Saturday, March 26, 2016

23>भाग्यवर्धक वस्तुएं=++All things are in details=***( 1 to 1/e )

23>आ =Post=23>***भाग्यवर्धक वस्तुएं***( 1 to 1/e )

 1>-------भाग्यवर्धक वस्तुएं
 1 /a= रुद्राक्ष १ से २१ मुखी रुद्राक्ष
1/,b=आपकी ग्रह-राशि-नक्षत्र के अनुसार रुद्राक्ष धारण करें
1/c= दुखों का नाश करता है रुद्राक्ष
1/d>শিবের স্বপ্ন সবসময়েই ইতিবাচক।
1/e>সুখস্বপ্ন অনেক রকমের হয়।কিছু স্বপ্নপ্রতীক রয়েছে
,

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1>-----------भाग्यवर्धक वस्तुएं
                 1. रुद्राक्ष- - - - - - - - - -=//= 2. शंख- - - - - - - -- - =//= 3. घंटी .ii
                 4. स्वस्तिक का चिह्न- ---=//= 5. ऊं का लॉकेट- - - - =//= 6. कलश ii
                 7. गंगाजल-- - -- - - - -- =//= 8. मौली (कलाई पर बंधने वाला नाड़ा) ii
                 9. कमल गट्टे, तुलसी या रुद्राक्ष की माला।- 
               10. सालग्राम और पंच देव की पीतल की मूर्ति। ii
                11. दीवार पर लगा प्रकृति का चित्र या हंसमुख परिवार का चित्र॥ ii  )))
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1/ a= रुद्राक्ष १ से २१ मुखी रुद्राक्ष,

1 Mukhi to 21 Mukhi Rudraksh

रुद्राक्ष १ से २१ मुखी रुद्राक्ष,,,,1 Mukhi to 21 Mukhi Rudraksh

रुद्राक्ष देवता मंत्र

१ मुखी शिव 1-ॐ नमः शिवाय । 2 –ॐ ह्रीं नमः

२ मुखी अर्धनारीश्वर ॐ नमः

३ मुखी अग्निदेव ॐ क्लीं नमः

४ मुखी ब्रह्मा,सरस्वती ॐ ह्रीं नमः
५ मुखी कालाग्नि रुद्र ॐ ह्रीं नमः
६ मुखी कार्तिकेय, इन्द्र,इंद्राणी ॐ ह्रीं हुं नमः
७ मुखी नागराज अनंत,सप्तर्षि,सप्तमातृकाएँ ॐ हुं नमः
८ मुखी भैरव,अष्ट विनायक ॐ हुं नमः
९ मुखी माँ दुर्गा १-ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः २-ॐ ह्रीं हुं नमः
१० मुखी विष्णु १-ॐ नमो भवाते वासुदेवाय २-ॐ ह्रीं नमः
११ मुखी एकादश रुद्र १-ॐ तत्पुरुषाय विदमहे महादेवय धीमही तन्नो रुद्रः प्रचोदयात २-ॐ ह्रीं हुं नमः
१२ मुखी सूर्य १-ॐ ह्रीम् घृणिः सूर्यआदित्यः श्रीं २-ॐ क्रौं क्ष्रौं रौं नमः
१३ मुखी कार्तिकेय, इंद्र १-ऐं हुं क्षुं क्लीं कुमाराय नमः २-ॐ ह्रीं नमः
१४ मुखी शिव,हनुमान,आज्ञा चक्र ॐ नमः
१५ मुखी पशुपति ॐ पशुपत्यै नमः
१६ मुखी महामृत्युंजय ,महाकाल ॐ ह्रौं जूं सः त्र्यंबकम् यजमहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम उर्वारुकमिव बंधनान्

मृत्योर्मुक्षीय सः जूं ह्रौं ॐ ,,
१७ मुखी विश्वकर्मा ,माँ कात्यायनी ॐ विश्वकर्मणे नमः
१८ मुखी माँ पार्वती ॐ नमो भगवाते नारायणाय
१९ मुखी नारायण ॐ नमो भवाते वासुदेवाय
२० मुखी ब्रह्मा ॐ सच्चिदेकं ब्रह्म
२१ मुखी कुबेर ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्य समृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा


1/,b=आपकी ग्रह-राशि-नक्षत्र के अनुसार रुद्राक्ष धारण करें

ग्रह राषि नक्षत्र लाभकारी रुद्राक्ष मंगल मेष मृगषिरा-चित्रा-धनिष्ठा ३ मुखी
शुक्र वृषभ भरणी-पूर्वाफाल्गुनी-पूर्वाषाढ़ा ६ मुखी,१३ मुखी,१५ मुखी
बुध मिथुन आष्लेषा-ज्येष्ठा-रेवती ४ मुखी
चन्द्र कर्क रोहिणी-हस्त-श्रवण २ मुखी, गौरी-शंकर रुद्राक्ष
सूर्य सिंह कृत्तिका-उत्तराफाल्गुनी-उत्तराषाढ़ा1 मुखी, १२ मुखी
बुध कन्या आष्लेषा-ज्येष्ठा-रेवती ४ मुखी
शुक्र तुला भरणी-पूर्वाफाल्गुनी-पूर्वाषाढ़ा ६ मुखी,१३ मुखी,१५ मुखी
मंगल वृष्चिक मृगषिरा-चित्रा-धनिष्ठा ३ मुखी
गुरु धनु-मीन पुनर्वसु-विषाखा-पूर्वाभाद्रपद ५ मुखी
शनि मकर-कुंभ पुष्य-अनुराधा-उत्तराभाद्रपद ७ मुखी, १४ मुखी
शनि मकर-कुंभ पुष्य-अनुराधा-उत्तराभाद्रपद ७ मुखी, १४ मुखी
गुरु धनु-मीन पुनर्वसु-विषाखा-पूर्वाभाद्रपद ५ मुखी
राहु - आर्द्रा-स्वाति-षतभिषा८ मुखी, १८ मुखी
केतु - अष्विनी-मघा-मूल ९ मुखी,१७ मुखी
नवग्रह दोष निवारणार्थ १० मुखी, २१ मुखी
विषेष : १० मुखी और ११ मुखी किसी एक ग्रह का प्रतिनिधित्व नहीं करते।बल्कि नवग्रहों के दोष
निवारणार्थ प्रयोग मे लाय जाते हैं ।
ॐ तत्पुरुषाय विदमहे, महादेवाय धीमहितन्नो रुद्र: प्रचोदयात्। ॐ ,, ૐ Ψ ॐ नमः शिवाय Ψ ૐ
ॐ तत्पुरुषाय विदमहे, महादेवाय धीमहितन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।
रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:। रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।
ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि वा।
दर्द्गोषु पूर्णमसे च पूर्णेषु दिवसेषु च।
रुद्राक्षधारणात् सद्यः सर्वपापैर्विमुच्यते॥
यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:।
न तथा दृश्यते अन्या च मालिका परमेश्वरि:।। अर्थात संसार में रुद्राक्ष की माला की तरह अन्य कोई
दूसरी माला फलदायक और शुभ नहीं है।
श्रीमद्- देवीभागवत में लिखा है :रुद्राक्षधारणाद्य श्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते।
अर्थात संसार में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर श्रेष्ठ ===

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1/c= दुखों का नाश करता है रुद्राक्ष


माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्त्पत्ति रूद्र देव के आंसुओं से हुई है। रुद्राक्ष का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है। एक आध्यात्मिक और दूसरा वैज्ञानिक और स्वास्थवर्धक।

अध्यात्मिक प्रभाव

एक मुखी रुद्राक्ष का प्रतीक भगवान शिव को माना जाता है तथा इस एकमुखी रुद्राक्ष का सतारुढ़ ग्रह सूर्य है अत: सूर्य द्वारा शुभ फलों की प्राप्ति तथा सूर्य की अनुकूलता हेतु इसे धारण किया जाता है। एक मुखी रुद्राक्ष आध्यात्मिकता का प्रकाशक बनकर मुक्ति का मार्ग प्राश्स्त करता है. इसे पूजने तथा धारण करने से व्यक्ति के समस्त दुखों एवं पापों का शमन होता है तथा शांति एवं सुख प्राप्त होता है. उनके इर्द गिर्द अष्ट सिद्धियाँ भ्रमण करती रहती हैं। और मोक्ष कों प्राप्त करते है और जन्म जन्म के चक्कर से मुक्त होत जाते है। शास्त्रों में वर्णित है की एक मुखी रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति कों कभी भी धन धान की कमी नहीं होती है और आकस्मित मौत भी नहीं हो सकती.

वैज्ञानिक एवं स्वास्थ्यवर्धक

जो व्यक्ति पागल हो जाते हैं वैसे व्यक्ति कों एकमुखी रुद्राक्ष घिस कर मक्खन के साथ सुबह शाम देने से उसका मानसिक संतुलन ठीक होत जाता है। जो व्यक्ति कोमा में चले जाते हैं वैसे व्यक्ति कों एक मुखी रुद्राक्ष का एक बीज निकाल कर, पीस कर पिलाने से वह कोमा से बाहर आ जाते हैं।

नेत्रों की ज्योती, सिरदर्द , हृदय रोग , नजर दोष ,उदर संबंधी रोग जैसी अनेक व्याधियों से छुटकारा मिलता है. स्नायु रोग,अतिसार,ह्रदय गति से संबंधित रोगों को दूर करने में एक मुखी रुद्राक्ष लाभदायक होता है। घर मे मंदिर मे भगवान शिव को अपर्ण करने पर घर कलेश और वास्तु दोष दूर होते है। एक मुखी रूद्राक्ष गोलाकार रूप में तथा काजू दाना रूप वाला भी होता है. गोलाकार रूपी रुद्राक्ष मिलना दुर्लभ होता है।
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1/d>শিবের স্বপ্ন সবসময়েই ইতিবাচক।

স্বপ্নের অর্থ নির্ণয় কেবলমাত্র পশ্চিমি মনস্তত্ত্বের একচেটিয়া বিষয় নয়। ভারত, চিন, মিশর প্রভৃতি প্রাচীন সভ্যতায় বার বার আলোচিত হয়েছে স্বপ্নের গূঢ়ার্থ। রামায়ণ, মহাভারত ও বিভিন্ন পুরাণে বার বার এসেছে স্বপ্ন ও তার অর্থের প্রসঙ্গ। এই ব্যাখ্যার সঙ্গে সিগমুন্ড ফ্রয়েড-কৃত স্বপ্ন-ব্যাখার কোনও সম্বন্ধ নেই। এ এক প্রাচীন ও প্রায়-বিলুপ্ত ব্যাখ্যাপদ্ধতি। কিন্তু আজও ভারতের একটি বৃহৎ ভূগোলে এই ব্যাখ্যা চলিত রয়েছে।

এই ব্যাখ্যাপদ্ধতি অনুসারে, স্বপ্নে দেব-দেবী দর্শন অত্যন্ত শুভ বিষয়। সব সময়ে যে দেব-দেবীদের পূর্ণ রূপে দেখা যাবে এমন নয়। দেব-দেবীদের অনুষঙ্গও স্বপ্নে আসতে পারে। এখানে শিব ও তাঁর অনুষঙ্গগুলির স্বপ্নার্থ আলোচিত হল—

• স্বপ্নে শিবলিঙ্গ দর্শন অতি শুভ বিষয়। এর অর্থ কোনও না কোনও ক্ষেত্রে জয়লাভ। তা আর্থিক দিক থেকে শুভ ইঙ্গিত হতে পারে, অন্যান্য দিক থেকেও হতে পারে। শিবলিঙ্গের স্বপ্ন পূর্ণতার ইঙ্গিতবাহী।

• স্বপ্নে যদি কারোর হরপার্বতীর দর্শন ঘটে, তিনি জানবেন সৌভাগ্য তাঁর হাতের মুঠোয়। অর্থ, পরিবার, দূর-ভ্রমণ, জীবিকা— সব বিষয়েই সমৃদ্ধি অবশ্যম্ভাবী।

• স্বপ্নে যদি নৃত্যরত শিবকে দেখেন, তবে তিনি জানবেন। তাণ্ডবরত শিব মোটেই এখানে সংহারকর্তা নন। বরং তাঁর এই মূর্তি সংকটের অবসানের কথাই ব্যক্ত করে।

• শিবমন্দিরের স্বপ্ন সন্তানের জন্মের কথা বলে। এবং বেশির ভাগ ক্ষেত্রে তা পুত্রসন্তান। আবার এমন স্বপ্ন রোগমুক্তিকেও নির্দেশ করে।

• স্বপ্নে ত্রিশূল দর্শন অতীত, বর্তমান ও ভবিষ্যৎ— এই তিন কালকে ব্যক্ত করে। ব্যক্ত করে জন্ম, জীবন এবং মৃত্যুকেও। যে কোনও সংকটের সমাধান যে আসন্ন, তা ত্রিশূলের স্বপ্ন ব্যক্ত করে।

• কেউ যদি শিবের কপালস্থ চাঁদটিকে স্বপ্নে দেখেন, তিনি জানবেন খুব শিগগির তাঁকে কোনও গুরুত্বপূর্ণ সিদ্ধান্ত নিতে হবে। শিক্ষা-সংক্রান্ত ক্ষেত্রে অর্ধচন্দ্রের স্বপ্ন শুভযোগের কথা বলে।

• শিবের তৃতীয় নয়নকে যদি কেউ স্বপ্নে দেখেন, তাঁর জীবনে গুরুত্বপূর্ণ পরিবর্তন অবশ্যম্ভাবী। এই নয়ন সেক্ষেত্রে সচেতনতার প্রতীক।

• যদি কেউ স্বপ্নে ডমরু দর্শন করেন, তা হলে তাঁর জীবনে শুভশক্তির প্রভাব বাড়তে পারে বলে জানা যায়।

