Friday, January 22, 2016

3>=अहंकारएकविकार+আত্নিকসমীক্ষা+शरीरमनआत्माकीशक्तियां+शरीरहीसत्य+दुश्मनकौन-1+ दिनचर्या+सफलता केउपाय -२

3>आ =POST=3>***अहंकार - एक विकार***( 1 to 7 ) 

1-------------- अहंकार - एक विकार मन द्वारा संकल्प 
2---------------আত্নিক সমীক্ষা 
                      a=धन पर आधारित संसार की वास्तविकता? 
                      b=.क्या अंतरात्मा के विरुद्ध धनी बनने से कुछ प्राप्त होगा?
                      c=कैसी कमाई भली कमाई है?
3>---------------शरीर मन व् आत्मा की शक्तियां 
4>---------------यह शरीर ही सत्य है शेष सब व्यर्थ है? क्या यह सत्य है?
5>---------------हमारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है ? अहंकार घमंड ? भाग - १
6>---------------प्रश्न: कैसे - दिनचर्या बनाये, सफल निर्णय लें, दिन को सम्पूर्ण बनायें?
7>---------------धन, रूप, बल, पद व् विद्या का घमंड - परिणाम व् जीवन सफलता के उपाय - भाग २
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1> अहंकार - एक विकार  मन द्वारा संकल्प


आज से हम अहंकार को अपने मन में जगह नहीं देंगें और तीव्र प्रतिक्रिया से भी बचेंगें, दिमाग को ठंडा व वाणी को मधुर व ह्रदय को सरल रखेंगें।

 बुद्धि द्वारा पुरुषार्थ

भाव व स्वभाव अलग हैं, भाव एक क्रिया हैं जो कि स्थिति व परिस्थिति वश बदलते ही रहते हैं, समय प्रति समय हमारे मन के भाव अलग होते हैं, जबकि स्वभाव संस्कारों द्वारा निर्मित होता है

अहंकार है - श्रेष्ठता का भाव कि " मैं ही श्रेष्ठ हूँ " , स्वमान है - कि " मैं श्रेष्ठ हूँ ", करने में कर्ता पन व छोड़ने में त्याग का अहंकार, अहंकार है मन की विकारी अवस्था, हमें सरल निरहंकारी बनना है

जब हम अपने अहं को अपने मनोवेग में शामिल कर लेते हैं तो हमारी प्रतिक्रिया काफी तीव्र और नाकारत्मक हो जाती है जो कि बाद में पश्चाताप का कारण बनती है, हम अहं को नियंत्रण में रखें

अहंकार अंधकार है जो स्वयं की गलतियों और दूसरों की अच्छाई को देखने नहीं देता, अहंकार का खात्मा, आत्मा को सच्चाई दिखाने का रास्ता खोलता है, हम सभी मे साकारात्मकता देखते हैं

 संस्कारों में धारणा

जैसे हम स्वयं को सही समझते हैं, उसी प्रकार दूसरे लोग भी अपने नज़रिए से सही होते हैं, हम उनके व्यवहार को स्वीकार करेंगें।

हम कुछ गलत या अनुचित करते हैं तो हमारा अहं हमारे मनोभावों में शामिल हो उसे भी सही ठहराता है, हम इससे बचेंगें।

हम ध्यान रखेंगें कि हमारी प्रतिक्रिया तीव्र न हो, हम सदा ठन्डे दिमाग से सोच समझ कर मधुर वाणी में प्रतिउत्तर देंगें न कि प्रतिक्रिया करेंगें। ओम् शान्ति, नमस्कार
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2> আত্নিক সমীক্ষা

1..धन पर आधारित संसार की वास्तविकता?
2..क्या अंतरात्मा के विरुद्ध धनी बनने से कुछ प्राप्त होगा?
3..कैसी कमाई भली कमाई है?

यह आज लगभग हर उस व्यक्ति की वेदना है जो अपने आपको झूट बोलकर एक झूठा स्वपन दिखा कर अपने ही मिथ्या जगत को सत्य दिखाने की चेष्टा करता है. अंतरात्मा के विरुद्ध जाना वैसे ही है जैसे हम उच्च लहरो के समुद्र से लड़ने का प्रयास करें, कुछ देर तक हम प्रयास कर सकते हैं पर अंतत हम धराशायी हो जायेंगे. आज जो पाप या पाप न समझ अपना अधिकार समझ कुछ गलत काम कर जल्द धनी बनने का स्वप्न देखने के लिए अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना करते हैं उन्हें बाद में कई मुसीबतो का सामना करना पड़ता है जिसमे बुरा समय, बीमारी, तनाव भी हैं और एक हीन भावना का उत्पन्न होना है जो अंत समय तक पीछा नहीं छोड़ती।

धन से ही मनुष्यों में ये पंद्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेदबुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब। आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं। भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता। केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिये। लक्ष्य होना चाहिये कभी भी दुखी न रहना। सबसे महान प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो। हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिये। यह आदर्श पेट का धंधा नहीं, सेवा होनी चाहिये। सर्वकल्याण, समाज-सेवा सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो। हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय। जीवन केवल अर्थ शास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय। मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है, उसकी आत्मा भी है, उसका इहलोक और परलोक भी है।

1..पैसे के बिना क्या जीवन सम्भव् है?

