Tuesday, June 14, 2016

25>1>गंगा दशहरा

25>1>गंगा दशहरा
      2>श्री गंगा दशहरा कथा: जब टूटा गंगा का अहंकार



1>गंगा दशहरा - 14 जून 2016

धरती पर जिस दिन गंगा का अवतरण हुआ था वह दिन है जेष्ठ शुक्ल दशमी तिथि। इसलिए इस दशमी तिथि को गंगा दशहरा के नाम से भी जाना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार गंगा स्नान यूं तो हर दिन शुभ फलदायी और कल्याणकारी होता है लेकिन कुछ खास दिन ऐसे हैं जिसमें गंगा स्नान का बड़ा ही उत्तम फल मिलता है। इन्हीं में से एक है गंगा दशहरा का दिन।

प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नाम के महाप्रतापी राजा राज्य करते थे। उन्होंने सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। उनके केशिनी तथा सुमति नामक दो रानियाँ थीं।
पहली रानी के एक पुत्र असमंजस का उल्लेख मिलता है, परंतु दूसरी रानी सुमति के साठ हज़ार पुत्र थे। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और यज्ञ पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इंद्र ने उस यज्ञ को भंग करने के लिए यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया और उसे कपिल मुनि के आश्रम में बांध आए। राजा ने उसे खोजने के लिए अपने साठ हज़ार पुत्रों को भेजा। सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि साक्षात भगवान 'महर्षि कपिल' के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। सगर के पुत्र उन्हें देखकर 'चोर-चोर' शब्द करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्यों ही सब जलकर भस्म हो गए। अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में
पहुँचा तो महात्मा गरुड़ ने भस्म होने का सारा वृतांत सुनाया। गरुड़ जी ने यह भी बताया- 'यदि इन
सबकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।'
भागीरथ की तपस्या
अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृतांत कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के
उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को मृत्युलोक में ला न सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी के पहाड़ को गंगा के प्रवाह
के द्वारा पवित्र करने का प्रयत्न किया किंतु वे सफल न हुए।
अंत में महाराज दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की। इस प्रकार तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गए।
उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वर मांगने को कहा तो भागीरथ ने 'गंगा' की मांग की।

भागीरथ के गंगा मांगने पर ब्रह्माजी ने कहा- 'राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो? परंतु गंगाजी के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?' ब्रह्माजी
ने आगे कहा-' भूलोक में गंगा का भार एवं वेग संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इसलिए उचित
यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।' महाराज
भागीरथ ने वैसा ही किया। एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना
की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगाजी देवलोक से
छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ
नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर रसातल में
चली जाऊंगी। पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि गंगा शंकर जी की जटाओं
में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी
अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय
करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी
की जटाओं से छूटकर गंगाजी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित ' बिन्दुसर सरोवर' में गिरी, उसी समय इनकी
सात धाराएँ हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल  रही थी।
पृथ्वी पर गंगाजी
पृथ्वी पर गंगाजी के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से
गंगाजी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगाजी को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया।
तभी से ये जाह्नवी कहलाईं। इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने
प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वर दिया। साथ ही
यह भी कहा- 'तुम्हारे ही नाम पर गंगाजी का नाम भागीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर राज-काज संभालो।' ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। इस प्रकार भागीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भागीरथ के पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भागीरथ की
कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र कोजीवनदान ही नहीं देती, वरन मुक्ति भी देतीहै।
गंगा दशहरा


गंगा दशहरा : १४ जून (ज्येष्ठ शु.प. १०), मंगलवार

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी काे हस्त नक्षत्र में स्वर्ग से गंगाजी का आगमन हुआ था । अतएव इस दिन गंगा आदि का स्नान, अन्न-वस्त्रादि का दान, जप-तप-उपासना और उपवास किया जाए ताे दस प्रकार के पाप (तीन प्रकार के कायिक, चार प्रकार के वाचिक और तीन प्रकार के मानसिक) दूर हाेते हैं । दशहरा के दिन दशाश्वमेध में दस प्रकार स्नान कर शिवलिंग का दस संख्या के गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और फल आदि से पूजन कर रात काे जागरण करें, ताे अनंत फल मिलता है ।

🌸💐 जय गंगा मैया 🌸💐

💐 हर हर महादेव 💐
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2>श्री गंगा दशहरा कथा: जब टूटा गंगा का अहंकार

कथा है कि गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान के पुत्र दिलीप व दिलीप के पुत्र भागीरथ ने बड़ी तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता गंगा ने उन्हें दर्शन दिया और कहा ‘‘मैं तुम्हें वर देने आई हूं।’’

राजा भागीरथ ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘आप मृत्युलोक में चलिए।’’

गंगा ने कहा ‘‘जिस समय मैं पृथ्वी तल पर अवतरण करूं, उस समय मेरे वेग को कोई रोकने वाला होना चाहिए। ऐसा न होने पर पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाऊंगी।’’

भागीरथ ने एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएं बांध लीं। गंगा जी को शिव की जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका जबकि उन्हें अहंकार था कि वे शिव की जटाओं से कुछ ही क्षणों में निकलकर पृथ्वी पर पहुंच जाएंगी।

पुराणों में उल्लेख मिलता है कि शंकर जी की जटाओं में गंगा कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव के प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव जी की जटाओं से छूटकर गंगा जी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित ‘बिंदुसर सरोवर’ में गिरीं, उसी समय इनकी सात धाराएं हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी। पृथ्वी पर गंगा जी के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगा जी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगा जी को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से ये जाह्नवी कहलाईं।

इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्ववी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचकर सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हजार पुत्रों के अमर होने का वर दिया। साथ ही यह भी कहा तुम्हारे ही नाम पर गंगा जी का नाम भागीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर राज-काज संभालो। ऐसा कहकर ब्रह्मा जी अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार भागीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए।
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