Tuesday, June 14, 2016

25>1>गंगा दशहरा

25>1>गंगा दशहरा
      2>श्री गंगा दशहरा कथा: जब टूटा गंगा का अहंकार



1>गंगा दशहरा - 14 जून 2016

धरती पर जिस दिन गंगा का अवतरण हुआ था वह दिन है जेष्ठ शुक्ल दशमी तिथि। इसलिए इस दशमी तिथि को गंगा दशहरा के नाम से भी जाना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार गंगा स्नान यूं तो हर दिन शुभ फलदायी और कल्याणकारी होता है लेकिन कुछ खास दिन ऐसे हैं जिसमें गंगा स्नान का बड़ा ही उत्तम फल मिलता है। इन्हीं में से एक है गंगा दशहरा का दिन।

प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नाम के महाप्रतापी राजा राज्य करते थे। उन्होंने सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। उनके केशिनी तथा सुमति नामक दो रानियाँ थीं।
पहली रानी के एक पुत्र असमंजस का उल्लेख मिलता है, परंतु दूसरी रानी सुमति के साठ हज़ार पुत्र थे। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और यज्ञ पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इंद्र ने उस यज्ञ को भंग करने के लिए यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया और उसे कपिल मुनि के आश्रम में बांध आए। राजा ने उसे खोजने के लिए अपने साठ हज़ार पुत्रों को भेजा। सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि साक्षात भगवान 'महर्षि कपिल' के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। सगर के पुत्र उन्हें देखकर 'चोर-चोर' शब्द करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्यों ही सब जलकर भस्म हो गए। अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में
पहुँचा तो महात्मा गरुड़ ने भस्म होने का सारा वृतांत सुनाया। गरुड़ जी ने यह भी बताया- 'यदि इन
सबकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।'
भागीरथ की तपस्या
अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृतांत कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के
उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को मृत्युलोक में ला न सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी के पहाड़ को गंगा के प्रवाह
के द्वारा पवित्र करने का प्रयत्न किया किंतु वे सफल न हुए।
अंत में महाराज दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की। इस प्रकार तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गए।
उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वर मांगने को कहा तो भागीरथ ने 'गंगा' की मांग की।

भागीरथ के गंगा मांगने पर ब्रह्माजी ने कहा- 'राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो? परंतु गंगाजी के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?' ब्रह्माजी
ने आगे कहा-' भूलोक में गंगा का भार एवं वेग संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इसलिए उचित
यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।' महाराज
भागीरथ ने वैसा ही किया। एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना
की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगाजी देवलोक से
छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ
नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर रसातल में
चली जाऊंगी। पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि गंगा शंकर जी की जटाओं
में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी
अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय
करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी
की जटाओं से छूटकर गंगाजी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित ' बिन्दुसर सरोवर' में गिरी, उसी समय इनकी
सात धाराएँ हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल  रही थी।
पृथ्वी पर गंगाजी
पृथ्वी पर गंगाजी के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से
गंगाजी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगाजी को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया।
तभी से ये जाह्नवी कहलाईं। इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने
प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वर दिया। साथ ही
यह भी कहा- 'तुम्हारे ही नाम पर गंगाजी का नाम भागीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर राज-काज संभालो।' ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। इस प्रकार भागीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भागीरथ के पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भागीरथ की
कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र कोजीवनदान ही नहीं देती, वरन मुक्ति भी देतीहै।
गंगा दशहरा


गंगा दशहरा : १४ जून (ज्येष्ठ शु.प. १०), मंगलवार

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी काे हस्त नक्षत्र में स्वर्ग से गंगाजी का आगमन हुआ था । अतएव इस दिन गंगा आदि का स्नान, अन्न-वस्त्रादि का दान, जप-तप-उपासना और उपवास किया जाए ताे दस प्रकार के पाप (तीन प्रकार के कायिक, चार प्रकार के वाचिक और तीन प्रकार के मानसिक) दूर हाेते हैं । दशहरा के दिन दशाश्वमेध में दस प्रकार स्नान कर शिवलिंग का दस संख्या के गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और फल आदि से पूजन कर रात काे जागरण करें, ताे अनंत फल मिलता है ।

🌸💐 जय गंगा मैया 🌸💐

💐 हर हर महादेव 💐
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2>श्री गंगा दशहरा कथा: जब टूटा गंगा का अहंकार

कथा है कि गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान के पुत्र दिलीप व दिलीप के पुत्र भागीरथ ने बड़ी तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता गंगा ने उन्हें दर्शन दिया और कहा ‘‘मैं तुम्हें वर देने आई हूं।’’

राजा भागीरथ ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘आप मृत्युलोक में चलिए।’’

गंगा ने कहा ‘‘जिस समय मैं पृथ्वी तल पर अवतरण करूं, उस समय मेरे वेग को कोई रोकने वाला होना चाहिए। ऐसा न होने पर पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाऊंगी।’’

भागीरथ ने एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएं बांध लीं। गंगा जी को शिव की जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका जबकि उन्हें अहंकार था कि वे शिव की जटाओं से कुछ ही क्षणों में निकलकर पृथ्वी पर पहुंच जाएंगी।

पुराणों में उल्लेख मिलता है कि शंकर जी की जटाओं में गंगा कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव के प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव जी की जटाओं से छूटकर गंगा जी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित ‘बिंदुसर सरोवर’ में गिरीं, उसी समय इनकी सात धाराएं हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी। पृथ्वी पर गंगा जी के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगा जी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगा जी को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से ये जाह्नवी कहलाईं।

इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्ववी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचकर सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हजार पुत्रों के अमर होने का वर दिया। साथ ही यह भी कहा तुम्हारे ही नाम पर गंगा जी का नाम भागीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर राज-काज संभालो। ऐसा कहकर ब्रह्मा जी अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार भागीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए।
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Wednesday, April 20, 2016

24>आ =Post=24>***=श्रीकृष्ण--Part-2 ***( 1 to 9 )

24>आ =Post=24>***=श्रीकृष्ण--Part-2 ***( 1 to 9 )

1---------------श्रीधामवृन्दावन
2---------------तुलसीसेवा, श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए श्रीराधा
3---------------दामोदर श्रीकृष्ण द्वारा यमलार्जुन (कुबेरपुत्रों) का उद्धार
4>--------------रुक्नणी एवं राधा
5>--------------कृष्ण अर्जुन एवं निर्धन ब्राह्मण
6>-------------इस तरह प्रकट हुआ था वृंदावन के बांके बिहारी जी का विग्रह
7>--------कृष्ण का है ये फंडा, जीना है तो जीओ ऐसे
8>  कौन सी तपस्‍या की थी भगवान कृष्ण ने?
9>वासुदेव कृष्ण के अत्यन्त शक्तिशाली अस्त्र सुदर्शन 
     चक्र की सच्चाई को जान चकित हो जायेंगे आप !


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1>श्रीधामवृन्दावन
श्रीधाम वृन्दावन भगवान श्रीराधाकृष्ण की रसमयी लीलाभूमि है। पुराणों में इसे व्रजमण्डलरूपी कमल की अत्यन्त सुन्दर कर्णिका कहा गया है। अत: कमल-कर्णिका के समान ही यह सुन्दरता, blसुकुमारता एवं मधुरता का कोष है। यह सहस्त्रदल-कमल का केन्द्रस्थान है। वृन्दावन के मध्यभाग में एक सुन्दर भवन के भीतर योगपीठ है। उसके ऊपर माणिक्य का बना हुआ सुन्दर सिंहासन है, जिसके ऊपर अष्टदल कमल है, जिसकी कर्णिका अर्थात् मध्यभाग में सुकोमल आसन लगा है; वही भगवान श्रीकृष्ण का स्थान है जहां वे विराजमान होते हैं। कलिन्द-कन्या यमुना उस कमल-कर्णिका की प्रदक्षिणा किया करती हैं। भूमण्डल में वृन्दावन गुह्यतम, रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्द से पूर्ण स्थान है। यह गोविन्द का अक्षयधाम है।

श्रीगर्ग संहिता में बहिषत् से ईशानकोण, यदुपुर से दक्षिण और शोणपुर से पश्चिम की साढ़े बीस योजन विस्तृत भूमि को ‘दिव्य माथुर मण्डल’ या ‘व्रज’ बतलाया है। इस व्रज में सबसे श्रेष्ठ‘वृन्दावन’ नामक वन है जो भगवान के भी मन को हरने वाला लीला-क्रीडास्थल है। यह वृन्दावन वैकुण्ठ से भी परम उत्कृष्ट है। यहां ‘गोवर्धन’ नाम से प्रसिद्ध गिरिराज, कालिन्दी (यमुना) का पावन तट, बृहत्सानु (बरसाना) पर्वत व नन्दीश्वर गिरि शोभायमान है। यह विस्तृत भूभाग विशाल काननों (वनों) से घिरा है; जो पशुओं के लिए हितकर, गोप-गोपी और गौओं के लिए सेवन करने योग्य है, उस मनोहर वन को ‘वृन्दावन’ के नाम से जाना जाता है। यह वृन्दावन अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ मथुरा मण्डल में अवस्थित है।
भगवान श्रीकृष्ण का निजधाम–श्रीवृन्दावन

ब्रज चौरासी कोस में, चारगाम निजधाम।
वृन्दावन अरू मधुपुरी, बरसानो नन्दगाम।।

श्रीवृन्दावन, मथुरा और द्वारका भगवान के नित्य लीलाधाम हैं। परन्तु पद्मपुराण के अनुसार वृन्दावन ही भगवान का सबसे प्रिय धाम है। भगवान श्रीकृष्ण ही वृन्दावन के अधीश्वर हैं। वे व्रज के राजा हैं और व्रजवासियों के प्राणवल्लभ हैं। उनकी चरण-रज का स्पर्श होने के कारण वृन्दावन पृथ्वी पर नित्यधाम के नाम से प्रसिद्ध है।

मोहन वृन्दावन के राजा, राधा महारानी सुकुमार।
बीस कोस वृन्दावन गायौ,
बरसानो गहवर तक छायौ,
गोवर्धन हूं बन में आयौ,
ठौर-ठौर पर रस की लीला करी जुगल सरकार।।
योजन पांच वन्यौ वृन्दावन,
मुख्य भूमि तट यमुनाकंकन,
रास बिहार होय जहां कुंजन,
विधि हरि हर दुर्लभ रजधानी नित बरसै रसधार।।
सृष्टिचक्र में यह वन नाहीं,
माया की गति नहिं अवगाहीं,
काल शक्ति वन में नहि जाहीं,
महा प्रलय ब्रजधूरिन नासै जगमग ज्योति अपार।।
(डॉ. वसन्त यामदग्नि)

सनत्कुमार संहिता में गोविन्द की अतिशय प्रिय भूमि वृन्दावन का विस्तार पंचयोजन बताया गया है और पंचयोजन विस्तृत वृन्दावन स्वयं श्रीकृष्ण का देहरूप माना गया है। भगवान की इच्छा से इसमें संकुचन और विस्तार हुआ करता है। छोटे से वृन्दावन में जितनी गोपियों, ग्वालों और गौओं के होने का वर्णन आता है, वह स्थूल दृष्टि से देखने से सम्भव प्रतीत नहीं होता; फिर भी भगवान की महिमा से वह सब सत्य ही है। वृन्दावन की एक झाड़ी में ही ब्रह्माजी को सहस्त्र-सहस्त्र ब्रह्माण्ड और उनके निवासी दीख गये थे। यहां के नग, खग, मृग, कुंज, लता आदि काल और प्रकृति के प्रभाव से अतीत दिव्य स्वरूप हैं। यहां के रजकणों के समान तो वैकुण्ठ भी नहीं माना गया, क्योंकि यहां कि भूमि का चप्पा-चप्पा श्रीप्रिया-प्रियतम के चरणचिह्नों से महिमामण्डित है। सांसारिक दृष्टि से यह वृन्दावन कदापि दर्शनीय नहीं है, पर यदि श्रीराधाकृष्ण की कृपा हो जाये तो वृन्दावन के इस रूप का दर्शन भी साधकों को हो जाता है।

नित्य छबीली राधिका, नित छविमय ब्रजचंद।
विहरत वृंदाबिपिन दोउ लीला-रत स्वच्छन्द।।

श्रीमद्भागवत के अनुसार अत्याचारी कंस के उत्पातों से दु:खी होकर नन्द-उपनन्द आदि गोपों की सभा में अपने तत्कालीन निवास बृहद्वन को छोड़कर सुरक्षा के लिए जिस वृन्दावन में बसने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था, वह वृन्दावन अपने स्वरूप में छोटे-छोटे अनेक वनों का समूह था। इस क्षेत्र में पुण्य पर्वत गिरिराज था, स्वच्छ सलिला श्रीयमुना थीं और यह सम्पूर्ण क्षेत्र अपनी वनश्री की शोभा से समृद्ध होने के कारण गोप-गोपी और गायों की सुख-सुविधा से युक्त था–

वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम्।
गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम्।।
(श्रीमद्भागवत १०।११।२८)

इसी बृहद् वृन्दावन में गोप-गोपी एवं गोपाल की अनेक लीलाएं हुईं। वृन्दावन के इसी क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा वत्सासुर, वकासुर एवं अघासुर का वध हुआ। इसी क्षेत्र में यमुना-पुलिन पर ग्वालबालों की मण्डली में जूठन खाते श्रीकृष्ण को देखकर ब्रह्माजी मोहग्रसित हुए। वृन्दावन के इसी बृहद् क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा कालियनाग को नाथे जाने पर यमुना प्रदूषण से मुक्त हुई थी। यहीं मुज्जावटी क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा दावानल का पान किया गया। भाण्डीर वन में ही प्रलम्बासुर नामक दैत्य ग्वालबालों व श्रीकृष्ण की क्रीड़ा में ग्वाल के वेष में सम्मिलित हुआ था। यमुनातट पर व्रजांगनाओं के चीरहरण का साक्षी वह कदम्ब का वृक्ष आधुनिक स्यारह गांव के पास स्थित था। वृन्दावन के गिरिराज क्षेत्र में ही इन्द्र का मानमर्दन हुआ। वरुणदेव ने नन्दबाबा का हरण आधुनिक भयगांव नाम से प्रसिद्ध स्थान पर किया था। राधाकुण्ड का भूभाग अरिष्टासुर के उद्धार से सम्बन्धित है–

राधाकुण्डे श्यामकुण्डे गिरि गोवर्धन।
मधुर मधुर वंशी बाजे, ऐई तो वृन्दावन।।

श्रीगर्ग संहिता के उल्लेख के आधार पर श्रीराधाकृष्ण के रास का क्षेत्र वृन्दावन के सैकत पुलिन से शुरु होकर गिरिगोवर्धन, चन्द्रसरोवर, तालवन, मधुवन, कामवन, बरसाना, नन्दगांव, कोकिलावन एवं रासौली तक विस्तृत माना जाता है। इस प्रकार बृहद् वृन्दावन की सीमा दक्षिण-पश्चिम में गोवर्धन तक तथा उत्तर में वर्तमान छाता तहसील के दक्षिणी भाग तक मानी जाती है।
वृन्दावन की महिमा
वृन्दावन को भगवान का स्वरूप ही मानना चाहिए। यहां कि धूलि का स्पर्श होने मात्र से ही मोक्ष हो जाता है। बड़े-बड़े देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रहने की इच्छा करते हैं। यहां देवता और सिद्धों का निवास है। यहां की भूमि चिन्तामणि है और जल रस से भरा हुआ अमृत है। वहां के पेड़ कल्पवृक्ष हैं और गायें कामधेनु हैं।

धनि यह बृंदाबन की रेनु।
नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु।
मन-मोहन कौ ध्यान धरैं जिय, अति सुख पावत चैनु।
चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहाँ कछु लैन न दैनु।
इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिनि कैं ऐनु।
सूरदास ह्याँ की सरबरि नहि, कल्पबृच्छ सुर-धैनु।।