आज से ३०० वर्ष पूर्व तक उत्तर व् दक्षिण अमरीका में दर्जनो मूल निवासी सभ्यताएं बिना किसी पैसे की अर्थव्यवस्था के सकुशल चलती थी. प्राचीन भारत जो सोने की चिड़िया कहा जाता था अर्थ समाजिक व्यवस्था उत्पाद, ज्ञान और विशेषज्ञता से चलती थी और कोई नागरिक भूखा नहीं सोता था. आध्यात्मिक व् धर्म के आधीन समाजिक व्यवस्था अपने आप चलती थी कोई भय, लालच या कमी न थी.

धन की इस दुनिया में, चकाचौंध के उस जमाने में जब कि सभ्यता का एकमात्र लक्ष्य केवल पैसा कमाना है, ऐसी कल्पना करना भी एक बड़ी बात लगती है पर धन में स्थापित पश्चिमी समाज धन की मर्यादा से ऊबकर सतयुगी मर्यादा की ओर मुड़ रहे हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि यह सब आडम्बर मिथ्या है। धन ही विपत्ति की जड़ है, इसी से संसार का सब विग्रह प्रारम्भ होता है और वर्गवाद, साम्यवाद या साम्राज्यवाद का उपद्रव खड़ा हो जाता है। न धन की घुड़दौड़ रहे और न यह सब विपत्तियाँ खड़ी हों।

2..धन रहित संसार में समृद्धि संभव है?

संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी आदमी द्वारा निर्मित कृत्रम धन है आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है। खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि-सबका कारण यही है। चूँकि सभी सुख की वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती हैं, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है। जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव पेंच में लगता है। व्यापार की दुनिया में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते।

यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिदान की भावना हो जाय तो हरेक वस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय। लाखों आदमी केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बही खाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें। यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायं तथा अपनी उत्पत्ति का आर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें, तो संसार कितना सुखमय हो जायगा। आज संसार में अटूट सम्पत्ति उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा बीमा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है। यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनिया कैसी होती। अस्पतालों में लाखों नर-नारियाँ रुपये की मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारियाँ धन के लिए जेल काट रहे हैं। प्रायः हर परिवार में इसका झगड़ा है। मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है। यदि धन की मर्यादा न होती तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता।

पैसे के कारण संसार में वर्गवाद आदि का संकट आ गया है। आज जितनी उत्पत्ति होती है, उसका पैसों में मूल्य समाप्त कर दीजिए तो संसार का कायापलट हो जायगा, कोई भूखा रहेगा न नंगा। आज हरेक काम पैसे से होता है। माता-पिता तथा संतान के बीच पैसे का सम्बन्ध है। पिता चाहता है कि लड़के कमाएं, लड़की बोझ न बने। आज हरेक व्यक्ति सोचता है कि पैसा एक अनिवार्य वस्तु है इसलिए पैसे कि अंधी दुनिया इसका निरादर नहीं कर सकती। पर कौन नहीं जानता कि जितना पैसा बढ़ता है उतना ही परिश्रम पश्चाताप तथा परेशानी बढ़ती है, धन से आत्मा सुखी नहीं हो सकती।

3..कैसी कमाई भली कमाई है?

हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ, समृद्धि के झूठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर परम आत्मा की शरण लेनी होगी। जो भी है पैसे के लिए झूट कपट व् भ्र्ष्टता का सहारा लेना इसलिए बुरा है के इस तरह कमाया पैसा बीमारी, दुःख और विनाश का पथ तो पक्का है।

धर्म के रास्ते पर चल कर अपने मन से अपने काम को सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने से, मन की शान्ति व् स्वस्थ मन व् शरीर हमें सदाचार व् आत्मिक उत्थान की और ले जाएंगे। केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें.
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3>शरीर मन व् आत्मा की शक्तियां - रहस्य व् कैसे बलशाली बना जीवन को सार्थक बनाये

जीवन में शरीर ही दीखता है सबसे पहले तो शरीर को बल देने के लिए हर उपाय किया जाता है. काया का स्वस्थ्य, संतुलन व् अच्छा होना आवश्यक है इस जीवन को चलाने के लिए. शरीर का बल उपयुक्त मात्र में होना ही चाहिए और उसके लिए संतुलित आहार व् खान पान व् सोने की अच्छी आदतें होनी जरूरी हैं. शरीर एक वाहन की तरह हैं जो अगर सुचारू नहीं होगा तो जीवन की गति में रुकावट होगी. शरीर भोजन से बनता है तो सात्विक भोजन से सात्विक शरीर बनेगा, तामसिक भोज से शरीर तामसिक बनेगा.शरीर को चलाता कौन हैं? चलाने वाला तो अंतर स्थापित आत्मा है. तो ये वाहन किस प्रकार के ईंधन से चलता है?
आत्मा तो अचेतन हैं तो फिर?
आत्मा का एक चेतन स्वरुप भी है. इस चेतन स्वरुप या सूक्ष्म शरीर को हम मन कहते हैं. मन के दो भाग हैं, एक जाग्रत व् दूसरा अचेतन या सुप्त। जब हम सोते हैं या ध्यान अवस्था में होते हैं तब सुप्त मन 'हमसे' सीधा सम्पर्क करता है. सुप्त मन आत्म तत्व के अधिक समीप होता है.
चित मन सदैव चेतन या जाग्रत अवस्था में होता है तभी हम इस माया रुपी संसार को अपने चेतन स्वरुप चित या कांशसनेस के द्वारा अनुभूत व् अनुभव करते हैं. आत्मा की लम्बी हजारो आजीवनो की जीवन यात्रा में हर जीवन काल में मन नए रूप में निर्मित होता है. मन मस्तिष्क में नहीं होता यद्यपि मस्तिष्क मन के क्षेत्र का धरातल है, यदि मन एक वायुयान है तो मस्तिष्क उसका विमान पत्तन या एयरपोर्ट है याद रहे इसकी नियंत्रण टॉवर में बैठा सुप्त मन रूपी आत्मा ही इसको दूर से देखता रहता है. यह स्वंय शक्तिमान अति सुंदर व् अंतर आयामी आत्मा मन की हर उड़ान को अपने लेखे में पंजीकृत करता है पर उसे नियंत्रित नहीं करता. मन स्वछंद है व् कहीं भी जा सकता है।
इस मन तत्व ईंधन को मनोबल कह सकते हैं. मनोबल वास्तव में शरीर रूपी वाहन को चलाने वाली शक्ति है. ये शक्ति हर जीव में एक सीमित मात्र में होती है, पर यह माता पिता की देखभाल, परिवार, शिक्षा व् स्वयं नियत्रित सयंम से उत्त्पन्न होता है जितना अधिक मनोबल होगा उतना ही इस दृश्य जगत में सफलता मिलेगी. निर्बल व् शक्तिहीन में मनोबल केवल जीवित रहने जितना ही होगा. तो इस मनोबल रूपी ईंधन को उत्पन्न करना सम्भव है? हाँ है.