• শিবের জটা থেকে যদি গঙ্গা নির্গত হতে দেখা যায়, তা হলে বুঝতে হবে, জ্ঞান দ্বারা তাঁর আত্মা শুদ্ধ হবে। ভারতীয় পরম্পরায় গঙ্গা জ্ঞান ও শুদ্ধতার প্রতীক।

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1/e>সুখস্বপ্ন অনেক রকমের হয়।কিছু স্বপ্নপ্রতীক রয়েছে


সুখস্বপ্ন অনেক রকমের হয়। কোনও কোনও স্বপ্নে হয়তো আপনি নিজেকে রাজা-বাদশা হিসেবেও দেখে থাকেন। কিন্তু তার মানে এই নয় যে, সত্যিই রাজৈশ্বর্য প্রাপ্তির কথা জানাচ্ছে সেই স্বপ্ন। এ কথা সবাই জানি যে, স্বপ্নে দৃষ্ট বস্তু বা ঘটনা মোটেই কোনও তথাকথিত বাস্তব অনুষঙ্গ বহন করে না। অন্ততপক্ষে সিগমুন্ড ফ্রয়েড ও তাঁর অনুগামীরা তো তা-ই বলেন। কিন্তু স্বপ্ন প্রতীকের অন্তরালে কি লুকিয়ে থাকে ভবিষ্যৎদর্শনের বীজ? বিজ্ঞানবাদী ফ্রয়েড বা তাঁর তত্ত্বে বিশ্বাসীরা প্রত্যক্ষভাবে তা মানতে চাইবেন না। কিন্তু ভারতীয় পরম্পরায় স্বপ্নফল একটা বিশেষ বিদ্যা। পৌরাণিক কাল থেকেই তাতে বিশ্বাস রেখেছেন অগণিত মানুষ। একটু তলিয়ে দেখলে বোঝা যায় এবং পশ্চিমী আধুনিক মনোবিদ্যাও জানায়, আমাদের অবচেতনে অনেক সময়েই সঞ্চিত থাকে ভবিষ্যৎ-স্মৃতি। এবং তা প্রতীকের আকারে স্বপ্নে প্রকট হতেই পারে।

সেদিক থেকে দেখলে এমন কিছু স্বপ্নপ্রতীক রয়েছে, যা সৌভাগ্যের দ্যোতক, যা কোনও বস্তু হতে পারে, কোনও ঘটনাও হতে পারে। দেখা যাক তার কয়েকটিকে।

• কোনও কিছু বিপুল পরিমাণে দেখলে জানতে হবে, সম্পদ অথবা শক্তির কোনও অফুরন্ত উৎস আপনার করায়ত্ত হওয়ার সময় এসে গিয়েছে।


• স্বপ্নে নৃত্য দর্শন সর্বদাই শুভ। স্বপ্নে যদি শিশুদের নৃত্যরত দেখা যায় তা হলে ধরতে হবে, আপনার বিবাহ সমারোহ সহকারে হবে। প্রাপ্তবয়স্ক কারোকে নৃত্যপর দেখলে বুঝতে হবে, ব্যবসায় শুভ।

• স্বপ্নে আবহাওয়ার বিষয় দেখলে তা অবশ্যই শুভফলদায়ী। সূর্য বা চন্দ্রোদয়ের দৃশ্য দেখা মানে সৌভাগ্যের সূচনা। বজ্রপাতের স্বপ্নও আকস্মিক সৌভাগ্যের কথা বলে। রামধনুর স্বপ্নের অর্থ— পারিবারিক সৌভাগ্য সুনিশ্চিত। মেঘের মধ্যে তারা প্রবেশ করার স্বপ্নের মানে, সন্তানের জন্ম সমাগত।

• পাখির স্বপ্ন আসন্ন প্রেমের কথা বলে। স্বপ্নে দেখা পাখি যদি মধুর স্বরে ডাকাডাকি করে, তা হলে বুঝতে হবে আপনার সেই প্রেম সুখেরই হবে।


নিজেকে নগ্ন দেখার স্বপ্ন কি দুঃস্বপ্ন? এমন হতেই পারে স্বপ্নের ভিতরে আপনি নিজেকে এমন অবস্থায় নগ্ন দেখলেন, যা বস্তুতপক্ষে অসম্মানজনক। ঘুম ভেঙে অস্বস্তি। সারা দিন ধরে বার বার মনের মধ্যে ঘুরপাক খায় স্বপ্নের অনুষঙ্গ। কেন এমনটা হয়?


মনোবিদরা জানাচ্ছেন—

• স্বপ্নে নিজেকে নগ্ন দেখার অর্থ অসম্মানিত হওয়ার ভয় থেকে জাত হতে পারে।

• আপনার কোনও গোপন কথা লোকে জেনে ফেলবে, এই ভয় থেকেও নিজেকে স্বপ্নে নগ্ন দেখতে পারেন।

• হীনমন্যতায় ভোগেন, এমন ব্যক্তিরা নিজদের স্বপ্নে নগ্ন দেখতেই পারেন। এটা তাঁদের সেই হীনমন্যতারই প্রতিফলন।

• অন্যরা সর্বদা আপনার বিচার করছেন— এই মনোবৃত্তি থেকেও নিজেকে স্বপ্নে নগ্ন দেখা সম্ভব।


• নিরাপত্তাহীনতার বোধ থেকেও এমন স্বপ্ন দেখা অস্বাভাবিক নয়।

• নিজের কোনও কৃতকার্যের জন্য লজ্জিত হলে নিজাকে স্বপ্নে নগ্ন দেখতে পারেন কেউ।

• অন্যের কোনও গোপন কথা আপনি জেনে ফেলেছেন। এই বিন্দু থেকেও একটা বিপরীত প্রোজেকশন হতে পারে।

• যদি নিজেকে স্বপ্নে নগ্ন দেখে লজ্জিত বোধ না করেন, তবে এমন হতেই পারে, আপনার আত্ম-বিশ্লেষণের ফলাফল খুবই উঁচুতে। নিজেকে আপনি এক্সক্লুসিভ ভাবেন।

• কারও কারও মতে নিজেকে স্বপ্নে নগ্ন দেখা নার্সিসিজম বা আত্মপ্রেমের লক্ষণ হতে পারে।


১. টাইটানিক দুর্ঘটনা:

১৯১২ সালে টাইটানিক-দুর্ঘটনা ঘটে। তারপর অজস্র মানুষ দাবি করতে থাকেন যে, তাঁরা নাকি এই দুর্ঘটনা ঘটার আগেই স্বপ্নে একটা বিশাল জাহাজকে ডুবে যেতে দেখেছিলেন। এইসব দাবির বেশিরভাগই অবশ্য ভুয়ো বলে মনে করা হয়। কিন্তু অন্তত একজনের স্বপ্নকে অস্বীকার করার উপায় নেই। কারণ টাইটানিক-দুর্ঘটনা সম্পর্কে নিজের স্বপ্নের কথা তিনি চিঠি লিখে জানিয়েছিলেন তাঁর এক পরিচিতকে। চিঠির তারিখ দেখে জানা যায়, চিঠিটি লেখা হয়েছিল টাইটানিক-ট্র্যাজেডির আগে।

২. আব্রাহাম লিঙ্কনের মৃত্যু:

১৮৬৫ সালে মার্কিন রাষ্ট্রপতি আব্রাহাম লিঙ্কনের মৃত্যুর দু’সপ্তাহ আগে তিনি এক অদ্ভুত স্বপ্ন দেখেন। তিনি দেখেন যে, হোয়াইট হাউসে এক শ্রাদ্ধানুষ্ঠান চলছে। সেই অনুষ্ঠানে রাখা রয়েছে একটি কফিন। অনুষ্ঠানে সমাগতদের মধ্যে কোনও একজনকে তিনি জিজ্ঞাসা করলেন,‘‘ কফিনের ভিতরে কার মৃতদেহ শায়িত?’’ উত্তরে সেই ব্যক্তি বললেন, ‘‘আমেরিকার রাষ্ট্রপতির’’। লিঙ্কন পরের দিন সকালে এই অদ্ভুত স্বপ্নের কথা জানান নিজের স্ত্রীকে। আর তার হপ্তা দুয়েক পরেই আততায়ীর গুলিতে লিঙ্কন নিহত হন।

৩. মার্ক টোয়েনের ভাইয়ের মৃত্যু:

মার্কিন লেখক মার্ক টোয়েন ও তার ভাই হেনরি এক সময়ে কাজ করতেন মিসিসিপি নদীতে চালিত বোটগুলিতে। একবার মার্ক স্বপ্ন দেখেন, একটি ধাতব কফিনে হেনরির মৃতদেহ শায়িত রয়েছে তাঁর বোনের বাড়িতে। এই স্বপ্নের এক সপ্তাহ পরেই এক মোটর বোট বিস্ফোরণে মৃত্যু হয় হেনরির। দুর্ঘটনায় মৃত অন্যদের দেহ কাঠের কফিনে শোওয়ানো হলেও ঘটনার এক প্রত্যক্ষদর্শী হেনরির মৃতদেহটির দুরবস্থা দেখে করুণাবশত তাঁকে শুইয়ে দেন একটি ধাতব কফিনে।

ক্যালিগুলার হত্যা:

রোমান সম্রাট ক্যালিগুলা নিজের মৃত্যুর দিন কয়েক আগে একটি স্বপ্নে দেখেন যে, দেবরাজ জুপিটারের সিংহাসনের সামনে তিনি আনীত হয়েছেন, এবং জুপিটার তাঁকে লাথি মেরে পৃথিবীতে পাঠিয়ে দিচ্ছেন। এই স্বপ্নকে অনেকেই মৃত্যুর পূর্বাভাস বলে ব্যাখ্যা করেন। ক্যালিগুলা এই স্বপ্নকে গুরুত্ব দিতে চাননি। এবং পরের দিনই তিনি নিহত হন।

জুলিয়াস সিজারের মৃত্যু:
৪৪ খ্রিষ্টাব্দে জুলিয়াস সিজারের মৃত্যুর দিন কয়েক আগেই সিজারের স্ত্রী কালপুর্নিয়া স্বপ্নে দেখেছিলেন, তাঁর স্বামী নিহত হচ্ছেন আততায়ীদের হাতে। ভীত কালপুর্নিয়া সিজারকে অনুরোধ করেন যে, তিনি যেন সেনেটে না যান। সিজার সেই অনুরোধ রক্ষা করেননি। এবং শেষ পর্যন্ত সেনেটেই আততায়ীদের হাতে ছুরিকাঘাতে তিনি নিহত হন।
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Friday, March 25, 2016

22>দোল যাত্রা--होली - দোল উৎসব রঙে রঙে রাঙিয়ে দেয়ার দিন।

22>आ =Post=22>***দোল যাত্রা-=श्रीकृष्ण ***( 1 to 22 )

1----------দোল যাত্রা--होली - দোল উৎসব রঙে রঙে রাঙিয়ে দেয়ার দিন।
                 23th March 2016(by self edit )
2>*** দোল যাত্রা ***কিছু কথা ****
3>দোলের ইতিহাসঃঃঃঃ
4>***..পৌরানিক উপাখ্যান অনুযায়ী,
5>  বিভিন্ন লোক কথা অনুযায়ী,
6>***..ধুন্ধি  বধঃ রঘু  বংশের পৃথ্যু রাজার রাজত্বে
7>***..কামদেবঃ দক্ষ রাজা কর্তৃক শীবকে অপমান
8>উৎসবের আগের দিন ‘হোলিকা দহন’ হয়
9>দোল হিন্দু ধর্মের একটি গুরুত্বপূর্ণ উৎসব।
10>62 सालों बाद आया है भद्रा योग, होलिका दहन पर क्या है इसका महत्व
11>সবাইকে দোল পূর্ণিমার শুভেচ্ছা,
12>श्री कृष्ण- श्रीकृष्ण=कृष्ण हैं कौन?
13> श्री कृष्ण एवं अर्जुन
14> राधे ... राधे .. श्री राधे कृष्णा
15>हरे कृष्ण महामंत्र की महिमा
16>शिवपुराण के अनुसार एक ऋषि के वरदान ने की थी द्रौपदी की चीरहरण से रक्षा
17>श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया ।
18>গান্ধারীর অভিশাপে কীভাবে দেহত্যাগ হয় শ্রীকৃষ্ণের?
19>जानिए कैसे खत्म हुआ था श्रीकृष्ण सहित पूरा यदुवंश ?
20>कैसे हुआ कृष्ण और यदुवंश का अंत, दर्दनाक कहानी!
21>जानिए कौन था यब बहेलिया।
22>सफलता के लिए जानिए श्रीकृष्ण के ये 11 सूत्र

More-(See आ =Post=24>-- श्रीकृष्ण--Part-2)--(आ =Post=24)


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1>সবাইকে দোল পূর্ণিমার শুভেচ্ছা, মন রাঙিয়ে নিন লাল-নীল-সবুজ-হলুদ-গোলাপি আবীরে।
      ( তথ্য় সংগ্রহ fb এবং অনান্য় গ্রন্থ )

In Bengal and Odisha, Dol Purnima or Dol Jatra (Bengali: দোল যাত্রা); is a major festival. This festival is dedicated to Sri Krishna. On this auspicious day, an image of Krishna, richly adorned and besmeared with colored powder (Abir in Bengali), is taken out in procession, in a swinging palanquin, decorated with flowers, leaves, colored clothes andpapers. The procession proceeds forward to the accompaniment of music, blaring of conch shells, trumpets and shouts of 'Jai' (victory).

