स्नान करने के लिए गए थे. चारों और साधू संतों की अपार भीड़ थी. अधिकाँश साधुओं को मेले में खप्पर लिए भीख मांगते देखकर युक्तेश्वर के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यहाँ तो भीख मांगने वाले संत अधिक हैं. परमार्थ की तलाश करने वाला कोई नहीं. क्या कुम्भ मेला भिखारियों का है.?
तभी उनके पास एक अपरिचित व्यक्ति ने आकर कहा -`` महाराज, आपको एक संत बुला रहे हैं. कृप्या मेरे साथ चलिए.``
युक्तेश्वर जी को आश्चर्य हुआ कि इस अनजाने शहर में उनका कौन परिचित निकला.? उन्होंने आगंतुक से पूछा -``कौन हैं वे.?``
आगंतुक ने कहा-``सामने वृक्ष के नीचे विराजमान हैं.``
कुतुहल्वश युक्तेश्वर जी वहां आये तो देखा कि एक संत कुछ लोगों से घिरे बैठे हैं. युक्तेश्वर जी को देखते हुए वे उठकर खड़े हुए और उन्हें अपने आलिंगन में बाँध लिया. युक्तेश्वर को लगा जैसे कोई अपूर्व शक्ति उनके शरीर को स्पर्श कर रही है. स्वर्गीय आनंद से उनका मन तृप्त हो उठा.
संत ने कहा-``यहाँ बैठिये स्वामीजी. ``
युक्तेश्वर ने कहा-``मैं स्वामी नहीं हूँ.``
उस समय तक युक्तेश्वर ने संन्यास ग्रहण नहीं किया था. केवल लाहिड़ी महाशय से क्रिया योग की शिक्षा प्राप्त की थी.
संत ने कहा-``मैं जिस व्यक्ति को स्वामी की उपाधि देता हूँ, उसे वह ग्रहण कर लेता है, आप यहाँ विराजमान होईये.``
युक्तेश्वर जी के बैठने के बाद असंत समागत लोगो के सामने गीता की व्याख्या करते हुए अचानक से पूछ बैठे-``आप तो गीता पर टीका लिख रहे हैं न?``
युक्तेश्वर जी को इस बात पर आश्चर्य हुआ क्योंकि एक अरसे से वे गीता जी पर भाष्य लिख रहे थे पर अब तक किसी से इस विषय में चर्चा नहीं की थी. आखिर इन्हें कैसे मालूम पड़ गया.? तभी संत ने कहा-``आप काशी के श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय को जानते होंगे. उन्हें मेरा एक सन्देश जाकर दीजियेगा. कहियेगा-<<अब समय कम रह गया है. शक्ति समाप्त हो रही है.>>
युक्तेश्वर जी चकित दृष्टि से संत की ओर देखते रहे. चलते समय संत ने कहा-``मैं आपसे पुनः मिलूंगा. आप यथाशीघ्र पुस्तक लिखिए.``