अन्तर तो केवल इतना ही है कि कल्पवृक्ष अथवा चिन्तामणि जहां सिर्फ भौतिक सुख-सुविधाओं से सम्बन्धित कामनाओं की पूर्ति करते हैं, वहां वृन्दावन साधक की समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ है। भुक्ति-मुक्ति और भक्ति–यह तीनों ही प्रदान करता है। पर जो सबसे बड़ी चीज यह प्रदान करता है, वह है अद्भुत माधुर्ययुक्त प्रेम जिसके कारण श्रीकृष्ण प्रेमी-साधक के पीछे-पीछे घूमते रहते हैं। वृन्दावन के इस अनूठे रूप का दर्शन व्यक्ति अपनी ज्ञानेन्द्रियों से नहीं बल्कि अपनी आत्मा से ही कर सकता है। इसके लिए सिर्फ और सिर्फ एक ऐसे मन की आवश्यकता होती है जहां श्रीकृष्ण के लिए विशुद्ध प्रेम (अनुराग) हो। ऐसा उज्जवल प्रेम जिसमें न पुण्य का भय है, पाप की आशंका, न नरक की विभीषिका का डर है, न स्वर्ग का लालच, न सुख की कामना है, न दु:ख का दर्द। जहां अधीरता नहीं, धैर्य है; शर्त नहीं, समर्पण है; आशा नहीं, पूर्ण विश्वास है। जिसमें साधक अपने सुख के बारे में रत्ती भर भी न सोचकर केवल प्रेमास्पद (श्रीकृष्ण) के सुख की चिन्ता में ही लगा रहता है। भगवान को प्रेम और केवल प्रेम ही प्रिय है। वृन्दावन इसी रस की खान हैं। वृन्दावन में सदा श्याम तेज विराजमान रहता है। श्रीकृष्ण नित्य वृन्दावन की वीथियों (गलियों) में, यहां के कुंज-निकुंजों में, यमुनातट पर वेणु बजाते रहते है और गायें चराते अपने रसिक भक्तों को कृतार्थ करते रहते हैं।

यह वृन्दावन पूर्ण ब्रह्मानन्द में निमग्न रहता है। यहां प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमा का उदय होता है और सूर्य अपनी रश्मियों के द्वारा इस वन की सेवा करते हैं। वृन्दावन में जाते ही सारे दु:खों का नाश हो जाता है। यह वृन्दावनधाम अमृतरस से भरा अखण्ड प्रेम का समुद्र है। यह सम्पूर्ण भूमि रसमयी है। क्यों न हो, यहां सदा-सर्वदा सृष्टि का पूर्णतम माधुर्य (श्रीराधाकृष्ण) क्रीड़ारत जो रहता है। श्रीवृन्दावन केवल धाम ही नहीं है, अपितु यह श्रीराधामाधव के रास-विलास से युक्त प्रेममयी क्रीडाओं की दिव्यभूमि है। व्रजरसिकों का विश्वास है कि श्रीवृन्दावन प्रेम की वह भावभूमि है, जहां अनादिकाल से प्रेम की रसधारा अनवरत रूप से बहती चली आ रही है।

प्रेममयी श्रीराधिका, प्रेम सिन्धु गोपाल।
प्रेमभूमि वृन्दाविपिन, प्रेम रूप ब्रज बाल।।

वृन्दावन में सर्वत्र श्रीराधिका का ही पूर्ण राज्य है। वह वृन्दावनेश्वरी कहलाती हैं। भुक्ति-मुक्ति की यहां तनिक भी नहीं चलती। धर्म-कर्म भी यहां ‘जेवरी बंटते’ अस्तित्वहीन नजर आते हैं। यहां के मनुष्य ही नहीं; वृक्षों के डाल-डाल और पात-पात पर भी सदा ‘राधे-राधे’ का शब्द गुंजायमान रहता है।

वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय।
डाल-डाल और पात-पात पर राधे ही राधे होय।।

इस वृन्दावनधाम में संतों व वैष्णवों की स्थिति के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है? ऐसे वैष्णवजन ही इस धाम का आश्रय लेते हैं जिनका अंतकरण शुद्ध है और जो प्रेमरस से परिपूर्ण हैं। मीराबाई अपने सच्चे पति श्रीकृष्ण के दर्शन करना चाहती थीं। अत: उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि मेरा प्रीतम के देश वृन्दावन जाना ही उचित है–’मैं गिरधर के घर जाऊं।’ वह जानतीं थीं कि उनकी प्रेम-साधना वृन्दावन में ही फूले-फलेगी। मीराबाई ने वृन्दावन की महिमा का वर्णन करते हुए एक सुन्दर भजन गाया है–

आली री ! मौहे लागे वृन्दावन नीको।
घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा दर्शन गोविन्दजी को।।
निरमल नीर बहत यमुना में भोजन दूध दही को।
रत्न सिंहासन आप विराजै मुकुट धरयौ तुलसी को।।
कुँजन कुँजन फिरत राधिका शब्द सुनत मुरली को।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भजन बिना नर फीको।।
‘वृन्दावन’ नाम की व्युत्पत्ति (नाम के कारण)

सत्ययुग में राजा केदार सातों द्वीपों के अधिपति थे। उनका सारा नित्य व नैमित्तिक कर्म श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए ही होता था। भगवान का सुदर्शन चक्र राजा की रक्षा के लिए सदा उन्हीं के साथ रहता था। वे चिरकाल तक तपस्या करके अंत में गोलोक चले गए। उनके नाम से केदार तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। उनकी पुत्री का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मीजी का अंश थी। उसने साठ हजार वर्षों तक निर्जन वन में तपस्या की। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर कोई वर मांगने को कहा। तब वृन्दा ने कहा–’तुम मेरे पति हो जाओ।’ भगवान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और वह भगवान श्रीकृष्ण के साथ गोलोक चली गई। वृन्दा ने जहां तप किया था, उस स्थान का नाम ‘वृन्दावन’ हुआ।

एक अन्य कथा के अनुसार राजा कुशध्वज के दो कन्याएं थीं–तुलसी और वेदवती। वेदवती ने तपस्या करके परम पुरुष नारायण को प्राप्त किया। वह जनकपुत्री सीता के नाम से जानी जाती हैं। तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा की, किन्तु दुर्वासा के शाप से उसने शंखचूड़ को प्राप्त किया। फिर भगवान नारायण उसे पतिरूप में प्राप्त हुए। भगवान श्रीहरि के वर से तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुईं और तुलसी के शाप से श्रीहरि शालग्राम शिला हो गये। उस तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिए इसे ‘वृन्दावन’ कहते हैं।

श्रीराधा के सोलह नामों में एक वृन्दा नाम भी है। पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा की प्रीति के लिए गोलोक में वृन्दावन का निर्माण किया था। फिर पृथ्वी पर उनकी क्रीडालीला के लिए प्रकट हुआ वह वन उस प्राचीन नाम से ही ‘वृन्दावन’ कहलाने लगा।

श्रीराधाकृष्णगणोद्देशदीपिका के अनुसार श्रीराधा की एक प्रिय सखी का नाम भी ‘वृन्दा’ बताया गया है। यह वृन्दा सदैव वृन्दावन में निवास करती है और प्रतिदिन श्रीराधा और श्रीकृष्ण के मिलन की योजना बनाना ही इनकी परमप्रिय सेवा है। अत: यह कहा जा सकता है कि महाभावस्वरूपा श्रीराधा एवं उनकी प्रिय सखी वृन्दा के नामानुसार ही यह स्थल ‘श्रीवृन्दावन’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।

वृन्दावन सदा वासा नाना केलि रसोत्सुका।
उभयोर्मिलनाकांक्षी तयो: प्रेमपरिप्लुता।।

श्रीवृन्दावन के नामकरण के विषय में स्कन्दपुराण में इसे वन्यवृन्दा (तुलसी) से भी जोड़ा जाता है। वृन्दा (तुलसी) का यह वन कभी ऋषि-मुनियों के आश्रमों से भरा-बसा था। इस वन में श्रीहरि सदा निवास करते हैं।
चैतन्य महाप्रभु द्वारा वृन्दावन की खोज

मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रमुख भक्तों में श्रीचैतन्य महाप्रभु का योगदान वृन्दावन की खोज, उसके स्वरूप व गौरव को फिर से प्रतिष्ठित करने में प्रमुख रहा है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जब वृन्दावन आए तो यहां एक निर्जन सघन वन था। उन्होंने यहां यमुना किनारे इमली के पेड़ के नीचे विश्राम किया था, वह स्थान इमलीतला के नाम से जाना जाता है। इमलीतला के बारे में कहा जाता है कि एक दिन श्रीकृष्ण यमुना किनारे राधाजी के साथ रास रचा रहे थे। तभी वहां गोपियां आ गईं। इससे श्रीकृष्ण रुष्ट होकर इमलीतला घाट पर जाकर विरह में ‘राधा-राधा’ पुकारने लगे। यह इमलीतला एक सिद्धस्थान है। यहां सच्ची साधना की जाए तो मनोरथपूर्ति के साथ ही सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।

अपनी तीर्थयात्रा के बाद जैसे ही श्रीचैतन्य महाप्रभु नवद्वीप लौटे तो उन्होंने अपने छह विद्वान अनुयायियों को भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलास्थलियों की खोज व पुनरुद्धार के लिए वृन्दावन भेजा। ये छह गोस्वामी थे–श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील रघुनाथभट्ट गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी, श्रील गोपालभट्ट गोस्वामी और श्रील रघुनाथदास गोस्वामी।श्रीमहाप्रभु और इन्हीं छह गोस्वामियों की प्रेरणा से ही यहां भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ और श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा हुई। अत: यह कहना गलत न होगा कि इन्हीं के प्रयासों से आज वृन्दावन एक वैष्णव तीर्थ के रूप में विख्यात है। श्रील रूप गोस्वामी ने श्रीराधागोविन्ददेव मन्दिर, श्रील सनातन गोस्वामी ने श्रीराधामदनमोहन मन्दिर, श्रील जीव गोस्वामी ने श्रीराधादामोदर मन्दिर, श्रील गोपालभट्ट गोस्वामी ने श्रीराधारमण मन्दिर, श्रीमधु पंडित गोस्वामी ने श्रीराधागोपीनाथजी मन्दिर, श्रीश्यामानंद पंडित गोस्वामी ने श्रीराधाश्यामसुंदर मन्दिर, श्रीलोकनाथ गोस्वामी नेश्रीराधागोकुलनंदजी मन्दिर का निर्माण करवाया। श्रीराधादामोदर मन्दिर में श्रीगिरिराज महाराज की वह शिला भी विराजमान है जिस पर श्रीकृष्णचरण अंकित हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रील सनातन गोस्वामी को यह शिला गोवर्धन (चकलेश्वर) में उस समय दी थी जब वे वृद्धावस्था के कारण नित्य गोवर्धन की परिक्रमा नहीं लगा पाते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रील सनातन गोस्वामी से कहा था कि इस शिला की चार परिक्रमा कर लेने मात्र से उन्हें गोवर्धन की सप्तकोसी परिक्रमा का पुण्य फल प्राप्त होगा। यद्यपि इन गोस्वामियों ने भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया, परन्तु वे स्वयं छोटी कुटिया में ही रहकर भजन व लेखन करते थे।

वृन्दावन में संतों द्वारा स्थापित भगवान श्रीकृष्ण के विग्रहों में सात ऐसे प्रमुख विग्रह हैं, जो स्वयं प्रकट हैं–श्रीगोविन्ददेवजी, श्रीमदनमोहनजी, श्रीगोपीनाथजी, श्रीजुगलकिशोरजी, श्रीराधारमणजी, श्रीराधाबल्लभजी, और श्रीबांकेबिहारीजी।

इनके अतिरिक्त वृन्दावन के प्रमुख मन्दिरों में श्रीप्रभुपाद स्वामी भक्तिवेदान्त सरस्वतीजी द्वारा स्थापित श्रीकृष्णबलराम मन्दिर (इस्कॉन), रंगजी का मन्दिर, श्रीगौरांग महाप्रभु मन्दिर, श्रीजमाईठाकुर मन्दिर, जयपुरिया मन्दिर, पागलबाबा का मन्दिर, लालाबाबू मन्दिर, ब्रह्मचारीजी का मन्दिर, जगन्नाथ मन्दिर, शाहजी का मन्दिर, बनखण्डी महादेव, रसिकबिहारी मन्दिर, श्रीयुगलकिशोरजी का मन्दिर, अष्टसखी मन्दिर, आनन्दीबाई का मन्दिर, भट्टजी का मन्दिर, कलाधारी का मन्दिर, सत्यनारायन मन्दिर व शाहजहांपुर वाला मन्दिर आदि प्रमुख हैं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभजी ने इसी वृन्दावन में गोविन्ददेव प्रतिष्ठित किए थे। कहा जाता है किश्रृंगारवट नामक स्थान पर ग्वालबाल गोचारण के समय विश्राम करते थे। इसी स्थान पर अपनी व्रजयात्रा के समय श्रीनित्यानन्द महाप्रभु पधारे थे।

महारास के दर्शन के लिए गोपीवेश में पधारे भगवान शंकर गोपेश्वर महादेव मन्दिर में वंशीवट पर विराजित हैं। ये मन्दिर 5500 वर्ष से भी अधिक पुराना है। ऐसा माना जाता है कि आज भी वृन्दावन में श्रीगोपीश्वर महादेव महारास देख रहे हैं।

एक बार शरदपूर्णिमा के दिन यमुना किनारे वंशीवट पर जब महारास में श्रीकृष्ण ने वेणुनाद किया तो कैलास पर्वत पर भगवान शंकर का मन भी श्रीराधाकृष्ण व गोपियों की दिव्यलीला देखने के लिए मचल उठा और वे वृन्दावन की ओर चल पड़े। पार्वतीजी ने बहुत समझाया पर वे नहीं माने और अपने परिवार के साथ वृन्दावन के वंशीवट पर आ गये। पार्वतीजी तो महारास में प्रवेश कर गईं पर गोपियों ने शंकरजी को रोक दिया और कहा–’श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष महारास में प्रवेश नहीं कर सकता।’ शंकरजी ने गोपियों को कोई उपाय बताने के लिए कहा। तब ललिता सखी ने कहा–’यदि आप महारास देखना चाहते हैं तो गोपी बन जाइए।’ यह सुनकर भगवान शंकर अर्धनारीश्वर से पूरे नारी बन गये। नारी बने शंकरजी ने यमुनाजी से कहा–’पार्वतीजी तो महारास में चली गयीं हैं। हम केवल भस्म लगाना जानते हैं, आप हमारा सोलह श्रृंगार कर दीजिए।’ यमुनाजी ने शंकरजी का श्रृंगार कर दिया और गोपी बने शंकरजी महारास में प्रवेश कर गये और नृत्य करने लगे। नाचते-नाचते शंकरजी का घूंघट हट गया और उनकी जटाएं बिखर गयीं। श्रीकृष्ण ने गोपी बने शंकरजी का हाथ पकड़कर आलिंगन करते हुए कहा–’व्रजभूमि में आपका स्वागत है, महाराज गोपीश्वर !’ भगवान शंकर ने श्रीराधाकृष्ण से वर मांगा कि–’मैं सदैव वृन्दावन में आप दोनों के चरणों में वास करूं।’ यही एक ऐसा मन्दिर है जहां भगवान शिव लहंगा, ओढ़नी, ब्लाउज, नथ, बिन्दी, टीका, कर्णफूल पहने हुए गोपी के रूप में विराजित हैं।

ज्ञान गुदड़ी वह स्थान है, जहां जब उद्धवजी श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आए तो उद्धवजी का सारा ज्ञान गोपियों की पवित्र प्रेमधारा के सामने बौना बनकर गुदड़ी के रूप में बदल गया। इनके अतिरिक्त अक्रूरधाम, श्रीतुलसी राम दर्शनस्थल, देवरहा बाबा का समाधिस्थल, ब्रह्मकुंड आदि भी महत्वपूर्ण स्थल हैं। वृन्दावन में यमुना के निकट राधाबाग में प्राचीन सिद्धपीठ के रूप में मां कात्यायनी का मन्दिर है। ये व्रज की अधिष्ठात्री देवी हैं। भगवान श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए व्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा यमुनातट पर की थी। भतरोड़बिहारी मन्दिर यज्ञ पत्नियों द्वारा कृष्ण-बलराम को कराये गये भोजन (भात) का स्मृतिचिह्न है।

