Sunday, February 21, 2016

21>আরতি কি==+आरतीकेबाद क्योंकर्पूरगौरमंत्र==+बिल्व पत्र का महत्व====>( 1 to 3 )

21>आ =Post=21>***আরতি কি***( 1 to 3 )

1--------------------আরতি কি? এবং কেন আরতি করা হয়?
2--------------------जानिए आरती के बाद क्यों बोलते है कर्पूरगौर मंत्र
3>-----------बिल्व पत्र का महत्व
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1>==আরতি কি? এবং কেন আরতি করা হয়?
আরতিকে নীরাজন বলা হয়। একান্ত মনো নিবেশ করিয়া ভগবান কে ধূপ, দীপ, পুষ্প, প্রদীপ, চামর, অর্ঘ্যপাত্র, ধৌতবস্এ, ব্যজন ইত্যাদি দ্বারা ভগবান কে আরোতি করতে
হয়।
শ্রী বিগ্রহের পদতলে ৪ বার, নাভিদেশে ২ বার, মুখমন্ডোলে ৩ বার, সর্বএ গাত্রকে ৭ বার করিয়া এক এক প্রকারের আরোতি করা হয়।
স্বয়ং দেবাদিদেব মহাদেব পার্বতী দেবী কে বলেছেন যে, ভগবানের পূজা যদি মন্ত্রহীন বা ক্রীয়া হীন হয়, তবে তাআরোতীর দ্বারা সর্বপ্রকারে সম্পূর্ণতা প্রাপ্ত হয়।
স্কন্দ-পুরানে বনর্না আছে যে কেউ যদি আরতি দর্শন করেন বা আরতিতে অংশগ্রহণ করেন,নৃত্য করেন তাহলে ঐ ব্যক্তি কোটি কোটি বছরের সন্চিত সমস্ত পাপ থেকে মুক্ত হন। তিনি যদি এমনকি ব্রক্ষহত্যার মতো জগন্যতম পাপ থেকে
মুক্ত হন।
তন্ত্রশাস্রে বলা হয়েছে,ভগবানের আরোতির পরে কেউ পুষ্প ও প্রদীপ, ধূপ নাসারন্ধ্রে প্রবেশ বা গাত্রকে আভা গ্রহন করলে তাঁর সমস্থ পাপের বন্ধন থেকে মুক্ত হন।
বরাহ পুরানে বলা হয়েছে যে,কেউ যদি আরতির সময় শ্রী ভগবানের শ্রী বিগ্রহ বা মুখমন্ডল আনন্দ ভাবে দর্শন করেন, শ্রী যমরাজ তাকে দেখে ভয় পায় এবং মৃত্যুর পর
তার বৈকুণ্ঠধাম প্রাপ্ত হয়।
তাই আমাদের সকলের কর্তব্য বা উচিত শ্রী ভগবানের আরতিতে অংশগ্রহণ, কির্তন, দর্শন,ও নৃত্য করন। তাতে ভগবান সন্তুষ্ট ও খুব খুশি হন।
যখন ভগবানের আরতি করা হয়, সকল দেব ও দেবী সেখানে উপস্থিথ হইয়া ভগবানের আরতি দর্শন করেন।তবে অনুরোধ কেউ আরতি চলাকালীন ভগবান কে প্রনাম করবেন না, তাহলে তার পরম আয়ু কমে যাবে, তিনি রোগ গ্রস্থ হবেন।


আরতি কি? এবং কেন আরতি করা হয়
13>=Aআরতি কি? এবং কেন আরতি করা হয়?আরতিকে নীরাজন বলা হয়। একান্ত মনো নিবেশ করিয়া ভগবান কে ধূপ, দীপ, পুষ্প, প্রদীপ, চামর, অর্ঘ্যপাত্র, ধৌতবস্এ, ব্যজন ইত্যাদি দ্বারা ভগবান কে আরোতি করতে
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2>=जानिए आरती के बाद क्यों बोलते है कर्पूरगौर मंत्र

जानिए आरती के बाद क्यों बोलते हैं कर्पूरगौरं.. मंत्र ?

किसी भी मंदिर में या हमारे घर में जब भी पूजन कर्म होते हैं तो वहां कुछ मंत्रों का जप अनिवार्य रूप से
किया जाता है। सभी देवी-देवताओं के मंत्र अलग-अलग हैं, लेकिन जब भी आरती पूर्ण होती है तो यह मंत्र
विशेष रूप से बोला जाता है-

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि।।

ये है इस मंत्र का अर्थ

इस मंत्र से शिवजी की स्तुति की जाती है। इसका अर्थ इस प्रकार है-
कर्पूरगौरं- कर्पूर के समान गौर वर्ण वाले।

करुणावतारं- करुणा के जो साक्षात् अवतार हैं।

संसारसारं- समस्त सृष्टि के जो सार हैं।

भुजगेंद्रहारम्- इस शब्द का अर्थ है जो सांप को हार के रूप में धारण करते हैं।

सदा वसतं हृदयाविन्दे भवंभावनी सहितं नमामि- इसका अर्थ है कि जो शिव, पार्वती के साथ सदैव मेरे हृदय में

निवास करते हैं, उनको मेरा नमन है।

मंत्र का पूरा अर्थ- जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण

वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव माता भवानी

सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है।

यही मंत्र क्यों....?

किसी भी देवी-देवता की आरती के बाद कर्पूरगौरम् करुणावतारं....मंत्र ही क्यों बोला जाता है, इसके पीछे

बहुत गहरे अर्थ छिपे हुए हैं। भगवान शिव की ये स्तुति शिव-पार्वती विवाह के समय विष्णु द्वारा गाई हुई

मानी गई है। अमूमन ये माना जाता है कि शिव शमशान वासी हैं, उनका स्वरुप बहुत भयंकर और अघोरी

वाला है। लेकिन, ये स्तुति बताती है कि उनका स्वरुप बहुत दिव्य है। शिव को सृष्टि का अधिपति माना गया है,

वे मृत्युलोक के देवता हैं, उन्हें पशुपतिनाथ भी कहा जाता है, पशुपति का अर्थ है संसार के जितने भी जीव

हैं (मनुष्य सहित) उन सब का अधिपति। ये स्तुति इसी कारण से गाई जाती है कि जो इस समस्त संसार का

अधिपति है, वो हमारे मन में वास करे। शिव श्मशान वासी हैं, जो मृत्यु के भय को दूर करते हैं। हमारे मन