प्रयाग से काशी आकर युक्तेश्वर जी ने अपनी यात्रा का विवरण लाहिड़ी महाशय को दिया. संत से मुलाक़ात की चर्चा करते ही लाहिड़ी महाशय प्रसन्नता से गदगद हो गए.
उन्होंने कहा-``युक्तेश्वर, तुम बड़े भाग्यवान पुरुष हो. तुमने मेरे गुरुदेव के दर्शन कर लिए.``
अपने गुरु की बातें सुनकर युक्तेश्वर हक्का बक्का रह गए. उन्हें स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि इस प्रकार वे उस महान गुरु से मिलेंगे जिनके दर्शन के लिए न जाने कितने साधक तरसते हैं. इस वक़्त युक्तेश्वर जी अपने को धिक्कारने लगे कि क्यों नहीं उन चरणों पर मैंने अपना माथा टेका.
युक्तेश्वर जी की व्याकुलता देखकर लाहिड़ी महाशय ने कहा-``व्याकुल होने की आवश्यकता नही है. जब गुरुदेव ने पुनः दर्शन देने का वचन दिया है. तब वे अवश्य तुम्हें दर्शन देंगे. तुम अपना लेखन कार्य पूरा कर डालो.``
युक्तेश्वर जी ने अपना आश्रम बंगाल के श्रीरामपुर कसबे में बनाया था. लेखन कार्य समाप्त हो गया था. एक दिन वे गंगा स्नान करने के बाद वापिस आ रहे थे तो मार्ग में एक वृक्ष के नीचे कई लोगो के साथ परम गुरु को बैठे देखा. इस बार उनसे भूल नहीं हुयी. तुरंत साष्टांग प्रणाम करते हुए निवेदन किया-``जब आप यहाँ तक आ गए हैं. तब एक बार मेरी कुटिया में चरण रज देखर उसे पवित्र बनाने कि कृपा करें.
बाबाजी ने इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया. यह देखकर युक्तेश्वर जी ने कहा -``तब आप यहाँ कुछ देर कृपा करके ठहर जाईये. मैं अपने दादा गुरु को भोग देने का पुण्य प्राप्त कर लूँ.``
यह कहकर युक्तेश्वर तुरंत तेज़ी से मिष्ठान्न खरीदने चले गए. वापिस आकर उन्होंने देखा कि गुरुदेव गायब हैं. क्षोभ से उनका मन भर गया. ये क्षोभ काशी में प्रकट हुआ.
अपने गुरुदेव से मिलने युक्तेश्वर जब उनके स्थान पर गए तब ज्योहीं लाहिड़ी महाशय को उन्होंने प्रणाम किया त्योहीं उन्होंने कहा-``दरवाज़े पर पूज्य बाबाजी से मुलाक़ात हो गयी न?``
युक्तेश्वर ने अनजाने भाव से कहा-``नहीं तो``
-``यह देखो, वे खड़े तो हैं.``
युक्तेश्वर ने चौंक कर दरवाज़े की ओर देखा तो वहां परम पूज्य बाबाजी महाराज खड़े थे. उनके अंग प्रत्यंग से दिव्य आभा प्रकट हो रही थी. युक्तेश्वर को प्रणाम न करता देख लाहिड़ी महाशय विचलित हो उठे. उन्होंने कहा-``युक्तेश्वर यह क्या तुमने अभी तक दादा गुरु को प्रणाम नहीं किया.``
तभी बाबाजी स्वयं बोले-``युक्तेश्वेर मुझ से नाराज हो बेटा. ? उस समय तुम बहुत चंचल हो उठे थे. तुम्हारी चंचलता की आंधी में मैं उड़ गया था. उस वक़्त मैं सूर्य के पीछे था. तुम देख नहीं पाए. अभी तुममें अभाव है. आगे से ध्यान में अधिक समय लगाना. ``
इतना कहकर बाबाजी अदृश्य हो गए.