Dol Purnima becomes all the more significant for Bengalis, because this is also the birthday of Chaitanya Mahaprabhu (1485–1533). He was a great Vaishnava saint, who popularized modern sankirtana. He elevated the passion of Radha and Krishna to a high spiritual plane. He underlined the emotional at the cost of the ceremonial side of devotion. Followers of Chaitanya School of Vaishnavism, believe Chaitanya to be the manifestation of Krishna. Chaitanya Mahaprabhu believed that the essence of sadhana is always the loving remembrance of Hari. The 2016 date is March 23.
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2>*** দোল যাত্রা ***কিছু কথা ****
আজ 'দোল পূর্ণিমা' বা 'হোলি'। 'দোল' বা 'হোলি' হিন্দুদের এক পবিত্র উৎসব । নানান রীতিতে বাংলা এবং ভারতের সর্বত্র এই উৎসব পালিত হয়।
দোল যাত্রা বা দোল পুর্নিমা বা হোলি বিভিন্ন নামে আমরা জানি।
আসলে দোল পুর্নিমা কি?
দোল যাত্রা হলো হিন্দু বৈষ্ণব উৎসব। এটি ফাল্গুন মাসের পুর্নিমা তিথিতে হয়। এর অপর নাম বসন্তোৎসবও বলা হয়। এছাড়া এই দিনে নাকি শ্রী মন চৈতন্য মহাপ্রভুর জন্ম বলে একে গৌর পুর্নিমাই বলা হয়ে থাকে।
.
দোল উৎযাপনকারীঃ বিশেষত ভারতের বিভিন্ন রাজ্যে, নেপাল, বাংলাদেশে সহ যে সব দেশে হিন্দু ধর্মালম্বীরা আছে সেখানে দোল পালন করা হয়।
*) দোল প্রধানত ৩-১৫ দিন পর্যন্ত পালন করা হয়।
 বর্তমানে  হোলি বা দোল পুর্নিমা দুই দিনে অনুষ্টিত হয়।প্রথম দিন ন্যাড়া বা খড় পোড়ানোর মাধ্যমে শুরু হয়।
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3>দোলের ইতিহাসঃঃঃঃ
এ সম্বন্ধে বিভিন্ন মত আছে। বৈষ্ণব মত অনুযায়ী , ভগবান শ্রীকৃষ্ণের গায়ের রঙ ছিল কালো মেঘের মতো, আবার রাধার রঙ ছিল দুধে আলতা রং্যের মতো। সে জন্য ভগবান স্রীকৃষ্ণের কিছুটা ঈর্ষার কাজ করতো। তখন মা যশোদাকে মনের কথা জানলেন। মা যশোদা কৃষ্ণকে বললেন, "তুমি তোমার মনের মতো রঙ দিয়ে রাধাকে সাজিয়ে দিয়ো। " দুষ্টু কৃষ্ণ ফাক বুঝে রাধার মুখে রঙ ঢেলে দেন। সেই থেকেই শুরু হয় দোল খেলার রীতি।
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4>***..পৌরানিক উপাখ্যান অনুযায়ী,
হোলি উৎসবের পেছনে বিভিন্ন পৌরাণিক ও লোককাহিনী প্রচলিত আছে এর মধ্যে প্রধান ‘হোলিকা দহন’ কাহিনী । দৈত্যরাজ হিরণ্যকশিপু ব্রহ্মার বরে বলীয়ান হয়ে দেবলোক আক্রমণ করে, দেবলোক তার পরম  শত্র্রু বা প্রতিপক্ষ  । কিন্তু হিরণ্যকশিপুরই পুত্র প্রহ্লাদ ভগবান বিষ্ণুর পরম ভক্ত, তাকে হত্যা করার নানান ষড়যন্ত্র করে পিতা হিরণ্যকশিপু । কিন্তু  বিষ্ণুর আশীর্বাদে সব ষড়যন্ত্র ব্যর্থ হয়। হিরণ্যকশিপুর ভগ্নী হোলিকাও ছিল বর প্রাপ্ত যে, অগ্নি তাকে বধ -বা দগ্ধ করতে পারবেননা । সুতরাং হিরণ্যকশিপু হোলিকার কোলে বালক প্রহ্লাদকে বসিয়ে আগুন লাগিয়ে দিল । দাউদাউ অগ্নিশিখার মধ্যে প্রহ্লাদ ভগবান বিষ্ণুকে স্মরণ করেন । বিষ্ণুর কৃপায় প্রহ্লাদ  অক্ষত দেহে অগ্নিকুণ্ড থেকেও বেরহয়ে আসে , আর হোলিকা পুড়ে নিঃশেষ হয়ে যায়। এই থেকেই হোলি কথাটির উৎপত্তি । বাংলায় আমরা বলি ‘দোলযাত্রা’ আর পশ্চিম ও মধ্যভারতে ‘হোলি’, আমাদের অনেক ধর্মীয় উৎসবেই আঞ্চলিক লোক-সংস্কৃতি ও রীতির প্রভাব দেখা যায়, হোলিও তার ব্যতিক্রম নয়।
বাংলার দোলযাত্রায় গৌড়ীয় বৈষ্ণব রীতির প্রাধান্য, এখানে মুলতঃ রাধা-কৃষ্ণের প্রেম লীলার বার্তাই সঞ্চারিত হয় । আর্য যুগ থেকে এ উৎসব চলে আসছে বলে শোনা যায়। তবে এর উদযাপনের রীতিনীতি পালটেছে সময়ের সাথে সাথে। বিবাহিত নারীরা পুরাকালে তার পরিবারের মঙ্গল কামনায় রাখী  পূর্ণিমায় রঙের এই উৎসব করতেন ।

5>  বিভিন্ন লোক কথা অনুযায়ী,
***..পুতনা বধঃ ভগবান শ্রী কৃষ্ণকে দুধপান কর্তৃক হত্যার উদ্দেশ্যে রাজা কংস পুতনা রাক্ষসীকে নিয়োগ করেন। ভগবান শ্রী কৃষ্ণ পুতনার দুধ ও রক্ত পান করে হত্যা করেন এই দোলের দিনে।

6>***..ধুন্ধি  বধঃ রঘু  বংশের পৃথ্যু রাজার রাজত্বে ধুন্ধি নামক এক রাক্ষসী ছিল। মহাদেবের বরপ্রাপ্ত ধুন্ধি রাক্ষসী জানতো যে তার মৃত্যু   বাড়ন্ত বয়স্ক ছেলের হাতে হবে। তাই সে সেই বয়স্ক শিশুদের ধড়ে হত্যা করতো। তৎকালীন পুরোহীত বললেন যে, শীত চলে যাওয়ার পর বসন্তের প্রথম পুর্নিমা(ফাল্গুনী) কিছু ছেলেদের দিয়ে ধুন্ধির চারপাশে খড় কাঠ পুরিয়ে নেচে গেয়ে মন্ত্র পাঠ করে তাহলে .ধুন্ধি মারা যাবে। এবং সেই মতই করে .ধুন্ধি কে মারা হলো। সেই থেকে দোলের আগের রাতে খড় কাঠ পুড়িয়ে হোলি উৎযাপন করা হয়।

7>***..কামদেবঃ দক্ষ রাজা কর্তৃক শীবকে অপমান করায় সীতা রাগে দুঃখে আত্মহুতি দেন। সেই দুঃখে শিব পৃথিবীর কথা ভুলে গিয়ে ধ্যান্মগ্ন হোন। শিবের এহেন আচরনে দেবতারা  শঙ্কিত  হন। তখন তারা কামদেবের শরণাপ্/নহন । কামদেব ধ্যান্মগ্ন শিবকে শর নিক্ষেপ করেন। কামদেবের উপর শিব রুষ্ট হয়ে তৃতীয় চক্ষু দিয়ে কামদেব কে ভস্মীভূতকরেন। কামদেবের স্ত্রী রতিদেবীর অনুরোধে শিব কামদেবকে পুনরুজ্জীবন দেন। পুরাণ মতে দোল পুর্নিমার দিন শিব কামদেব কে ভস্মীভূত করেন বলে দক্ষিন ভারতে এই দিন হোলিকা পালন করে।

8>এখনও অনেক অঞ্চলে রঙ উৎসবের আগের দিন ‘হোলিকা দহন’ হয় অত্যন্ত ধুমধাম করে । শুকনো গাছের ডাল ,কাঠ, পাতা ইত্যাদি দাহ্য-বস্তু অনেক আগে থেকে সংগ্রহ করে তাতে আগুন ধরিয়ে দিয়ে ‘হোলিকা দহন’ হয়, অসুরত্ব আর অমঙ্গল বিনাশের মধ্য দিয়ে । পরের দিন সত্য, প্রেম আর মঙ্গলের উৎসব, রঙের খেলা । দোল আমাদের ঋতুচক্রের শেষ উৎসব, পাতা-ঝরার সময়ে, বৈশাখের প্রতীক্ষায়। এই সময় পড়ে থাকা গাছের শুকনো পাতা, তার ডালপালা একত্রিত করে জ্বালিয়ে দেওয়ার মধ্যে এক সামাজিক তাৎপর্য খুঁজে পাওয়া যায়। পুরনো বছরের আবর্জনা পুড়িয়ে ফেলে নতুন বছরের জন্য পথের আলো খুঁজে নেবার প্রত্যাশা, কবি গুরুর সেই গানের মত,

"ব্যর্থ প্রাণের আবর্জনা পুড়িয়ে ফেলে, আগুন জ্বালো, আগুন জ্বালো.........।"


  আমাদের ছোট বেলায়  মাটি দিয়ে একটা মঠ বানান হত,
 মঠের চূড়ায় ছোট্ট তুলশী গাছ লাগান হত। আর দোলের আগে আগে বাজার থেকে কিনে আনা হত বিভিন্ন রঙের আবীর; লাল, হলুদ, কমলা, গোলাপি, নীল, সবুজ। আমাদের আনন্দ দ্যাখে কে!! আমরা  বনধু   দের নিয়ে বাঁশের আগা কেটে পিচকিরি বানাত (এই বাঁশের পিচকিরি আজ আর দেখাও যায়না ,যা এক অদ্ভ্ুত্ সুন্দর পিচকিরি )   রঙ ছিটানোর জন্য। ছোট ছোট ঘটি এবং বালতি যোগাড় করা হতো রঙ  গুলবার  জন্য।
দোল পূর্ণিমার দিন পুজো হত মাটিদিয়ে বানানো মঠের উপর  তুলশী গাছ লাগিয়ে , মা-ঠাম্মা উপোষ করে দুপুরের মধ্যে পুজো শেষ করতেন। আমাদের মন থাকত না পুজোতে সেদিন, পুজোর হাজার রকমের  প্রসাদ খিচুরী ভোগ ,,প্রসাদের প্রলোভনের চেয়েও হোলিতে বড় হয়ে দাঁড়াত আবীর ছড়ানো, রঙ মাখানো, অধৈর্য অপেক্ষা চলত বড়দের হাঁ সূচক ইঙ্গিতের! ত্ররপর আর আমাদের পায় কে? আবীর ছড়ানো শুরু হতো; শুরু হত বন্ধু, সমবয়সী অথবা দিদা-ঠাম্মাদের খুঁজে বেড়ানোর পালা। কত জন যে কত জায়গাই লুকোতেন সেদিন; খাটের তলায়, আলনার পিছনে । খুঁজে বের করে রাঙ্গিয়ে দেবার আনন্দটা পুরোই আলাদা...! আমার বাবা অফিস থেকে ফিরতেন দেরি করে যাতে তাকে কেউ না পায়, কিন্তু ধরা ঠিকই পরতেন কারো না কারো হাতে। চলত রঙের খেলা; মুঠো মুঠো করে শুকনো ঝুরো আবীরের সাথে সাথে শুকনো  রঙের ছড়াছড়ি, পিচকিরি অথবা বালতি দিয়ে।
সেই আনন্দের দিনগুলি, বর্ণনা করি কি করে, আমার ভাষার সাধ্য কই!! শুধু কানে ভেসে আসে সেই বাঁধ ভাঙা হাসি-আনন্দের কলতান, চোখ বন্ধ করলেই দেখি ছড়িয়ে যাওয়া লাল-নীল-সবুজ-হলুদ আবীরে তৈরি হওয়া আশ্চর্য সেই রঙের চাদর আর নিঃশ্বাসে খুঁজে পাই ধুপ-কর্পূর-তুলশী পাতার সেই মোহময়ী ঘ্রাণ .....................,দিনের শেষে আবারো কলের পাড়ে দাঁড়িয়ে লাইন ধরে স্নানের জন্য অপেক্ষা বা বাড়ির কাছের পুকুরে স্নানের জন্য হুরোহুরি ।। হায় শৈশব........, সোনালী শৈশব.........!