वृन्दावन के सभी स्थलों से श्रीराधा-कृष्ण की कोई-न-कोई लीला जुड़ी हुई है। ऐसी ही एक मधुरलीला श्रीगोरे दाऊजी मन्दिर (श्रीअटलबिहारी मन्दिर) के सम्बन्ध में कही जाती है–अटल वन में भगवान श्रीकृष्ण बलदाऊजी व सखाओं के साथ गाय चराने जाते थे और वहां कदम्ब के वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करते थे। एक दिन बलदेवजी गाय चराने नहीं आये और सखा भी गाय चराते हुए दूर निकल गये। कदम्ब के वृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण अकेले हैं, यह बात श्रीराधाजी की सखियों को पता चल गई। ललिता सखी के कहने पर श्रीराधा ने गोरे बलदाऊजी का भेष धारण किया और श्रीकृष्ण से मिलने पहुंच गयीं। श्रीराधा ने भेष तो बदल लिया पर नाक की नथ उतारना भूल गयीं। जब दाऊजी के भेष में श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’मेरा इंतजार किये बगैर मुझे छोड़कर वन में आ गये।’ तब श्रीकृष्ण तो श्रीराधा को पहचान गये और उन्होंने गोरे दाऊजी (श्रीराधा) का हाथ पकड़कर कहा–’भैया, कुछ देर तो मेरे पास बैठो।’ पोल खुल जाने के डर से जब किशोरीजी जाने लगीं, तब श्रीकृष्ण ने कहा–’मेरी प्रिया, तुम कहां जाती हो, अब तो इस वन में ही स्थापित हो जाओ और मुझे रोजाना दर्शन देती रहना।’ इस पर राधाजी ने कहा–’आपके बिना इस वन में मैं कैसे रहूंगी, आपको भी यहीं अटल आसन लगाना होगा।’ इस प्रकार इसकाअटलबिहारी व गोरे दाऊजी मन्दिर नाम पड़ा।

वृन्दावन में जगद्गुरु कृपालुजी महाराज द्वारा स्थापित प्रेम मन्दिर श्रीमद्भागवत का मूर्तिमान स्वरूप है। इसके अतिरिक्त इस्कॉन वृन्दावन में दुनिया के सबसे ऊंचे चन्द्रोदय मंदिर का निर्माण करा रहा है।

सघन लता-कुंजों से आच्छादित वृन्दावन का सेवाकुंज/निकुंजवन श्रीहितहरिवंशजी गोस्वामी की साधनाभूमि है। यह वृन्दावन की प्राचीनतम सेवा-स्थलियों में से है। कहा जाता है रात्रि में यहां प्रिया-प्रियतम रासक्रीडा करते हैं। यहां श्रीकृष्ण करुणामयी श्रीराधा की चरण-सेवा करते हुए विराजित हैं। कहा जाता है कि एक रात्रि में रास रचाते-रचाते जब श्रीराधाजी थक गईं, तो श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के चरण सेवाकुंज में ही दबाए थे। कहते हैं कि आज भी हर रात्रि श्रीकृष्ण व श्रीराधा की दिव्य रासलीला सेवाकुंज में होती है। रात्रि में यहां कोई मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी नहीं ठहरते हैं।

ब्रह्म मैं ढूंढ़यो पुरानन गायन, बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूं न कितै वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।।
टेरत हेरत हारि परयो, रसखानि बतायो न लोग-लुगायन।
देख्यो, दुर्यो वह कुंज-कुटीर में बैठ्यो पलोटत राधिका-पायन।।

धनि श्रीराधिका के चरन।
सुभग सीतल अति सुकोमल, कमल के से वरन।।
नन्द सुत मन मोदकारी, विरह सागर तरन।
दास परमानन्द छिन-छिन, श्याम जिनकी सरन।।

सेवाकुंज में ललिताकुंड है। कहते हैं खेल के वक्त ललिता सखी को जब प्यास लगी तो श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी से पृथ्वी पर वार करके जल निकाला, जिसे पीकर ललिता सखी ने प्यास बुझाई। उसी जल स्त्रोत का नाम ललिताकुण्ड पड़ गया।

वृन्दावन मे निधिवन का अपना ही महत्व है। स्वामी हरिदासजी की अनन्य भक्ति से उनके आराध्य श्रीबांकेबिहारीजी इसी निधिवन में प्रकट हुए। भगवान श्रीकृष्ण यहां श्रीराधा के साथ रास रचाया करते थे। आज भी ऐसा माना जाता है कि श्रीराधा-कृष्ण का रात्रिशयन निधिवन में ही होता है। श्रीराधाकृष्ण के अनन्य भक्तों को रात्रि में कन्हैया की वंशी व नृत्य करती हुई गोपियों के पायल की आवाज आज भी सुनाई देती है। स्वामी हरिदासजी ललिता सखी का अवतार माने जाते हैं अत: यहां वीणावादिनी ललिताजी अपने प्यारे श्यामा-कुंजबिहारी को लाड़ लड़ाती हैं। जब स्वामी हरिदास विभोर होकर संगीत की रागिनी छेड़ते तो उनके आराध्य श्रीराधाकृष्ण उनकी गोद में आकर बैठ जाते थे।

एक दिन स्वामीजी ने ऐसा गाया कि निधिवन में एक लता के नीचे से सहसा एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ और एक-दूसरे का हाथ थामे प्रिया-प्रियतम प्रकट हुए। श्रीराधा-कृष्ण की अद्भुत छवि को देखकर स्वामीजी ने कहा–’क्या आपके अद्भुत रूप व सौंदर्य को संसार की नजरें सहन कर पाएंगी?’ स्वामीजी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा–’मैं संत हूं। मैं आपको तो लंगोटी पहना दूंगा, किन्तु श्रीराधारानी को नित्य नए श्रृंगार कहां से करवाऊंगा।’ स्वामीजी की विनती पर प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे में समाहित होकर एक रूप हो गये। अर्थात् श्यामा-कुंजबिहारी श्रीबांकेबिहारी के रूप में प्रकट हो गये। ऐसा कहा जाता है कि ठाकुर श्रीबांकेबिहारी की गद्दी पर स्वामीजी को प्रतिदिन बारह स्वर्ण मोहरें रखी हुई मिलती थीं, जिन्हें वे उसी दिन बिहारीजी के भोग लगाने में व्यय कर देते थे।

माई री, सहज जोरी प्रगट भई,
रंग की गौर श्याम, घन दामिनी जैसें।
प्रथम हूँ हुती, अब हूँ, आगैं हूँ रहिहैं, न टरिहैं तैंसें।।

एक सुन्दर परकोटे से घिरी यहां की झुकी हुई वृक्षावली मानो तपस्यारत व्रज-साधक ही हैं, जो आज भी तप कर रहे हैं। लताओं के रूप-रंग भी यहां गौर-स्याम की युगल जोड़ी के समान एक ही टहनी में श्याम-पीत रंग के हैं। मध्यभाग में स्वामीजी का समाधिस्थल है।

वृन्दावन के यमुनाघाट भी श्रीकृष्ण की किसी-न-किसी लीला से सम्बन्धित हैं। गोविन्दघाट पर गोस्वामी हितहरिवंशजी द्वारा स्थापित व्रज का प्राचीन रासमण्डल है। चीरघाट का कदम्ब का वृक्ष श्रीकृष्ण की चीरहरण लीला का साक्षी है। धीरसमीर घाट श्रीकृष्ण की मधुर वंशी से, केशीघाटकेशी वध से, मदनटेर गोचारण लीला से, कालीदह कालियानाग दमन से, वंशीवट श्रीकृष्ण के वेणुवादन से, जगन्नाथ घाट भगवान जगन्नाथ से जुड़ा है। और भी न जाने कितने घाट व स्थल है। कहना होगा वृन्दावन का कण-कण चिन्मय है जो किसी-न-किसी रूप में श्रीकृष्ण से जुड़ा है, अत: वन्दनीय है।

सेऊँ श्रीवृन्दाविपिन विलास।
जहाँ जुगल मिलि मंगल मूरति, करत निरन्तर बास।।

सोलहवीं शती में अनेक संतों-आचार्यों ने इस पवित्र भूमि में रहकर न केवल अपने आराध्य को लाड़ लड़ाया अपितु भक्तिरस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए विशाल भक्ति साहित्य की रचना की। इन संतों-आचार्यों के सेव्य विग्रह आज भी श्रीवृन्दावन की दिव्य सम्पदा हैं। श्रीवृन्दावन में आज भी अनेक शान्त एवं एकान्त स्थल हैं (कृष्णरसिक संतजनों की भजन व समाधि स्थलियां, वन-उपवन जहां युगल सरकार की चिन्मयी लीलाएं हुईं, यमुनाजी का पावन पुलिन, आदि) जहां जाकर आज भी मन किसी अलौकिक सुख में डूब जाता है।

कई बार मन में ऐसा भाव उठता है, बुद्धि कहती है कि वृन्दावन अब कहां?, गोविन्द, उनका वेणुवादन, कदम्ब-तमाल-करील के सघन कुंज अब कहां? अब तो वृन्दावन कंक्रीट का जंगल है, शानदार आश्रम हैं, डूपलेक्स फ्लैट्स हैं, हर स्थान पर अधिकार की लड़ाई है, देवदूत होने की भयंकर प्रतिस्पर्धा है। अब व्रज ‘व्रज’ नहीं रहा। परन्तु दूसरी ओर व्रजवासियों का अखण्ड विश्वास है–’लाला (श्रीकृष्ण) अभी भी यहीं है, लाली (श्रीराधा) ही श्रीवृन्दावन की धरती बन गयी है, लाला इस धरती को छोड़कर जायेंगे कहां? अक्रूर के साथ जो गये थे वे विष्णु के वैभवशाली चतुर्भुजरूप थे। वह किशोर चपल बालक तो श्रीवृन्दावन में ही रह गया। वह तो वृन्दावन के कण-कण में रचा-बसा है, बस जरूरत है उन चर्मचक्षुओं की जो उन्हें ढूंढ़ सकें।’

श्रीकृष्ण ने भी वृन्दावन की प्रशंसा करते हुए कहा है–’मैं गोलोक छोड़कर ब्रज-गोपियों के अनन्य प्रेम के कारण इस क्षेत्र में अवतरित हुआ हूँ। ऐसा दिव्यप्रेम संसार में अन्यत्र कहीं नहीं दिखायी देता।’ वृन्दावन को छोड़कर श्रीकृष्ण एक पग भी बाहर नहीं जाते। ‘वृन्दावनं परितज्य पादमेकं न गच्छति।’ श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में रास के प्रसंग में यह सिद्धान्त स्पष्ट है जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो जाते हैं तब गोपियां असहाय होकर उन्हें पुकारती हैं तो उनके प्राणधन श्रीकृष्ण वहीं प्रकट हो गये और कहने लगे–मेरी प्रेयसी गोपियों, मैं कहीं गया नहीं था, यहीं तुम्हारे मध्य ही था। बस, अदृश्य हो गया था।’ श्रीकृष्ण आज भी वहीं हैं बस, अदृश्य हैं। रोकर अनन्यता से पुकारो तो आज भी प्रकट हैं–

सोई लीला श्रीहरि करत आजहू नित्य।
भागवान कोई पुरख निरख होत कृतकृत्य।।
तीर्थराज प्रयाग द्वारा मथुरामण्डल की पूजा

श्रीगर्ग संहिता के अनुसार पूर्वकाल में शंखासुर दैत्य नैमित्तिक प्रलय के समय सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा तब भगवान श्रीहरि ने मत्स्य रूप धारणकर शंखासुर का वध किया। फिर देवताओं के साथ प्रयाग आकर श्रीहरि ने चारों वेद ब्रह्माजी को दिए और प्रयाग को ‘तीर्थराज’ पद पर अभिषिक्त कर दिया। जम्बूद्वीप के सारे तीर्थों ने तीर्थराज प्रयाग की पूजा की। तब नारदजी तीर्थराज प्रयाग के पास जाकर बोले–’तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों ने यहां आकर भेंट दी है पर व्रज के वृन्दावनादि तीर्थ यहां नहीं आये हैं, उन्होंने तुम्हारा तिरस्कार किया है।’ तब तीर्थराज प्रयाग भगवान के पास गये और उनसे कहा कि आपने तो मुझे तीर्थराज बनाया पर व्रज के प्रमादी तीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है।

भगवान ने कहा–’मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थों का राजा अवश्य बनाया है; किन्तु अपने घर का राजा भी तुम्हें बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं है। फिर तुम तो मेरे घर पर भी अधिकार जमाने की इच्छा रखते हो। मथुरामण्डल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता।’ यह सुनकर तीर्थराज प्रयाग का सारा अभिमान गल गया। उन्होंने मथुरा के व्रजमण्डल का पूजन व परिक्रमा की।

वृंदावन एक पलक जो रहिये।
जन्म जन्म के पाप कटत हैं कृष्ण कृष्ण मुख कहिये।।
महाप्रसाद और जल यमुना को तनक तनक भर लइये।
सूरदास वैकुंठ मधुपुरी भाग्य बिना कहां पइये।।
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2>तुलसीसेवा, श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए श्रीराधाजी द्वारा तुलसीसेवा-व्रत

नरा नार्यश्वच तां दृष्ट्वा तुलनां दातुमक्षमा:।
तेन नाम्ना च तुलसीं तां वदन्ति पुराविद:।।

‘स्त्री-पुरुष जिस पौधे को देखकर उसकी तुलना करने में समर्थ नहीं हैं, उसका नाम तुलसी है। ऐसा पुरातत्त्ववेता लोग कहते हैं।’ पुष्पों में अथवा देवियों में किसी से भी इनकी तुलना नहीं हो सकी इसलिए उन सबमें पवित्ररूपा इनको तुलसी कहा गया। इनका महत्व वेदों में वर्णित है। तुलसीजी लक्ष्मीजी (श्रीदेवी) के समान भगवान नारायण की प्रिया और नित्य सहचरी हैं; इसलिए परम पवित्र और सम्पूर्ण जगत के लिए पूजनीया हैं। अत: वे विष्णुप्रिया, विष्णुवल्लभा, विष्णुकान्ता तथा केशवप्रिया आदि नामों से जानी जाती हैं। भगवान श्रीहरि की भक्ति और मुक्ति प्रदान करना इनका स्वभाव है।

भगवती तुलसी का प्रादुर्भाव

तुलसी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में अनेक कथाएं हैं और कल्पभेद से उनमें कई स्थानों पर कुछ भिन्नता भी प्राप्त होती है–एक कथा के अनुसार क्षीरसागर का मन्थन करने पर ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी, कौस्तुभमणि, दिव्य औषधियां व अमृत कलश आदि निकले। सभी देवताओं ने लक्ष्मी एवं अमृत कलश भगवान विष्णु को अर्पित कर दिए। भगवान विष्णु अमृत कलश को अपने हाथ में लेकर अति प्रसन्न हुए और उनके आनन्दाश्रु उस अमृत में गिर पड़े, जिनसे तुलसी की उत्पत्ति हुई। इसीलिए तुलसी भगवान विष्णु को बहुत प्रिय हो गयीं और तबसे देवता भी तुलसी को पूजने लगे।

कुछ पुराणों के अनुसार भगवती तुलसी मूलप्रकृति की ही प्रधान अंश हैं। वे गोलोक में तुलसी नाम की गोपी थीं और भगवान के चरणों में उनका अतिशय प्रेम था। रासलीला में श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्ति देखकर राधाजी ने इन्हें मानवयोनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। गोलोक में सुदामा नाम का एक गोप श्रीकृष्ण का मुख्य पार्षद था; उसे भी राधाजी ने क्रुद्ध होकर दानवयोनि में जन्म लेने का शाप दे दिया जो अगले जन्म में शंखचूड़ दानव बना। ब्रह्माजी की प्रेरणा से दोनों का गांधर्वविवाह हुआ। शंखचूड़ ने देवताओं को स्वर्ग से निकालकर उस पर अपना अधिकार कर लिया। भगवान विष्णु ने देवताओं को उसकी मृत्यु का उपाय बताते हुए उसे मारने के लिए भगवान शंकर को एक त्रिशूल दिया और कहा कि तुलसी का सतीत्व नष्ट होने पर ही शंखचूड़ की मृत्यु संभव हो सकेगी। भगवान विष्णु ने छलपूर्वक तुलसी का सतीत्व नष्ट किया और शंकरजी ने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर डाला। भगवान विष्णु ने जो अनुग्रह कर इन्हें अपनी पत्नी बनाने के लिए छल का अभिनय किया, उससे रुष्ट होकर इन्होंने उन्हें शिला बनने का शाप दिया और स्वयं तुलसी के शरीर से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि उसी के तट पर मनुष्यों के लिए पुण्यप्रद शालग्राम बन गये। भगवान ने तुलसी के सामने प्रकट होकर कहा–’तुम मेरे लिए बदरीवन में रहकर बहुत तपस्या कर चुकी हो, अब तुम इस शरीर का त्यागकर दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आनन्द करो। लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिए। तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा, जो मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी। तुम्हारे केशकलाप पवित्र वृक्ष होंगे जो तुलसी नाम से प्रसिद्ध होंगे। तीनों लोकों में देवताओं की पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं, उन सबमें तुलसी प्रधान मानी जाएगी। स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठलोक में सर्वत्र तुम मेरे पास रहोगी। वहां तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी। तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम पवित्र होंगे। तुलसी के गिरे पत्ते प्राप्त करने के लिए समस्त देवताओं के साथ मैं भी रहूंगा।’