इसी प्रकार एक बार लाहिड़ी महाशय के एक अन्य शिष्य राम गोपाल मजूमदार को गुरु के दिव्य दर्शन हुए थे. लाहिड़ी महाशय से उन्होंने कई बार निवेदन किया. पर हर बार यही उत्तर मिलता था-``मौका आने पर हो जाएगा.``
एक बार वे लाहिड़ी महाशय से मिलने के लिए काशी आये. घर पर शिष्यों और भक्तों से घिरे लाहिड़ी महाशय बैठे थे. शाम ढल चुकी थी. रात्री का दूसरा प्रहर प्रारम्भ हो चूका था. ठीक इसी समय लाहिड़ी महाशय ने राम गोपाल से कहा-``राम गोपाल तुम तुरंत दशाश्वमेघ घाट पर चले जाओ और वहीँ बैठे रहना.``
गुरु की आज्ञा पाते ही राम गोपाल में यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि आखिर इस समय वहां क्यों भेज रहे हैं.? जरुर कोई विशेष कारण होगा. वे घाट पर आकर बैठ गए. कुछ देर बाद सीढ़ियों से पत्थर का ढोन्का हवा में उठा और शून्य में टिक गया. पत्थर का वो टुकड़ा जहाँ से निकला था वहां एक गुफा दिखायी पड़ी. उस गुफा से एक परम सुंदरी निकली.
बाहर आकर वो बोलीं.-``मैं माता जी हूँ लोग मुझे इसी नाम से जानते हैं. मैं लाहिड़ी महाशय के गुरु बाबाजी की बहन हूँ. आज एक विशेष कारण से वो यहाँ आने वाले हैं.``
थोड़ी देर में आकाश में एक प्रकाश दिखाई पड़ा. जब वह प्रकाश पास आया तब उसमें से लाहिड़ी महाशय प्रकट हुए. ठीक इसी समय एक दूसरी ज्योति सुदूर आकाश से आयी जिसमें से बाबा जी प्रकट हुए. इस अद्भुद घटना को देखकर राम गोपाल दंग रह गए. बाबाजी और लाहिड़ी महाशय की आकृति में इस समय साम्य लग रहा था. केवल बाबाजी के सर के बाल लम्बे और चमकीले थे. उनके आते ही लाहिड़ी महाशय माताजी और मजुमदार ने जमीन से माथा टेक कर प्रणाम किया.
बाबाजी ने कहा-``कल्याणमयी बहन, अब मैं अपने भौतिक शरीर का त्याग करना चाहता हूँ.``
माताजी ने कहा-``मैं आपकी इच्छा का आभास पा चुकी थी. इसलिए आज विचार विमर्श के लिए आपका आह्वाहन किया है. मेरा अनुरोध है कि आप देह त्याग न करें.``
इस विषय पर और भी कई बातें हुयीं. अंत में बाबाजी ने कहा-``तथास्तु मैं कभी भी अपने भौतिक शरीर का परित्याग नहीं करूँगा. ``
इसके बाद दोनों व्यक्तियों का शरीर शून्य में उठकर विलीन हो गया. लाहिड़ी महाशय के घर आने के बाद मजूमदार जी को ज्ञात हुआ की उनके दशाश्वमेघ घाट जाने के बाद से अब तक लाहिड़ी महाशय अपने आसन से हिले तक नहीं थे. !!! वे अमरत्व विषय पर प्रवचन देते रहे थे.
जब राम गोपाल ने लाहिड़ी महाशय को प्रणाम किया तो वे बोले-``तुमने कई बार कहा था कि बाबाजी का दर्शन करना चाहते हो. बड़े आश्चर्यजनक ढंग से तुम्हारी आकांक्षा की पूर्ति हो गयी. ``
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श्री अविनाश बाबु उन दिनों बंगाल नागपुर रेलवे आफिस में क्लर्क थे. पता नहीं क्यों उनका मन एकाएक अपने गुरुदेव को देखने के लिए चंचल हो उठा. उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी भगवती चरण घोष (योगानंद परमहंस के पिता.), को एक सप्ताह की छुट्टी के लिए आवेदनपत्र लिखा.
भगवती बाबु ने अविनाश बाबु को बुलाकर पूछा-``क्या काम है? किसलिए ये आवेदन पत्र भेजा है. ?``
``अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के दर्शन करने की इच्छा है न जाने क्यों मेरा मन चंचल हो उठा है.``
``अविनाश बाबु यह सब पागलपन बंद कीजीये और काम पर मन लगाईये. धर्म-गुरु से बड़ा कर्म है जिससे आप दाल रोटी प्राप्त करतें हैं. अगर आप जीवन में उन्नति करना चाहते हैं तो ये सब पचड़े में मत फंसकर काम में मन लगाईये.``
बड़े साहब के उत्तर से अविनाश बाबू और अधिक उदास हो गए. वे समझ गए कि अब पुनः अनुरोध करना बेकार है. शाम को आफिस से छुट्टी मिलने पर वे मन ही मन गुरु का स्मरण करते हुए घर की ओर बढ़ने लगे. ऎसी गुलामी के प्रति उन्हें सख्त नफरत होने लगी. मन में जो आकांक्षा उत्पन्न हुयी थी, वो पूरी न हो पाई.
सहसा मार्ग में बड़े साहब भगवती बाबू से मुलाक़ात हो गयी. इनके उदास चेहरे को देखकर वे सांसारिक बातें समझाने लगे ताकि उनके मन का क्षोभ दूर हो जाए. लेकिन उनकी बातों का असर अविनाश बाबु पर नहीं हुआ. इस वक़्त उनका मन और तेज़ी से गुरुदेव को याद करने लगा.
दोनों व्यक्ति चलते चलते खुले मैदान में आये. एकाएक कुछ दूर पर न जाने कैसे एक तीव्र प्रकाश हुआ और उसमें से लाहिड़ी महाशय प्रकट हुए.
लाहिड़ी महाशय ने कहा-``भगवती, तुम अपने कर्मचारी के प्रति कठोर हो.``
इधर लाहिड़ी महाशय को देखते ही अविनाश बाबु नत्जानु होकर -<गुरुदेव,गुरुदेव,> कहते हुए प्रणाम करने लगे. इस दृश्य को देखकर इधर भगवती बाबु की हालत <काटो तो खून नहीं> वाली हो गयी. अचानक होने वाली घटना से वे सकपका से गए.
कुछ देर बाद वह प्रकाश शून्य में उड़कर गायब हो गया. इस दृश्य को देखकर भगवती बाबु बोले-``अविनाश, मैं केवल तुम्हें ही नहीं, बल्कि मैं स्वयं भी छुट्टी ले रहा हूँ. मुझे ये सब विश्वास नहीं था कि तुम्हारे गुरु इस तरह प्रकट हो सकते हैं. कल ही मैं अपनी पत्नी के साथ वाराणसी जाऊँगा. क्या तुम अपने गुरु से दीक्षा दिलाने की कृपा करोगे.?``
अविनाश बाबु के साथ भगवती बाबु सपत्नीक काशी आये. गुरुदेव के पास पहुंचकर ज्योंही भगवती बाबु ने प्रणाम किया त्योहीं योगीराज बोल उठे.-``भगवती तुम अपने कर्मचारी के प्रति कठोर हो.``
अब भगवती बाबु का संदेह पूर्ण रूप से दूर हो गया.
पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक भक्तिमती होती हैं,.भगवती बाबु की पत्नी श्रीमती ज्ञानप्रभा तो लाहिड़ी महाशय को साक्षात ईश्वर मानती थीं. अपने घर में नित्य पूजा करती थीं. जब कभी मन में कोई इच्छा होती तो गुरुदेव के स्मरण करके कृपा से पूर्ण हो जाती थी.
दुर्भाग्य से उनका कनिष्ठ पुत्र मुकुन्दलाल घोष हैजे से पीड़ित हो गया. हालत शोचनीय हो गयी. डाक्टर भी परेशान हो उठे. लड़का बिछौने से उठ नहीं पाता था. स्वयं भगवती बाबु निराश हो गए. यह सब देखकर ज्ञानप्रभा देवी लड़के के पास आये और लड़के के सामने लाहिड़ी महाशय का चित्र दिखाते बोली-``बेटा तुम चित्र में लाहिड़ी महाशय को प्रणाम कर लो.``
मुकुंद ने हाथ उठाना चाहा पर कमजोरी से हाथ भी नहीं उठा सका. माँ ने कहा-``कोई बात नहीं बेटा मन ही मन प्रणाम कर लो.``
दुसरे दिन से लड़का स्वस्थ होने लगा.
आगे चलकर यही बालक <परमहंस योगानंद > के नाम से प्रसिद्द हुआ. जिन्होंने माउन्ट वाशिंगटन, लास एंजेलस, कैलीफोर्निया तथा भारत में रांची - पुरी में आश्रमों की स्थापना की.