কবি গুরু রবীন্দ্র নাথ ঠাকুরের  গানটা একটু মনে করি ,

"রাঙ্গিয়ে দিয়ে যাও যাও যাওগো এবার যাবার আগে
তোমার আপন রাগে, তোমার গোপন রাগে,
তোমার তরুণ হাসির অরুণ রাগে,
অশ্রুজলের করুণ রাগে .....
মেঘের বুকে যেমন মেঘের মন্দ্র জাগে
বিশ্ব নাচের কেন্দ্রে যেমন ছন্দ জাগে,
তেমনি আমায় দোল দিয়ে যাও
যাবার পথে আগিয়ে দিয়ে
কাঁদন-বাঁধন ভাগিয়ে দিয়ে” ।
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9>দোল হিন্দু ধর্মের একটি গুরুত্বপূর্ণ উৎসব। এর মাঝে আলাদা মর্ম ও মাহাত্ম্য যোগ করেছেন বৈষ্ণব অনুসারীরা। একে হোলি নামেও অভিহিত করা হয়। তবে বলা হয়ে থাকে, আদিতে দোল এবং হোলি ছিল আলাদা। বর্তমানে দুটি উৎসবই একীভূত হয়েছে। এবার দোলের পূর্ণ চাঁদ দেখা যাবে আজ শনিবার।
হোলি অপভ্রংশটি এসেছে হোরি (তৎসম) বা দোল থেকে। হোলি থেকে হোলক, হোলক মানে হোলিকা, যার অর্থ ডাইনি। এর সঙ্গে অশুভকে ধ্বংস ও নতুনকে স্বাগত জানানোর বিষয়টি জড়িত। উপ-মহাদেশের বিভিন্ন অঞ্চলে একে ভিন্ন ভিন্ন নামে ডাকা হয়। যেমন- ভারতের উড়িষ্যায় দোলোৎসব, উত্তর ও মধ্যভারতে হোলি বা হোরি, গোয়া ও কঙ্কণ অঞ্চলে শিমাগা, দক্ষিণ ভারতে কামায়ন। উত্তর ভারতে হোলি উৎসবটি বাংলার দোলযাত্রার পরদিন পালিত হয়।

বলা হয়, মধ্যযুগের কবি জয়দেবের গীতগোবিন্দের প্রভাবেই হোলি ও দোল যাত্রা একাত্ম হয়ে গেছে। রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরের কিছু গানে দোল ও রাধা-কৃষ্ণের দোল লীলার তাৎপর্যও এসেছে। তার 'সোনারতরী'র ঝুলন, 'কথা ও কাহিনী'র হোলি খেলাসহ অনেক কবিতায় এ প্রসঙ্গ এসেছে। দোলযাত্রা উৎসব শান্তি নিকেতনে বসন্তোৎসব নামে পরিচিত। কবির জীবদ্দশা থেকে এ উৎসব নানা আয়োজনে পালিত হয়ে আসছে। কাজী নজরুল ইসলামের কবিতা ও গানে হোলি বারবার এসেছে। এ ছাড়া 'হোলি' শব্দটি বিভিন্ন ক্ষেত্রে ধনাত্মক ও ঋণাত্মক অর্থে ব্যবহৃত হয়।
হিন্দু ধর্ম অনুসারে চারটি যুগ-সত্যযুগ, ত্রেতাযুগ, দ্বাপরযুগ এবং কলিযুগ। বর্তমানে চলছে কলিযুগ। এর আগের দ্বাপরযুগ থেকে শ্রীকৃষ্ণের দোলযাত্রা বা দোল উৎসব চলে আসছে। বলা হয়, শ্রীকৃষ্ণের আবির্ভাব ঘটে ফাল্গুনী পূর্ণিমায়। আবার ১৪৮৬ সালের এই পূর্ণিমা তিথিতেই শ্রীচৈতন্য মহাপ্রভু জন্মগ্রহণ করেন বলে একে গৌর-পূর্ণিমা নামেও অভিহিত করেন বৈষ্ণব বিশ্বাসীরা। তবে এর মূল তাৎপর্য হলো রাধা-কৃষ্ণের সম্পর্কের উপাখ্যানে।
ফাল্গুনী পূর্ণিমা তিথির এ দিনে বৃন্দাবনের নন্দন কাননে শ্রীকৃষ্ণ আবির ও গুলাল নিয়ে তার সখী রাধা ও তেত্রিশ হাজার গোপীর সঙ্গে রঙ ছোড়াছুড়ির খেলায় মেতে ছিলেন। এর স্মরণে এ দিন সকালে ভগবানকৃষ্ণ ও রাধার বিগ্রহ আবির ও গুলালে স্নান করিয়ে দোলায় চড়িয়ে কীর্তন গানসহকারে শোভাযাত্রা বের করা হয়। এরপর কৃষ্ণভক্তরা আবির ও গুলাল নিয়ে পরস্পর রঙ খেলেন।
এসব দিক থেকে দোল উৎসবকে দুইভাবে দেখা যায়- হিন্দুধর্মের পৌরাণিক উপাখ্যান ও শ্রীচৈতন্যের আবির্ভাব। পৌরাণিক উপাখ্যানের দুটি দিক- স্কন্ধপুরাণের 'হোলিকা' এবং রাধা-কৃষ্ণের কাহিনী। প্রথমটিতে স্কন্দপুরাণ গ্রন্থের ফাল্গুন মাহাত্ম্য গ্রন্থাংশে হোলিকা ও প্রহ্লাদের উপাখ্যান জড়িত।
রাধা-কৃষ্ণকে ঘিরে যে কাহিনী বেশি প্রচলিত-শ্রীকৃষ্ণ এক দিন বৃন্দাবনে রাধা এবং তার সখীদের সঙ্গে খেলা করছিলেন। সে সময় হঠাৎ রাধা এক বিব্রতকর অবস্থার মুখোমুখি হয়ে লজ্জিত হন। শ্রীকৃষ্ণ রাধার লজ্জা ঢাকতে এবং বিষয়টি তার সখীদের কাছ থেকে গোপন রাখতে; রাধা তার সখীদের সঙ্গে আবির খেলা শুরু করেন। তাদের সবাইকে আবির দিয়ে রাঙিয়ে দেন। এ আবির খেলার স্মরণে হিন্দু সম্প্রদায় এই হোলি উৎসব পালন করে থাকে বলে প্রচলিত আছে। এ ছাড়া বলা হয়ে থাকে, কৃষ্ণ নিজের কৃষ্ণ রঙ ঢাকতে বিভিন্ন ধরনের রঙ মাখিয়ে রাধার সামনে হাজির হন। সেই থেকে এ উৎসবের শুরু।
বিভিন্ন অঞ্চলে বিভিন্নভাবে দোল উৎসবের আচার-অনুষ্ঠান পালন করা হয়। যেমন- কোথাও কোথাও ফাল্গুন শুক্লা চতুর্দশী তিথিতে দোল উদযাপন উপলক্ষে 'বুড়িরঘর' বা 'মেড়া পোড়ানো হয়। সাধারণত বিষ্ণু বা কৃষ্ণমন্দির কিংবা ধামে খড়, কাঠ, বাঁশ ইত্যাদি জ্বালিয়ে এ বিশেষ বহ্নি-উৎসবের আয়োজন করা হয়।
এই উৎসবটি ছোটদের কাছে বেশি রঙিন। তবে সব বয়সের নারী-পুরুষই একে অপরকে আবিরের রঙে রাঙিয়ে দেয়। কম বয়সীরা বয়োজ্যেষ্ঠদের প্রণাম করে আশীর্বাদ নেয়। মন্দিরে-মন্দিরে রাধা-গোবিন্দের পূজা অনুষ্ঠিত হয়। পূজা অনুষ্ঠানের সময় উলুধ্বনি, কাঁসার ঘণ্টা ও পুরোহিতের ঘণ্টা ধ্বনিতে চারদিক মুখরিত হয়ে ওঠে। কোথাও কোথাও কয়েক দিনব্যাপী অনুষ্ঠান আয়োজন করা হয়। সেখানে থাকে- শ্রীশ্রী হরি লীলামৃত ও গুরু চাঁদ চরিতপাঠ, বৈঠকী কীর্তন, হরি সঙ্গিত ও মহাসঙ্গীত।
যেহেতু বছরের শেষ তাই নতুন বছরের শুভ কামনায় প্রার্থনাও করা হয়। কুষ্টিয়ায় লালনের আখড়ায় দোলপূর্ণিমা বিশেষভাবে পালিত হয়। দোলপূর্ণিমার দিনে লালন ফকির তার শিষ্যদের সঙ্গে সঙ্গ করতেন। সে অনুসারে আজও আখড়ায় দোল উৎসব উদযাপন করা হয়।

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होली 23 मार्च 2016 बुधवार .
10>62 सालों बाद आया है भद्रा योग, होलिका दहन पर क्या है इसका महत्व


नई दिल्ली : होलिका दहन की तिथि और समय को लेकर इस बार बेहद असमंजस की स्थिति है। कई जगहों पर 22 मार्च को भी दहन किया जा रहा है, लेकिन शास्त्र आधारित गणना के हिसाब से यह उचित नहीं है। दरअसल, फाल्गुन शुक्ल प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा के भद्रा रहित होने पर होलिका दहन करना शास्त्र सम्मत बताया गया है।
62 साल पहले बना था ऐसा योग

23 मार्च को ही गोधूलि युक्त प्रदोष वेला में होलिका दहन शास्त्रों के अनुसार रहेगा। इससे पहले साल 1954 में भी ऐसा ही योग बना था। तब भी प्रदोष व्यापिनी प्रतिपदा में ही होलिका दहन श्रेष्ठ माना गया था। जबकि 22 मार्च को पूर्णिमा प्रदोष व्यापिनी है, इसलिए इस बार 23 मार्च को होलिका दहन का श्रेष्ठ मुहूर्त है, क्योंकि इस दिन वृद्धि गामिनी पूर्णिमा है, जो भद्रामुक्त है।
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होली पर करे खुद एवं परिवार के संकटो का एवं किसी के द्वार किये कराये तंत्र याआभिचारिक प्रयोगो का निवारण एवं खुद के दुर्भाग्य को सौभाग्य मे बदलनेl एव सर्वं मनोकामना पूर्ण करने के सरल एवं आसान उपाय
जैसा कि हम सभी जानते है एवं शास्त्रों में भी उल्लेख है कि फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में ही होलिका दहन किया जाता है। प्रतिपदा, चतुर्दशी और भद्राकाल में होली दहन के लिए सख्त मना है। फाल्गुन पूर्णिमा पर भद्रारहित प्रदोषकाल में होली दहन को श्रेष्ठ माना गया हैl

तीन साल से अशुभ माने जाने वाली भद्रा का साया होलिका दहन के लिए तय समय पर पड़ता आ रहा था ।
इसके चलते भद्रा के मुख का त्याग कर होली दहन का वैकल्पिक मार्ग अपनाया जा रहा था। परन्तु इस बार 22/23/मार्च 2016 होलिका दहन के दिन भद्रा सुबह 3:18 पर खत्म हो जाएगी।
इस बार होलिका दहन निर्विवाद रूप से 22/23मार्च, 2016 मंगलवार की रात 3:18के बाद होगाl एवं रंग की होली सभी जगह 23 मार्च 2016 बुधवार को पूरे देश मे मनाई जायगीl
इस बार पूर्णिमा 22 मार्च मंगलवार को दिन मे 2:29 मिनट से शुरु होकर 23 मार्च बुधवार को सायं 4:07 मिनट तक रहेगीl
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र 22 मार्च को 3:41 से 23 मार्च को
सायं 5:52 बजे तक रहेगा।
होलिका दहन की रात्रि का महत्त्व हमारे शास्त्रों में 4 विशेष रात्रियो में से एक बताया गया है। इस रात्रि को “अहोरात्रि” कहते है। यह रात्रि तंत्र साधना व लक्ष्मी प्राप्ति के साथ खुद पर किये गए तंत्र मंत्र के प्रतिरक्षण हेतु सबसे उपयुक्त मानी गई है| तंत्र शास्त्र के अनुसार होली के दिन कुछ खास उपाय करने से मनचाहा काम
हो जाता है। तंत्र क्रियाओं के लिए प्रमुख चार रात्रियों में से एक रात ये भी है।
मान्यता है कि होलिका दहन के समय उसकी उठती हुई लौ से कई संकेत मिलते हैं।होलिका दहन के समय उसकी उठती हुई लौ से कई संकेत मिलते हैं। पूरब की ओर लौ उठना कल्याणकारी होता है, दक्षिण की ओर
पशु पीड़ा, पश्चिम की ओर सामान्य और उत्तर की ओर लौ उठने से बारिश होने की
संभावना रहती है।

सावधानी

होलिका दहन वाले दिन टोने-टोटके के लिए सफेद खाद्य पदार्थों का उपयोग किया जाता है। इसलिए
*इस दिन सफेद खाद्य पदार्थों के सेवन से बचना चाहिये।
*उतार और टोटके का प्रयोग सिर पर जल्दी होता है, इसलिए सिर को टोपी आदि से ढके रहें।
*टोने-टोटके में व्यक्ति के कपड़ों का प्रयोग किया जाता है, इसलिए अपने कपड़ों का ध्यान रखें।
*होली पर पूरे दिन अपनी जेब में काले कपड़े में बांधकर काले तिल रखें। रात को जलती होली में उन्हें डाल दें। यदि पहले से ही कोई टोटका होगा तो वह भी खत्म हो जाएगा।

होली के दिन करें ये ख़ास उपाय

स्वास्थय लाभ के लिए

अगर परिवार में कोई लंबे समय से बीमार हो होली की रात में सफेद कपड़े में 11 गोमती चक्र, नागकेसर के 21 जोड़े तथा 11 धनकारक कौड़ियां बांधकर कपड़े पर हरसिंगार तथा चन्दन का इत्र लगाकर रोगी पर से सात बार उतारकर किसी शिव मन्दिर में अर्पित करें। व्यक्ति स्वस्थ होने लगेगा। यदि
बीमारी गंभीर हो, तो यह शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरंभ कर लगातार 7 सोमवार तक किया जा सकता है।

आर्थिक समस्या के समाधान के लिए :

होली की रात में चंद्रोदय होने के बाद अपने घर की छत पर या खुली जगह जहां से चांद नजर आए पर खड़े हो जाएं। फिर चंद्रमा का स्मरण करते हुए चांदी की प्लेट में सूखे छुहारे तथा कुछ मखाने रखकर शुद्ध घी के
दीपक के साथ धूप एवं अगरबत्ती अर्पित करें। अब दूध से अर्घ्य प्रदान करें। अर्घ्य के बाद कोई सफेद प्रसाद तथा केसर मिश्रित साबूदाने की खीर अर्पित करें। चंद्रमा से आर्थिक संकट दूर कर समृद्धि प्रदान करने का निवेदन करें। बाद में प्रसाद और मखानों को बच्चों में बांट दें।
फिर लगातार आने वाली प्रत्येक पूर्णिमा की रात चंद्रमा को दूध का अर्घ्य अवश्य दें। कुछ ही दिनों में आप महसूस करेंगे कि आर्थिक संकट दूर होकर समृद्धि निरंतर बढ़ रही है।;