मन "रूपी सूक्ष्म सरीर" से भी ऊपर एक अति सूक्ष्म शरीर है जो अंतकरण में स्थापित आत्मा तत्व है. आत्मबल मनोबल से अधिक महत्व रखता है. यह शरीर और मन दोनों को अपनी ऊर्जा देता है. आत्मबल को मनुष्य की सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत भी कहा जा सकता है. आत्मबल पिछले जीवन कालो की जमा पूंजी व् इस जन्म के सुकर्मो से बनता है. आत्मबल मनोबल की तरह एक मात्रा में होता है लेकिन हम अपने श्रम से इसे दोहरा या तिहरा या कई गुना कर सकते हैं.
आत्मबल जितना अधिक होगा, आपके शरीर के आसपास का आभा मंडल या दिव्या मंडल उतना ही विशाल होगा.
यदि आपकी आत्मशक्ति व् ऊर्जा बहुत हो जाती है तो आप बहुत दूर तक समय व् अंतरिक्ष, में उतने ही विस्तार से जा सकते हैं
गुरु यदि उनकी आत्मशक्ति विकसित है तो वह अपने शिष्य को बहुत दूर से देख सकते हैं. देव पुरुषो का बाह्र्य रूप चाहे आम व्यक्ति जैसा हो उनका प्रभा मंडल व् उसकी परिधि बहुत विशाल होती है.
वह केवल एक स्थानीय दृश्य से लेकर इस पृथ्वी गृह के किसी भी कोने में देख पाते हैं, मुक्त व् दैविक शक्तिओ से परिपूर्ण देव पुरुष व् देवियाँ अपनी आत्मशक्ति से न केवल पृथ्वी बल्कि हमारे तारकपुंज व् आकाशगंगा के ऊपर भी जा सकते हैं व् त्रिकाल समय के तीन आयामो में देख सकते हैं.

शिक्षा, धन अर्जन करने मात्र से मनोबल या आत्मबल नहीं बढ़ता पर यदि हम अपने समय को सही दिशा में लगाकर अपने आप को परिवर्तित कर सकें तो बहुत बड़े परिवर्तन के दर्शन होंगे.
यदि आप अपने शरीर, मन व् आत्मा का बल विस्तार करना चाहें, या उसमें वृद्धि करना चाहें तो जुड़े रहें, संदेशो को बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ना, उद्देश्य आपके जीवन को न केवल सफल बनाने में सहायता करना है बल्कि आपको जीवन के रहस्यों से परिचित करवा आपके मनोबल व् आत्मबल को विशाल करना है.
अपने दुःख को कैसे कम करें और सच्चे सुख को कैसे अग्रसर हों , अपने जीवन को कैसे सरल सुगम बनाये?
कुछ समय उपरांत हम सात्विक तप, ध्यान व् ईश्वर प्राप्ति के साधनो पर विचार करेंगे पर उससे पहले हमें अपने अंदर कुछ परिवर्तन करने होंगे और जिसके लिए हमें कुछ बातो को समझना होगा जो कई बार हम जानते हुए भी नहीं समझ पाते. उद्देश्य आपको उस राह की तरफ अग्रसर करना है. इसमें न कोई लालच है न कुछ बेचता हूँ. इसका किसी आदमी निर्मित धर्म से भी कोई सम्बन्ध नहीं.अगर आप अपने जीवन को एक आदर्श दिशा में ले जाने के लिए अपना समय बचाना चाहें तो इस पृष्ठ से जुड़े रहें.आपके कमेंट, टिप्पणी, व् प्रश्न को पढ़ने का प्रयास करूँगा, आपको यथा समय आपके हर प्रश्न का उत्तर भी दूंगा.
आप की भलाई व् आत्मिक उन्नति में कुछ सहायक सिद्ध हूँ यही कामना है। नमस्ते !!!
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4>यह शरीर ही सत्य है शेष सब व्यर्थ है? क्या यह सत्य है?

शरीर केवल आत्मिक अनंत यात्रा का एक वाहन है जिसके बिना हम दृश्य जगत के भेद नहीं पा सकते। शरीर की अपनी महिमा है और महत्व भी और जैसे कोई भी गाडी को सुचारू रूप से चलने के लिए लगातार देखभाल की आवश्यकता होती है वैसे ही शरीर रूपी गाड़ी भी अपने प्राकर्तिक व् सहज रूप में होगी तभी हम गति व् समय समझेंगे। यदि आधा समय गाडी ख़राब है तो यात्रा अधिक दूर तक न होगी. शरीर कभी बीमार या अस्वस्थ न होगा यदि हम अपने मन को जो गाडी को बनाने व् चलाने वाला है को स्वस्थ रखें. एक स्वस्थ मन एक स्वस्थ शरीर बना सकता है.