योगिराज के कई शिष्य थे. परिवार में उनकी पत्नी, २ पुत्र - दुकौडी व तिनकौड़ी, बाहर के लोगो में. पंचानन जी भट्टाचार्य, युक्तेश्वर गिरी, केशवानंद, केवलानंद, विशुद्धानंद सरस्वती (गंध बाबा नहीं!!!), काशीनाथ शास्त्री, रामदयाल मजुमदार, नागेन्द्र बहादुरी, नेपाल नरेश, काशी नरेश, और भी बहुत से.
इनके अलावा कुछ उच्च कोटि के संत भी लाहिड़ी महाशय से क्रिया योग की शिक्षा ले चुके थे. जिनमें सर्वश्री भास्करानंद सरस्वती, बालानंद ब्रह्मचारी आदि थे.
काशी नरेश अक्सर भास्करानंद स्वामी तथा तैलंग स्वामी के दर्शन करने जाते थे. इनकी जबानी योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी की प्रशंशा सुनकर भास्करानंद जी में उत्सुकता हुयी. उन्होंने काशी नरेश ईश्वरीनारायण सिंह से अनुरोध किया कि योगिराज को किसी दिन ले आयें. लाहिड़ी महाशय गृहस्थ थे इसलिए भास्करानंद जी उनके पास नहीं जा सकते थे. महाराज अपनी गाडी से लाहिड़ी महाशय को उनके पास ले गए. दोनों महापुरुषों में काफी समय तक सत्संग हुआ तथा साधन क्रियायों के विषय में गहन बातचीत हुयी.
लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को क्रिया योग की शिक्षा देते समय इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कौन पात्रता रखता है. इसकी शिक्षा वे कई चरणों में देते थे. प्रथम चरण की प्रक्रिया देने के बात वे ध्यान रखते थे कि किस शिष्य ने कितनी प्रगति की है. फिर दुसरे चरण की प्रक्रिया दी जाती थी. जहाँ तक मुझे ध्यान है- चार प्रकार के चरण हैं.
सामान्यतः लोग पहले चरण से ही आगे नहीं बढ़ पाते थे.
क्रिया योग के बारे में स्वामी योगानंद लिखते हैं. -``क्रिया योग एक सरल मनः कायिक प्रणाली है जिसके द्वारा मानव- रक्त कार्बन से रहित तथा आक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है. इसके अतिरिक्त आक्सीजन के अणु जीवन - प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देता है.
अशुद्ध और नीले रक्त संचय को रोककर योगी तंतुओं के अपक्षय को कम कर देने या रोक देने में समर्थ होता हिलप्रगट योगी अपने कोशाणुओं को जीवन शक्ति में रूपांतरित कर सकता है. क्रियायोग एक सुप्राचीन विज्ञान है. जो भारत वर्ष में लुप्त सा हो गया था. लाहिड़ी महाशय ने अपने गुरु बाबाजी से क्रियायोग प्राप्त किया. बाबाजी ने युगों युगों की विस्मृति के अतल गह्वर से <क्रियायोग> का पुनरुद्धार किया और इसकी प्रविधि को परिष्कृत किया. बाबाजी ने ही इसे क्रियायोग का सरल नाम दिया.
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12>Lahiri Mahasaya= Shyama Charan Lahiri