में शिव वास करें, मृत्यु का भय दूर हो।

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3>बिल्व पत्र का महत्व

एस्ट्रोलॉजी हाउस :-बिल्व पत्र का महत्व बिल्व तथा श्रीफल नाम से प्रसिद्ध (famous) यह फल 
बहुत ही काम का है। यह जिस पेड़ (tree) पर लगता है वह शिवद्रुम भी कहलाता है। बिल्व का 
पेड़ संपन्नता का प्रतीक, बहुत पवित्र तथा समृद्धि देने वाला है। बेल के पत्ते शंकर जी 
(shiv shanker ji) का आहार माने गए हैं, इसलिए भक्त लोग बड़ी श्रद्धा से इन्हें महादेव के ऊपर
 चढ़ाते हैं। शिव की पूजा के लिए बिल्व-पत्र बहुत ज़रूरी माना जाता है। शिव-भक्तों का विश्वास है 
कि पत्तों (leaves) के त्रिनेत्रस्वरूप् तीनों पर्णक शिव के तीनों नेत्रों को विशेष प्रिय हैं।
2=भगवान शंकर का प्रियभगवान शंकर को बिल्व पत्र बेहद प्रिय हैं। भांग धतूरा और बिल्व पत्र से 
प्रसन्न होने वाले केवल शिव ही हैं। शिवरात्रि (shiv ratri) के अवसर पर बिल्वपत्रों से विशेष रूप 
से शिव की पूजा की जाती है। तीन पत्तियों वाले बिल्व पत्र आसानी से उपलब्ध (easily available)
 हो जाते हैं, 
किंतु कुछ ऐसे बिल्व पत्र भी होते हैं जो दुर्लभ पर चमत्कारिक और अद्भुत होते हैं।
3=बिल्वाष्टक और शिव पुराणबिल्व पत्र का भगवान शंकर के पूजन (poojan) में विशेष महत्व (special importance) है जिसका प्रमाण शास्त्रों में मिलता है। बिल्वाष्टक और शिव पुराण में 
इसका स्पेशल उल्लेख है। 
अन्य कई ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर एवं पार्वती को बिल्व पत्र चढ़ाने का 
विशेष महत्व है।
4=मां भगवती को बिल्व पत्रश्रीमद् देवी भागवत में स्पष्ट वर्णन है कि जो व्यक्ति मां 
भगवती (ma bhagwati) को बिल्व पत्र अर्पित करता है वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में 
दुखी नहीं होता। 
उसे हर तरह की सिद्धि प्राप्त होती है और कई जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है और वह भगवान 
भोले नाथ का प्रिय भक्त हो जाता है। उसकी सभी इच्छाएं (wishes) पूरी होती हैं और अंत में मोक्ष 
की प्राप्ति होती है।
5=बिल्व पत्र के प्रकारबिल्व पत्र चार प्रकार के होते हैं – अखंड बिल्व पत्र, तीन 
पत्तियों के बिल्व पत्र, छः से 21 पत्तियों तक के बिल्व पत्र और श्वेत बिल्व पत्र। इन सभी बिल्व 
पत्रों का अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व (spiritual importance) है। आप हैरान हो जाएंगे ये 
जानकर की कैसे ये बेलपत्र आपको भाग्यवान बना सकते हैं और लक्ष्मी कृपा दिला सकते हैं।
6=अखंड बिल्व पत्रइसका विवरण बिल्वाष्टक में इस प्रकार है – ‘‘अखंड बिल्व पत्रं नंदकेश्वरे सिद्धर्थ लक्ष्मी’’। यह अपने आप में लक्ष्मी सिद्ध है। एकमुखी रुद्राक्ष के समान ही इसका अपना विशेष महत्व है। 
यह वास्तुदोष का निवारण भी करता है। इसे गल्ले में रखकर नित्य पूजन करने से व्यापार में चैमुखी 
विकास होता है।
7=तीन पत्तियों वाला बिल्व पत्रइस बिल्व पत्र के महत्व का वर्णन भी बिल्वाष्टक में आया है जो इस 
प्रकार है- ‘‘त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम् त्रिजन्म पाप सहारं एक बिल्वपत्रं शिवार्पणम’’ यह 
तीन गणों से युक्त होने के कारण भगवान शिव को प्रिय है। इसके साथ यदि एक फूल धतूरे का चढ़ा 
दिया जाए, तो फलों (fruits) में बहुत वृद्धि होती है।
8=तीन पत्तियों वाला बिल्व पत्रइस तरह बिल्व पत्र अर्पित करने से भक्त को धर्म, अर्थ, काम और 
मोक्ष की प्राप्ति होती है। रीतिकालीन कवि ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है- ‘‘देखि त्रिपुरारी की 
उदारता अपार कहां पायो तो फल चार एक फूल दीनो धतूरा को’’ भगवान आशुतोष त्रिपुरारी भंडारी 
सबका भंडार भर देते हैं।
9=तीन पत्तियों वाला बिल्व पत्रआप भी फूल चढ़ाकर इसका चमत्कार स्वयं देख सकते हैं और सिद्धि 
प्राप्त कर सकते हैं। तीन पत्तियों वाले बिल्व पत्र में अखंड बिल्व पत्र भी प्राप्त हो जाते हैं। कभी-कभी 
एक ही वृक्ष पर चार, पांच, छह पत्तियों वाले बिल्व पत्र भी पाए जाते हैं। परंतु ये बहुत दुर्लभ हैं।
10=छह से लेकर 21 पत्तियों वाले बिल्व पत्रये मुख्यतः नेपाल (nepal) में पाए जाते हैं। पर भारत (india) में भी कहीं-कहीं मिलते हैं। जिस तरह रुद्राक्ष कई मुखों वाले होते हैं उसी तरह बिल्व पत्र 
भी कई पत्तियों वाले होते हैं।
11=श्वेत बिल्व पत्रजिस तरह सफेद सांप, सफेद टांक, सफेद आंख, सफेद दूर्वा आदि होते हैं 
उसी तरह सफेद बिल्वपत्र भी होता है। यह प्रकृति (nature) की अनमोल देन है। इस बिल्व पत्र 
के पूरे पेड़ पर श्वेत पत्ते पाए जाते हैं। इसमें हरी पत्तियां नहीं होतीं। इन्हें भगवान शंकर को अर्पित 
करने का विशेष महत्व है।
12=कैसे आया बेल वृक्षबेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में ‘स्कंदपुराण’ में कहा गया है कि एक बार 
देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत (mandaar mountain) पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं।
13=कांटों में भी हैं शक्तियाँकहा जाता है कि बेल वृक्ष के कांटों में भी कई शक्तियाँ समाहित हैं।
 यह माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेल वृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा 
बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है। 
‘शिवपुराण’ में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है।
14=ये भी है श्रीफलनारियल (coconut) से पहले बिल्व के फल को श्रीफल माना जाता था क्योंकि 
बिल्व वृक्ष लक्ष्मी जी का प्रिय वृक्ष माना जाता था। प्राचीन समय में बिल्व फल को लक्ष्मी और सम्पत्ति 
का प्रतीक मान कर लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए बिल्व के फल की आहुति दी जाती थी जिसका 
स्थान अब नारियल ने ले लिया है। प्राचीन समय से ही बिल्व वृक्ष और फल पूजनीय रहा है, पहले लक्ष्मी 
जी के साथ और धीरे-धीरे शिव जी के साथ।
15=यह एक रामबाण दवा भी हैवनस्पति में बेल का अत्यधिक महत्व है। यह मूलतः शक्ति का प्रतीक 
माना गया है। किसी-किसी पेड़ पर पांच से साढ़े सात किलो वजन वाले चिकित्सा विज्ञान में बेल का 
विशेष महत्व है। आजकल कई व्यक्ति इसकी खेती करने लगे हैं। इसके फल से शरबत, अचार और 
मुरब्बा आदि बनाए जाते हैं। यह हृदय रोगियों (heart patients) और उदर विकार से ग्रस्त लोगों के 
लिए रामबाण औषधि (medicine) है।
16=यह एक रामबाण दवा भी हैधार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों 
(mandir/temple) के पास लगाया जाता है। 
बिल्व वृक्ष की तासीर बहुत शीतल होती है। 
गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसके फल का शर्बत बड़ा ही लाभकारी (helpful) होता है। 
यह शर्बत कुपचन, आंखों की रोशनी (eye sight) में कमी, पेट में कीड़े और लू लगने जैसी 
समस्या ओं से निजात पाने के लिए उत्तम है। 
औषधीय गुणों से परिपूर्ण बिल्व की पत्तियों मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम (magnesium) जैसे रसायन (chemical) पाए जाते हैं। 