तब तुलसी अपना वह शरीर त्यागकर और दिव्य रूप धारण करके श्रीहरि के वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी की भांति सुशोभित होने लगीं। इस प्रकार लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी, गंगाजी और तुलसीजी–ये चारों देवियां भगवान श्रीहरि की पत्नियां हुईं।

तुलसा महारानी नमो नमो,
हरि की पटरानी नमो नमो।
छप्पन भोग छतीसों व्यंजन,
बिन तुलसी हरि एक न मानीं।।
भगवान श्रीहरि द्वारा सर्वप्रथम तुलसी पूजा

भगवान श्रीहरि ने तुलसी को गौरव प्रदान करके उन्हें लक्ष्मीजी के समान सौभाग्यशाली बना दिया। लक्ष्मीजी और गंगाजी ने तो तुलसी के नवसंगम, सौभाग्य और गौरव को सहन कर लिया परन्तु सरस्वतीजी क्रोध के कारण इसे सहन नहीं कर सकीं। सरस्वतीजी के कलह से लज्जा व अपमान के कारण तुलसीजी अन्तर्धान हो गयीं। ज्ञानसम्पन्न देवी तुलसी सर्वसिद्धेश्वरी थीं अत: उन्होंने श्रीहरि की आंखों से अपने को ओझल कर लिया। जब भगवान श्रीहरि ने तुलसीजी को कहीं नहीं देखा तो सरस्वतीजी को समझाकर वे तुलसीवन को गए और तुलसीजी की भक्तिपूर्वक स्तुति की।
तुलसी की पूजा का मन्त्र

भगवान श्रीहरि ने तुलसी का ध्यान करके लक्ष्मीबीज (श्रीं), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं)–इन बीजों को पूर्व में उच्चारण कर ‘वृन्दावनी’ शब्द के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अंत में वह्निजाया (स्वाहा) का प्रयोग करके दशाक्षर मन्त्र से पूजन किया था–
’श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा’

यह मंत्रों में कल्पतरु है। जो इस मन्त्र का उच्चारण करके विधिपूर्वक तुलसी की पूजा करता है, उसे निश्चय ही सम्पूर्ण सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
भगवान श्रीहरि द्वारा तुलसी की स्तुति (नामाष्टक)

जब तुलसीजी अन्तर्धान हो गईं तब भगवान श्रीहरि ने विरह से व्याकुल होकर वृन्दावन जाकर तुलसी की पूजाकर इस प्रकार स्तुति की–

जब वृन्दा (तुलसी) रूप वृक्ष तथा अन्य वृक्ष एकत्र होते हैं, तब उस वन को ‘वृन्दा’ कहते हैं। ऐसी‘वृन्दा’ नाम से प्रसिद्ध अपनी प्रिया की मैं उपासना करता हूं। जो देवी प्राचीनकाल में वृन्दावन में प्रकट हुईं थीं, अत: जिन्हें ‘वृन्दावनी’ कहते हैं, उन सौभाग्यवती देवी की मैं उपासना करता हूं। जो असंख्य वृक्षों में निरन्तर पूजा प्राप्त करती हैं, अत: जिसका नाम ‘विश्वपूजिता’ पड़ा है, उस जगतपूज्या देवी की मैं उपासना करता हूं। तुम असंख्य विश्वों को सदा पवित्र करती हो, अत: तुम‘विश्वपावनी’ नामक देवी का मैं विरह से आतुर होकर स्मरण करता हूं। जिसके बिना प्रचुर पुष्प अर्पित करने पर भी देवता प्रसन्न नहीं होते हैं, मैं शोकाकुल होकर ‘पुष्पसारा’ नाम से विख्यात पुष्पों की सारभूत उन तुलसी के दर्शन की कामना करता हूं। संसार में जिसकी प्राप्ति से भक्त परम आनन्दित हो जाता है, वह ‘नन्दिनी’ नाम से प्रसिद्ध तुलसी मुझ पर प्रसन्न हों। सम्पूर्ण विश्व में जिस देवी की कोई तुलना नहीं है, अत: ’तुलसी’ नाम से विख्यात उस प्रिया की मैं शरण ग्रहण करता हूं।तुलसी श्रीकृष्ण की जीवनस्वरूपा तथा उन्हें निरन्तर प्रेम प्रदान करने वाली हैं, इसलिए‘कृष्णजीवनी’ नाम से प्रसिद्ध वह तुलसी देवी मेरे जीवन की रक्षा करें।

वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।
पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी।।
एतन्नामाष्टकं चैव स्रोतं नामार्थसंयुतम्।
य: पठेत् तां च सम्पूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत्।।

(देवीभागवत ९।२५।३२-३३)

अर्थ–वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी, कृष्णजीवनी–ये तुलसी के आठ नाम हैं। ये नाम स्त्रोत के रूप में ऊपर दिए हैं। जो तुलसी की पूजा करके इस नामाष्टक का पाठ करता है; उसे अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है।

चन्दन, सिंदूर, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य व स्त्रोत आदि से श्रीहरि ने तुलसीजी का पूजन किया और लक्ष्मीपति श्रीहरि वहीं बैठ गये। इतने में उनके सामने साक्षात् तुलसी वृक्ष से प्रकट हो गईं। तब भगवान विष्णु ने उन्हें वर देते हुए कहा–’तुम सर्वपूज्या हो जाओ। सुन्दर रूप वाली मैं तुम्हें अपने मस्तक व वक्ष:स्थल पर धारण करूंगा और समस्त देवता आदि भी तुम्हें अपने मस्तक पर धारण करेंगे।’ तुलसीजी ने भगवान के चरणों में प्रणाम किया। अपमान के कारण वह रो रही थीं। ऐसी प्रिया तुलसीजी को देखकर भगवान ने उन्हें हृदय में स्थान दिया और सरस्वतीजी से उनका मेल करवाया। फिर सरस्वतीजी ने भी तुलसीजी को हृदय से लगा लिया। लक्ष्मीजी और गंगाजी ने भी तुलसीजी को हाथ पकड़कर महल में प्रवेश दिलाया। भगवान श्रीहरि ने तुलसीजी को वर देते हुए कहा–’देवि ! तुम सबके लिए तथा मेरे लिए पूजनीय, सिर पर धारण करने योग्य, वन्दनीय तथा मान्य हो जाओ।’ कार्तिक पूर्णिमा को तुलसीजी का प्राकट्य हुआ था और सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि ने उनकी पूजा की थी। अत: कार्तिक पूर्णिमा को भक्तिभाव से तुलसीजी की पूजा करने से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

तुलसी-दल का चयन करते समय इस श्लोक का पाठ करना चाहिए–

तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिये।
केशवार्थं चिनोमि त्वां वरदा भव शोभने।
त्वदंगसम्भवैर्नित्यं पूजयामि यथा हरिम्।
तथा कुरु पवित्रांगि कलौ मलविनाशिनी।।

(पद्मपुराण सृ. ६३।११-१३)

अर्थ–’तुलसी ! तुम अमृत से उत्पन्न हो और केशव को सदा ही प्रिय हो। कल्याणी ! मैं भगवान की पूजा के लिए तुम्हारे पत्तों को चुनता हूं। तुम मेरे लिए वरदायिनी बनो। तुम्हारे श्रीअंगों से उत्पन्न होने वाले पत्रों और मंजरियों द्वारा मैं सदा ही श्रीहरि का पूजन कर सकूं, ऐसा उपाय करो। पवित्रांगी तुलसी ! तुम कलिमल का नाश करने वाली हो।’

व्रज में स्त्रियां तुलसी-चयन करते समय तुलसीजी से इस तरह प्रार्थना करती हैं–

’मत तुम हिलो, मत तुम झूलो, मत तुम झोटा लो,
श्रीकृष्ण की भेजी आई, एक दल मांगो देयो।’

तुलसी महिमा–पद्मपुराण के अनुसार जिस समय क्षीरसागर का मन्थन हुआ, उस समय श्रीविष्णु के आनन्दांश से तुलसी का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीहरि ने तुलसी को अपने मस्तक पर धारण किया, उनके शरीर के सम्पर्क से वह पवित्र हो गईं। श्रीकृष्ण ने उन्हें गोमतीतट पर लगाया था। वृन्दावन में विचरते समय सम्पूर्ण जगत और गोपियों के हित के लिए उन्होंने तुलसी का सेवन (पूजन) किया। श्रीरामचन्द्रजी ने वशिष्ठजी की आज्ञा से राक्षसों का वध करने के लिए तुलसी को सरयू के तट पर लगाया था। दण्डकारण्य में भी भगवान श्रीराम ने अपने हित साधन के लिए तुलसी का वृक्ष लगाया और लक्ष्मणजी और सीताजी ने बड़ी भक्ति के साथ उसे पोसा था। अशोकवाटिका में रहते हुए सीताजी ने श्रीरामचन्द्रजी को प्राप्त करने के लिए तुलसी का ही ध्यान किया था। पार्वतीजी ने भगवान शंकर की प्राप्ति के लिए हिमालय पर्वत पर तुलसी को लगाया और सेवा की थी। देवांगनाओं व किन्नरों ने दु:स्वप्न नाश के लिए नन्दनवन में तुलसी सेवा की थी। गया में पितरों ने भी तुलसी सेवन (पूजा) किया था। भगवान शालग्राम साक्षात् नारायणस्वरूप हैं और तुलसी के बिना उनकी कोई भी पूजा सम्पन्न नहीं हो सकती। इसी तरह विष्णु, राम, कृष्ण, नृसिंह, वामन, लक्ष्मी-नारायण आदि भगवानों की प्रतिमा पर भी तुलसी अर्पित की जाती है, यह उनके विष्णु-प्रिया होने का प्रमुख प्रमाण है। पद्मपुराण के अनुसार मनुष्य जो कुछ भी पृथ्वी पर धर्मकर्म करता है, उसमें यदि तुलसी का संयोग नहीं होता है तो वह सब व्यर्थ हो जाता है। कमलनयन भगवान तुलसी के बिना उसे स्वीकार नहीं करते। श्रीअद्वैताचार्यजी के शब्दों में-

तुलसीदल मात्रेण जलस्य चुलुकेन वा।
विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सल:।।

अर्थ–‘अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल श्रीकृष्ण स्वयं को ऐसे भक्त के हाथों बेच देते हैं जो उन्हें केवल तुलसीपत्र और चुल्लू भर जल भी अर्पित करता है।’
भगवती तुलसी की पूजाविधि

श्रीविष्णुप्रिया तुलसी को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धा और भक्ति आवश्यक है। स्नानादि के बाद तुलसी को प्रणाम करें और फिर उनका ध्यान करें। ध्यान में सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने की शक्ति होती है। ध्यान करने के बाद उनका षोडशोपचार या पंचोपचार (गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) पूजन करें व नामाष्टक का पाठ करें। अंत में निम्न पंक्तियों का उच्चारण करते हुए प्रणाम करें–

जो दर्शन-पथ पर आने पर सारे पाप समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श किए जाने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम किए जाने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचे जाने पर यमराज को भी भय पहुंचाती है, आरोपित किए जाने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों पर चढ़ाये जाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उन तुलसीदेवी को नमस्कार है। (पद्मपुराण)

गुणों के कारण यह कई अन्य नामों से भी जानी जाती हैं। जैसे–सुरसा (उत्तम रसवाली), ग्राम्या (गांवों में बहुलता से प्राप्त), सुलभा (हर जगह आसानी से प्राप्त), बहुमंजरी (अधिक फूलों वाली), देवदुंदुभी (देवताओं को आनन्द देने वाली), शूलघ्नी (व्याधियों को नष्ट करने वाली) आदि। इस प्रकार तुलसीजी की भक्ति मनुष्य के पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए प्रज्वलित अग्निशिखा के समान है। वे जीवनमुक्त हैं; सबकी अभीष्ट हैं; और भुक्ति-मुक्ति देने वाली हैं।

पत्र-पत्र में देव विराजित रोग सभी करती है नाश।
तुलसी तुमको नित वंदन है, सभी तीर्थ का तुममें वास।।
श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए श्रीराधाजी द्वारा तुलसीसेवा-व्रत

एक बार रासेश्वरी राधा ने सम्पूर्ण धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ अपनी सखी चन्द्रानना से कहा–सखी! तुम श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ, जो परम सौभाग्यदायक, पुण्यवर्द्धक और मनोवांछित वस्तु देने वाली हो। तुमने गर्गाचार्यजी के मुख से शास्त्रचर्चा सुनी है, इसलिए तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ।

चन्द्रानना सखी ने कहा–राधे! श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए परमसौभाग्यदायक व्रत है–तुलसी की सेवा। तुम्हें तुलसी-सेवा का ही नियम लेना चाहिए क्योंकि जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से (नवधा–स्पर्श, ध्यान, नमन, दर्शन, नाम-कीर्तन, स्तवन, आरोपण, सेचन, तुलसीदल से भगवान का पूजन) भक्ति करते हैं वे कोटि सहस्त्र युगों तक अपने उस सुकृत्य का उत्तम फल भोगते हैं। अत: गोपनन्दिनी! तुम भी प्रतिदिन तुलसी का सेवन (पूजा) करो, जिससे श्रीकृष्ण सदा ही तुम्हारे वश में रहें।

चन्द्रानना सखी की बात सुनकर श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को संतुष्ट करने वाले तुलसी-सेवा का व्रत आरम्भ किया। उन्होंने केतकीवन में अत्यन्त मनोहर तुलसी का मन्दिर बनवाया जिसकी दीवारें सोने से जड़ीं थी और किनारों पर पद्मरागमणि लगी थी, परकोटे पन्ने, हीरे, मोती से जड़े थे और भूमि चिन्तामणि से मण्डित थी। सुनहले चंदोवों, वैजयन्ती पताकाओं व ऊंचे तोरण से सजे उस तुलसी मन्दिर की शोभा इन्द्रभवन जैसी थी। तुलसी मन्दिर के मध्यभाग में श्रीराधा ने अभिजित् मुहूर्त में हरे पल्लवों वाली तुलसीदेवी को स्थापित किया और गर्गाचार्यजी द्वारा बताई गई विधि से आश्विन शुक्ल पूर्णिमा से चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी-सेवा का व्रत लिया।

व्रत प्रारम्भ करके उन्होंने प्रत्येक मास अलग-अलग रस से तुलसी को सींचा। कार्तिक में दूध से, मार्गशीर्ष (अगहन) में गन्ने के रस से, पौष में द्राक्षारस से, माघ में बारहमासी आम के रस से, फाल्गुन में मिश्री के रस से और चैत्रमास में पंचामृत से तुलसी का सिंचन किया। फिर वैशाख मास में इस व्रत के उद्यापन का उत्सव किया जिसमें दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोग कराकर वस्त्राभूषण दिए। गर्गाचार्यजी को भी दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार दान किया। श्रीराधाजी की तुलसीसेवा देख देवतालोग उस तुलसी मन्दिर के ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। आकाश में देवताओं की दुन्दुभियां बजने लगीं और अप्सराएं नृत्य करने लगीं। उसी समय स्वर्ण सिंहासन पर हरिप्रिया तुलसीदेवी प्रकट हुईं।

हरिप्रिया तुलसी का स्वरूप–हरिप्रिया तुलसी की अंगकान्ति श्यामवर्ण की है और उनकी अवस्था सोलह वर्ष की है। उनकी चार भुजाएं व कमलदल के समान विशाल नेत्र हैं। मस्तक पर हीरों का मुकुट व कानों में सोने के कुण्डल धारण किए हुए हैं। वे पीताम्बर पहने हुए हैं और केशों की बंधी नागिन जैसी वेणी में वैजयन्ती माला धारण किए हुए हैं। वे गरुड़ पर सवार हैं।

श्रीतुलसीदेवी ने गरुड़ से उतरकर श्रीराधा को अपनी भुजाओं से अंक में भर लिया और कहा–’मैं तुम्हारे भक्तिभाव से प्रसन्न हूं। वास्तव में तो तुम पूर्णकाम हो, तुमने केवल लोकमंगल की भावना से यह व्रत किया है। यहां मन, बुद्धि और चित्त द्वारा जो-जो मनोरथ तुमने किया है, वह सब सफल हो और इसी प्रकार तुम्हारा परम सौभाग्य बना रहे।’ तब वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा ने उनसे कहा–’देवि! गोविन्द के युगल चरणारविन्दों में मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।’ तब तुलसीदेवी तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गयीं।