यदि शरीर सब कुछ होता तो प्राण निकलने के बाद मृत शरीर को देख उसके प्रेम करने वाले इतना न रोते बिलखते। शरीर केवल एक वस्त्र या वाहन है जो नाशवान है पर उसमे ठहरने वाली अत्मिकसत्ता ही वास्तव सत्य व् अविनाशी सत्ता है. केवल जड़बुद्धि मूर्ख ही शरीर को एकमात्र अस्तित्व मानते हैं.

सरीर के नष्ट हो जाने के बाद वही पहचान के साथ जन्म हो ऐसा नही हो सकता। मोक्ष केवल एक विचार है जो शायद जरूरत से ज्यादा विस्तारित हुआ, जिसका अर्थ अधिकतर गलत समझा गया और उसे केवल शरीर से निकलने के बाद की अवस्था जाना गया जो की सही नहीं है. मोक्ष इसी जीवन में सम्भव है पर आसक्तियों व् वासनाओं में फंसे मन व् शरीर को इस जीवन काल में संसार की दलदल से कैसे सहजता व् बिना अशरीर हुए निकला जाए वह एक प्रश्न है जिसका हल है.

मोक्ष या स्वर्ग बेचना धर्मो द्वारा किया गया शायद किसी स्वार्थ के लिए. लेकिन हम इसी जन्म में इसी जीवन में इसी संसार में रहते बहुत कुछ बदल सकते हैं जिनका उद्देश्य इसी जीवन काल को बेहतर व् सुखी बनाना है. बौद्धिक धोखाधड़ी सभी धर्मों के लिए आम बात है पर यहाँ हम किसी धर्म या स्थापित विचारो की बात नहीं कर रहे. अध्यात्म की राह या आत्मज्ञान हर व्यक्ति के लिए नहीं है. क्यूंकि बौद्धिक डिबेट व् बहस का कभी कोई अंत नहीं होता। पर एक सुखी व् सफल जीवन के लिए इसे समझे बिना आगे बढ़ने की सोच भी उचित नहीं कही जा सकती. इसलिए इस राह पर चलने के लिए सबसे पहले अच्छी संगत, सत्य संग या सत्संग अनिवार्य है. अकेला मन भटक जाता है इसलिए भले, सुहृदय व् सद्भावना वाले मित्रो या विचारो की बहुत आवश्यकता है. गुरु तो हमारा मन है बस उसे दिशा चाहिए जो भली सोच, सत्य संग व् सुविचारों से ही सम्भव है.

प्रश्न: शरीर नाशवान है फिर हमको क्यों पता नही चलता मन के अन्दर जो प्रकाश है वो सत्य, बहार का प्रकाश मिथ्या है ध्यान अंदर के जगत के द्वार तक ले जाता है ?

जैसे दीपक तले अँधेरा होता है, वैसे ही बाह्र्य संसार की चमक दमक में खोकर जीव अपने अंदर झाँकने का प्रयत्न भी नहीं करता। थोडा बहुत तोता रटंत पाठ करने या साष्टांग कर या शरीर की सत्ता में ही रहने और उसे सब कुछ मान लेने के कारण जीव का अंतर मन तो दूर जाग्रत मन भी अपने असली स्वरुप को नहीं पहचान पाता, पर आज की व्यवस्था व् माया जाल और ऊपर से भ्रम व् संदेह ने आम आदमी को अपने नाशवान शरीर से ही जोड़ कर रखा है, मन तो एक दूर बैठा पक्षी है जिसकी चह चहाट व् क्रंदन आज के जीव को सुनती भी नहीं.

ऐसे में ध्यान एक द्वार है लेकिन केवल शरीर को पद्मासन में बिठाकर ओम कहने से ध्यान नहीं होता और इसीलिए लोग ध्यान को भी एक टेलीविज़न का कार्यक्रम समझ कर या उसे एक योगासन समझ उसे समझ नहीं पा रहे. ध्यान के द्वार व् गहन रास्ते पर चलने से पहले हमें अपने कुछ भावो, मनोस्थितिओ व् आदतो को दुरुस्त या संतुलित करना होगा और इसीलिए व् अन्य कई अध्ययन के विषयो को समझने के लिए इस साधारण तुच्छ पृष्ठ का गठन किया गया है.

इस सम्बन्ध में आगे बढ़ने के लिए कुछ निकट भविष्य में सन्देश होंगे जिन्हे आप पढ़ने का प्रयास करना अपने जीवन में अंतर परिवर्तन लाने के लिए स्वाध्याय व् आत्म निरिक्षण से अंतर जगत का आभास होगा और कुछ अभ्यास से आपको बाह्र्य जगत भी साफ़ दिखेगा और इसके भेद कोई पहेली नहीं रहेंगे।
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5>हमारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है ? अहंकार घमंड ? भाग - १

शरीर की सत्ता किसकी है? क्या यह शरीर वास्तव में "हमारा" है या ये हमारी धारणा मात्र है? चलो माना की शरीर "हमारा" ही है जब तक इसमें आत्मा का वास है। इसका स्वामित्व भी "हमारा" मान लेते हैं ,

हमारी बुद्धि हमें शरीर को अपना बता कर हमसे अन्याय तो नहीं कर रही ? शरीर का बाह्र्य रूप भी हमारा ही है जिस पर मनुष्य कितना गर्व करता है. पर क्या हम शरीर, इसके रूप सौंदर्य को ही हम मान लें यदि हाँ तो जब कोई काँटा या तीखी धातु चुभती है तो उसका दर्द कौन अनुभव करता है? हम सब यही कहतें है "हमें" या "मुझे"?