क्या हैं बेल पत्र अथवा बिल्व-पत्र?बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जिस के हर पत्ते लगभग तीन-तीन 
के समूह में मिलते हैं। कुछ पत्तियां चार या पांच के समूह की भी होती हैं। किन्तु चार या पांच के समूह 
वाली पत्तियां बड़ी दुर्लभ होती हैं। बेल के पेड को बिल्व भी कहते हैं। बिल्व के पेड़ का विशेष धार्मिक 
महत्व हैं। शास्त्रोक्त मान्यता हैं कि बेल के पेड़ को पानी या गंगाजल से सींचने से समस्त तीर्थो का फल प्राप्त होता हैं एवं भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती हैं। 
बेल कि पत्तियों में औषधि गुण भी होते हैं। जिसके उचित औषधीय प्रयोग से कई रोग दूर हो जाते हैं। भारतिय संस्कृति में बेल के वृक्ष का धार्मिक महत्व हैं, क्योकि बिल्व का वृक्ष भगवान शिव का ही रूप है। धार्मिक ऐसी मान्यता हैं कि बिल्व-वृक्ष के मूल अर्थात उसकी जड़ में शिव लिंग स्वरूपी भगवान शिव का वास होता हैं। इसी कारण से बिल्व के मूल में भगवान शिव का पूजन किया जाता हैं। पूजन में इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता हैं।
धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता हैं--
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्।य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ 
(शिवपुराण)भावार्थ: बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान 
का फल मिल जाता है।

बिल्व पत्र तोड़ने का मंत्रबिल्व-पत्र को सोच-समझ कर ही तोड़ना चाहिए। बेल के पत्ते तोड़ने से पहले 
निम्न मंत्र का उच्चरण करना चाहिए- 
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रियःसदा।गृह्यामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ 
-(आचारेन्दु)भावार्थ: अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।

कब न तोड़ें बिल्व कि पत्तियां?* विशेष दिन या विशेष पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना निषेध हैं। 
* शास्त्रों के अनुसार बेल कि पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
* बेल कि पत्तियां सोमवार के दिन नहीं तोड़ना चाहिए।
* बेल कि पत्तियां चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को नहीं तोड़ना चाहिए।
* बेल कि पत्तियां संक्रांति के दिन नहीं तोड़ना चाहिए।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे ।बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ 
(लिंगपुराण)भावार्थ: अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।

चढ़ाया गया पत्र भी पूनः चढ़ा सकते हैं?
शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र तोडकर चढ़ाने से मना किया गया हैं तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ 

(स्कन्दपुराण) और (आचारेन्दु)भावार्थ: अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र 
न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।
बेल पत्र चढाने का मंत्र भगवान शंकर को विल्वपत्र अर्पित करने से मनुष्य कि सर्वकार्य व मनोकामना सिद्ध होती हैं। 
श्रावण में विल्व पत्र अर्पित करने का विशेष महत्व शास्त्रो में बताया गया हैं। विल्व पत्र अर्पित करते समय इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए:
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।त्रिजन्मपापसंहार, विल्वपत्र शिवार्पणम्भावार्थ: 
तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।
शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। 
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20>ध्यान क्यों+Our mind+मनऔरविचार+प्रतिदिन स्मरण योग्य +पूर्ण सफलता हेतु +

20=आ =Post=20>***ध्यान क्यों+Our mind+मनऔरविचार***( 1 to 5 )

1------------------ध्यान क्यों करना चाहिए?
2-----------------Our Mind
3-----------------मन और विचार
4------------------प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ तथा कल्याणदायक स्तोत्र संग्रह :-
5---------------------पूर्ण सफलता हेतु अपने दिन का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग कैसे हो?
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1> ध्यान क्यों करना चाहिए?

ध्यान में क्या ताकत है?
ध्यान साधना का क्या महत्व है....?