श्रीराधाजी की तुलसी-सेवा के रूप में की गयी तपस्या को जानकर उनके प्रेम की परीक्षा लेने के लिए एक दिन भगवान श्रीकृष्ण वृषभानुपुर में गये। उस समय उन्होंने अद्भुत गोपांगना (गोपदेवी) का रूप धारण कर लिया था। उनके पैरों में नुपुरों की झनकार, कटि में करधनी में लगी घंटियों की खनखनाहट, अंगुलियों में मुद्रिकाओं की अपूर्व शोभा, कलाइयों में रत्नजटित कंगन, बांहों में भुजबंद, कण्ठ व वक्ष:स्थल पर मोतियों के हार, बालरवि के समान चमकता शीशफूल, केशों मे वेणी, नासिका में हिलती हुई मोती की बुलाक और श्याम शरीर की दिव्य आभा उन्हें अद्भुत दिव्यता प्रदान कर रही थी।

राजा वृषभानु का महल खाई और परकोटों से घिरा था। चारों दरवाजों पर काजल की तरह काले गजराज झूमते थे। मायामयी गोपदेवी बने श्यामसुन्दर अन्त:पुर में प्रवेश करके उस आंगन में पहुंचे जहां करोड़ों चन्द्रों के समान कान्तिमयी, कोमलांगी एवं कृशांगी श्रीराधा धीरे-धीरे घूम रहीं थीं और अनेक सखियां फूलों की छड़ी लिए श्रीराधा के गुण गा रहीं थीं। उस मणिमय आंगन में उस नवीन गोपदेवी की तेजकान्ति देखकर श्रीराधा सहित सभी सखियां हतप्रभ रह गईं। जैसे चन्द्रमा के उदय होने पर तारों की कान्ति फीकी पड़ जाती है उसी प्रकार उस गोपदेवी की आभा से उस मणिमय आंगन की शोभा फीकी पड़ गयी। उस नवीन गोपदेवी का स्वागत करके श्रीराधाजी ने कहा–’इस भूतल पर तुम्हारे समान दिव्य रूप का कहीं दर्शन नहीं होता। तुम अपने आगमन का कारण बताओ। तुम अपनी बांकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुसकान, चाल-ढाल और आकृति से मुझे श्रीपति (नारायण) के समान दिखायी देती हो। तुम अपने निवासस्थान का संकेत प्रदान करो। तुम्हारी आकृति मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण जैसी ही है अत: तुम मुझे बहुत प्रिय लगती हो।’

तब गोपदेवी बने श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा–’हे कमलनयनी! गोकुल में नन्दभवन के पास मेरा निवास है। मेरा नाम ‘गोपदेवी‘ है। मैंने ललिता सखी के मुख से तुम्हारी रूप व गुणमाधुरी का वर्णन सुना है अत: मैं तुम्हें देखने तुम्हारे घर चली आई हूं। अब सन्ध्या हो गई है, अब मैं जाती हूँ, कल प्रात: फिर तुमसे मिलने आऊंगी।’ दूसरे दिन श्रीकृष्ण फिर गोपदेवी का वेष धरकर वृषभानुभवन गये। गोपदेवी को देखकर श्रीराधाजी तो बहुत प्रसन्न हुईं पर गोपदेवी (श्रीकृष्ण) दु:खी होने का नाटक करने लगे। श्रीराधा के पूछने पर गोपदेवी ने कहा–राधे! वरसानुगिरि की घाटियों में जो मनोहर संकरी गली है, उसी से होकर मैं दही बेचने जा रही थी। इतने में नंदकुमार श्यामसुन्दर ने मेरा मार्ग रोक लिया और कहा–’गोपी मैं कर लेने वाला हूं। अत: कर के रूप में तू मुझे दही का दान दे।’ मेरे मना करने पर वह नंद का छोकरा दही की मटकी फोड़कर सारा दही पी गया और मेरी चादर उतार ली। इसलिए मैं अनमनी हो रही हूं।

हमारो दान देहो गुजरेटी।
बहुत दिनन चोरी दधि बेच्यो आज अचानक भेटी।
अति सतरात कहा धों करेगी बड़े गोप की बेटी।
कुंभनदास प्रभु गोवर्धनधर भुज ओढनी लपेटी।।

फिर गोपदेवी बने श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा–’जात का ग्वाला, काला कलूटा रंग, न धनवान, न वीर, न सुशील और न सुरुप। ऐसे पुरुष के प्रति तुमने प्रेम किया है, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूं, तुम आज से उस निर्मोही कृष्ण को अपने मन से निकाल दो।’ गोपदेवी के मुख से इतने कठोर वचन सुन कर श्रीराधा को बहुत विस्मय हुआ।

श्रीराधा ने गोपदेवी से कहा–सखी ! जिनकी प्राप्ति के लिए ब्रह्मा, शंकर आदि देवता, शुक, अंगिरा आदि ऋषि निरन्तर तप करते हैं, वही अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार हरण करने के लिए यहां प्रकट हुए हैं; उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा तुम कैसे कर सकती हो? तुम बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, रात-दिन गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन करते हैं, गौओं के उत्तम नामों का जप करते हैं। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर कोई जाति नहीं है। तुम उसे काला-कलूटा बताती हो। भगवान शंकर उन श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण में मन लग जाने के कारण औरों के सुन्दर मुख को छोड़कर उस काले-कलूटे के लिए ही पागलों की भांति व्रज में दौड़ते-फिरते हैं। सिद्ध, मुनि, यक्ष, नाग, किन्नर भी जिनके चरणों में साष्टांग प्रणाम करके जिन्हें बलि (कर) समर्पित करते है, उन्हें तुम निर्धन कहती हो। पूतना, शकटासुर, अघासुर, तृणावर्त, बकासुर का वध, यमलार्जुन-उद्धार व कालियानाग दमन आदि क्या वीरता के परिचायक नहीं है? जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड के एकमात्र स्रष्टा व संहारक हैं, उन्हें यश की क्या आवश्यकता है? वे श्रीकृष्ण सुशील ही नहीं, समस्त लोकों के सुजन-समुदाय के चूड़ामणि हैं। वे अपने भक्तों के पीछे चलते हुए अपने रोम-रोम में स्थित लोकों को पवित्र करते रहते हैं और भजन करने वालों को वे भगवान मुकुन्द मुक्ति तो अनायास ही दे देते हैं।

तब गोपदेवी ने कहा–यदि तुम्हारे बुलाने से परमेश्वर श्रीकृष्ण यहां आ जाएं और तुम्हारी बात का उत्तर दें, तब मैं मान लूंगी कि तुम सच कह रही हो। श्रीराधाजी तुरंत उठकर आसन पर बैठकर श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगीं। श्रीकृष्ण ने देखा–’प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शनों के लिए उत्कण्ठित है और उनका अंग-अंग पसीने से भर गया है, मुख पर आंसुओं की धारा बह चली है।’ ऐसा देखकर वे पुरुष रूप धारणकर सहसा सखियों के समक्ष ही प्रकट हो गए। श्रीकृष्ण ने कहा–’हे चन्द्रवदने! जैसे ही मैंने सुना कि तुम कह रही हो कि ‘प्रियतम कृष्ण आओ’ मैं अपने गोकुल, गोपवृन्द को छोड़कर यमुनातट और वंशीवट से दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नता के लिए यहां आ पहुंचा हूं। कोई सखीरूपधारणी मायाविनी तुम्हें छलने के लिए आई थी, मेरे आते ही वह यहां से चली गयी, तुम्हें उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए।’ श्रीराधा प्रियतम श्रीकृष्ण को देखकर उनके चरणों में प्रणाम कर परमानन्द में निमग्न हो गईं और उनका मनोरथ पूरा हो गया।

नमामि शिरसा देवीं तुलसीं विलसत्तनुम्।
यां दृष्ट्वा पापिनो मर्त्या मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषात्।।

(श्रीपुण्डरीककृत तुलसीस्त्रोत)

मैं प्रकाशमान विग्रहवाली भगवती तुलसी को मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं, जिनका कि दर्शन करके पातकी मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं।
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3>दामोदर श्रीकृष्ण द्वारा यमलार्जुन (कुबेरपुत्रों) का उद्धार

भगवान की प्रत्येक लीला रहस्यों से भरी होती है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता। उनकी लीला का हेतु होता है, अपने भक्तों को आनन्द देना और उन्हें भवबन्धन से मुक्त करना। भगवान के वरदान से यशोदाजी को ऐसा दुर्लभ प्रसाद मिला कि वे भगवान श्रीकृष्ण को रस्सी से ऊखल में बाँध सकीं। यह यशोदाजी की भक्ति का ही प्रताप है कि जो परमात्मा प्रकृति के तीनों गुणों से न बंध सके, वे माता के बंधन में आ गए। भगवान जीवों के कल्याण के लिए बन्धन भी स्वीकार करते हैं।


गोपियों ने कहा–नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा-सा बालक हमारे घरों में जाकर बर्तन-भांडे फोड़ा करता है, हम कभी कुछ नहीं कहतीं। आज एक बर्तन के फूट जाने के कारण तुमने इसे छड़ी से डराया-धमकाया है और बाँध दिया है। तुम निर्दयी हो गयी हो। गोपियों के इस प्रकार कहने पर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं। गोपियों ने देखा कि यशोदाजी आज उनकी अनुनय-विनय पर ध्यान ही नहीं देतीं तो वे खीझकर अपने घरों को चली गयीं। गोपों के साथ नन्दबाबा इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) में लगे थे और बलरामजी व अन्य बड़े गोपबालक भी यज्ञ देखने चले गये थे। कुछ छोटे गोपबालक थे पर वे मां के वात्सल्यमय हाथों द्वारा लगाई गयीं गांठों को खोलने में असमर्थ थे। वे सब सोच रहे थे कि कन्हैया को हमारे लिए बंधना पड़ा है। अत: आज वे अपने घर नहीं गये। यशोदामाता कन्हैया को बांधकर दही मथने चली गयीं। आज उन्हीं को पूरा घर सम्भालना था। यशोदाजी दधि-मंथन तो कर रहीं थीं पर उनका मन श्रीकृष्ण में ही लगा हुआ था। वे मन-ही-मन सोच रही थीं कि ‘कन्हैया को बांधकर मैंने अच्छा नहीं किया, पर क्या करूं; इसे तो चोरी की आदत पड़ गयी है, उसे तो छुड़ाना ही होगा।’

इधर श्रीकृष्ण की दृष्टि नन्दमहल के प्रांगण के पार्श्व में लगे ऊंचे-ऊंचे, एक में सटे दोनों अर्जुन के वृक्षों पर पड़ी। दामोदर भगवान ने सोचा कि–’आज मैं बैलगाड़ी की लीला करुंगा। मैं बैल बनूंगा और ऊखल गाड़ी बनेगा। इस ऊखल को मैं बैलगाड़ी की तरह खींचूंगा।’ श्रीकृष्ण ने जोर लगाकर ऊखल गिरा लिया और हाथ तथा घुटनों के बल खींचते, कमर में रस्सी (दाम) से बंधे ये दामोदर चलने लगे उन्हीं यमलार्जुन वृक्षों की ओर।
यमलार्जुन वृक्षों के पूर्वजन्म की कथा

ये भगवान के भक्त यक्षराज कुबेर के पुत्र थे। इनका नाम नलकूबर और मणिग्रीव था। ये रूद्र भगवान के अनुचर (सेवक) थे। इनके पास धन, सौंदर्य व ऐश्वर्य की पूर्णता थी अर्थात् सम्पत्ति और शक्ति की पराकाष्ठा। इसलिए इनको बड़ा घमण्ड हो गया। इन्हें धन व ऐश्वर्य बिना मेहनत के अपने पिता से मिला था। बिना मेहनत से प्राप्त धन मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। सामान्यत: धनी पुरुषों में धन के अभिमान के साथ स्त्री-संग, जुआखोरी व मदिरापान आदि दोष भी आ जाते हैं। देवर्षि नारद के शापवश ये दोनों वृक्षयोनि को प्राप्त हुए और नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में एक ही साथ अर्जुन के वृक्ष बने इसलिए इन्हें ‘यमलार्जुन’ कहते हैं।
देवर्षि नारद के शाप देने का कारण

देवर्षि नारद के शाप देने के दो कारण थे–एक तो वे इन पर अनुग्रह (उनके मद का नाश) करना चाहते थे और दूसरे, इन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति हो जाये।

एक दिन ये दोनों नलकूबर और मणिग्रीव मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में सुरापान करके नंगे होकर गंगाजी में स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। मदोन्मत्त होकर वे दोनों स्रियों के साथ उसी प्रकार विहार कर रहे थे जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो। संयोगवश देवर्षि नारद भी अपनी देवदत्त वीणा पर विभिन्न रागिनियों को छेड़ते हुए श्रीमुख से हरिगुणगान करते हुए उसी उपवन में विचरण कर रहे थे। उपवन की शोभा जहां देवर्षि के मन में भक्ति के अमृतरस का संचार कर रही थी, वहीं कुबेरपुत्रों की भोगवासना और आसुरीभाव को और बढ़ा रही थी। एक ही वस्तु एक ही समय में अलग-अलग लोगों के लिए अमृत और विष का काम कर रही थी। ये यक्षपुत्र भगवान शंकर के इस परम पावन तपोवन को भ्रष्ट करते हुए निरंकुश विहार कर रहे थे। अप्सराएं विवस्त्रा (वस्त्रहीन) थीं और ये भी दिगम्बर थे। संयोग से ठीक उसी स्थान से देवर्षि नारद निकले। नारदजी को देखकर स्रियों ने तो लज्जित होकर वस्त्र पहन लिए; किन्तु ये दोनों वैसे ही खड़े रह गये। नारदजी को कष्ट हुआ। कैसा सुन्दर स्वरूप प्राप्त हुआ है, फिर भी ये उसका कैसा दुरुपयोग कर रहे हैं। मानव-देह श्रीकृष्ण की सेवा के लिए है। यह शरीर भगवान का है।

इस शरीर पर किसका अधिकार है? यह शरीर क्या पिता का है, माता का है, या माता को भी पैदा करने वाले नाना का है, या अपना स्वयं का है?