Born Shyama Charan Lahiri
30 September 1828
Ghurni village, Bengal Province, British India
Died 26 September 1895 (aged 66)
Varanasi, United Provinces, British India
Titles/honours Yogiraj, Kashi Baba
Order Self-realization
Guru Mahavatar Babaji
Philosophy Kriya Yoga
Notable disciple(s) Yukteswar Giri, Tinkouri Lahiri, Harinarayan Paloudhi, Bhupendranath Sanyal,Panchanan Bhattacharya. Ramgopal Majumdar, Swami Keshabanandaji, Swami Kebalanandaji, Swami Pranabananda Giri

 Shyama Charan Lahiri (Bengali: শ্যামাচরণ লাহিড়ী Bengali: [Shêmā Chôron Lahiṛi]) (30 September 1828 – 26 September 1895), best known as Lahiri Mahasaya, was an Indian yogi and a disciple of Mahavatar Babaji. He was also popularly known as Yogiraj andKashi Baba. He revived the yogic science of Kriya Yoga when he learned it from Mahavatar Babaji in 1861. Lahiri Mahasaya was also the guru of Yukteswar Giri. Mahasaya is a Sanskrit, spiritual title translated as 'large-minded'. He was unusual among Indian holy people in that he was a householder — marrying, raising a family, and working as an accountant for the Military Engineering Department of the British Indian government. Lahiri lived with his family in Varanasi rather than in a temple or monastery. He achieved a substantial reputation among 19th century Hindu religionists.