जब100 लोग एक साथ साधना करते है तो उत्पन्न लहरें 5 कि.मी.तक फैलती है और नकारात्मकता नष्ट कर सकारात्मकता का निर्माण करती है।

आईस्टांईन नें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहा था के एक अणु के विधटन से लगत के अणु का विधटन होता है,

इसीको हम अणु विस्फोट कहते है।
यही सुत्र हमारे ऋषि, मुनियों ने हमें हजारो साल पहले दिया था।

आज पृथ्वी पर केवल4% लोंग ही ध्यान करते है
लेकिन बचे 96% लोंगो को इसका पॉजिटिव इफेक्ट होता है।

अगर हम भी लगातार 90 दिनो तक ध्यान करे तो इसका सकारात्मक प्रभाव हमारे और हमारे परिवार पर दिखाई देगा।
अगर पृथ्वी पर 10% लोंग ध्यान करनें लगे
तो पृथ्वी पर विद्यमान लगभग सभी समस्याओं को नष्ट करने की ताकत ध्यान में है।
उदारहण के लिए हम बात करे तो।::::
महर्षि महेश योगी जी
सन् 1993 में वैज्ञानिकों के समक्ष यह सिद्ध किया था।। हुआ यू की
उन्होने वॉशिंगटन डि सी में 4000 अध्यापको को बुलाकर एक साथ ध्यान(मेडिटेशन) करने को कहा......
और..और चमत्कारीक परिणाम यह था के
शहर का क्राईम रिपोर्ट 50% तक कम हुवा पाया गया ।
वैज्ञानिकों को कारण समझ नहीं आया और उन्होनें इसे

``महर्षि इफेक्ट" यह नाम दिया।

भाईयों यह ताकत है।। ध्यान मे।
हम हमारे भौतिक और आध्यात्मिक यश को
कम से कम श्रम करके अधिक से अधिक साध सकते है।
``जरुरत है ध्यान से स्वत: को खोजनें की" यही आत्म साक्षात्कार का मार्ग है। अहम् ब्रम्हास्मि''''''''''''''''''''''

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2>=Our Mind

  Our mind is a pool of thoughts every day positive and negative thoughts cross through it which later reflect in to action. Negative thinking is the source of distrust, suspicious and arguments. The positive thoughts results in increased self confidence and will power.
 'What is the nature of the mind?'
What is called ‘mind’ is a wondrous power residing in the Self. It causes all thoughts to arise. Apart from thoughts, there is no such thing as mind. Therefore, thought is the nature of mind. Apart from thoughts, there is no independent entity called the world. In deep sleep there are no thoughts, and there is no world. In the states of waking and dream, there are thoughts, and there is a world also. Just as the spider emits the thread (of the web) out of itself and again withdraws it into itself, likewise the mind projects the world out of itself and again resolves it into itself. When the mind comes out of the Self, the world appears. Therefore, when the world appears (to be real), the Self does not appear; and when the Self appears (shines) the world does not appear. When one persistently inquires into the nature of the mind, the mind will end leaving the Self (as the residue). What is referred to as the Self is the Atman. The mind always exists only in dependence on something gross; it cannot stay alone. It is the mind that is called the subtle body or the soul (diva).
('Who Am I?', Question 8)
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3>=मन और विचार

: हमारा मन कई तरह के विचारों से भरा रहता है |इसमें कुछ सकारात्मक कुछ नकारात्मक विचार रहते हैं |नकारात्मक विचारों से मन में शंका व तर्क का निर्माण होता है, शंका से शक्ति बंटने लगती है व व्यक्तित्व विकास में बाधा पड़ती है |शंका से मन में द्वंद उत्पन होता है और द्वंद्वात्मक मन ही शत्रु की भूमिका की पूर्ति करता है |
. . . . सकारात्मक विचारों से व्यक्ति में आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति का विकास होता है |विश्वास तथा संकल्प मिल कर निष्ठा का रूप धारण करते हैं |निष्ठा की परिपक्व अवस्था ही श्रद्धा निर्माण करती है |श्रद्धा की पूर्णता समर्पण में है

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4>प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ तथा कल्याणदायक स्तोत्र संग्रह :-

                *******प्रात: कर-दर्शनम्*******
             ॐकराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
              करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

               *******पृथ्वी क्षमा प्रार्थना*******
              ॐसमुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
              विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥


             ******* त्रिदेव सहित नवग्रह स्मरण*******
          ॐब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।
           गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥
                *******स्नान मन्त्र*******
            ॐगंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
          नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

              *******सूर्यनमस्कार*******
             ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च
        आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
         दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्
           सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

                        ॐ मित्राय नम:
                        ॐ रवये नम:
                        ॐ सूर्याय नम:
                        ॐ भानवे नम:
                        ॐ खगाय नम:
                        ॐ पूष्णे नम:
                        ॐ हिरण्यगर्भाय नम:
                        ॐ मरीचये नम:
                        ॐ आदित्याय नम:
                        ॐ सवित्रे नम:
                        ॐ अर्काय नम:
                        ॐ भास्कराय नम:
                        ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

                   आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।
                   दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

                       *******दीप दर्शन*******
                   शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
                   शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

                   दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
                   दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

                   *******गणपति स्तोत्र*******
                 गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।
                 द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥
                 विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।
                 द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥
                 विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

                 विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय।
                 लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥
                 नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय।
                 गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

                 शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
                 प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

                  *******आदिशक्ति वंदना*******
                  सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
                  शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

                    *******शिव स्तुति*******
                      कर्पूर गौरम करुणावतारं,
                      संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
                      सदा वसंतं हृदयार विन्दे,
                      भवं भवानी सहितं नमामि॥

                    *******विष्णु स्तुति*******
                शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
                विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
               लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
               वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

                 *******श्री कृष्ण स्तुति*******
            कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।
            नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥
            सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।
             गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

              मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌।
              यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌॥

               *******श्रीराम वंदना********
             लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
             कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

                *******श्रीरामाष्टक*******
            हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।
            गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥
            हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।
            बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥

              *******एक श्लोकी रामायण*******
             आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
              वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥
              बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।
              पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

              *******सरस्वती वंदना********
             या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
             या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥
             या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
             सा माम पातु सरस्वती भगवती
             निःशेषजाड्याऽपहा॥

               *******हनुमान वंदना*******
              अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌।
               दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।
               सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌।
               रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

        मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
        वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

                *******स्वस्ति-वाचन*******
                ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः
                स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
                स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः
                स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

               *******शांति पाठ*******
            ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते।
            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

            ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,
         पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
        वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
     सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

                  ॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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5>पूर्ण सफलता हेतु अपने दिन का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग कैसे हो?

एक आध्यात्मिक व् सात्विक दृष्टि जो अति कल्याणकारी हो सकती है. भक्ति मार्ग या गृहस्थ जीवन ?