पिता कहते हैं कि ‘मेरे वीर्य से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए इस शरीर पर मेरा अधिकार है।’ मां कहती है कि ‘मेरे गर्भ से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए यह मेरा है।’ पत्नी कहती है कि ‘इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूँ, इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसकी अर्धांगिनी हूँ, अतएव इस पर मेरा अधिकार है।’ अग्नि कहती है कि ‘यदि शरीर पर माता-पिता-पत्नी का अधिकार होता तो प्राण निकलने के बाद वे इसे घर में क्यों नहीं रखते? इस शरीर पर मेरा अधिकार होने के कारण श्मशान लाकर लोग इसे मुझे अर्पण करते हैं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है।’ सियार-कुत्ते कहते हैं कि ‘जहां अग्नि-संस्कार नहीं होता, वहां यह शरीर हमको खाने को मिल जाता है, इसलिए यह शरीर हमारा है।’

इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बताते हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि ‘यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इसे जीव को अपना उद्धार करने के लिए दिया है। यह शरीर मेरा है।’ जीव जब अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है, तब भगवान दया करके उसे मनुष्य-योनि देते हैं। जो पुरुष इस मानव शरीर को पाकर भी भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेता, वह अपने-आप को धोखा दे रहा है। श्रीरामचरितमानस में लिखा है–

आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।।

कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही।।

यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृति से पैदा होता है और उसी में समा जाता है। इसलिए जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आंखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है क्योंकि दरिद्र में घमंड और हेकड़ी नहीं होती, उसकी इन्द्रियां भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं। वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या होती है।

मदान्ध नलकूबर और मणिग्रीव के पतन पर देवर्षि को दया आ गयी। ‘ओह ! कहां तो ये लोकपाल के पुत्र और कहां इनकी यह दशा ! इतना अध:पतन !’ इन मदोन्मत्त और श्रीमद से अंधे हो रहे स्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूंगा। इनको इस बात का भी पता नहीं है कि ये बिल्कुल वस्त्रहीन हैं। इन पर अनुग्रह करके उन्होंने शाप दे दिया–’तुम दोनों धन, पद तथा शक्ति के मद में अंधे होकर वृक्ष से खड़े हो, अत: वृक्ष हो जाओ। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी। देवताओं के सौ वर्ष के पश्चात् जब गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण अवतार लेंगे, तब उनके चरणारविन्द का स्पर्श पाकर तुम्हारी वृक्षयोनि से और अज्ञान से भी मुक्ति होगी। तुम्हें पुन: देवशरीर और भगवद्भक्ति की प्राप्ति होगी।’

सुत राजराज ! नहिं कीन्ह लाज।
व्रजभूमि सोइ द्रुम होहु दोउ।।

करुना-सुऐन, सुख-संत दैन।
करिहै जु घात, तब होहु पात।।

प्रभु कौं निहारि, उर भक्ति धारि।
फिरि जाहु गेह, धरि दिव्य देह।।

मदान्ध को रास्ते पर लाने के लिए उन्हें निष्क्रिय बना देना ही एक उपाय है। मनुष्य को भोग इस प्रकार नहीं भोगने चाहिए कि शरीर रोगी हो जाय। भोग इन्द्रियों को रोगी करने के लिए नहीं हैं, अपितु इन्द्रियों को स्वस्थ रखने के लिए हैं। जो शक्ति व सम्पत्ति का दुरुपयोग करता है, वह दूसरे जन्म में वृक्ष बन जाता है। भगवान वृक्षों को सर्दी, गर्मी, बरसात सहने की तपश्चर्या कराते हैं।

शाप सुनकर नलकूबर और मणिग्रीव की बेहोशी दूर हो गयी। वे पश्चात्ताप से भरे हुए नारदजी की शरण में आए। तब उन्होंने कृपा करके उन्हें गोकुल में वृक्ष की योनि दी। ऐसा कहकर देवर्षि नारद भगवान नर-नारायण के आश्रम चले गये।

शाप देने के बाद देवर्षि नारद भगवान नर-नारायण के आश्रम क्यों गये, इसके भी कई कारण बताये गये हैं–नारदजी ने सोचा कि मैंने नलकूबर और मणिग्रीव को शाप देते समय कह तो दिया कि तुमको भगवान मिलेंगे किन्तु यदि कहीं भगवान न मिले तो क्या होगा? इसलिए चलो उनको मनायें। दूसरे, शाप और वरदान देने से पुण्य क्षीण हो जाते हैं अत: पुन: तपसंचय के लिये नारदजी भगवान नर-नारायण के आश्रम गये। तृतीय, नारदजी ने सोचा कि मैंने यक्षपुत्रों पर जो अनुग्रह (भगवान श्रीकृष्ण द्वारा वृक्षयोनि से मुक्ति) किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता। चौथा कारण यह है कि अपने आराध्य नारायण को अपनी शाप देने की बात बताने को वे नर-नारायण आश्रम गये।

इधर नारदजी नारायणाश्रम पहुंचे और उधर नलकूबर और मणिग्रीव यमलार्जुन बने उस नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में खड़े हैं और अपनी शाखाओं व पत्तों को हिला-हिलाकर बड़ी आतुरता से श्रीकृष्ण का आह्वान कर रहे हैं। भगवान अपनी बात भले ही झूठी कर दें, लेकिन अपने भक्त की बात कभी झूठी नहीं करते। भगवान जैसा भक्तवत्सल और भक्त-परतन्त्र तो और कोई है ही नहीं। वे स्वयं कहते हैं–’अहं भक्तपराधीन:।’
देवर्षि नारद का शाप–शाप था या आशीर्वाद?

संतों का शाप या क्रोध सदैव आशीर्वादस्वरूप होता है, पता नहीं क्यों इसे शाप कहा जाता है। नलकूबर और मणिग्रीव को गोकुल में वृक्षों का जन्म मिला और भगवान का सांनिध्य। जिस भूमि में ब्रह्माजी कोई तृण होने का वरदान चाहते हैं, उद्धव जैसे भक्त वृन्दावन में श्रीकृष्ण का सांनिध्य प्राप्त करने के लिए लतावल्लरी, पेड़-पौधे, औषधि या जड़ी-बूटी बनने की याचना करते हैं ताकि व्रजांगनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी। इसलिए वहां का वृक्ष बनने का शाप क्यों शाप है? वह तो आज आशीर्वाद में बदल गया। उनकी तपस्या अब पूरी हो गयी। आज श्रीकृष्ण को देवर्षि नारद की वाणी सत्य करनी हैं और ये दोनों भी भगवान के प्रिय भक्त कुबेर के पुत्र हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा–’देवर्षि नारद मेरे प्रियतम भक्त हैं। उन्होंने जिस प्रकार इन वृक्ष बने हुए कुबेरपुत्रों के उद्धार की बात अपने मुख से कह दी है, ठीक उसी प्रकार मैं इनका उद्धार करूंगा, इन्हें वृक्षयोनि से मुक्त कर पुन: देव शरीर देकर अपनी भक्ति भी दे दूंगा।’

इधर श्रीकृष्ण के सखाओं की दशा भी बड़ी विचित्र हो रही थी। वे अपने प्रिय सखा को माता के बन्धन से मुक्त करने के लिए अत्यन्त व्याकुल थे। वे बार-बार जाकर देखते कि माता क्या कर रही है, फिर वे अपने मित्र का बंधन खोलने में लग जाते। पर गांठ खुलना तो दूर, उनसे गांठ हिली तक नहीं। वे नहीं जानते कि माता ने गांठ लगाते समय अपने हृदय के अनन्त वात्सल्य की सारी स्निग्धता उसमें भर दी है। इसीलिए माता के द्वारा लगायी गयी यह गांठ कोई खोलने में समर्थ नहीं है। संसार के समस्त प्राणियों का भवबंधन संकल्पमात्र से खोल देने की सामर्थ्य रखने वाले श्रीकृष्ण में आज वह शक्ति नहीं कि वे यशोदामाता द्वारा लगाये गये बंधन को खोल सकें। सखामण्डली उदास होकर श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र की ओर देखने लगती है।

भगवान श्रीकृष्ण बंधन में बंधकर उन कुबेरपुत्रों के उद्धार के लिए आ पहुंचे। उनकी गाड़ीलीला अब पूरी हो गयी और मोक्षलीला प्रारम्भ हो गयी। वे वृक्षों की ओर ऊखल खींचते चले जा रहे हैं और उन अर्जुन वृक्षों के पास जा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण को निकट आया देखकर उन यमलार्जुन की क्या दशा हुई, इसे कौन बता सकता है? वृक्षों में भी संवेदन-शक्ति होती है फिर इन्हें तो पूर्व के देवजीवन से लेकर अब तक की समस्त स्मृति है। सौ देव-वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद अपने उद्धार का क्षण उपस्थित देखकर और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को अपने इतने निकट पाकर उनके हृदय में क्या-क्या भाव उमड़ रहे थे–इसे वे ही जानते हैं अथवा अन्तर्यामी श्रीकृष्ण ही जानते है। अखण्ड ब्रह्माण्डनायक भगवान श्रीकृष्ण को दामोदर बने देखकर वह यमलार्जुन अपनी शाखाओं व पत्रों सहित चंचल हो उठे और जोर-जोर से हिलकर नाचने लगे।

भगवान दामोदर ने सोचा–अब बिलम्ब का समय नहीं है, कहीं यशोदामाता न आ जाएं और वे दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये। वृक्षों के बीच में जाने का आशय है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं उसके जीवन में क्लेश, जड़ता नहीं रहती। दोनों वृक्षों के बीच से श्रीकृष्ण तो निकल गये, किन्तु ऊखल तिरछा होकर अटक गया। (ऊखल तो खल था ही, खल का स्वभाव ही है टेढ़ा होना। परन्तु उसमें एक गुण यह है कि वह भगवान के साथ एक गुण (रस्सी) से बंध गया था और भगवान के पीछे-पीछे जा रहा था इसलिए उसमें भी यमलार्जुन जैसे जड़ वृक्षों और दुष्टों का उद्धार करने का सामर्थ्य आ जाता है।)



दामोदर श्रीकृष्ण अपनी कटि से बंधे ऊखल को तनिक अपनी ओर खींच लेते हैं। बस, अब जो खींचा उन सर्वेश्वर ने तो दोनों वृक्षों की पृथ्वी में धंसी जड़ें उखड़ गयीं और पेड़ों के तने, शाखाएं, छोटी-छोटी डालियां और एक-एक पत्ता कांप उठा। देखते-ही-देखते वे बड़ा भारी शब्द करते हुए भूमि पर गिर पड़े। वे विशालकाय वृक्ष इस तरह गिरे कि न तो किसी गोपबालक को, न ही किसी गो-गोवत्स को और न ही नन्दमहल के किसी भाग को कोई क्षति पहुंची। किन्तु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि अब तो ये यमलार्जुन श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का स्पर्श होने से उनके निजजन बन गये हैं, उनमें भक्तों के समस्त गुणों का समावेश हो गया है; अत: यह सम्भव नहीं कि वे अपने किसी कार्य से किसी को जरा-सा भी कष्ट दें। जहां वे वृक्ष थे वहां एक परम उज्जवल ज्योति चमक उठी और दो तेजोमय दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से भूषित सिद्धपुरुष वृक्षों से निकले–ठीक उसी तरह जैसे काष्ठ से अग्नि प्रकट हुई हो। ये दोनों और कोई नहीं बल्कि नलकूबर और मणिग्रीव हैं। उन दोनों ने दामोदर श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके उनके पैर छुए।


निकसे उभय पुरुष दोउ बीर, पहिरें अद्भुत भूषन चीर।
जैसें दारू मध्य तैं आगि, निर्मल जोति उठति है जागि।
नंद-सुवन के पाइन परे, अंजुलि जोरि स्तुति अनुसरे।

उन्होंने निर्मल मन से हाथ जोड़कर ऊखल से रस्सी में बंधे पुराणपुरुष दामोदर की स्तुति की–


करुणानिधये तुभ्यं जगन्मंगलशीलिने।
दामोदराय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:।। (गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड)

‘प्रभो ! अाप करुणा की निधि हैं। जगत का मंगल करना आपका स्वभाव है। आप ‘दामोदर’, ‘कृष्ण’ और ‘गोविन्द’ को हमारा बारम्बार नमस्कार है।’

‘प्रभो! आप समस्त लोकों के अभ्युदय के लिए अपनी समस्त शक्तियों के साथ अवतरित हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हम आपके दासानुदास हैं, हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का गान करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें, हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरणकमलों में रम जाये। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं, हमारी आंखें उनके दर्शन करती रहें।’

हे करुनानिधि ! करुना कीजै, अपनी भाउ-भगति-रति दीजै।
बानी तुमरे गुन-गन गनै, श्रवन परम पावन जस सुनै।
ये कर अवर कर्म जिमि करैं, प्रभु की परिचर्या अनुसरैं।
मन-अलि चरन-कमल-रस रसौ, चित्र कमल-जग भूलि न बसौ।
हे जगदीस ! जसोदा-नंदन, सीस रहौ नित तुव-पद-बंदन।
तुमरी मूरति भक्त तुम्हारे, नित ही निरखहूँ नैन हमारे।।

इस प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव ने प्रत्येक इन्द्रिय के लिए भक्तिरस की याचना की। तब भगवान ने हंसते हुए कहा–’मैं मुक्त रहता हूं तब बंधन में बंधा जीव मेरी स्तुति करता है, परन्तु आज विपरीत स्थिति है। मैं बंधन में बंधा हूं और मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं। तुम लोगों को संसारचक्र से छुड़ाने वाली मेरी अनन्य भक्ति प्राप्त हो चुकी है। वृक्षयोनि तो तुम्हें मेरी परमाभक्ति की प्राप्ति करा देने के लिए प्राप्त हुई थी, बन्धन के लिए नहीं। मुक्ति तो तुम्हें उस दिन ही मिल चुकी थी, जिस दिन तुम्हें देवर्षि नारद के दर्शन हुए। अत: अब तुम लोग अपने-अपने घर जाओ।’ कुबेरपुत्रों ने ऊखल को आशीर्वाद देते हुए कहा–’ऊखल ! तुम सदा श्रीकृष्ण के गुणों से बंधे रहो।’ फिर ऊखल में बंधे भगवान श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा कर और उनको अपने हृदय में संजोये हुए भगवान श्रीकृष्ण से कहा–’तुम सदा गुणशाली रहना। निर्गुण कभी मत हो जाना क्योंकि गुण तुमसे बंधा रहेगा, रस्सी तुमसे बंधी रहेगी तो हमारे जैसों का उद्धार होता रहेगा।’

इतना कहकर वे उत्तर दिशा की ओर चले गये। देवर्षि नारद के प्रति उनके मन में असीम कृतज्ञता उमड़ आयी क्योंकि उनकी कृपा से ही वे आज ब्रह्माण्डनायक को इस अभिनव शिशुवेश में देख पा रहे है और उनका रोम-रोम व्रज के कण-कण को धन्य-धन्य कह रहा था–

धन्य-धन्य ऋषि-साप हमारे।
आदि अनादि निगम नहिं जानत, ते हरि प्रगट देह ब्रज धारे।।

धन्य नंद, धनि मातु जसोदा, धनि आँगन खेलत भय बारे।
धन्य स्याम, धनि दाम बँधाए, धनि ऊखल, धनि माखन-प्यारे।।

दीन-बंधु करुना-निधि हौ प्रभु, राखि लेहु, हम सरन तिहारे।
सूर स्याम के चरन सीस धरि, अस्तुति करि निज धाम सिधारे।।

कुछ संतों के अनुसार–भगवान की योगमाया ने सोचा कि जबतक नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार नहीं हो जायेगा और वे अपने लोक नहीं चले जायेंगे तब तक वृक्ष टूटने की ध्वनि को अवरुद्ध कर देना चाहिए। अन्यथा यह ध्वनि यदि गोकुल में पहुंच गयी और गोप-गोपियां आ गये तो नारदजी का अनुग्रह अधूरा रह जायेगा। इसलिए योगमाया ने वृक्ष टूटने की ध्वनि को तब तक गोकुल में नहीं पहुंचने दिया जब तक नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार नहीं हो गया। नलकूबर और मणिग्रीव के आकाश में चले जाने पर जब गोप-गोपियों ने वृक्षों के गिरने का शब्द सुना तो दौड़े। ‘इतने बड़े-बड़े वृक्ष गिरे कैसे?’ न आंधी आयी थी, न बिजली गिरी थी और न वृक्षों की जड़ें खोखली ही हुई थीं। चारों ओर घूम-घूमकर सबने देखा। वहां जो छोटे गोपबालक थे, उन्होंने कहा–’ऊखल टेढ़ा करके वृक्षों को इस कन्हैया ने ही गिराया है। इन वृक्षों से ही दो चमकते पुरुषों को भी निकलते हमने देखा है। यह नन्दनन्दन उनसे न जाने क्या कह रहा था।’ लेकिन किसी ने विश्वास नहीं किया। कुछ को संदेह अवश्य हुआ, पर निश्चय यही हुआ कि यह कोई भारी उत्पात था। नारायण ने ही बच्चे की रक्षा की है। गोपियां कहती हैं–’यह बालक कितना भाग्यशाली है! अनेक राक्षस आए, किन्तु कोई भी इसका बाल-बांका न कर सका। भगवान की कैसी कृपा है।’ नन्दबाबा ने रस्सी से बंधे ऊखल घसीटते अपने लाला को हंसकर खोल दिया और गोद में उठाकर सूंघने लगे। फिर पेड़ से बचने की खुशी में नाचने लगे। नन्दजी ने यशोदाजी को बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणों को सौ गायें दान में दीं।

इस कथा-प्रसंग का यही सार है कि कितनी भी सम्पत्ति और शक्ति हो, बिना भक्ति के सब अधूरा है, रसहीन है।
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4>रुक्नणी एवं राधा

 एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद,
श्री कृष्ण को दूध पीने को दिया।

दूध ज्यदा गरम होने के कारण श्री कृष्ण के हृदय में लगा
और
उनके श्रीमुख से निकला- " हे राधे ! "

सुनते ही रुक्मणी बोली-
प्रभु !
ऐसा क्या है राधा जी में, जो आपकी हर साँस पर उनका ही नाम होता है ?
मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूँ...
फिर भी, आप हमें नहीं पुकारते !!

श्री कृष्ण ने कहा -देवी !
आप कभी राधा से मिली हैं ? और मंद मंद मुस्काने लगे...

अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंची ।

राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा...
और,
उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि- ये ही राधाजी है और उनके चरण छुने लगी !
तभी वो बोली -आप कौन हैं ?
तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया...
तब वो बोली- मैं तो राधा जी की दासी हूँ।
राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी !!