दुर्घटना से बचाव के लिए :

अगर आप अक्सर दुर्घटनाग्रस्त होते रहते हैं तो होलिका दहन से पहले पांच काली गोप/गुंजा/धागा/डोरा लेकर होली की पांच परिक्रमा लगाकर अंत में होलिका की ओर पीठ करके पांचों गुंजाओं को सिर के ऊपर से पांच बार
उतारकर सिर के ऊपर से होली में फेंक दें।
• होलिका दहन तथा उसके दर्शन से शनि-राहु-केतु के दोषों से शांति मिलती है।

• होली की भस्म का टीका लगाने से नजर दोष तथा प्रेतबाधा से मुक्ति मिलती है।
• घर में होली की भस्म चांदी की डिब्बी में रखने से कई बाधाएं स्वत: ही दूर हो जाती हैं।

• कार्य में बाधाएं आने पर -

आटे का चौमुखा दीपक सरसों के तेल से भरकर कुछ दाने काले तिल के डालकर एक बताशा, सिन्दूर और एक तांबे का सिक्का डालें। होली की अग्नि से जलाकर घर पर से ये पीड़ित व्यक्ति पर से उतारकर सुनसान चौराहे पर रखकर बगैर पीछे मुड़े वापस आएं तथा हाथ-पैर धोकर घर में प्रवेश करें।

• जलती होली में तीन
गोमती चक्र हाथ में लेकर अपने (अभीष्ट) कार्य को 21 बार मानसिक रूप से कहकर गोमती चक्र अग्नि में डाल दें तथा प्रणाम कर वापस आएं।

• विपत्ति नाश के लिए मंत्र-

राजीव नयन धरें धनु सायक।
भगति विपति भंजन सुखदायक।।
इस मंत्र को जलती होलिका स्म्मुख 108 बार पढ कर 11 परिक्रमा करने से समस्त विपत्तियो का नाश हो जाता हैl

सुख, समृद्धि और सफलता के लिए :

अहकूटा भयत्रस्तै:कृता त्वं होलि बालिशै:
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम: ||
इस मंत्र का उच्चारण एक माला, तीन माला या फिर पांच माला विषम संख्या के रूप में करना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि होली की बची हुई अग्नि और भस्म को अगले दिन प्रात: घर में लाने से घर को अशुभ ‍शक्तियों से बचाने में सहयोग मिलता है तथा इस भस्म का शरीर पर लेपन भी किया जाता है।

भस्म का लेपन करते समय निम्न मंत्र का जाप करना
कल्याणकारी रहता है-
वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शंकरेण च।
अतस्त्वं पाहि मां देवी! भूति भूतिप्रदा भव।।

आप सभी मित्रो को
होली की बहुत सारी शुभ कामनायेl एवं शुभाशिर्वादl
साथ ही साथ होली पर अपने माता पिता बडे बुजुर्गो का आशिर्वाद जरुर लेl
होली सौहार्द का त्योहार हैl इस लिये भाई चारा बनाये रखेl खुद को नशे एवं बुरे ब्यसनो से दूर रखेl साथ ही साथ सूखे रंगो जैसे अबीर गुलाल का ही प्रयोग करेl

 दोस्ती, एकता और सद्भाव के जरिये सभी को प्यार के रंगों में रंगने वाला होली का त्यौहार पारंपरिक रूप से दो दिनों तक मनाया जाता है। पहले दिन होलिका दहन जबकि दूसरे दिन होली खेली जाती है। इन दिनों प्रकृति भी अपने सबसे अद्भुत रंग बिखेरती है। पतझड़ के बाद पेड़ों पर नई पत्तियां खिलती हैं, जो जीवन में नये उत्साह का संचार करती है।
होलिका दहन मुहूर्त को लेकर है असमंजस, ऐसे दूर करें

23 मार्च यानि बुधवार को होलिका दहन का शुभ मुहूर्त सायंकाल 4:55 बजे से 5:31 बजे तक रहेगा। उत्तर भारत के कुछ स्थानों पर सायं 6:30 बजे से रात्रि 8:54 बजे तक भी शुभ मुहूर्त रहेगा। कई जगह होलिका दहन की तारीख को लेकर भी असमंजस की स्थिति है। लेकिन पंचांग के अनुसार इस साल फाल्गुन माह की पूर्णिमा 22 मार्च दोपहर 01:13 बजे के बाद स्पष्ट रूप से प्रदोष व्यापिनी है और अगले दिन सुबह 04:22 बजे तक भद्रा व्यापिनी भी रहेगी। 23 मार्च को पूर्णिमा प्रदोष-व्यापिनी नहीं रहेगी। इस अनुसार 23 मार्च बुधवार को ही होलिका दहन शास्त्र सम्मत होगा। शास्त्रों के अनुसार पूर्णिमा तिथि शाम 04:55 बजे से 05:31 बजे तक ही रहेगा। इस बीच होलिका दहन के लिये सबसे अच्छा समय रहेगा।
ये है होलिका दहन का पौराणिक महत्व

होली का त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत और एकता का प्रतीक है। होलिका दहन पर किसी भी बुराई को अग्नि में जलाकर खाक कर सकते हैं। माना जाता है कि पृथ्वी पर एक अत्याचारी राजा हिरण्यकश्यप राज करता था। उसने अपनी प्रजा को ईश्वर की जगह सिर्फ अपनी पूजा करने को कहा था, लेकिन प्रहलाद नाम का उसका पुत्र भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसने अपने पिता के आदेश के बावजूद भक्ति जारी रखी, जिसके लिये पिता ने प्रहलाद को सजा देने की ठान ली और प्रहलाद को अपनी बहन होलिका की गोद में बिठाकर दोनों को आग के हवाले कर दिया। दरअसल, होलिका को ईश्वर से यह वरदान मिला था कि उसे अग्नि कभी नहीं जला पाएगी। लेकिन दुराचारी का साथ देने के कारण होलिका भस्म हो गई और प्रह्लाद सुरक्षित रहे। उसी समय से हम समाज की बुराइयों को जलाने के लिए होलिकादहन मनाया जाता रहा है।

 होली है भाई होली हैl बुरा ना मानो होली हैl जय श्री रामl     


11>সবাইকে দোল পূর্ণিমার শুভেচ্ছা,


বর্তমান প্রেক্ষাপটে দোল বহুল পরিচিত পার্বণ। যা শুধু হিন্দুদের মধ্যে না থেকে সার্ব্জনীন হয়ে গেছে। এই দিনে ধনী,গরিব, ধর্ম বর্ণ নির্বিশেষে সবাই রঙ নিয়ে বেড়িয়ে পরে। নিকটাত্মীয়, বন্ধু-বান্ধবদের রঙ দিয়ে শুরু করে। এ অনুষ্টানের মাধ্যমে সাম্প্রদায়ীক সম্প্রীতি বজায় থাকে। একে অপরের কাছাকাছি আসতে পারে।
কিন্তু দুঃখের বিষয় ----আজকের বর্তমান হলি বা দোল দোল  এক বিভিশিখা , এক ভয়ঙ্কর উত্সবে পরিনত হয়েছে। গত কালকের মানে হোলির দিনের দুটি ছোট ঘটনা বলি যা থেকে বোঝা যাবে বর্ত মান আধুনিক দোল যাত্রা কেমন কি তার ভবিষৎ।
প্রথম ঘটনা ---সকলে দোল খেলছে ভীষণ আনন্দ হৈ হুল্লোর করছে। কাউকেই মুখ দেখে চিনতে পারছিনা। সবাই কালো ভূত।  বাদুরি না কি সব নানা কেমিকেল রং মাখে কিম্ভূতকিমাকার। দোলেল আবির কথাও নাই। সকলেই ওই ভীষণ কেকিকেল মেখে , বেশ ভালো ভাবে নেশা গ্রস্থ হয়ে ,কিছু মদ্য ও কিছু ভাং খয়ে (পরের দিন জানতে পারলাম কে কে কি ধরনের নেশা করে ছিল ) সে যাই হোক হোলি তাই সব ঠিক।
সাবান হোলি হায় ,বুরা না মানো হোলি হায়।

যা বলছিলাম সবাই রং খেলছে। ছোট ছোট বাচ্চাদের বাবা, মা, বাচ্চারা সকলে একসাথে রং খেলছে। আবির বা সামান্য রং কথাও নাই সকলেই ওই বিভত্স কালো ,নীল ,লাল রং মেখে আনন্দে মেতে হোলি উত্সব পালন করছে। আমি হাউসিং এর পিছনের দিগ দিয়ে যাচ্ছিলাম যাতে করে আমাকে কেউ দেকতে বা রং লাগাতে না পারে। হঠাথ দেখি কয়েকটি বাচ্চা এই আট থেকে বারো তের বছরের বাচ্চারা এই পিছনের দিকে লুকিয়ে লুকিয়ে বড়দের হলো খেলা দেখছে। আমি জিজ্ঞাসা করলাম কিরে তোমরা এখানে লুকছকেনো ,ওরা উত্তর দিল , দেখো বাবা কাকুর রং খেলছে আর কি বাজে বাজে বলছে ,------তা আমি কৌতহল বশত একটু শুনতে চেষ্টা করলাম ওনাদের ভাষা।
সত্যি ওনারা যে সকল কথা বার্তা করছিল তা বলার মত নয়। শুধু ভাবছিলাম এখানেতো সকলেই শিক্ষিত এবং সকলেই ভালো ভালো পোস্ট যে চাকুরী করেন ,কেউ ডাক্তার ,কেউ ইন্জিনীয়র ,সকলেই উচু পদে চাকুরী করেন এবং সকলেই শিক্ষিত। তবু ওনাদের মুখের ভাষা অমন কেন ??
তা হোলি হায় !হোলি !তা এটা কেমন হলো ??
দিতীয় ঘটনা ---আমি দেখি একটি বাচ্চা এই পাঁচ ছয় বছরের , (আমাদের ব্লকে নয় অন্য় এক ব্লকে )
লিফট এর কাছে সিড়িতে বসে কান্না করছে।  আমি ওয়াচ ম্যান তথা গার্ড কে বললাম ওই বাচ্চাটি কাঁদছে কেন ? ওয়াচ ম্যান বলল আপনি জাননা গিজ্ঞাসা করুন দেখুন ও কি বলছে।  আমি বললাম কিহল তুমি কাঁদছ কেন? বাচ্চা টি যা বলল তা শুনে আমি হতবাক , কিজে উত্তর দি বা বলি তা বলার মত ভাষা আমার জানা নাই। বাচ্চাটি বলেছিল ----"আমি রং তুলতে পারছিনা ---- আমি বললাম কেন তোমার বাবা মা কে বল তারা তোমার গায়ের রং তুলে দেবে।  বাচ্চাটি বলল বাবা বার বার বমী করছে , মা বাবাকে ভীষণ বকছে , বাবা অনেকক্ষণ সাবান দিয়ে মায়ের  সব রং তুলে দিল  আমি আমরটা তুলে দিতে বললাম ,বাবা আমাকে মারলো নি। আমর রং কেউই তুলে দিল না।
25th March 2016
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12>श्री कृष्ण- श्रीकृष्ण=कृष्ण हैं कौन?

कृष्ण हैं कौन? गिरधारी, गिरधर गोपाल ! वैसे तो मुरलीधर और चक्रधर भी हैं, लेकिन कृष्ण गुह्यतम रूप तो गिरधर गोपाल में ही निखरता है।

कान्हा को गोवर्धन पर्वत अपनी कानी उंगली पर क्यों उठाना पड़ा था? इसलिए न की उसने इन्द्र की पूजा बन्द करवा दी और इन्द्र का भोग, खुद खा गया और भी खाता रहा। इन्द्र ने नाराज होकर पानी, ओला, पत्थर बरसाना शुरू किया,तभी तो कृष्ण को गोवर्धन उठाकर अपने गो और गोपालों की रक्षा करनी पड़ी। कृष्ण ने इन्द्र का भोग खुद क्यों खाना चाहा?