केवल अपने कार्य पर ध्यान लगाएं, ईश्वर के कार्य को अपना समझ जो भी करें पूरे मन से करें यही सबसे बड़ा सेवा कार्य है और श्रीहरि की उपासना भी. जब आप अपने को पूरी तरह ध्यान व् एकाग्रता में लगाएंगे ईश्वर अपनी ऊर्जा से आपकी आत्मा को विस्तारित करेगा। ये बात अपने मित्रो से साझा करें और ईश्वर शक्ति आपके साथ होगी. आप सुरक्षित रहेंगे और आपके सुकर्म का परिणाम अति उत्तम होगा.

यदि आप शिक्षा ले रहें हैं तो केवल और केवल शिक्षा के विषयो पर ध्यान रहे, किसी व्यक्ति, पुरुष, स्त्री के सम्बन्ध में सोचना अपना समय व्यर्थ करना है. ये समय लौटकर नहीं आएगा. केवल शिक्षा को अपना गंतव्य बना लें. आपको सफलता मिलेगी तो मन को शांति मिलेगी.


जो भी करना है उसे ईश्वरीय प्रसाद समझ कर करें, और पृष्ठभूमि में सोचें, के ये सब कार्य परम ईश्वर, परम-ज्योति स्वरुप श्रीहरि जी के लिया किया जा रहा है. ऐसा करने से आपकी ऊर्जा व् मानसिक शक्तियां बढ़ेंगी, आपका आत्मा प्रकाश चैतन्यता की ओर जायेगा और साथ साथ काम भी होता रहेगा, आप अपना आध्यात्मिक उत्थान व् सर्व-विकास करेंगे और इस जीवन की गति बढ़ेगी, कई जन्मो के काम इसी जन्म में हो जायेंगे. याद रखें ये सब सांसारिक काम जब अच्छे होंगे, हमारा वास्तविक ध्येय जो इस जीवन काल का है, उस पर भी काम होगा.


दूसरी चीज़ जो भी करना है इतनी एकाग्रता से करें के वो सर्वश्रेष्ठ और उत्तम हो. भाषा प्रयोग करें, शुद्ध, एक समय में केवल एक शुद्ध भाषा प्रयोग करे, खिचड़ी न पकाएं, कोई भी भाषा जो बोलें, उसके सबसे अच्छे शब्द प्रयोग करें, क्यूंकि ये आपके अचेतन पर प्रभाव डालते हैं. धीरे धीरे कम से कम बोलने की आदत विकसित करें और जो भी बोलें वो इतना सुन्दर, मीठा, उत्तम और हल्के स्वर में हो के जैसे आप किसी नन्हे से निर्मल मन बालक से बात कर रहें है.


आपकी हर बात एक आयाम में अभिलेख हो आलेखित हो रही है. एक समय में जब अशरीर होंगे तो ये सारे शब्द कर्णो में नाद करने वाले हैं. ये सभी बाते आपतक एक बहुत उच्च आयाम से आत्मिक जगत के प्रकाश द्वारा पहुँच रहीं है. इन्हे आलेखित कर लें, आपके बहुत काम आएंगी, एक समय जब हम उस आयाम में मिलने वाले हैं, आप कहेंगे के मैंने ठीक ही बताया था. तो अपने मुख्य कार्य पर कुछ घंटे लगाएं, शब्दों, भाषा का प्रयोग केंद्रित हो कर करना। आप सफलता की राह पर जायेंगे. कोई दुविधा न होगी.,जो चुनौती आएं जो की आएँगी , घबराएं नहीं वह केवल छोटे छोटे रोड ब्रेकर हैं जो इसलिए आते हैं ताकि हम अपनी गति कुछ समय के लिए कम कर लें, जैसे एक कठिन मोड़ आता है तो गति कम की जाती है ऐसे ही चुनौती और कठिन समय में मन की गति कम कर दें, अति दुर्गम समय में गति रोक दें. सब विचार निकाल दें, शांत हो कर मनन करें. कुछ समय बाद आपको कई विकल्प दिखेंगे, सबसे अच्छा चुनाव करें और आगे बढ़ें।


भक्ति मार्ग या गृहस्थ जीवन ?

गृहस्थ जीवन भक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है. इसमें आप संतुलित जीवन यात्रा करते हुए, श्रीहरि के प्रकाशमय जगत के निकट पहुँच सकते हैं. कुसंग, कुशिक्षा,मोह पैदा करने वाले उपभोगों, उपभोक्तावाद, कचरा टेलीविज़न, फिल्मे, अश्लील संगीत से बचें, अपने शेष समय कम से कम ३० मिनट ध्यान पर और, २० से ४० मिनट कीर्तन या सात्विक मधुर भजन संगीत में लगाएं।

अपने मन को एकाग्र कर सबसे निर्मोह प्रेम से बात करें, एक समय में एक कार्य हाथ में लें, अपने शरीर, मन व् आत्मा को बाह्र्य मलिनता प्रदूषण से बचाने का भरपूर प्रयास करें, किसी की भी बुराई करने में समय निवेश करने की अपेक्षा, हर दिन ८ - १० मिनट अपनी बुराईयों को सामने लाएं और उन पर विस्तार से ध्यान लगाकर उनका उद्गम कारण जाने और प्रण करें के अगले ५ दिन तक एक बुराई या आदत पर काम करना है. उसे २ - ३ पंक्तियों में एक सफ़ेद पत्र पर लिखकर अपने सामने या कपडे की जेब में रखलें, और दिन में दो तीन बार उसे पढ़ें.

अपने मनन के समय सोने से पहले, उठने के बाद धन्यवाद दें सब लोगों की जिन्होंने आपको उस दिन सेवा प्रदान की. ऐसा करना अति आवश्यक है, सब हमें सेवा प्रदान करने वाले, चाहे वो पैसा लें या न लें, हमारे वास्तविक मित्र हैं. उन सेवाकार आत्माओं को नमस्ते करें, उनके लिए प्रार्थना करें. स्मरण रहे श्रीहरि जो परम ईश्वर ज्योत हैं अपने प्रकाश से हमें हमारी सेवा करने वालो को

हमारे पास भेजते हैं. जब आप उन्हें नमस्ते करें, उसका प्रताप व् ऊर्जा उन तक पहुंचेगी और श्रीहरि की कृपा अपने आप वृद्धि करती रहेगी. ऐसा न करने पर श्रीहरि की कृपा कम होती चली जाएगी. ऊर्जा कम होगी शरीर व् मन अस्वस्थ होगा और हमारा ह्रास होगा. इसीलिए जब ऐसा हो तो सब कुछ छोड़कर श्रीहरि से प्रार्थना करने का समय आ गया है, कीर्तन करें. श्रीहरि कीर्ति गान अति सुगम रास्ता है जो आपको प्रकाश से उज्ज्वलित पथ पर ले जायेगा।