रुक्मणी ने सातो द्वार पार किये...
और, हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी क़ि-
अगर उनकी दासियाँ इतनी रूपवान हैं...
तो, राधारानी स्वयं कैसी होंगी ? सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंची...

कक्ष में राधा जी को देखा-
अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था।
रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ी...

पर,
ये क्या राधा जी के पुरे शरीर पर तो छाले पड़े हुए है !

रुक्मणी ने पूछा- देवी आपके शरीर पे ये छाले कैसे ?

तब राधा जी ने कहा-
देवी ! कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया... वो ज्यदा गरम था !
जिससे उनके ह्रदय पर छाले पड गए...
और, उनके ह्रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है..!!
इसलिए कहा जाता है- बसना हो तो... 'ह्रदय' में बसो किसी के..!
'दिमाग' में तो.. लोग खुद ही बसा लेते है..!!
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5>कृष्ण अर्जुन एवं निर्धन ब्राह्मण
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एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा..
अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।
जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।
किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।
ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी, इस बीच ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर चली गई और जैसे ही उसने घड़े को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।
ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।
सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।
अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।
तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु मेरी दी मुद्राए और माणिक भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से इसका क्या होगा” ?
यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?
ऐसा विचार करता हुआ वह चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।
ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।
यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।
तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।
ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!
तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।
इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।
यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।
श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए, तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।
जय श्रीकृष्णकी
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6>इस तरह प्रकट हुआ था वृंदावन के बांके बिहारी जी का विग्रह


वृंदावन में बांके बिहारी जी का एक भव्य मंदिर है। इस मंदिर में बिहारी जी की काले रंग की एक प्रतिमा है। इस प्रतिमा के विषय में मान्यता है कि इस प्रतिमा में साक्षात् श्री कृष्ण और राधा समाए हुए हैं। इसलिए इनके दर्शन मात्र से राधा कृष्ण के दर्शन का फल मिल जाता है।
इस प्रतिमा के प्रकट होने की कथा और लीला बड़ी ही रोचक और अद्भुत है इसलिए हर साल मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बांके बिहारी मंदिर में बांके बिहारी प्रकटोत्सव मनाया जाता है।

बांके बिहारी के प्रकट होने की कथा
संगीत सम्राट तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास जी भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। इन्होंने अपने संगीत को भगवान को समर्पित कर दिया था। वृंदावन में स्थित श्री कृष्ण की रासस्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने संगीत से रिझाया करते थे।
भगवान की भक्त में डूबकर हरिदास जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते। इनकी भक्ति और गायन से रिझकर भगवान श्री कृष्ण इनके सामने आ जाते। हरिदास जी मंत्रमुग्ध होकर श्री कृष्ण को दुलार करने लगते। एक दिन इनके एक शिष्य ने कहा कि आप अकेले ही श्री कृष्ण का दर्शन लाभ पाते हैं, हमें भी सांवरे सलोने का दर्शन करवाएं।
इसके बाद हरिदास जी श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर भजन गाने लगे। राधा कृष्ण की युगल जोड़ी प्रकट हुई और अचानक हरिदास के स्वर में बदलाव आ गया और गाने लगे-
'भाई री सहज जोरी प्रकट भई, जुरंग की गौर स्याम घन दामिनी जैसे। प्रथम है हुती अब हूं आगे हूं रहि है न टरि है तैसे।। अंग अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे। श्री हरिदास के स्वामी श्यामा पुंज बिहारी सम वैसे वैसे।।'
श्री कृष्ण और राधा ने हरिदास के पास रहने की इच्छा प्रकट की। हरिदास जी ने कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूं। आपको लंगोट पहना दूंगा लेकिन माता को नित्य आभूषण कहां से लाकर दूंगा। भक्त की बात सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराए और राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह रूप में प्रकट हुई। हरिदास जी ने इस विग्रह को बांके बिहारी नाम दिया।
कृष्णभक्तों में खासतौर पर बिहारीजी के भक्तों में एक कथा प्रचलित है। एक गरीब ब्राह्मण बांके बिहारी का भक्त था। एक बार उसने किसी महाजन से कुछ रुपये उधार लिए। हर महीने वह थोड़ा-थोड़ा करके कर्ज चुकाया। आखिरी किस्त के पहले महाजन ने उसे अदालती नोटिस भिजवा दिया कि उधार बकाया है और पूरी रकम व्याज सहित वापस करे।
ब्राह्मण परेशान हो गया। महाजन के पास जा कर उसने बहुत सफाई दी पर कोई असर नहीं हुआ। मामला कोर्ट में पहुंचा। कोर्ट में भी ब्राह्मण ने जज से वही बात कही, मैंने सारा पैसा चुका दिया है। जज ने पूछा, कोई गवाह है जिसके सामने तुम महाजन को पैसा देते थे। कुछ सोचकर उसने बिहारीजी मंदिर का पता बता दिया।
अदालत ने मंदिर का पता नोट करा दिया। अदालत की ओर से मंदिर के पते पर सम्मन जारी कर दिया गया। वह नोटिस बिहारीजी के सामने रख दिया गया। बात आई गई हो गई। गवाही के दिन एक बूढ़ा आदमी जज के सामने गवाह के तौर पर पेश हुआ। उसने कहा कि पैसे देते समय मैं साथ होता था और इस-इस तारीख को रकम वापस की गई थी।
जन्माष्टमी विशेषः राधा कृष्ण के मिलन की अद्भुत कहानियां
जज ने सेठ का बही- खाता देखा तो गवाही सही निकली। रकम दर्ज थी, नाम फर्जी डाला गया था। जज ने ब्राह्मण को निर्दोष करार दिया। लेकिन उसके मन में यह उथल पुथल मची रही कि आखिर वह गवाह था कौन। उसने ब्राह्मण से पूछा। ब्राह्मण ने बताया कि बिहारीजी के सिवा कौन हो सकता है।
इस घटना ने जज को इतना विभोर कर दिया किया कि वह इस्तीफा देकर, घर-परिवार छोड़कर फकीर बन गया। कहते है कि वही न्यायाधीश बहुत साल बाद पागल बाबा के नाम से वृंदावन लौट कर आया।
वृंदावन। क्या कभी ऐसा भी हो सकता है, जहां भगवान भक्तों की भक्ति से अभिभूत होकर या उनकी व्यथा से द्रवित हो भक्तों के साथ ही चल दें? वृदांवन का मशहूर बांके बिहारी मंदिर एक ऐसा ही मंदिर माना जाता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि बांके बिहारी जी भक्तों की भक्ति से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि मंदिर में अपने आसन से उठकर भक्तों के साथ हो लेते हैं, इसीलिए मंदिर में उन्हें परदे में रखकर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखाई जाती है।

पुजारियों का एक समूह दर्शन के वक्त लगातार मूर्ति के सामने पड़े पर्दे को खींचता-गिराता रहता है और उनकी एक झलक पाने को बेताब श्रद्धालु दर्शन करते रहते हैं और बांके बिहारी हैं, जो अपनी एक झलक दिखाकर पर्दे में जा छिपतें हैं। लोक कथाओं के अनुसार कई बार बांके बिहारी कृष्ण ऐसा कर भी चुके हैं, मंदिर से गायब हो चुके हैं, इसीलिए ये पर्देदारी की जाती है।
एक शृद्धालु के अनुसार' मंदिर मे दर्शनार्थ आए श्रद्धालु बार-बार उनकी झलक पाना चाहते हैं लेकिन पलक झपकते ही वो अंतर्ध्यान हो जाते हैं। उनके पास खड़े एक श्रद्धालु बताते हैं कि ऐसे ही हैं हमारे बांके बिहारी... सबसे अलग, सबसे अनूठे।
ये पर्दा डाला ही है इसलिए कि भक्त बिहारी जी से ज़्यादा देर तक आँखे चार न कर सकें क्योंकि कोमल हृदय बिहारी जी भक्तों की भक्ति व उनकी व्यथा से इतना द्रवित हो जाते हैं कि मंदिर मे अपने आसन से उठकर भक्तों के साथ हो लेते हैं। वो कई बार ऐसा कर चुके हैं, इसलिए अब ये पर्दा डाल दिया गया है ताकि वे टिककर बैठे उनका भोला सा स्पष्टीकरण है 'अगर ये एक भक्त के साथ चल दिए तो बाकियों का क्या होगा?'
विस्मित से भक्त बता रहे हैं, एक बार राजस्थान की एक राजकुमारी बांके बिहारी जी के दर्शनार्थ आईं लेकिन वो इनकी भक्ति में इतनी डूब गई कि वापस जाना ही नहीं चाहती थीं। परेशान घरवाले जब उन्हें जबरन घर साथ ले जाने लगे तो उसकी भक्ति या कहें व्यथा से द्रवित होकर बांके बिहारी जी भी उसके साथ चल दिए।
इधर मंदिर में बांके बिहारी जी के गायब होने से भक्त बहुत दु:खी थे। आखिरकार समझा बुझाकर उन्हें वापस लाया गया। भक्त बताते हैं कि उन पर यह पर्दा तभी से डाल दिया गया, ताकि बिहारी जी फिर कभी किसी भक्त के साथ उठकर नहीं चल दें और भक्त उनके क्षणिक दर्शन ही कर पाएं, सिर्फ झलक ही देख पाएं।
यह भी कहा जाता है कि उन्हें बुरी नजर से बचाने के लिए पर्दा रखा जाता है क्योंकि बाल कृष्ण को कहीं नजर न लग जाए। बंगाल से आए एक भक्त बताया कि सिर्फ जन्माष्टमी को ही बांके बिहारी जी के रात को महाभिषेक के बाद रात भर भक्तों को दर्शन देते हैं और तड़के ही आरती के बाद मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।
वैसे मथुरा वृंदावन में जन्माष्टमी का उत्सव पर्व से सात आठ दिन पहले ही शुरू हो जाता है। कहा जाता है कि स्वामी हरिदास को बांके बिहारी जी के दर्शन हुए थे। तब यह प्रतिमा निधिवन में थी, पर गोस्वामियों के एक वर्ष बाद इस मंदिर को बनवाने के बाद इस प्रतिमा को इस मंदिर मे प्रतिष्ठापित किया गया।
पूरे वृंदावन में कृष्ण लीला का तिलिस्म चप्पे-चप्पे पर बिखरा हुआ है। कृष्ण का अपने भक्तों के साथ जो अनन्य प्रेम है उसको लेकर भी कई कहानियां और कई किस्से हैं...
राजस्थान के एक भक्त बताते है कि यह मंदिर शायद अपनी तरह का पहला मंदिर है, जहाँ सिर्फ इस भावना से कि कहीं बांके बिहारी की नींद मे खलल न पड़ जाए इसलिए सुबह घंटे नही बजाए जाते बल्कि उन्हें हौले-हौले एक बालक की तरह उन्हें दुलार कर उठाया जाता है, इसी तरह संझा आरती के वक्त भी घंटे नहीं बजाए जाते ताकि उनकी शांति में कोई खलल न पड़े।
गुजरात के एक भक्त बताते है 'यह जानकर शायद आप हैरान हो जाएंगे कि बांके बिहारी जी आधी रात को गोपियों के संग रासलीला करने निधिवन में जाते हैं और तड़के चार बजे वापस लौट आते हैं।'
विस्फरित नेत्रों से अपनी व्याख्या को वे और आगे बढ़ाते हुए बताते हैं 'ठाकुर जी का पंखा झलते-झलते एक सेवक की अचानक आँख लग गई, चौंककर देखा तो ठाकुर जी गायब थे पर भोर चार बजे अचानक वापस आ गए। अगले दिन वही सब कुछ दोबारा हुआ तो सेवक ने ठाकुर जी का पीछा किया और ये राज़ खुला कि ठाकुर जी निधिवन में जाते हैं।' तभी से सुबह की मंगल आरती की समय थोड़ा देर से कर दिया, जिससे ठाकुर जी की अधूरी नींद पूरी हो सके।
अकसर भक्तगण कान्हा की बांसुरी की धुन, निधिवन में नृत्य की आवाज़ें आदि के बारे मे किस्से यह कहकर सुनाते हैं कि 'हमे किसी ने बताया है।' ऐसे कितने ही किस्से कहानियां वृंदावन के चप्पे-चप्पे पर बिखरी हुई हैं।'
कितनी ही 'मीराएं' वृंदावन में आपको कृष्ण के सहारे ज़िंदगी की गाड़ी को आगे बढ़ाती हुई नज़र आएंगी। इस जीवन में कृष्ण ही इनके जीवन का सहारा है।
अचानक मंदिर में भक्तों का हुजम दिखाई देता है...राधे राधे, जय हो बांके बिहारी के जयघोष के बीच, मंदिर के प्रांगण के एक कोने से, मद्धम से स्वर में भजन सुनाई देता है... हमसे परदा करो न हे मुरारी, वृदांवन के हो बांके बिहारी...।
चांदी से बाल, सफेद धोती दमकते, माथे पर चंदन का टीका, आंखों से बरसते आंसुओं के बीच मूर्तिस्थल की तरफ लगातार देखती हुई बहुत धीमी आवाज़ में भजन गाती एक ऐसी ही एक मीरा...हमसे परदा करो न हे मुरारी, वृदांवन के हो बांके बिहारी...
साध्वी पर्दे के पीछे की बांके बिहारी जी की इसी लुका-छिपी से व्यथित होकर ही सम्भवत: बरसती आंखों से गुहार कर रही थीं। बांके बिहारी की एक झलक दर्शन के बाद मंदिर से वापसी... मंदिर के बाहर निकलते ही संकरी सी गली में बनी किसी दुकान पर शुभा मुदगल की आवाज़ में गाया गया गीत माहौल मे एक अजीब सी शांति और अजीब सी बेचैनी बिखेर रहा है... 'वापस गोकुल चल मथुराराज...., राजकाज मन न लगाओ, मथुरा नगरपति काहे तुम गोकुल जाओ?'.. शृद्धालुयों के हुजूम तेज़ी से मंदिर की ओर बढ़ रहे हैं..
बांके बिहारी मंदिर में इसी विग्रह के दर्शन होते हैं। बांके बिहारी के विग्रह में राधा कृष्ण दोनों ही समाए हुए हैं। जो भी श्री कृष्ण के इस विग्रह का दर्शन करता है उसकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। भगवान श्री कृष्ण अपने भक्त के कष्टों को दूर कर देते हैं

बांके बिहारी की जय
जय जय श्री सीताराम
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7>कृष्ण का है ये फंडा, जीना है तो जीओ ऐसे

भागवत अंक 338 में आपने पढ़ा....भगवान मुस्कुराए और पांडवों से कहा- चलो। बड़ा अजीब लगा। भगवान अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं अर्जुन लीला तो देखो मेरे यदुवंश को यह वरदान था कि उन्हें कोई दूसरा नहीं मार सकेगा, मरेंगे तो आपस में ही मरेंगे। देखो इस वृद्धा ने शाप दे दिया तो यह व्यवस्था भी हो गई अब आगे....

भगवान ने कहा अर्जुन मेरी मृत्यु के लिए जो कुछ भी उसने कहा है मुझे स्वीकार है। कोई तो माध्यम होगा और भगवान मुस्कुराते हुए पांडव से कहते है चलो आज वही भगवान अपने दाएं पैर को बाएं पैर पर रखकर अपनी गर्दन को वृक्ष से टिकाकर बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे अपनी मृत्यु की।जिसने मृत्यु का इतना बड़ा महायज्ञ किया था महाभारत वह ऋषि देखते ही देखते इस संसार से चला गया। यूं चले जाएंगे ऐसा भरोसा नहीं था। एक महान अभियान का महानायक यूं छोड़कर चला गया कृष्ण एक बात कहा करते थे कि जब मैं संसार से जाऊं तो कोई रोना मत।
कृष्ण को रोना पसंद नही। कृष्ण कहते हैं रूदन मत करिए आंसू बड़ी कीमती चीज है। मुझे आंसू का अभिषेक तो अच्छा लगता है पर रोना हो तो मेरे लिए रोओ, मुझे पाने के लिए रोओ। मेरी देह पर मत रोओ, यह निष्प्राण देह पर भगवान ने कहा था कि मेरे अंतिम समय में रोना मत, क्योंकि कृष्ण का एक सिद्धांत था मैं जीवनभर खुश रहा हूं और मैंने जीवनभर लोगों को खुश रखा है। इसलिए रोना मत, दु:खी मत होना।

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8>  कौन सी तपस्‍या की थी भगवान कृष्ण ने?