यशोदा मां, इन्द्र को भोग लगाना चाहती है, क्योंकि वह बड़ा देवता है, सिर्फ वास से ही तृप्त हो जाता है और उसकी बड़ी शक्ति है, प्रसन्न होने पर बहुत वर देता है और नाराज होने पर तकलीफ।

बेटा कहता है वह इन्द्र से भी बड़ा देवता है, क्योंकि वह तो वास से तृप्त नहीं होता और बहुत खा सकता है और उसके खाने की कोई सीमा नहीं। यही है कृष्ण-लीला का रहस्य। वास लेने वाले देवताओं से खाने वाले देवताओं तक की भारत-यात्रा ही कृष्ण-लीला है।
कृष्ण सम्पूर्ण और अबोध मनुष्य हैं, खूब खाया -खिलाया, खूब प्यार किया और प्यार सिखाया जनगण की रक्षा और उसका रास्ता बताया निर्लिप्त भोग का महान त्यागी और योगी बना।

गोवर्धन उठाने में कृष्ण की उंगली दुखी होगी, अपने गोपों और सखाओं को कुछ झुं झला कर सहारा देने को कहा होगा। मां को कुछ इतरा कर उंगली दुखने की शिकायत की होगी। गोपियों से आंख लड़ाते हुए अपनी मुस्कान द्वारा कहा होगा। उसके पराक्रम पर अचरज करने के लिए राधा और कृष्ण की तो आपस में गम्भीर और प्रफुल्लित मुद्रा रही होगी। कहना कठिन है कि किसकी ओर कृष्ण ने अधिक निहारा होगा, मां की ओर इतरा कर या राधा की ओर प्रफुल्लित होकर।

जब कृष्ण ने गऊ वंश रूपी दानव को मारा था, राधा बिगड़ पड़ी और इस पाप से बचने के लिए उसने उसी स्थल पर कृष्ण से गंगा मांगी। कृष्ण को कौन-कौन से असंभव काम करने पड़े हैं। हर समय वे कुछ न कुछ करते रहे हैं दूसरों को सुखी बनाने के लिए।
कृष्ण बहुत अधिक हिन्दुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिन्दुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार अपनी मिट्टी के साथ सने हुए हैं। मिट्टी से अलग करने पर वे बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते हैं। त्रेता का राम हिन्दुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है। द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि देश को उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम एक करना ही राम और कृष्ण का धर्म था।
राम त्रेता के मीठे, शान्त और सुसंस्कृत युग का देव हैं। कृष्ण पके, जटिल, तीखे और प्रखर बुद्धि युग का देव हैं। राम गम्य हैं। कृष्ण अगम्य हैं। कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की उसके वंशज उसे अपना अंतिम आदर्श बनाने से घबड़ाते हैं, यदि बनाते भी हैं तो उसके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं, उसका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है।

इसीलिए कृष्ण हिन्दुस्तान में कर्म का देव न बन सका। कृष्ण ने कर्म राम से ज्यादा किए हैं। कितने सन्धि और विग्रह और प्रदेशों के आपसी संबंधों के धागे उसे पलटने पड़ते थे। यह बड़ी मेहनत और बड़ा पराक्रम था।

कृष्ण जो पूर्व-पश्चिम की एकता दे गया, उसी के साथ-साथ उस नीति का औचित्य भी खत्म हो गया। बच गया कृष्ण का मन और उसकी वाणी। और बच गया राम का कर्म। अभी तक हिन्दुस्तानी इन दोनों का समन्वय नहीं कर पाए हैं। करें तो राम के कर्म में भी परिवर्तन आए। राम रोऊ है, इतना कि मर्यादा भंग होती है। कृष्ण कभी रोता नहीं। आंखें जरूर डबडबाती हैं उसकी, कुछ मौकों पर, जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं।
कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के। अब भी तब की गोपियां और जो चाहें वे, उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रस विभोर हो सकते हैं और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते हैं। साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण,जय-पराजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यव भाव का सुरीला दर्शन, उसकी वाणी में सुन सकते हैं। संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।
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13> श्री कृष्ण एवं अर्जुन 

       एक बार अर्जुन ने श्री कृष्ण  से कहा :-
       इस दीवार पर कुछ ऐसा लिखो कि, खुशी में पढूं तो दुख हो और 
       दुख में पढूं तो खुशी हो.....
       प्रभु ने लिखा :-
                  " ये वक्त गुजर जाऐगा "


[Devotee]: “Is it a fact that Lord Krishna is still with his chinmaya deha (spiritual body)?”
Bhagavan replied with patience: “Does chinmaya deha mean the human body? Chinmaya means Chit-prakasa, i.e. lustre of the spirit. That light is always existent:
'Arjuna, I am the Self seated in the heart of all beings. I am the beginning and middle and also the end of all beings.' - 'Gita', X: 20

“Does that mean that He is in the hearts of all beings with this material body? It means He is in the hearts of all beings in the shape Aham Sphurana (effulgence of ‘I’, ‘I’). That effulgence of the Self is known as Chit-prakasa or Chinmaya.”
(From 'Letters from Sri Ramanasramam' 218)
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14> राधे ... राधे .. श्री राधे कृष्णा

भगवान श्री कृष्ण के नाम से पहले हमेशा भगवती राधा का नाम लिया जाता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति राधा का नाम नहीं लेता है सिर्फ कृष्ण-कृष्ण रटता रहता है वह उसी प्रकार अपना समय नष्ट करता है जैसे कोई रेत पर बैठकर मछली पकड़ने का प्रयास करता है।

श्रीमद् देवीभाग्वत् नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि जो भक्त राधा का नाम लेता है भगवान श्री कृष्ण सिर्फ उसी की पुकार सुनते हैं। इसलिए कृष्ण को पुकारना है तो राधा को पहले बुलाओ। जहां श्री भगवती राधा होंगी वहां कृष्ण खुद ही चले आएंगे।

पुराणों के अनुसार भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि राधा उनकी आत्मा है। वह राधा में और राधा उनमें बसती है। कृष्ण को पसंद है कि लोग भले ही उनका नाम नहीं लें लेकिन राधा का नाम जपते रहें।

इस नाम को सुनकर भगवान श्री कृष्ण अति प्रसन्न हो जाते हैं। इसका उल्लेख श्री कृष्ण जी ने नारद से किया है। इस संदर्भ में कथा है कि व्यास मुनि के पुत्र शुकदेव जी तोता बनकर राधा के महल में रहने लगे।

शुकदेव जी हमेशा राधा-राधा रटा करते थे। एक दिन राधा ने शुकदेव जी से कहा कि अब से तुम सिर्फ कृष्ण-कृष्ण नाम जपा करो। शुकदेव जी ऐसा ही करने लगे। इन्हें देखकर दूसरे तोता भी कृष्ण-कृष्ण बोलने लगे।

राधा की सखी सहेलियों पर भी कृष्ण नाम का असर होने लगा। पूरा नगर कृष्णमय हो गया, कोई राधा का नाम नहीं लेता था। एक दिन कृष्ण उदास भाव से राधा से मिलने जा रहे थे। राधा कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी।

तभी नारद जी बीच आ गए। कृष्ण के उदास चेहरे को देखकर नारद जी ने पूछा कि प्रभु आप उदास क्यों है। कृष्ण कहने लगे कि राधा ने सभी को कृष्ण नाम रटना सिखा दिया है। कोई राधा नहीं कहता, जबकि मुझे राधा नाम सुनकर प्रसन्नता होती है।

कृष्ण के ऐसे वचन सुनकर राधा की आंखें भर आईं। महल लौटकर राधा ने शुकदेव जी से कहा कि अब से आप राधा-राधा ही जपा कीजिए। उस समय से ही राधा का नाम पहले आता है फिर कृष्ण का।

राधा कृष्ण की तरह सीता का नाम भी राम से पहले लिया जाता है। असल में राम और कृष्ण दोनों ही एक हैं और राधा एवं सीता भी एक हैं। यह हमेशा नित्य और शाश्वत हैं।

क्योंकि यही लक्ष्मी और नारायण रूप से संसार का पालन करते हैं। नारायण लक्ष्मी से अगाध प्रेम करते हैं। यह हमेशा अपने हृदय में बसने वाली राधा का नाम सुनना चाहते हैं। इसलिए ही कृष्ण नाम से पहले राधा नाम लिया जाता है।

5>श्री द्वारकानाथ की जय़

श्री द्वारकानाथ की जय़, श्री कृष्ण शरणम ममः श्री मोर मुकुट बंशीवाले की जय श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा।श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा। श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा
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15>हरे कृष्ण महामंत्र की महिमा
          हरे कृष्ण महामंत्र की महिमा 
कलियुग में भगवान की प्राप्ति का सबसे सरल किंतु प्रबल साधन उनका नाम-जप ही बताया गया है।
श्रीमद्भागवत का कथन है-” यद्यपि कलियुग दोषों का भंडार है तथापि इसमें एक बहुत बडा सद्गुण यह है कि
 सतयुग में भगवान के ध्यान (तप) द्वारा,
त्रेतायुग में यज्ञ-अनुष्ठान के द्वारा,
द्वापरयुगमें पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था,
कलियुग में वह पुण्यफल श्री हरिके नाम-संकीर्तन(हरे कृष्ण महामंत्र) मात्र से ही प्राप्त हो जाता है।
कृष्णयजुर्वेदीय कलिसंतरणोपनिषद् मे लिखा है कि द्वापरयुगके अंत में जब देवर्षिनारद ने ब्रह्माजीसे कलियुग में 
कलि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय पूछा, तब सृष्टिकर्ता ने कहा-
आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण से मनुष्य कलियुग के दोषों को नष्ट कर सकता है। नारदजीके द्वारा उस 
नाम-मंत्र को पूछने पर हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीने बताया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
यह महामंत्र कलि के पापों का नाश करने वाला है। इससे श्रेष्ठ कोई अन्य उपाय सारे वेदों में भी देखने को नहीं आता।
हरे कृष्ण महामंत्र के द्वारा षोडश (16) कलाओं से आवृत्त जीव के आवरण नष्ट हो जाते हैं। तत्पश्चात जैसे बादल के
 छट जाने पर सूर्य की किरणें प्रकाशित हो उठती हैं, उसी तरह परब्रह्म का स्वरूप प्रकाशित हो जाता है।
नारदजी के द्वारा हरे कृष्ण महामंत्र के जप की विधि पूछने पर ब्रह्माजीबोले-
हरे कृष्ण महामंत्र जप की कोई विशिष्ट विधि नहीं है।
कोई पवित्र हो या अपवित्र, महामंत्र का निरन्तर जप करने वाला सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य-चारों 
प्रकार की मुक्ति प्राप्त करता है।
जब साधक इस महामंत्र का साढे तीन करोड जप कर लेता है, तब वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
सनत्कुमारसंहिता,ब्रह्मयामल,राधा-तंत्र एवं श्रीचैतन्यभागवतआदि ग्रंथों में इस महामंत्र का यह स्वरूप वर्णित है-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
महादेव शंकर ने भगवती पार्वती को कलियुग में जीवों की मुक्ति का उपाय बताते हुए
महामंत्र का उपदेश दिया है।
मंत्रशास्त्रके प्रणेताशिव इस महामंत्र की उपयोगिता का रहस्योद्घाटनकरते हुए कहते हैं-
कलियुग में श्री हरि-नाम के बिना कोई भी साधन सरलता से पापों को नष्ट नहीं कर सकता।
जनसाधारण का उद्धार करने के लिए ही महामंत्र को प्रकाशित किया गया है।
कलियुग में इस महामंत्र का संकीर्तन करने मात्र से प्राणी मुक्ति के अधिकारी बन सकते हैं।
अग्निपुराण इस नाम-मंत्र की प्रशंसा करते हुए कहता है कि जो लोग इसका किसी भी तरह उच्चारण करते हैं, 
वे निश्चय ही कृतार्थ हो जाते हैं।
पद्मपुराणका कथन है कि इस महामंत्र को नित्य जपने वाला वैष्णव देह त्यागने के उपरान्त भगवान के धाम को जाता है।
ब्रह्माण्डपुराणमें महर्षि वेदव्यास इस महामंत्र की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं- इस महामंत्र को ग्रहण 
करने से देहधारी प्राणी ब्रह्ममय हो जाता है और वह समस्त पापों से मुक्त होकर सब सिद्धियों से युक्त हो जाता है। 
भव-सागर से पार उतारने के लिए इससे श्रेष्ठ कोई दूसरा उपाय नहीं है।
भक्तिचंद्रिका में महामंत्र का माहात्म्य इस प्रकार वर्णित है-
महामंत्र सब पापों का नाशक है, सभी प्रकार की दुर्वासनाओंको जलाने के अग्नि-स्वरूप है, शुद्ध सत्त्व स्वरूप 
भगवद्वृत्ति वाली बुद्धि को देने वाला है, सभी के लिए आराधनीय एवं जप करने योग्य है, सबकी कामनाओं को 
पूर्ण करने वाला है।
हरे कृष्ण महामंत्र के संकीर्तन में सभी का अधिकार है। यह महामंत्र प्राणिमात्र का बान्धव है, समस्त शक्तियों 
से सम्पन्न है, आधि-व्याधि का नाशक है।
हरे कृष्ण महामंत्र की दीक्षा में मुहूर्त्तके विचार की आवश्यकता नहीं है। इसके जप में बाह्य पूजाकी अनिवार्यता नहीं है। 
केवल उच्चारण करने मात्र से यह सम्पूर्ण फल देता है।
हरे कृष्ण महामंत्र के अनुष्ठान में देश-काल का कोई प्रतिबंध नहीं है। विष्णुधर्मोत्तर में भी लिखा है कि श्रीहरिके 
नाम-संकीर्तन में देश-काल का नियम लागू नहीं होता है। जूठे मुंह अथवा किसी भी प्रकार की अशुद्ध अवस्था में भी 
नाम-जप को करने का निषेध नहीं है।
श्रीमद्भागवत महापुराणका तो यहां तक कहना है कि जप-तप एवं पूजा-पाठ की त्रुटियां अथवा कमियां श्रीहरिके
 नाम- संकीर्तन से ठीक और परिपूर्ण हो जाती हैं।
हरे कृष्ण महामंत्र का संकीर्त्तन ऊंची आवाज में करना चाहिए-

जपतो हरिनामानिस्थानेशतगुणाधिक:।
आत्मानञ्चपुनात्युच्चैर्जपन्श्रोतृन्पुनातपच॥

हरे कृष्ण महामंत्र -नाम को जपने वाले की अपेक्षा उच्च स्वर से हरि-नाम का कीर्तन करने वाला अधिक श्रेष्ठ है,
 क्योंकि जपकर्ता केवल स्वयं को ही पवित्र करता है, जबकि नाम- कीर्तनकारी स्वयं के साथ-साथ सुनने वालों 
का भी उद्धार करता है।

हरिवंशपुराणका कथन है-

वेदेरामायणेचैवपुराणेभारतेतथा।
आदावन्तेचमध्येचहरि: सर्वत्र गीयते॥
वेद , रामायण, महाभारत और पुराणों में आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र श्रीहरिका ही गुण- गान किया गया है।
बृहन्नारदीयपुराणका सुस्पष्ट उद्घोष है-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैवकेवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥

कलियुग में हरि के नाम, हरि के नाम, हरि के नाम के अतिरिक्त भव-बंधन से मुक्ति प्रदान करने वाला दूसरा 