He became known in the West through Paramahansa Yogananda, a disciple of Yukteswar Giri, and through Yogananda'sAutobiography of a Yogi. Yogananda wrote that Lahiri was chosen by Mahavatar Babaji to reintroduce the lost practice of Kriya Yoga to the world. Lahiri's disciples included both of Yogananda's parents as well as Yogananda's own guru. Lahiri Mahasaya prophesied that the infant Yogananda would become a yogi, and "As a spiritual engine, he will carry many souls to God's kingdom.'"

Biography
Early life

Lahiri was born into a Brahmin family in the Ghurni village (presently a neighbourhood of Krishnanagar town) in Nadia district of Bengal Province. He was the youngest son of Muktakashi, wife of Gaur Mohan Lahiri. His mother died when he was a child — there is very little known about her, except that she was a devotee of Lord Shiva. At the age of three or four, he was often seen sitting in meditation, with his body buried in the sand up to his neck. When Lahiri was five, the family's ancestral home was lost in a flood, so the family moved to Varanasi, where he would spend most of his life.

As a child, he studied Urdu and Hindi, gradually moving on to Bengali, Sanskrit, Persian, French and English at the Government Sanskrit College, along with study of the Vedas. Reciting the Vedas, bathing in the Ganges, and worship were part of his daily routine.

In 1846, he was married to Srimati Kashi Moni. They had two sons, Tincouri and Ducouri, and three daughters, Harimoti, Harikamini and Harimohini. His two sons were considered saints. His wife became his disciple and was affectionately called by Guru Ma. His work as an accountant in the Military Engineering Department of the English government took him all over India. After the death of his father, he took on the role of supporting the entire family in Varanasi.
Teacher of Kriya Yoga
Yukteswar Giri
disciple of Lahiri Mahasaya

In 1861, Lahiri was transferred to Ranikhet, in the foothills of the Himalayas. One day, while walking in the hills, he heard a voice calling to him. After climbing further, he met his Guru Mahavatar Babaji, who initiated him into the techniques of Kriya Yoga. Babaji told Lahiri that the rest of his life was to be given to spreading the Kriya message.

Soon after, Lahiri Mahasaya returned to Varanasi, where he began initiating sincere seekers into the path of Kriya Yoga. Over time, more and more people flocked to receive the teachings of Kriya from Lahiri. He organized many study groups and gave regular discourses on the Bhagavad Gita at his "Gita Assemblies." He freely gave Kriya initiation to those of every faith, including Hindus, Muslims, and Christians, at a time when caste bigotry was very strong. He encouraged his students to adhere to the tenets of their own faith, adding the Kriya techniques to what they already were practicing.

He continued his dual role of accountant and supporter to his family, and a teacher of Kriya Yoga, until 1886, when he was able to retire on a pension. More and more visitors came to see him at this time. He seldom left his sitting room, available to all who sought his darshan. He often exhibited the breathless state of superconscious samādhi.

Over the years he gave initiation to gardeners, postmen, kings, maharajas, sannyasis, householders, people considered to be lower caste, Christians, and Muslims. At that time, it was unusual for a strict Brahmin to associate so closely with people from all castes.

Some of his notable disciples included Panchanan Bhattacharya, Yukteswar Giri, Pranabananda, Keshavananda Brahmachari , Bhupendranath Sanyal, and the parents of Paramahansa Yogananda. Others who received initiation into Kriya Yoga from Lahiri included Bhaskarananda Saraswati of Benares, Balananda Brahmachari of Deogarh, Maharaja Iswari Narayan Sinha Bahadur of Benares and his son.

Biographer and Yogacharya Dr. Ashoke Kumar Chatterjee, in his book "Purana Purusha" depicts that Lahiri initiated Sai Baba of Shirdi into Kriya Yoga, based on a passage in Lahiri's 26 secret diary. He gave permission to one disciple, Panchanan Bhattacharya, to start an institution in Kolkata to spread the teachings of Kriya Yoga. The Arya Mission Institution published commentaries by Lahiri on the Bhagavad Gita, along with other spiritual books, including a Bengali translation of the Gita. Lahiri himself had printed thousands of small books with excerpted passages from the Gita, in Bengali and Hindi, and distributed them for free, an unusual idea at that time.