आध्यात्मिक प्रगति व् हमारे व्यक्तित्त्व के विकास में सबसे बड़ा अवरोध सबसे पहले हमारा अपने आपको ना जानना है

अहंकार है क्या?

इस नाशवान अस्थायी शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और उसके अंतर में जो जीवंत सत्ता "रह" रही है उस जीव या जीव रूप को "अपना" समझना शाश्वत अहंकार है। अहंकार क्या है | स्वयं का अज्ञान और "मैं " के सम्बन्ध में अपूर्ण जानकारी से उत्पन्न अहंकार एक मानसिक शत्रु है जो मन रूपी सहज प्रकृति को भृष्ट कर देता है । अहं अच्छा या बुरा नहीं है उसे न समझ कर अपने को असहज रूप में अधिक समझने को अहंकार कहते हैं जो अति दुखदायी हो सकता है और हमें आत्मिक पथ पर चलने से रोकता है.

अहंकार या घमंड मनुष्य को दूसरे जीवों से अधिक समझने के कारण मन में एक हवा भर देता है और इस वायु के गुब्बारे उसे एक कृत्रिम वैचारिक आकाश में उड़ा कर एक विशेष प्रसन्नता से भरते रहते हैं पर यह स्थिति असहज व् अप्राकर्तिक होती है. तो सहजता और सरलता का अभाव ही अहंकार है! स्मरण रहे कभी न भूलें के हम जो भी करते हैं निष्पादित या तामील करते हैं, कर्ता तो कोई और है, जब हम उस कर्ता की उपस्थिति को बिना शर्त मान लेते हैं और सब कार्य उसी कर्ता की और से या उसके वास्ते करने लगते हैं तो हम इस जीवन में जो भी सत्कार्य करेंगे उसका परिणाम अति उत्तम होगा।

सबसे खतरनाक बुद्धिमत्ता का अहंकार है, क्योंकि यह परिपक्व सुविकसित मन में पाया जाता है। हम अपनी उच्च शिक्षा, योग्यता और विचारशीलता के कारण अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगते है। मन में इस भाव के उत्पन्न होते ही दूसरों को हेय समझने का भाव उठ खड़ा होता है। आपने लोगों को इस प्रकार कहते हुए सुना होगा: ‘इनका स्तर मेरे स्तर से नीचा है।’

कुछ अहंकारी लोग इस प्रकार के भाव को ‘दया’ कह कर पुकारते हैं। इस प्रकार का अहंकार आधुनिक जीवन का अभिशाप बन गया है। ऐसे अहंकारी व्यक्ति को कौन नहीं जानता जो अपने प्रति असीम उत्साह और उन लोगों के प्रति जो उनके विचारों से सहमत नहीं है, दया दिखलाते हैं। अहंकार के कितने ही रूप हमें प्रतिदिन अपनी आँखों से देखने को मिलते हैं. अहंकारी व्यक्ति दूसरों को, समाज व् राष्ट्र को आगे नहीं बढ़ने देते.

अपने आपको दूसरे से अधिक, विशाल, शक्ति-शाली और श्रेष्ठ समझता है तथा उससे यह मनवाना चाहता है; जबकि दूसरा व्यक्ति उसकी इस बात को स्वीकार कर अपने आपको छोटा नहीं मानना चाहता। लड़ाई के प्रत्यक्ष कारण चाहे जो भी रहें पर मूलतः संघर्ष दो व्यक्तियों के अहंकार का टकराव ही होता है। इस अहंकार ने मनुष्य जाति का जितना अहित किया है उतना दूसरे किसी से हित नहीं हुआ है। न भूख से, न बीमारी से, न आपदाओं से, और न रोग से, न दुर्बलता से, किसी भी कारण इतने लोग नहीं मरे हैं। जितने कि आपसी संघर्षों, जातीय युद्धों और दो राष्ट्रों के या अनेक देशों के संग्राम से मरे है। इन संघर्षों, द्वन्द्वों और युद्धों का एक मात्र कारण अपनी श्रेष्ठता का दावा तथा दूसरों द्वारा उस दावे को दी गयी चुनौती हैं

अहंकार से बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश होता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं।

अहंकार के कारण न केवल मनुष्य जाति हिंसा तथा विनाश की शिकार हुई है बल्कि उसके कारण मनुष्य का नैतिक पतन भी हुआ है। स्वार्थ, संकीर्णता, अनुदारता, लोभ, घमंड व् भ्रष्टाचार जैसे दुर्गुणों का एकमात्र स्रोत भी अहंकार ही है। लोभ, मोह और अनीति अनाचार को अहंकार का रूप ही कहा जा सकता है। यह दुर्गुण मनुष्य के अन्तःकरण में निवास करने लगता है इसी कारण साम्प्रदायिक तनावों से लेकर दो गुटों, समुदायों, मनुष्य निर्मित धर्मो, संस्थाओं व् राष्ट्रों के युद्ध तक मनुष्य का यह दुर्गुण ही कारण बनता है।

मनुष्य के भीतर की जो प्रवृत्ति अध्यात्म के विकास में बाधक होती है, वह है “अहंकार”। संसार में हमारे जो तरह-तरह के सम्बन्ध है उनके कारण हम अनेक बन्धनों में बँध जाते है। उनके घात-प्रतिघात से हमारे मन में सदैव द्वन्द्व की भावनायें उत्पन्न होती रहती हैं और उन्हीं के परिणाम स्वरूप हमको हर्ष-शोक सुख-दुःख स्तुति-निन्दा हानि-लाभ आदि के विचार उत्पन्न होकर अस्थिर बनाते रहते है।
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6>प्रश्न: कैसे - दिनचर्या बनाये, सफल निर्णय लें, दिन को सम्पूर्ण बनायें?