अन्य कोई साधन नहीं है, अन्य कोई साधन नहीं है, अन्य कोई साधन नहीं है।
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16>शिवपुराण के अनुसार एक ऋषि के वरदान ने की थी द्रौपदी की चीरहरण से रक्षा

धर्म डेस्क: हिंदू धर्म का एक महापुराण महाभारत के बारें में आपने खुब सूना और पढ़ा होगा। उसी में एक अंश है द्रौपदी चीरहरण। आपने द्रौपदी के चीरहरण के बारे में तो खुब सुना होगा कि श्री कृष्ण भगवान से द्रौपदी की रक्षा की, लेकिन क्या आप इसके पीछे कि सच्चाई जानते है कि आखिर क्यों श्री कृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा की थी।

यह चीर हरण तब हुआ था जब युधिष्ठिर जुए में अपनी पत्नी द्रौपदी को हार गए, तब द्रौपदी पर दुर्योधन का अधिकार हो गया था। द्रौपदी का अपमान करने के लिए दुर्योधन ने उसे कौरवों की सभा में बुलाया। दुःशासन द्वारा द्रौपदी का चीरहरण करके का प्रयास किया गया, लेकिन द्रौपदी के वस्त्र को बढ़ाकर भगवान ने उसकी रक्षा की थी।

द्रौपदी को संकट के समय उसके अन्नत (कभी खत्म न होने वाले) हो जाने का वरदान ऋषि दुर्वासा ने दिया था। इसके पीछे एक कथा है जो शिवपुराण में बताई गी है इसके अनुसार भगवान शिव के अवतार ऋषि दुर्वासा एक बार स्नान करने के लिए नदी के तट पर गए थे। नदी का बहाव बहुत तेज होने के कारण ऋषि दुर्वासा के कपड़े नदी में बह गए।

ऋषि दुर्वासा से कुछ दूरी पर द्रौपदी भी स्नान कर रही थी। ऋषि दुर्वासा की मदद करने के लिए द्रौपदी ने अपनी वस्त्र में से एक टुकड़ा फाड़कर ऋषि को दे दिया था। इस बात से ऋषि द्रौपदी पर बहुत प्रसन्न हुए और संकट के समय उसके वस्त्र अन्नत हो जाने और उसकी रक्षा का वरदान दिया था। इसी वरदान के कारण कौरव सभा में दुःशासन द्वारा द्रौपदी की साड़ी खिंचने पर वह बढ़ती ही गई और उसके सम्मान की रक्षा हुई थी। जिसमें श्री कृष्ण ने सहायता की थी।

ऋषि दुर्वासा शिव के अवतार माने जाते है। यह ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि और उनकी पत्नी अनुसुइया के पुत्र थे। जो कि तपस्या से खुश होकर भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। भगवान के ऐसा कहने पर अत्रि और अनुसूया ने तीनों देवों को अपने पुत्रों के रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा।

अगली स्लाइड में पढें और
इसी वरदान के फलस्वरूप भगवान ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, विष्णु का अंश से दत्तात्रेय और शिव के अंश से दुर्वासा उत्पन्न् हुए। ऋषि दुर्वासा भगवान शिव के रुद्र रूप से उत्पन्न हुए थे, इसलिए वे अधिक क्रोधी स्वभाव के थे। भगवान शिव के अवतार ऋषि दुर्वासा का वर्णन कई पुराणों और ग्रंथों में पाया जाता है।

ऋषि दुर्वासा एक ऐसे महान ऋषि है जिसनेम त्री राम की भी भी परीक्षा ली थी। इसके अनुसार भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम की वचनबद्धता की परीक्षा ली थी। एक बार काल ने ऋषि का रूप धारण करके श्रीराम के साथ शर्त लगाई थी कि ‘मेरे साथ बात करते समय कोई भी श्रीराम के पास न आए, जो भी इस बात का पालन नहीं करेगा श्रीराम तुरंत ही उसका त्याग कर देंगे।

’ श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए ऋषि दुर्वासा ने हठपूर्वक लक्ष्मण को श्रीराम के पास भेजा। ऐसा होने पर श्रीराम ने तुरंत ही लक्ष्मण का त्याग कर दिया था।
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17>श्री कृष्ण ने चीर हरण क्यों किया ।

चीर हरण के प्रसंग को लेकर किसी भी तरह की शंकाएँ नहीं होनी चाहिए.क्योकि जिस प्रकार भगवान चिन्मय है उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है यू तो भगवान के जन्म-कर्म की सभी लीलाएँ दिव्य होती है परन्तु व्रज की लीला,व्रज में निकुंजलीला,ओर निकुंजो में भी केवल रसमयी गोपियों के साथ होने वाली मधुर लीला,तो दिव्यातिदिव्य और सर्वगुह्तम है
यह लीला सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकट नहीं है अंतरग लीला है और इसमें प्रवेश का अधिकारी केवल श्री गोपिजनो को ही है.विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता परन्तु हदय की निष्कपटता, और सच्चा प्रेम,विधि के अतिक्रमद को भी शिथिल कर देता है ।
गोपियों श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए जो साधना कर रही थी उसमे एक त्रुटि थी.वे शास्त्र मर्यादा और परंपरागतमर्यादा का उल्लघन करके नग्न स्नान करती थी यधपि यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था.भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित भी करवाया जो लोग भगवान के नाम पर विधि का उल्लंघन करते है उन्हें यह प्रसग ध्यान से पढ़ना चाहिए भगवान शास्त्र विधि का कितन आदर करते है ।
श्री कृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्र्वर है समस्त क्रियाओ के कर्ता भोक्ता और साक्षी भी वही है ‘ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो’.वे सर्वव्यापक है, गोपियों के गोपो के और निखिल विश्व के वही आत्मा है. हमारी बुद्धि, हमारी द्रृष्टि, देह तक ही सीमित है इसलिए हम श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम को भी केवल दैहिक और कामनाकलुषित समझ बैठते है उस अपार्थिव और अप्राकृत लीला को इस प्रकृति के राज्य में घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओ का परिणाम है।
“ चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार व्यक्ति को सताते है।
*श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कार के आवरण अपने हाथों में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ कर बैठ गये. गोपिया जल में थी, वे जल में सर्वव्यापक, सर्वदर्शी, भगवान से, मानो अपने को गुप्त समझ रही थी -
वे मानो इस तत्व को भूल गयी थी कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं है,स्वयं जलस्वरुप भी वही है उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे।
वे श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ भूल गयी थी परन्तु अब तक अपने को नहीं भूली थी - वे चाहती थी केवल कृष्ण को,परन्तु उनके संस्कार बीच में एक पर्दा रखना चाहते थे प्रेम, प्रेमी और प्रियतम के बीच में,एक पुष्प का भी पर्दा नहीं रखना चाहता.प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधान रहित,अबाध,और अनन्त मिलन।
गोपियों ने मानो कहा – श्रीकृष्ण हम अपने को कैसे भूले? हमारी जन्मो-जन्म की धारणायें भूलने दे. तब न हम संसार के अगाध जल में आकंठमग्न है,जाड़े का भी कष्ट है,हम आना चाहने पर भी नहीं आ पाती है,तुम्हारी आज्ञा का पालन हम करेगी परन्तु निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ.साधक की यह दशा –भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी नहीं छोडना संस्कारो में ही उलझे रहना - बड़ी द्विविधा की दशा है।
भगवान यही सिखाते है कि संस्कार शून्य होकर, निरावरण होकर, माया का पर्दा हटाकर, मेरे पास आओ. अरे, तुम्हारे यह मोह का पर्दा तो मैने छीन लिया है तुम इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो ? यह पर्दा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान है परमात्मा का यह आवाहन भगवत्कृपा से जिसके अंतर्द्रश में प्रकट हो जाता है वह प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ छोडकर श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ा आता है वह न तो जगत को देखता है,न अपने को।
भगवान स्वयं अपनी स्मृति से जगाकर फिर जगत में लाते है उन्होंने कहा गोपियों तुम्हारा संकल्प सत्य होगा आने वाली शरद रात्रियो में हमारा पूर्ण रमण होगा. भगवान ने साधना सफल होने की अवधि निर्धारित कर दी.”
जब एक भक्त या साधक भक्ति रूपी यमुना में नहाने जाता है तो अपने कपट रूपी वस्त्र किनारे पर ही रख देता है क्योकि भक्ति में कपट का क्या काम फिर उस भक्ति में डूब जाता है जब भगवान देखते है कि ये मेरी भक्ति में उतार ही गया है तो कही वापस आकर फिर कपट रूपी वस्त्र ना पहन ले इसलिए भगवान झट से उन कपट रूपी वस्त्रों को उठा लेते है.क्योकि ये कपट ही भगवान और भक्त के बीच का पर्दा है जो उन्हें मिलने नाही देता.ये तो कृष्ण कि कृपा है कि भक्त का इतना ध्यान रखते है ।

एक बात - बड़ी विलक्षण है भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे. वही भगवान की कृपा, प्रेम, वरदान प्राप्त होने के पश्चात ‘प्रसाद’ स्वरूप हो गये इसका कारण है भगवान का सम्बन्ध - भगवान ने अपने हाथों से उन वस्त्रों को उठाकर फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर डाल लिया, उनका संस्पर्श पाकर वस्त्र कितने अप्राकृत रसात्मक हो गये. असल में यह संसार तभी तक बाधक है जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता .वे वस्त्र नहीं रहे वे तो कृपा प्रसाद हो गये .इसलिए गोपियों ने पुनः वस्त्र धारण कर लिए।
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18>গান্ধারীর অভিশাপে কীভাবে দেহত্যাগ হয় শ্রীকৃষ্ণের?
উওর- শেষ হয়েছে কুরুক্ষেত্র যুদ্ধ | রক্তাক্ত প্রান্তরে এসে সন্তানদের মৃত্যুতে ভেঙে পড়লেন গান্ধারী | এই ধ্বংসলীলার জন্য তিনি দায়ী করলেন শ্রীকৃষ্ণকে | তাঁকে বোঝাতে চেষ্টা করলেন কৃষ্ণ | যে তিনি অনেকবার বোঝাতে চেষ্টা করেছিলেন যুদ্ধের ভয়াবহতা | কিন্তু শুনতে চাননি দুর্যোধন | কিন্তু কোনও কথাই মানতে চাইলেন না পুত্র শোকে কাতর গান্ধারী | অভিশাপ দিলেন, কুরু বংশের মতোই নির্বিচারে ধ্বংস হয়ে যাবে শ্রীকৃষ্ণের যদু বংশ | গান্ধারীর অভিশাপকে আশীর্বাদ হিসেবে নিলেন কৃষ্ণ | কারণ তিনি
জানতেন যাদবদের বংশ একদিন অন্তর্কলহের জন্য শেষ হয়ে যাবে | তাই গান্ধারী তাঁর কাজ সহজ করে দিয়েছিলেন | গান্ধার কন্যা সেইসঙ্গে কৃষ্ণকেও অভিশাপ দিয়েছিলেন | যে তিনি আর মাত্র ৩৬ বছর বাঁচবেন | এবং হয়েওছিল তাই | কুরুক্ষেত্র প্রান্তরে অভিশাপ দেওয়ার ৩৬ বছর পরে মারা গিয়েছিলেন কৃষ্ণ | কারণ গান্ধারীর স্থির বিশ্বাস ছিল কৃষ্ণ চাইলেই এই যুদ্ধ আটকাতে পারতেন | অন্যদিকে, দ্বারকায় ক্রমশ ভেঙে পড়ে যদু বংশ | কৃষ্ণের শাসনে যে উচ্চতায় গিয়েছিল তারা, তার চেয়েও বেশি পতন হয় | নিজেদের মধ্যে অন্তর্দ্বন্দ্বে ক্ষতবিক্ষত হয়ে যায় যদু বংশ | ঋষিদের সঙ্গে পরিহাস করায় এক দলা লোহার জন্ম দেয় কৃষ্ণ-পুত্র শাম্ব | রাজা উগ্রসেনের পরামর্শে সেই পিণ্ড গুঁড়ো করে সমুদ্রে ভাসিয়ে দেয় শাম্বর বন্ধুরা | পুরো ঘটনা লুকিয়ে রাখা হয় কৃষ্ণের কাছ থেকে | বিভিন্ন গোষ্ঠীতে ভাগ হয়ে যাওয়া যদু বংশের অন্তর্কলহে প্রাণ হারান অনেকে | তাঁদের মধ্যে ছিলেন কৃষ্ণ-পুত্র প্রদ্যুম্নও | দ্বারকা এবং যাদবদের এই হাল দেখে বনবাসে চলে যান বলরাম ও কৃষ্ণ | সেখানেই একদিন কৃষ্ণ দেখেন বলরামের দেহ থেকে সাপ বেরিয়ে এগিয়ে যাচ্ছে | তিনি বুঝতে পারেন বলরাম প্রয়াণের পরে যাত্রা করেছেন বৈকুণ্ঠের পথে | এদিকে কৃষ্ণ-পুত্র শাম্বর জন্ম দেওয়া সেই লোহার পিণ্ডের কী হল? বহু চেষ্টা করেও সেটা পুরোটা গুঁড়ো করা যায়নি | থেকে গিয়েছিল এক টুকরো লোহা |
সমুদ্রে ফেলে দেওয়ার পরে তা গিলে নেয় একটি মাছ | সেই মাছ আবার ধরা পড়ে জিরু নামে এক ব্যাধের জালে| মাছের পেট থেকে লোহার খণ্ড পেয়ে তা দিয়ে তিরের ফলা বানায় জিরু | সেই তির নিয়ে সে বনের মধ্যে যায় পশু শিকারে | হঠাৎ তার চোখে পড়ে এক অদ্ভূত পাখি |যার গায়ে আবার কমল-চিহ্ন | লাল টুকটুকে পাখিটিকে তিরবিদ্ধ করে জিরু | কাছে গিয়ে বুঝতে পারে কী হয়ে গেছে | আসলে কোনও পাখি নয়| সেটা ছিল শ্রীকৃষ্ণের পা | ঘাসপাতার আড়ালে তাকেই পাখি বলে ভুল করে জিরু | শ্রীকৃষ্ণের কাছে বারবার ক্ষমা চায় জিরু | কিন্তু কৃষ্ণ তাঁকে বোঝান, এটা কোনও অপরাধ নয় | আসলে এটাই ছিল ভবিতব্য | এই বলে বনের মধ্যে বিষ্ণুর মন্দিরে গিয়ে বিষ্ণু-মূর্তিতে বিলীন হয়ে যান তিনি | এই জিরুরও আলাদা পরিচয় আছে | বলা হয়, পূর্বজন্মে সে ছিল বালি | যাকে কৃষ্ণ নিজের রাম-অবতারে অন্যায়ভাবে ঝোপের আড়াল থেকে লুকিয়ে হত্যা করেছিলেন| কর্ম ফলে পরজন্মে সেই জিরুর হাতেই মৃত্যু হল কৃষ্ণের | সেইসঙ্গে সত্যি হল গান্ধারীর অভিশাপ | যদুবংশ ধ্বংস হল | নিঃসঙ্গ মৃত্যু এসে গ্রাস করল শ্রীকৃষ্ণকে | বলা হয় গান্ধারীর অভিশাপেই সমুদ্র এসে গ্রাস করে দ্বারকা নগরীকে | আজও আরব সাগরের গভীরে ছড়িয়ে ছিটিয়ে আছে খ্রিস্টপূর্বে বিকশিত হওয়া প্রাচীন এই নগরীর ধ্বংসাবশেষ |
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19>जानिए कैसे खत्म हुआ था श्रीकृष्ण सहित पूरा यदुवंश ?