In 1895 he began gathering his disciples, letting some of them know that he would soon be leaving the body. Moments before his passing, he said simply, "I am going home. Be comforted; I shall rise again." He then turned his body around three times, faced north, and consciously left his body, entering mahasamadhi. Lahiri Mahasaya died on 26 September 1895.
Teachings
Kriya Yoga

The central spiritual practice which he taught to his disciples was Kriya Yoga, a series of inner pranayama practices that quickly hasten the spiritual growth of the practitioner. He taught this technique to all sincere seekers, regardless of their religious background. In response to many types of problems that disciples would bring him, his advice would be the same — to practice more Kriya Yoga. Regarding Kriya Yoga, he said:


Always remember that you belong to no one, and no one belongs to you. Reflect that some day you will suddenly have to leave everything in this world–so make the acquaintanceship of God now. Prepare yourself for the coming astral journey of death by daily riding in the balloon of God-perception. Through delusion you are perceiving yourself as a bundle of flesh and bones, which at best is a nest of troubles. Meditate unceasingly, that you may quickly behold yourself as the Infinite Essence, free from every form of misery. Cease being a prisoner of the body; using the secret key of Kriya, learn to escape into Spirit.
He taught that Kriya practice would give the yogi direct experience of truth, unlike mere theoretical discussion of the scriptures, and to:

Solve all your problems through meditation. Exchange unprofitable religious speculations for actual God-contact. Clear your mind of dogmatic theological debris; let in the fresh, healing waters of direct perception. Attune yourself to the active inner Guidance; the Divine Voice has the answer to every dilemma of life. Though man’s ingenuity for getting himself into trouble appears to be endless, the Infinite Succor is no less resourceful.
Guru-disciple relationship

Lahiri often spoke of the Guru-disciple relationship in the context of Kriya Yoga. He always gave the Kriya technique as an initiation, and taught that the technique was only properly learned as part of the Guru-disciple relationship. Frequently he referred to the realization that comes through practicing Kriya as taught by the Guru, and the grace that comes through the 'transmission' of the Guru. He also taught that the grace of the Guru comes automatically if his instructions are followed. He suggested contacting the Guru during meditation, counseling that it wasn't always necessary to see his physical form.

Regarding the necessity of the help of a Guru to deep yoga practice, he said:

It is absolutely necessary for all devotees to totally surrender to their Guru. The more one can surrender to the Guru, the more he can ascertain the subtlest of the subtle techniques of yoga from his Guru. Without surrender, nothing can be derived from the Guru.

The relationship Lahiri Mahasaya had with his own disciples was very individual. He even varied the way he taught the Kriya Yoga practice to each disciple, depending on their individual spiritual needs.
Other teachings

Lahiri taught that if one is earning an honest living and practicing honesty, then there was no need to alter one's external life in any significant way in order to become aware of God's presence. If a student neglected his worldy duties, he would correct him.  It was extremely rare for him to advise sannyas, or complete worldly renunciation by becoming a swami. Instead, he advised marriage for most of his disciples along with Kriya Yoga practice.

He generally eschewed organized religion, but he allowed at least one advanced disciple, Panchanan Bhattacharya, to open the "Arya Mission Institution" in Kolkata to spread Kriya teachings.  Other disciples of Lahiri also started organizations to spread the Kriya Yoga message, including Yukteswar Giri with his Satsanga Sabha.  Generally, he preferred Kriya to spread naturally.

Lahiri frequently taught the Bhagavad Gita. His regular Gita assemblies, called Gita Sabha, attracted many disciples.  He asked several of his close disciples to write interpretations of the Gita by tuning in to his own realization.  Lahiri taught that the Battle of Kurukshetra was really an inner psychological battle, and that the different characters in the battle were actually psychological traits within the struggling yogi.  This understanding would later become the foundation of Paramahansa Yogananda's commentaries on the Bhagavad Gita. He also taught that the epic story of the Mahabharata showed the soul's descent into matter, and its challenges in retracing its way back to spirit.
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