हम जो भी कर्म करते हे क्या वो "फिक्स" हे ?।अगर हे तो फिर इस सरीर और आत्मा का इस लोक में रोल क्या हे? ध्यान एकाग्रता ?

जो भी हम करते हैं, उनका समय निर्धारित ही नहीं नियत 'stipulated' है - यहाँ एक विराम - एक समानांतर समय है यहाँ, जो हमारे साथ चलता है कहीं किसी दूसरे लोक में, जो हमें बार बार आकर स्मरण कराता है - यह समानंतर समय में चलती सत्ता वास्तव में हमारे अंतकरण में स्थित अविनाशी आत्म तत्व है जो हमें कहता है के रास्ता बदलो - व्यर्थ समय न गवाँयो - सीधे रेखा पर चलो जिसके लिए तुम आये हो - लेकिन हम संसार के शोर.शरीर व् इन्द्रियों के चक्रव्यूह में फंसे अंतर्मन; जो लगातार एक सहायक के रूप में आ आ कर संकेत करता है, स्वपन में दृश्य प्रगट करता है, सांकेतिक भाषा में जगाने का प्रयास करता है - पर हम जड़वत एक उपभोक्ता या यूँ कहिये एक मूर्ख उपभोग लिप्त शरीर के शिकार के रूप में केवल शरीर और इन्द्रियों के यंत्रो के विकर्षण, अन्यमनस्कता, उद्विग्‍नता में ही उलझ कर रह जाते हैं.

आज, कल या अभी कहीं न कहीं हम जाग्रत होते हैं, उस काम को करते हैं जो वास्तव में हमारे इस और आने वाले जीवनो को प्रकाशित और उज्जवल करेगा.

सत्य तो ये है के जो होना है वह हमारे संकल्प व् इच्छा शक्ति रुपी मोटर यन्त्र द्वारा चलाया जाता है पर हम अपने संकल्प को भूलकर अंतर्मन को धोखा देकर - मोह और लालच में इन्द्रियों के जाल में फंसे चले जाते हैं; जीवन के पल पल रेत के कणो जैसे जीवन रुपी सत्ता से गिर गिर कर धीरे धीरे अंतर्ध्वंस कर डालते हैं. यही प्रक्रिया और इस पर हमारी इच्छाशक्ति व् संकल्प का हथोड़ा समय पर न पड़ने के कारण - हमें अपने निर्धारित सत्कर्म करने से रोक डालती है - ये अंतर्ध्वंस दिन पर दिन - सप्ताह पर सप्ताह - वर्ष और फिर पूर्ण जीवन को केवल एक आंशिक fractional जीवन जी हमें एक असफल जीवन की और ले जाता है. तो जीवन की सफलता के लिए पहले जागने और उठने पर ध्यान लगाये, ५ से ८ मिनट, उसके बाद, प्रति दिन अपने सारे कार्यो पर एक दृष्टि डालें फिर मन ही मन देखें के सबसे पहले आवश्यक क्या है, तत्पश्चात उसका विश्लेषण करें - क्या इनमे से कुछ ऐसा है जो केवल शरीर या इन्द्रियों की पिपासा शांत करने के लिए है, हमारे जीवन यापन व् परिवार चलाने का कोई दिनचर्या का कार्य समय है,या वह हमारे मन व् आत्मा की अंतर-संतुष्टि के लिए है.

तो सबसे पहले जो हमारा धर्म कर्तव्य है जीवन यापन व् महत्वपूर्ण दिनचर्या का काम वो करेंगे, उसके बाद मन आत्मा की संतुष्टि के लिए अगर कोई सत्कार्य हो तो उसे चुनेंगे और उसके बाद यदि समय बचा तो शरीर व् इन्द्रियों को सुख देने वाले कार्य करेंगे पर यहाँ आप अपना समय बहुत सोच समझ कर निर्धारित करें.

आवेशपूर्ण आवेग impulse में आकर कोई भी शरीर या इन्द्रियों से सम्बंधित कार्य कभी न करें। आवेश आवेग के स्थान पर विनम्रता से ध्यान लगाएं और देखें के क्या इससे कोई सदुप्योगी लाभ होने वाला है. ये सारी प्रक्रिया कुछ पल में होती है इसलिए जब आप योजना बद्ध समय का वितरण करेंगे तो आपका हर दिन एक सम्पूर्णता का प्रतीक होगा और आपका हर दिन, सप्ताह सार्थक अर्थपूर्ण व् विचारपूर्ण होगा जो आपको सफलता की उंचाईयों तक ले जाएगा - यहाँ सफलता केवल भौतिक सामाजिक प्रगति नहीं आध्यात्मिक व् आत्मिक सुखदाई भी होगी।

प्रश्न : तामसिक विचारो को कैसे रोकें?