भगवान कृष्ण राजा ययाति के पुत्र यदु के वंशज थे। यदु के ही वंशजों को यदुवंशी कहा जाता था। महाभारत के युद्ध में भगवान कृष्ण ने हिस्सा लिया था, इसी युद्ध का परिणाम ही था कि यदुवंश का नाश हुआ था।


अठारह दिन चले महाभारत के युद्ध में रक्तपात के सिवाय कुछ हासिल नहीं हुआ। इस युद्ध में कौरवों के समस्त कुल का नाश हुआ, साथ ही पाँचों पांडवों को छोड़कर पांडव कुल के अधिकाँश लोग मारे गए। लेकिन इस युद्ध के कारण, युद्ध के पश्चात एक और वंश का खात्मा हो गया वो था ‘श्री कृष्ण जी का यदुवंश’।

यदुवंश के नाश कारण
गांधारी ने दिया था यदुवंश के विनाश का श्राप :

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा। गांधारी के श्राप से विनाशकाल आने के कारण श्रीकृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रयास क्षेत्र में आ गये थे।

यदुवंशी अपने साथ अन्न-भंडार भी ले आये थे। कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्नदान देकर यदुवंशियों को मृत्यु का इंतजार करने का आदेश दिया था। कुछ दिनों बाद महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे।

इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत सभी यदुवंशी मारे गये थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे रह गये थे। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए।
जानिए कैसे हुई भगवान श्री कृष्ण के शरीर की मृत्यु

बलराम जी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन श्रीकृष्ण जी पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे हुए थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान श्रीकृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि श्रीकृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीकृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा।

बहेलिए के जाने के बाद वहां श्रीकृष्ण का सारथी दारुक पहुंच गया। दारुक को देखकर श्रीकृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दो, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएं। यह संदेश लेकर दारुक वहां से चला गया।

इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए।

श्रीमद भागवत के अनुसार जब श्रीकृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुंची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलरामजी की पत्नियां, श्रीकृष्ण की पटरानियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए।

इन संस्कारों के बाद यदुवंश के बचे हुए लोगों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद श्रीकृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर शेष द्वारिका समुद्र में डूब गई। श्रीकृष्ण के स्वधाम लौटने की सूचना पाकर सभी पाण्डवों ने भी हिमालय की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी थी। इसी यात्रा में ही एक-एक करके पांडव भी शरीर का त्याग करते गए। अंत में युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचे थे।


20>कैसे हुआ कृष्ण और यदुवंश का अंत, दर्दनाक कहानी!

भगवन कृष्ण के 16108 रानिया थी आठ मुख्य रानियों से दस पुत्र हर एक से थे तो फिर उनके वंश का क्या हुआ ये बात विचार का मुद्दा है, इस का जवाब मौसला पर्व में छुपा है.
महाभारत के युद्ध के बाद कृष्ण गंधारी से मिलने गए और उनके पुत्रो की एक एक करके कैसे और किसने हत्या की बताया, तब गंधारी ने कृष्ण को श्राप दिया की तुम्हारा वंश भी ऐसे ही लड़ के मरेगा.
सब कुछ शांति से था भगवन कृष्ण 36 वर्ष के हो गए, उसी समय उनके पुत्र साम्ब (जाम्वन्ति से पैदा हुए) ने महिला का वेश बदला और अपने मित्रो के साथ वंहा चले गए जन्हा ऋषि विश्वामित्र दुर्वासा और नारद बैठे हुए थे.
साम्ब ने खुद को गर्भवती बताया और ऋषियों से पूछा की बताओ लड़का होगा की लड़की तब गुस्से में ऋषियों ने श्राप दिया तुम्हारे गर्भ से लोहा जन्मेगा और उसी से तुम्हारा पूरा वंश मिट जायेगा.
तब राजा उग्रसेन ने उस लोहे को पिसवा के समुद्र में फिंका दिया जो की बाद में घास बन के उग गई, विवाह उत्सव में सब द्वारका में समुद्र तट पे बैठे थे की कृतवर्मा और सात्यकि के बीच झगड़ा हुआ जो हिंसक हुआ और दोनों आपस में मर गए देखते देखते लोहे से पैदा हुई एरका घास को हाथ में उठाते ही वो हथियार बनता और सब आपस में लड़ के मर गए. तब बलराम और उग्रसेन समुन्द्तल में चले गए.


उस घास को एक मछली ने खाया उसे चिर एक बहेलिये ने उससे तीर बनाया और वही तीर कृष्ण के पैर में लगा और वो भी मारे गए. तब अर्जुन सबको मथुरा ले गया और एक मात्र जीवित वज्र को वंहा का राजा बनाया और राज कराया. तब दुखी हो पांडव स्वर्गारोहण के लिए निकल गए.
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21>जानिए कौन था यब बहेलिया।

कुछ महान संतो और पौराणिक कहानियों में जिक्र आता है कि यह बहेलिया अपने पुर्वजन्म में महाराज बाली थी जो त्रेतायुग में वानरो के राजा थे। संत लोग यह भी कहते हैं कि प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर बाली को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी।

यह सभी तथ्य हमने विभिन्न – विभिन्न सनातन संस्कृति से जुडें ब्लाग से लिए हैं।।
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22>सफलता के लिए जानिए श्रीकृष्ण के ये 11 सूत्र


भगवान कृष्ण ने गीता के माध्यम से संसार को जो शिक्षा दी, वह अनुपम है। वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है ब्रह्मसूत्र और ब्रह्मसूत्र का सार है गीता। सार का अर्थ है निचोड़ या रस।
गीता में उन सभी मार्गों की चर्चा की गई है जिन पर चलकर मोक्ष, बुद्धत्व, कैवल्य या समाधि प्राप्त की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जन्म-मरण से छुटकारा पाया जा सकता है। तीसरे शब्दों में कहें तो खुद के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। चौथे शब्दों में कहें तो आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और पांचवें शब्दों में कहें तो ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

आओ जानते हैं भगवान श्रीकृष्ण के वे रहस्यमय सूत्र जिन्हें जानकर आपको लगेगा कि सच में यह बिलकुल ही सच है। निश्‍चित ही उनके ये सूत्र आपके जीवन में बहुत काम आएंगे। जीवन में सफलता चाहते हैं ‍तो गीता के ज्ञान को अपनाएं और निश्‍चिंत तथा भयमुक्त जीवन पाएं।
1=सफलता : भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि यदि आप लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहते हैं, तो अपनी रणनीति बदलें, लक्ष्य नहीं। ...इस जीवन में न कुछ खोता है, न व्यर्थ होता है। ...जो इस लोक में अपने काम की सफलता की कामना रखते हैं, वे देवताओं की प्रार्थना करें।2=प्रसन्नता : श्रीकृष्ण कहते हैं कि खुशी मन की एक अवस्था है, जो बाहरी दुनिया से नहीं मिल सकती है। खुश रहने की एक ही कुंजी है इच्छाओं में कमी।3=आत्मविनाश या नर्क के ये 3 द्वार हैं- वासना, क्रोध और लोभ। क्रोध से भ्रम पैदा होता है। भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है। जब बुद्धि व्यग्र होती है, तब तर्क नष्ट हो जाता है। जब तर्क नष्ट होता है, तब व्यक्ति का पतन हो जाता है। ...वह जो सभी इच्छाएं त्याग देता है और 'मैं' और 'मेरा' की लालसा और भावना से मुक्त हो जाता है, उसे शांति प्राप्त होती है।4=विश्वास क्या है? : मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है। जैसा वो विश्वास करता है, वैसा वो बन जाता है। ...व्यक्ति जो चाहे बन सकता है यदि वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करे। ...हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है। विश्‍वास की शक्ति को पहचानें।5=मित्र और शत्रु दोनों है मन : जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है। मन की गतिविधियों, होश, श्वास और भावनाओं के माध्यम से भगवान की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है और लगातार तुम्हें बस एक साधन की तरह प्रयोग कर के सभी कार्य कर रही है।
मन अशांत है और उसे नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है। ...सर्वोच्च शांति पाने के लिए हमें हमारे कर्मों के सभी परिणाम और लगाव को छोड़ देना चाहिए। ...केवल मन ही किसी का मित्र और शत्रु होता है
6=निर्भीक बनो : उससे मत डरो जो वास्तविक नहीं है, न कभी था न कभी होगा। जो वास्तविक है, वो हमेशा था और उसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। ...प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए, गंदगी का ढेर, पत्थर और सोना सभी समान हैं।7=संशय न करो : सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता न इस लोक में है, न ही कहीं और। आत्मज्ञान की तलवार से काटकर अपने हृदय से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो। अनुशासित रहो। उठो।

संदेह, संशय, दुविधा या द्वंद्व में जीने वाले लोग न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न ही परलोक में। उनका जीवन निर्णयहीन, दिशाहीन और भटकाव से भरा रहता है।
8=आत्मा न जन्म लेती है और न ही मरती है : जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है जितन‍ी कि मृत होने वाले के लिए जन्म लेना। इसलिए जो अपरिहार्य है, उस पर शोक मत करो।

न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं...। सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो?

यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मती है और न मरती है अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाली है, क्योंकि यह अजन्मी, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी यह नष्ट नहीं होती है।

कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं, तुम या ये राजा-महाराजा अस्तित्व में नहीं थे, न ही भविष्य में कभी ऐसा होगा कि हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाए। ...हे अर्जुन! हम दोनों ने कई जन्म लिए हैं। मुझे याद हैं, लेकिन तुम्हें नहीं।
9=कर्मवान बनो : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। ...अपने अनिवार्य कार्य करो, क्योंकि वास्तव में कार्य करना निष्क्रियता से बेहतर है।

ज्ञानी व्यक्ति को कर्म के प्रतिफल की अपेक्षा कर रहे अज्ञानी व्यक्ति के दिमाग को अस्थिर नहीं करना चाहिए। ...अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है। ...किसी और का काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि अपना काम करें, भले ही उसे अपूर्णता से करना पड़े। ...बुद्धिमान व्यक्ति कामुक सुख में आनंद नहीं लेता। ...कर्मयोग वास्तव में एक परम रहस्य है।
10=जो मेरे साथ हैं मैं उनके साथ हूं : संपूर्ण ब्रह्मांड मेरे ही अंदर है। मेरी इच्छा से ही यह फिर से प्रकट होता है और अंत में मेरी इच्छा से ही इसका अंत हो जाता है। ...मेरे लिए न कोई घृणित है न प्रिय, किंतु जो व्यक्ति भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हैं, वो मेरे साथ हैं और मैं भी उनके साथ हूं। ...बुरे कर्म करने वाले, सबसे नीच व्यक्ति जो राक्षसी प्रवृत्तियों से जुड़े हुए हैं और जिनकी बुद्धि माया ने हर ली है वो मेरी पूजा या मुझे पाने का प्रयास नहीं करते।

हे अर्जुन! कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूं।
मैं उन्हें ज्ञान देता हूं, जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं।
मैं सभी प्राणियों को समान रूप से देखता हूं, न कोई मुझे कम प्रिय है न अधिक। लेकिन जो मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते हैं वो मेरे भीतर रहते हैं और मैं उनके जीवन में आता हूं।
मेरी कृपा से कोई सभी कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी बस मेरी शरण में आकर अनंत अविनाशी निवास को प्राप्त करता है। ...हे अर्जुन! केवल भाग्यशाली योद्धा ही ऐसा युद्ध लड़ने का अवसर पाते हैं, जो स्वर्ग के द्वार के समान है।
11=ईश्‍वर के बारे में : भगवान प्रत्येक वस्तु में है और सबके ऊपर भी। ...प्रबुद्ध व्यक्ति सिवाय ईश्वर के किसी और पर निर्भर नहीं करता। ...सभी काम छोड़कर बस भगवान में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक मत करो।
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