श्रीहरि आपको मन की एकाग्रता प्रदान करे और आपका अंतकरण सदैव शुद्ध रहे.
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Friday, February 19, 2016

19=आ =Post=19>***धनपरआधारितसंसार***( 1 to 6 )

19=आ =Post=19>***धनपरआधारितसंसार***( 1 to 6 )

1------------------धन पर आधारित संसार की वास्तविकता?
2------------------श्रम व् ऊधम कभी बुरा ना था समस्या उसे पैसे से जोड़ने के कारण उत्पन्न हुई
3------------------नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम,
4------------------दिव्य चाँद की किरणें ।।
5------------------ एक खेल का मैदान,
6>----------कैसे पाएं किसी संत का आशीर्वाद?
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1>धन पर आधारित संसार की वास्तविकता?

क्या अंतरात्मा के विरुद्ध धनी बनने से कुछ प्राप्त होगा? कैसी कमाई भली कमाई है?
यह आज लगभग हर उस व्यक्ति की वेदना है जो अपने आपको झूट बोलकर एक झूठा स्वपन दिखा कर अपने ही मिथ्या जगत को सत्य दिखाने की चेष्टा करता है. अंतरात्मा के विरुद्ध जाना वैसे ही है जैसे हम उच्च लहरो के समुद्र से लड़ने का प्रयास करें, कुछ देर तक हम प्रयास कर सकते हैं पर अंतत हम धराशायी हो जायेंगे. आज जो पाप या पाप न समझ अपना अधिकार समझ कुछ गलत काम कर जल्द धनी बनने का स्वप्न देखने के लिए अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना करते हैं उन्हें बाद में कई मुसीबतो का सामना करना पड़ता है जिसमे बुरा समय, बीमारी, तनाव भी हैं और एक हीन भावना का उत्पन्न होना है जो अंत समय तक पीछा नहीं छोड़ती।

धन से ही मनुष्यों में ये पंद्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेदबुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब। आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं। भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता। केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिये। लक्ष्य होना चाहिये कभी भी दुखी न रहना। सबसे महान प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो। हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिये। यह आदर्श पेट का धंधा नहीं, सेवा होनी चाहिये। सर्वकल्याण, समाज-सेवा सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो। हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय। जीवन केवल अर्थ शास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय। मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है, उसकी आत्मा भी है, उसका इहलोक और परलोक भी है।

पैसे के बिना क्या जीवन सम्भव् है?
आज से ३०० वर्ष पूर्व तक उत्तर व् दक्षिण अमरीका में दर्जनो मूल निवासी सभ्यताएं बिना किसी पैसे की अर्थव्यवस्था के सकुशल चलती थी. प्राचीन भारत जो सोने की चिड़िया कहा जाता था अर्थ समाजिक व्यवस्था उत्पाद, ज्ञान और विशेषज्ञता से चलती थी और कोई नागरिक भूखा नहीं सोता था. आध्यात्मिक व् धर्म के आधीन समाजिक व्यवस्था अपने आप चलती थी कोई भय, लालच या कमी न थी.
धन की इस दुनिया में, चकाचौंध के उस जमाने में जब कि सभ्यता का एकमात्र लक्ष्य केवल पैसा कमाना है, ऐसी कल्पना करना भी एक बड़ी बात लगती है पर धन में स्थापित पश्चिमी समाज धन की मर्यादा से ऊबकर सतयुगी मर्यादा की ओर मुड़ रहे हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि यह सब आडम्बर मिथ्या है। धन ही विपत्ति की जड़ है, इसी से संसार का सब विग्रह प्रारम्भ होता है और वर्गवाद, साम्यवाद या साम्राज्यवाद का उपद्रव खड़ा हो जाता है। न धन की घुड़दौड़ रहे और न यह सब विपत्तियाँ खड़ी हों।

धन रहित संसार में समृद्धि संभव है?
संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी आदमी द्वारा निर्मित कृत्रम धन है आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है। खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि-सबका कारण यही है। चूँकि सभी सुख की वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती हैं, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है। जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव पेंच में लगता है। व्यापार की दुनिया में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते।
यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिदान की भावना हो जाय तो हरेक वस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय। लाखों आदमी केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बही खाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें। यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायं तथा अपनी उत्पत्ति का आर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें, तो संसार कितना सुखमय हो जायगा। आज संसार में अटूट सम्पत्ति उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा बीमा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है। यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनिया कैसी होती। अस्पतालों में लाखों नर-नारियाँ रुपये की मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारियाँ धन के लिए जेल काट रहे हैं। प्रायः हर परिवार में इसका झगड़ा है। मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है। यदि धन की मर्यादा न होती तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता।
पैसे के कारण संसार में वर्गवाद आदि का संकट आ गया है। आज जितनी उत्पत्ति होती है, उसका पैसों में मूल्य समाप्त कर दीजिए तो संसार का कायापलट हो जायगा, कोई भूखा रहेगा न नंगा। आज हरेक काम पैसे से होता है। माता-पिता तथा संतान के बीच पैसे का सम्बन्ध है। पिता चाहता है कि लड़के कमाएं, लड़की बोझ न बने। आज हरेक व्यक्ति सोचता है कि पैसा एक अनिवार्य वस्तु है इसलिए पैसे कि अंधी दुनिया इसका निरादर नहीं कर सकती। पर कौन नहीं जानता कि जितना पैसा बढ़ता है उतना ही परिश्रम पश्चाताप तथा परेशानी बढ़ती है, धन से आत्मा सुखी नहीं हो सकती।

कैसी कमाई भली कमाई है?
हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ, समृद्धि के झूठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर परम आत्मा की शरण लेनी होगी। जो भी है पैसे के लिए झूट कपट व् भ्र्ष्टता का सहारा लेना इसलिए बुरा है के इस तरह कमाया पैसा बीमारी, दुःख और विनाश का पथ तो पक्का है।
धर्म के रास्ते पर चल कर अपने मन से अपने काम को सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने से, मन की शान्ति व् स्वस्थ मन व् शरीर हमें सदाचार व् आत्मिक उत्थान की और ले जाएंगे। केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें.
।श्री हरि।
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2> श्रम व् ऊधम कभी बुरा ना था समस्या उसे पैसे से जोड़ने के कारण उत्पन्न हुई. केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें.
पैसा कमाने के तरीको के कारण ही इतना पाप व्याप्त है. केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें. ।श्री हरि। आपको सफलता दे जो भी सेवा कार्य करें
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3>नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम,

नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम, स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त, सगुणी प्रकृति व् संस्कारित मनुष्य के बीज गुण, सदाचार व् चरित्रवान आचरण के पालन से चित्त में शान्ति का अनुभव होता है, ऐसे सदाचार को शील कहते हैं. सामान्यतया आचरणमात्र को शील कहते हैं। चाहे वे अच्छे हों, चाहे बुरे, फिर भी रूढ़ि से सदाचार ही शील कहे जाते हैं किन्तु केवल सदाचार का पालन करना ही शील नहीं है, अपितु बुरे आचरण भी शील (दु:शील) हैं अच्छे और बुरे आचरण करने के मूल में जो उन आचरणों को करने को प्रेरणा देने वाली एक प्रकार की भीतरी शक्ति होती है, उसे सु-चेतना कहते हैं। वह चेतना ही वस्तुत: 'शील' है। लोकप्रिय भाषा में इसी शील के भंग होंने से चरित्र भंग होना कहा जाता है. उकसावे के बावजूद जो अपने संयम व् आचरण से अपने को दृढ़ रख सकता हो उसे ही सु-शील व् शील कहा जाता है.
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4>।। दिव्य चाँद की किरणें ।।

एक आदमी रात को झोँपड़ी में बैठकर एक छोटे से दीये को जलाकर कोई शास्त्र पढ़ रहा था । आधी रात बीत गयी । जब वह थक गया तो फूंक मारकर उसने दीया बुझा दिया ।

लेकिन वह यह देखकर हैरान हो गया कि जब तक दीया जल रहा था, तब तक पूर्णिमा का चाँद बाहर खड़ा रहा । लेकिन जैसे ही दीया बुझ गया तो चाँद की किरणें उस झोंपड़ी में फैल गयीं ।

वह आदमी बहुत हैरान हुआ, यह देखकर कि एक छोटे से दीये ने इतने बड़े चाँद को बाहर रोेककर रखा । इसी तरह हमने भी अपने जीवन में अहंकार के बहुत छोटे-छोटे दीये जला रखे हैं, जिसके कारण परमात्मा का दिव्य चाँद बाहर ही खड़ा रह जाता है ।

हमारे अहंकार के ये बहुत से दिये यदि बुझ जायें तो परमात्मा के दिव्य चाँद की किरणें हमारे भीतर प्रवेश कर सकती हैं, अन्यथा यह दिव्य चाँद बाहर ही खड़ा रह जाता है ।

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5> एक खेल का मैदान,

आठ लडकियाँ रेस लगाने के लिए खड़ी हैं..
Ready
Steady-----और धायँ..
पिस्तौल की आवाज़ के साथ ही आठों लडकियां दौड़ पड़ती हैं..
सभी लड़कीया 5 या 6 मीटर आगे गयी होंगी की एक लड़की फिसल कर गिर जाती है और उसे
चोट लग जाती है..
दर्द के मारे वह लड़की रोने लगती है, बाकि की सातों लड़कियों को उसके रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है..
और ये क्या ..??
अचानक वो सातों लडकियाँ रुक जाती हैं, एक पल के लिए वो सभी एक दुसरे को देखती हैं और सातों वापस उस घायल लड़की की तरफ दौड़ पड़ती हैं..

मैदान में सन्नाटा छा गया, आयोजक परेशान, अधिकारी हैरान !
तभी एक अप्रत्याशित घटना घटती है
वो सातों लडकियाँ अपनी घायल प्रतिभागी को उठा लेती हैं, और फिर चल पड़ती हैं उस तरफ जहाँ जीत की रेखा खीची गयी है.. एक साथ आठों लडकियाँ उस जीत की रेखा पर पहुँच जाती है..
ये क्या लोगों की आँखों में आँसूं ?
क्यों ? किसलिए ?
मित्रों ये रेस
NATIONAL INSTITUTE OF MENTAL HEALTH
द्वारा आयोजित थी और वो आठों लडकियां मानसिक रूप से बीमार थी..
लेकिन जो इंसानियत जो मानवता, जो प्यार, जो Sportsman Ship, जो Team Work, जो समानता का भाव..
उन आठों ने दिखाया वो शायद हम जैसे मानसिक रूप से विकसित और पूर्ण रूप से ठीक नही दिखा पाते..
क्योंकि,
हमारे पास दिमाग है उनके पास नही था,
हमारे पास ईगो है उनके पास नही था,
हमारे पास Attitude है उनके पास नही था..
मित्रों,
प्यार इंसान से करो उसकी औकात से नही, रूठो उनकी बातों से उनसे नही, भूलो उनकी गलतियों को उनको नही,
रिश्तों से बढकर कुछ भी नही,
अगर दोस्त न मिलते तो ये कभी समझ नही आता, की अजनबी लोग भी अपनों से ही नही अपनी जान से
भी प्यारे हो सकते हैं...
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6>कैसे पाएं किसी संत का आशीर्वाद?