तामसिक प्रवृत्ति मानसिक दुर्बलता की उत्पत्ति होती है। इसके प्रभाव से हम सदैव आलसी, सुस्त, अकर्मण्य बने रहते है, हमारा तेज क्षीण हो जाता है, और निराशा की भावना हमारे मानसिक क्षेत्र को ढक लेती है। किसी कार्य के लिये दिल में उत्साह नहीं होता। छोटे-छोटे कामों में भी भय लगता है और यही इच्छा होती है कि हम बिना कुछ उद्योग और परिश्रम के बैठे-बैठे सोते रहें। ऐसे लोगों में किसी उत्तम कार्य के लिये स्फूर्ति नहीं देखी जाती और वे समझते हैं कि हम में ऐसे कार्यों के लिये शक्ति और योग्यता ही नहीं है। यह अवस्था बड़ी भयंकर और पतन मार्ग पर ले जाने वाली है। गीता में “मा ते संगोऽत्सव कर्मणि”, “योगस्थः कुरु कर्माणि” आदि का आशय यही है कि अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपने भीतर कभी अकर्मण्यता की भावना को टिकने नहीं देना चाहिये और योग युक्त होकर कर्म करते रहना चाहिये। प्रत्येक " सत्कार्य " को अपना ईश्वर-प्रेरित कर्तव्य समझ कर करे, उससे क्या लाभ और क्या हानि होगी इसकी चिन्ता सर्वथा त्याग दे।

प्रश्न : ध्यान कैसे लगाएं?

आपके मन की उत्सुकता व् ज्ञान की कामना बहुत ही अच्छा संकेत है और आप उचित व् उच्च दिशा को जा रहें हैं. कृपया कुछ समय दे आपके प्रश्न का विस्तारित उत्तर आपको मिलेगा. सबसे पहले ध्यान की विभिन्न प्रक्रियायों को सीखेंगे और फिर इसका अभ्यास करना। ध्यान का बाहरी वातावरण व् शोर से कोई संबंध नहीं. जब आप सीख जाओगे कोई शोर अशांति, व्याकुलता, उद्वेग, परेशानी न होगी. जीवन में हर पाठ सीखने के लिए एक समय है.
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7>धन, रूप, बल, पद व् विद्या का घमंड - परिणाम व् जीवन सफलता के उपाय - भाग २

अहंकार की तुष्टि किसी चीज को पाने से नहीं बल्कि उस चीज को किसी दूसरे की अपेक्षा अधिक पाने से होती है।
अहंकार गुणों का नहीं वस्तुओं का होता है। संपत्ति का, रूप का, बल का, पद का, विद्या का अहंकार करना यह सिद्ध करता है कि उस व्यक्ति की शिक्षा उन साँसारिक पदार्थों को ही महत्व देने तक सीमित है अथवा उन भौतिक परिस्थितियों को सब कुछ समझने की है जिनके स्थायित्व का कोई ठिकाना नहीं।

अहंकार का उद्देश्य ही यह है कि सामने वालों को यह अनुभव कराया जाय कि वे अहंकारी की तुलना में छोटे हीं हैं। प्रकृति के कुछ ऐसे नियम हैं के घमंडी व्यक्ति का शीर्ष अपने आप नीचा हो जाता है. अहंकार जीवन के कुछ दिन भौतिक सुख देगा पर इसका परिणाम जीवन गति को विराम लगाता है.

धन सम्पदा का नशा

कुछ व्यक्ति पूर्व कर्मो के कारण इस जीवन में बहुत अधिक सम्पत्ति व् धन अर्जित कर लेते हैं उनमे जो आध्यात्मिक प्रवर्ति के हैं वह कभी भी अपने धन संपत्ति की प्रदर्शनी नहीं करते, सादा जीवन, नम्रता व् अपना कुछ समय दुसरो की भलाई में लगाते हैं. कुछ दूसरे बहुत अधिक सम्पद्दा के स्वामी बन जाते हैं पर उनके संस्कार लगभग न के बराबर होते हैं. ऐसे लोगों का अहंकार हजार गज ऊँचे भवन या अट्टालिका से भी ऊँचा हो जाता है. उनके मन में उन्हें ज्ञात होता है के न तो वो उस लायक हैं न ही उसके अधिकारी, ऊपर से सुसंस्कारों से रहित ऐसे लोग अपने अहंकार में आकर बहुत अत्याचार व् जुल्म करते हैं. अमीरी के ठाठ−बाठ इसी दृष्टि से बनाये जाते है कि संपर्क आने वाले लोग अपने साथ उसकी तुलना करें और यह स्वीकार करें कि यह व्यक्ति हमारी अपेक्षा बड़ा या बहुत बड़ा है। वैभव के आधार पर बड़प्पन पाने का तरीका ही यह है. कर्मो का खेल कुछ ऐसा होता है के ऐसे अहंकारी व्यक्ति जितनी ऊंचाई पर अपने को दिखाने का प्रयास करतें हैं उतनी ही ऊंचाई से गिर जाते हैं.

आज जो धनी है आजीवन वैसी ही स्थिति में जरुरी नहीं के बना रहेगा आय घटने खर्च बढ़ने के कई बार ऐसे अप्रत्याशित कारण होते है जिनके कारण संग्रहित पूँजी शीघ्र समाप्त हो जाती है। व्यापार में मन्दी, कृषि में वर्षा न होना या बाढ़,चोरी, बीमारी, मुकदमेबाजी, विवाह या दिखावे बाजी के ऐसे खर्च आ सकते है जिनके कारण सम्पन्नता एक झटके में अदृश्य हो जाय। आय के स्त्रोत सूख जाते है। बच्चे व्यसनी, आलसी एवं कुमार्गगामी निकले तो भी संपत्ति देर तक नहीं ठहरती, भले ही वह कितनी अधिक क्यों न हो पिछले दिनों सुसम्पन्न कहलाने वाले व्यक्ति दर−दर की ठोकरें खाते देखे जा सकते हैं.