सद्‌गुरु से एक प्रश्न पूछा गया कि भगवान कृष्ण की साधना क्या थी। और वे कैसे इतने जादुई बन गए। आइये जानते हैं, कृष्ण और अर्जुन के बीच के जन्मों से चले आ रहे बंधन के बारे में, और साथ ही कृष्ण की अपनी साधना के बारे में…

प्रश्न : नमस्कारम सद्‌गुरु, क्या कृष्ण ने आत्म-ज्ञान प्राप्ति से पहले कोई साधना की थी? वे अपने जीवन में उस स्थिति तक कैसे पहुंचे, और वे असल में कौन थे?
कृष्ण नारायण और अर्जुन नर हैं

सद्‌गुरु: वे लोग जो पारंपरिक भारतीय वातावरण में पीला-बड़े हैं, उन्होंने नर और नारायण के बारे में जरुर सुना होगा। ये वे दो संत थे जिनके अस्तित्व को एक दूसरे से बाँध दिया गया था, और जिन्होंने कई जन्मों में साझेदारी की।

कृष्ण की साधना यही है – वे अपने आस पास के जीवन के साथ पूरी तरह तालमेल में हैं। चाहे अपने बचपन में उन्होंने किसी भी तरह के खेल खेलें हों, वे हमेशा पूरी तरह से तालमेल में थे।

उन्होंने कई जन्मों तक अपने रोमांच से भरपूर काम जारी रखे। उनके द्वारा किया गया सभी कुछ संजोया नहीं गया है – उन्होंने अलग-अलग जीवन कालों में जो कुछ किया उसकी थोड़ी बहुत झलकें संजोयी गयी हैं। यहां महाभारत कथा के सन्दर्भ में – कृष्ण और अर्जुन, नर और नारायण हैं। अर्जुन नर, और कृष्ण नारायण हैं।

अर्जुन से मित्रता बनाए रखने के लिए कृष्ण ने हद से ज्यादा प्रयत्न किये, क्योंकि वे अस्तित्व के स्तर पर एक दूसरे से जुड़े थे। बहुत सी बार, अर्जुन, एक राजकुमार होने की वजह से, अर्जुन ये नहीं समझ पाते थे कि उन्हें कोई काम क्यों करना चाहिए। अर्जुन बड़ी बातें करते थे, कि कोई मनुष्य करुणा, प्रेम और उदारता के माध्यम से मुक्ति पा सकता है।

कृष्ण कहते थे – “हम उस काम के लिये यहां नहीं आए हैं, हमें एक विशेष कम करना है।”

अर्जुन बोलते – “करुणा, प्रेम और उदारता मेरा धर्म है।”

कृष्ण बोलते – “बिलकुल नहीं, हमें जो करना है वही करना है। हमारा जन्म उसी लक्ष्य के लिए हुआ है, और हम बस वही करेंगे। ”
कृष्ण आनंदित और प्रेमपूर्ण रहते थे

कृष्ण की साधना की बात करें – तो किसी भी मनुष्य के लिए हर रोज़ प्रेम और आनंद में जीना, सुबह जागने से लेकर रात में सोने तक केवल इतना करना, ये ही जबरदस्त साधना है। जब लोग अन्य लोगों से घिरे होते हैं तो वे मुस्कुरा रहे होते हैं। पर आप अगर उन्हें अकेले में देखें, तो वे इतना उदासी भरा चेहरा लेकर बैठते हैं कि उनके बारे सब कुछ पता चल जाता है। लोगों का काफी बड़ा प्रतिशत अकेले रहने पर काफी बुरे हाल में होता है। अगर आप अकेले नहीं रह सकते, तो इसका मतलब है – अकेले होने पर आप बहुत बुरी संगत में होते हैं। अगर अच्छी संगत में होते, तो आपके लिए अकेले होना बहुत अच्छा होता।

लोगों से मिलना जुलना एक उत्सव की तरह होता है, पर खुद-में-स्थित-होना हमेशा अकेले में होता है। अगर आप खुद को एक सुंदर प्राणी में रूपांतरित कर लें तो बस बैठना भर ही अद्भुत हो जाए। इसलिए जीवन के हर पल बस आनंदित और प्रेममय होना अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है। पूरे विश्व के लिए माँ बनकर जीने का यही मतलब है।

16 साल की उम्र तक, अपने आस पास के जीवन के साथ तालमेल में होना, कृष्ण की साधना थी। फिर उनके गुरु ने आकर उन्हें याद दिलाया कि उनका जीवन सिर्फ आनंद-मग्न होने के लिए नहीं है, और इस जीवन का एक विशाल उद्देश्य है।

अपने जीवन के हर पल प्रेममय होना, सिर्फ किसी ख़ास परिस्थिति में ही नहीं। या फिर किसी ख़ास व्यक्ति को देखने पर ही नहीं। अगर आप बिना भेदभाव के हमेशा प्रेममय होते हैं तो आपकी बुद्धि एक बिलकुल अलग तरह से खिल जाएगी। फिलहाल, किसी व्यक्ति या चीज़ को चुनने में, बुद्धि अपनी तीक्षणता खो देती है। प्रेममय होना किसी और के लिए कोई भेंट नहीं है – ये आपके अपने लिए एक सुंदर चीज़ है। ये आपके सिस्टम या तंत्र की मिठास है – आपकी भावनाएँ, आपका मन, और आपका शरीर खुद ही मिठास से भर जाते हैं। आज हमारे पास इस बात को सिद्ध करने के पर्याप्त वैज्ञानिक सबूत मौजूद हैं – कि जब आप आनंदित होते हैं, सिर्फ तभी आपकी बुद्धि सर्वश्रेष्ठ कार्य करती है।

कृष्ण पूरी तरह से तालमेल में थे

अगर आराम से बैठे हुए, आपका हृदय हर मिनट 60 बार धड़कता है, तो यहां बैठे हुए आप धरती के साथ तालमेल में होते हैं। काम करते वक़्त, ये ऊपर नीचे हो सकता है, पर आराम से बैठे हुए अगर ये 60 से ज्यादा बार धड़कता है, तो आप थोड़े से खोये हुए रहेंगे। अगर आपको छोटा सा भी संक्रमण (बीमारी) है, तो आपका हृदय 85 से 90 बार तक धड़क सकता है। अगर आप स्वस्थ और भले चंगे हैं, तो आपका दिल 65 से 75 बार धडकता है। अगर आप अपनी साधना अच्छे से करते हैं – शाम्भवी और सूर्य नमस्कार जैसी सरल साधनाएं भी अगर अच्छे से करते हैं, तो डेढ़ साल के अभ्यास के बाद, आपका हृदय 60 बार धड़कने लगेगा। आप तालमेल में आ जाएंगे। तालमेल में होने के बाद, प्रेममय होना, आनंदित होना, और किसी फूल की तरह खिला होना स्वाभाविक है – क्योंकि आपकी रचना ऐसे ही की गयी है। मनुष्य की रचना उदास, बीमार या ऐसा कुछ होने के लिए नहीं की गयी – इसे फलने फूलने के लिए रचा गया है।

कृष्ण की साधना यही है – वे अपने आस पास के जीवन के साथ पूरी तरह तालमेल में हैं। चाहे अपने बचपन में उन्होंने किसी भी तरह के खेल खेलें हों, वे हमेशा पूरी तरह से तालमेल में थे।

संदीपनी द्वारा याद दिलाये जाने के बाद, कृष्ण का सबसे पहला पराक्रम था अपने मामा कंस को मारकर, यादवों पर कंस के क्रूर शासन का अंत करना। उसके बाद कृष्ण अपने भाई बलराम और उद्धव के साथ अपने गुरु के आश्रम चले गए।

उन्होंने लोगों के घरों से मक्खन चुराया और उन्हें अलग-अलग तरीकों से परेशान किया, फिर भी सभी उन्हें प्रेम करते थे। इसका मतलब है, कि कृष्ण ने उनके साथ किसी तरह तालमेल बिठा लिया था। अगर आप किसी के साथ तालमेल में हैं, तभी आप उनकी उपस्थिति में अच्छा महसूस करेंगे। अगर आप किसी के साथ तालमेल में नहीं हैं, तो बस उनको देखने भर से आपको बुरा अहसास होगा। ऐसा किसी एक ही व्यक्ति के साथ भी हो सकता है। जब आप उस एक व्यक्ति के साथ तालमेल में हैं, तो उन्हें देखने पर अच्छा महसूस करेंगे। और जब आप तालमेल में नहीं हैं, तो उन्हें देखने से आपको बुरा अहसास होगा। उनके बिना कुछ किये भी आपके साथ ऐसा घट सकता है।

कृष्ण को लक्ष्य याद दिलाया संदीपनी ने

16 साल की उम्र तक, अपने आस पास के जीवन के साथ तालमेल में होना, कृष्ण की साधना थी। फिर उनके गुरु ने आकर उन्हें याद दिलाया कि उनका जीवन सिर्फ आनंद-मग्न होने के लिए नहीं है, और इस जीवन का एक विशाल उद्देश्य है। कृष्ण को ये बात थोड़ी सी संघर्षपूर्ण लगी। वे अपने गाँव से प्रेम करते थे, और गाँव का हर व्यक्ति उनसे प्रेम करता था। वे अपने आस-पास – स्त्री, पुरुष, जानवर और बच्चे – सभी से पूरी तरह जुड़े हुए थे। वे बोले – “मुझे किसी विशाल लक्ष्य की जरुरुत नहीं है। मुझे बस इस गाँव में रहना अच्छा लगता है। मुझे गाएं, ग्वाले और गोपियाँ पसंद हैं। मैं उनके साथ नाचना गाना चाहता हूँ। मुझे अपने जीवन में कोई बड़ा लक्ष्य नहीं चाहिए। पर संदीपनी ने कहा – “आपको जीवन में इस लक्ष्य को चुनना होगा, क्योंकि आपका जन्म इसी उद्देश्य से हुआ है। ये होना बहुत जरुरी है। “

कृष्ण गोवर्धन पर्वत नाम के एक छोटे पर्वत पर जाकर खड़े हो गए। जब वे नीचे आए, तो वे पहले वाले नवयुवक नहीं थे। वे पर्वत पर एक गाँव के हँसते-खेलते लड़के की तरह गए थे, और एक गुरुत्व से भरे आकर्षण को लेकर नीचे आए। लोग उन्हें देखकर हैरान रह गए। वे समझ गए कुछ जबरदस्त घटना घटी है, पर चाहे जो भी हुआ हो, वे समझ गए कि कृष्ण अब चले जाएंगे।

कृष्ण हमेशा कोमल और मधुर बने रहे, क्योंकि उनकी साधना एक अलग आयाम और प्रकृति की थी। संदीपनी ने इस साधना को इस तरह रचा था, कि ये मुख्य रूप से भीतरी साधना बन गयी थी।

जब उन लोगों ने कृष्ण की ओर देखा, तो कृष्ण के चेहरे पर अब भी मुस्कराहट थी, पर कृष्ण के आँखों में प्रेम नहीं था। उनकी आँखों में दूरदर्शिता थी। कृष्ण ऐसी चीज़ें देख पा रहे थे, जिनकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

संदीपनी द्वारा याद दिलाये जाने के बाद, कृष्ण का सबसे पहला पराक्रम था अपने मामा कंस को मारकर, यादवों पर कंस के क्रूर शासन का अंत करना। उसके बाद कृष्ण अपने भाई बलराम और उद्धव के साथ अपने गुरु के आश्रम चले गए। वहाँ उन्होंने सात सालों तक एक ब्रह्मचारी का जीवन जिया। 22 साल की उम्र तक उन्होंने तीव्र आध्यात्मिक साधना की। उन्होंने शास्त्रों का भी अभ्यास किया और कुश्ती के एक महान योद्धा बन गए। इन सबके बावजूद, उनकी मांसपेशियां अर्जुन और भीम की तरह विशाल नहीं थीं।
कृष्ण की साधना एक अलग आयाम की थी

कृष्ण हमेशा कोमल और मधुर बने रहे, क्योंकि उनकी साधना एक अलग आयाम और प्रकृति की थी। संदीपनी ने इस साधना को इस तरह रचा था, कि ये मुख्य रूप से भीतरी साधना बन गयी थी।

कृष्ण द्वापर युग के प्राणी नहीं थे – उनका जीवन और कार्यकलाप सत युग की तरह थे।

कृष्ण द्वापर युग के प्राणी के तरह नहीं थे – उनका जीवन और कार्यकलाप सत युग की तरह थे। तो उनके लिए सब कुछ मानसिक स्तर पर घटित हुआ। उन्हें कुछ भी समझाने के लिए संदीपनी को कभी कुछ बोलना नहीं पड़ा – सभी कुछ मानसिक रूप से व्यक्त किया गया, मानसिक रूप से समझा गया और मानसिक रूप से ही सिद्ध किया गया।

अपनी साधना से बाहर आने पर उनमें और बलराम में फर्क साफ़ नज़र आता था। बलराम शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट और बलवान हो गए पर कृष्ण पहले की तरह ही बने रहे। बलराम उन्हें ताना मारते थे – “लगता है तुमने कुछ साधना नहीं की। मैंने बहुत मेहनत की है। मैं एक महान योद्धा बन गया हूँ। तुम अब भी ऐसे क्यों दिखते हो?”

तब भी, किसी कुश्ती के अखाड़े में या फिर तीरंदाजी के मुकाबले में कृष्ण को कोई हरा नहीं पाता था। तलवार चलाने के मामले में कोई उनके आस-आस भी नहीं था। पर वे हृष्ट-पुष्ट नहीं बने क्योंकि उनकी साधना पूरी तरह से मानसिक थी। और उन्होंने इस चीज़ को महाभारत की इस कहानी में लाखों तरह से प्रदर्शित किया है।
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9>वासुदेव कृष्ण के अत्यन्त शक्तिशाली अस्त्र सुदर्शन 

चक्र की सच्चाई को जान चकित हो जायेंगे आप !


सुंदर्शन चक्र एक अत्यधिक घातक अस्त्र है जिसका का वार अचूक होता है. यदि यह अस्त्र किसी पर छोड़ दिया जाय तो उसका सर्वनाश निश्चित है. यह जिस व्यक्ति पर छोड़ा गया उसका काम तमाम कर वापस अपने पूर्व स्थान पर वापस आ जाता है जहां से इसे छोड़ा गया था.

सुदर्शन चक्र भगवान श्री कृष्ण के तर्जनी उंगली में घूमता है. यह अस्त्र भगवान श्री कृष्ण के अभिन्न रूप से जुडा हुआ है तथा भगवान श्री कृष्ण सुदर्शन चक्र का प्रयोग तभी करते है जब तक की इसकी अत्यन्त आवश्यक्ता न पड़ जाए.

सुंदर्शन चक्र खुद जितना रहस्मय है उतना ही इसका निर्माण और संचालन भी है, आइये जानते श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र से जुडी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी.

1 . भगवान विश्वकर्मा की पुत्री का विवाह सूर्य देवता से हुआ. परन्तु विवाह के बाद भी उनकी पुत्री खुश नहीं थी जिसका कारण था सूर्य देवता की अत्यधिक गर्मी और उनका ताप. इसी कारण वह अपना विवाहिक जीवन सही ढंग से व्यतीत नहीं कर पा रही थी.

अपने पुत्री के कहने पर विश्वकर्मा ने सूर्य देवता से थोड़ी सी चमक व रौशनी ले ली जिससे बाद में उन्होंने पुष्पक विमान का निर्माण करवाया.
सूर्य देव के उसी चमक और प्रकाश से भगवान शिव के त्रिशूल तथा सुदर्शन चक्र का भी निर्माण किया गया.

2 . पुराणों की एक कथा में यह बताया गया है की भगवान शिव ने विष्णु की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दुष्टों के विनाश के लिए सुंदर्शन चक्र वरदान स्वरूप प्रदान किया था.

3 .पुराणों व अन्य धर्मग्रंथों में जिन अस्त्र-शस्त्रों का विवरण मिलता है उनमें सुदर्शन चक्र भी एक है. विभिन्न देवताओं के पास अपने-अपने चक्र हुआ करते थे.

4 . सभी चक्रों की अलग-अलग क्षमता होती थी और सभी के चक्रों के नाम भी होते थे. महाभारत युद्ध में भगवान कृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था. शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था.

5 .कहा जाता है की परमाणु बम के समान ही सुदर्शन चक्र के ज्ञान को भी गोपनीय रखा गया है. गोपनीयता सायद इसलिए रखी गयी होगी क्योकि इस अमोद्य अस्त्र की जानकारी देवता को छोड़ किसी अन्य को न लग जाए.


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