रूप का अहंकार व् नशा

पृथ्वी जैसे लाखो सुन्दर ग्रह हैं जहाँ असंख्य प्रजातियों के प्राणी रहते हैं, हर ग्रह में भौतिक शरीर वाले प्राणिओ के आकार व् बाह्र्य रूप वहां के वातावरण पर निर्भर करते हैं. हमारी पृथ्वी पर मनुष्य सबसे उच्च श्रेणी के प्राणी हैं, चाहे बाहर से कैसे भी हों, अंतर में आत्मा का अंश है

पर पिछले जन्मो जन्मांतरों के कर्मो के कारण हर प्राणी का मौलिक ज्ञान व् रूप अलग होता है. आज हमारा प्रश्न केवल बाहरी रूप से है तो इस जन्म में जो रूप व् परिवार हमें प्राप्त हुआ है उसके पीछे भी हमारे पूर्व कर्म हैं. हम सब जानते हैं के जो मनुष्य वास्तव में ज्ञाता होते हैं उन्हें

बाहरी रूप से कोई वास्ता नहीं होता. पर आज के कलयुग में जहाँ केवल बाहरी रुप ही बिकता है जिन लोगो को रूपवान शरीर मिला है उन्हें अपने आप को नुमाइश नहीं करना चाहिए। अपने रूप या यौवन को प्रदर्शित कभी न करें, जहाँ तक हो सके उसे ईश्वर का प्रसाद समझ

सादा रहें उसे अपने तक सीमित रखें उसका दुरूपयोग किसी को लुभाने के लिए या पैसा कमाने के लिए न करें। कई बार रूप वान मनुष्य चाहे विवेकी हों भी, दूसरे लोग उनकी अहंकार की भावना को जगा देते हैं. ऐसा कभी न होने दें. अपने रूप, शारीरिक सुंदरता पर अभिमान व् अहंकार एक नशा बन जाता है और यदि विवेक व् शील न हो तो उसका परिणाम भयानक होता है. अधिकतर ऐसे अहंकारी लोग मनोविकारों के शिकार हो जाते हैं.


शरीर बल या मनोबल का दुरूपयोग व् अहंकार का अर्थ है एक दिन यह बल हमसे छीन लिया जाएगा. हजारों जड़ मूर्ख शरीर के बल पर दुर्बलों को सताकर जो पाप कर्म कमाते हैं वह इसी जीवन में एक अभिशाप बन जाता है.

पदवी पद व् कुर्सी का अहंकार - अति भयानक होता है और इसके मद में कितने ही आरम्भ में विवेकी व् धर्मी लोग, भ्रष्ट बन अधर्मी, अविवेकी बन जाते हैं. याद रखें के ईश्वर से मिली योग्यताओं को जनता की सेवा में लगा कर ही हम अपनी आत्मा के पथ पर आगे जायेंगे, यदि हम अपने पद का दुरूपयोग करेंगे तो पैसा वैभव तो खूब मिलेगा पर वह क्षण भंगुर ही होगा। पाप से कमाया धन अमृत नहीं ज़हर बन जाता है. अपने व् परिवार के अच्छे स्वस्थ्य व् आत्मा और मन की शान्ति के लिए अपने पद का प्रयोग केवल उन लोगो की भलाई में लगाएं जो वास्तव में उसके अधिकारी हकदार हैं.

विद्या व् ज्ञान का अहंकार एक बौद्धिक बेईमानी ही है. विद्या ज्ञान व् शिक्षा पाना ईश्वर का अति सुन्दर प्रसाद है और अपने ज्ञान का अहंकार आदमी को अविवेकी बना भाव जगत से दूर ले जाता है. विद्वता की शोभा अहंकार नहीं विनम्रता है।

अहं जब अपने आकार से ऊपर जाए - कैसे बचें और जीवन को सफल बनाएं ?

सम्पत्ति की अस्थिरता को अनुभव करें और उस पर घमंड न करें, धन का अहंकार आज किया जा सकता है पर कल जब वह न रहेगा तो आसमान से गिर कर पाताल से टकराने जितनी चोट लगेगी। ऐसे व्यक्ति दूसरों की सहानुभूति भी अर्जित नहीं कर पाते। दुर्दिनों में उन पर उपहास ही बरसते है। धन हानि के साथ इस तिरस्कार का प्रभाव मिलकर कष्ट को दूना कर देते है।

अभिमान को स्वाभिमान में बदलें और अहंकार के कांटो को निकालकर विनम्रता के कोमल फूलों से इतना भर दें के अहंकार वास्तव में अंतर में रहे ही नहीं. मोह और आसक्ति रहित भाव से कार्य करते चलें जाय। कर्म करो पर उसमें आसक्त मत हो जाओ।हम जो कुछ कर रहे हैं वह ईश्वरकी प्रेरणा से करते हैं, तो वह प्रत्येक कार्य, कर्म व् उद्यम ईश्वर की लीला बन जाएगा।

स्वाभिमान एक सफल जीवन की विशेषता है पर अहंकार अहितकर। आत्म गौरव व् उचित मात्रा में स्वाभिमान होना अपने को सफलता की राह पर ले जाता है पर अहंकार तो झूठ का ही स्वरुप है, हमारा कल्पित स्वपन है जो वास्तव में है ही नहीं इसलिए उसका त्याग ही हमें सद्भावना व् सुहृदय से भरेगा और ऐसा होने पर हम आध्यात्मिक यात्रा की और अग्रसर हो सकते हैं.
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