 भागवत के अंक 334 में आपने पढ़ा...इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है अब आगे...
संत के पास जब उनके दर्शनार्थ जाया जाए तो अहंकार रहित नम्र बन कर जाना चाहिए। संत पुरुष इस बात को तोड़ जाते हैं कि यह नम्रता ओढ़ी हुई है अथवा स्वाभाविक। अत: नम्रता को स्वाभाविक बनाने का, साधक को प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि साधक विद्वान है तो विद्वत्ता का अभिमान नहीं होना चाहिए। पाण्डित्य का प्रदर्शन करने, संत की परीक्षा लेने संत के पास जाओगे तो रिक्तहस्त ही वापस आओगे। 
अत्युत्तम तो यही है कि जीव में प्रभु-प्रेम की सच्ची लगन हो। बाकी सभी नम्रता, सौम्यता, निरहंकारता इत्यादि स्वाभाविक लक्षण अपनेआप प्रकट होते जाएंगे। ऐसे जीव को ही अधिकारी कहा गया है।ऐसे अधिकारी, भक्त-साधक के लिए संत अगम्य नहीं रहते। वह उनकी कृपा प्राप्त करने में, प्रभु कृपा से सफल होता है तथा परिणाम स्वरूप परम-प्रेम-रूपा भक्ति फल को प्राप्त करता है। 
अब तनिक संतों की कृपा की अमोघता पर विचार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के सामने बैठने पर शरीर को गरमी मिलेगी, जल ग्रहण करने पर पिपासा निवृत्ति होगी ही, इसी प्रकार संत की कृपा का फल परम-प्रेम-रूपा भक्ति प्राप्त होगी ही, किन्तु रात को सोया हुआ व्यक्ति सूर्योदय हो जाने के उपरांत भी सोता ही रहे तो उसे सूर्याेदय का ज्ञान ही नहीं होगा। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को संत की कृपा तथा उससे प्राप्त होने वाले फल का ज्ञान नहीं होता, उसका पता नहीं चलता।
भक्ति-शक्ति का अन्तुर्मुखी जाग्रत होना तथा क्रियाशीलता, यह दोनों एक दूसरे से भिन्न बातें हैं। संत कृपा होने पर मनुष्य को तत्काल उसका फल प्राप्त हो जाता है, किन्तु किन्हीं अवस्थाओं में उसके क्रियाशील होने में कुछ देर लग जाती है। जाग्रति का ज्ञान, उसके क्रियाशील होने पर ही होता है। तब तक भक्त पूर्ववत् निद्रावस्था में ही रहता है। इसमें उसके प्रबल विपरीत संस्कार ही कारण होते हैं। शक्ति को प्रथम, इन संस्कारों को हटाकर, चित्त को क्रिया योग्य बनाना होता है। यह भी क्रिया ही होती है जिसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।
संतों और महापुरूषों के सान्निध्य के लिए सबसे बड़ा सूत्र यह है कि वे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, वो क्या कह रहे हैं अपना मन वहां लगाएं। आजकल लोग संतों का वैभव ही देखते रहते हैं उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते। शब्दों को समझेंगे तो ही ज्ञान आएगा। जो वैभव है, संत उसके बिना भी रह सकते हैं, लेकिन अगर हम वैभव पर टिक गए तो फिर इसी के मोह में उलझकर रह जाएंगे। हम माया में फंसकर इसी को सबकुछ मान बैठेंगे। संतों का साथ अमोघ तभी होगा जब हम उनके रहन-सहन की बजाय उनके उपदेशों पर ध्यान देंगे। 
भाव यह है कि महापुरुषों की कृपा प्राप्ति का मार्ग कहीं अधिक सरल तथा निश्चित है, किन्तु इतना सरल भी नहीं कि कोई कैसा भी हो जब चाहे, जहां चाहे उसे प्राप्त कर सकता है। यदि यह कृपा कहीं एक बार प्राप्त हो जाए तो उसका फल निश्चित है, क्योंकि वह अमोघ है। इतने पर भी भक्त कभी निराश नहीं होता। उसे प्रभु पर विश्वास होता है कि वह एक न एक दिन उसे संत दर्शन भी अवश्य कराएंगे तथा उस पर कृपा भी करेंगे।
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18>शरीर ही सत्यक्या यह सत्य है+यदिशरीरसबकुछहोतातो+जीवनकीगतिबढ़ानेकेलिए+आध्यात्मिक यात्रा

 18=आ =Post=18>***शरीर ही सत्यक्या यह सत्य है***( 1 to 4 )

1--------------------------यह शरीर ही सत्य है शेष सब व्यर्थ है? क्या यह सत्य है?
2--------------------------यदि शरीर सब कुछ होता तो
3--------------------------जीवन की गति को बढ़ाने के लिए परिवर्तन?
4---------------------------आध्यात्मिक यात्रा क्यों?
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1>यह शरीर ही सत्य है शेष सब व्यर्थ है? क्या यह सत्य है?

शरीर केवल आत्मिक अनंत यात्रा का एक वाहन है जिसके बिना हम दृश्य जगत के भेद नहीं पा सकते। शरीर की अपनी महिमा है और महत्व भी और जैसे कोई भी गाडी को सुचारू रूप से चलने के लिए लगातार देखभाल की आवश्यकता होती है वैसे ही शरीर रूपी गाड़ी भी अपने प्राकर्तिक व् सहज रूप में होगी तभी हम गति व् समय समझेंगे। यदि आधा समय गाडी ख़राब है तो यात्रा अधिक दूर तक न होगी. शरीर कभी बीमार या अस्वस्थ न होगा यदि हम अपने मन को जो गाडी को बनाने व् चलाने वाला है को स्वस्थ रखें. एक स्वस्थ मन एक स्वस्थ शरीर बना सकता है.

यदि शरीर सब कुछ होता तो प्राण निकलने के बाद मृत शरीर को देख उसके प्रेम करने वाले इतना न रोते बिलखते। शरीर केवल एक वस्त्र या वाहन है जो नाशवान है पर उसमे ठहरने वाली अत्मिकसत्ता ही वास्तव सत्य व् अविनाशी सत्ता है. केवल जड़बुद्धि मूर्ख ही शरीर को एकमात्र अस्तित्व मानते हैं.

सरीर के नष्ट हो जाने के बाद वही पहचान के साथ जन्म हो ऐसा नही हो सकता। मोक्ष केवल एक विचार है जो शायद जरूरत से ज्यादा विस्तारित हुआ, जिसका अर्थ अधिकतर गलत समझा गया और उसे केवल शरीर से निकलने के बाद की अवस्था जाना गया जो की सही नहीं है. मोक्ष इसी जीवन में सम्भव है पर आसक्तियों व् वासनाओं में फंसे मन व् शरीर को इस जीवन काल में संसार की दलदल से कैसे सहजता व् बिना अशरीर हुए निकला जाए वह एक प्रश्न है जिसका हल है.

मोक्ष या स्वर्ग बेचना धर्मो द्वारा किया गया शायद किसी स्वार्थ के लिए. लेकिन हम इसी जन्म में इसी जीवन में इसी संसार में रहते बहुत कुछ बदल सकते हैं जिनका उद्देश्य इसी जीवन काल को बेहतर व् सुखी बनाना है. बौद्धिक धोखाधड़ी सभी धर्मों के लिए आम बात है पर यहाँ हम किसी धर्म या स्थापित विचारो की बात नहीं कर रहे. अध्यात्म की राह या आत्मज्ञान हर व्यक्ति के लिए नहीं है. क्यूंकि बौद्धिक डिबेट व् बहस का कभी कोई अंत नहीं होता। पर एक सुखी व् सफल जीवन के लिए इसे समझे बिना आगे बढ़ने की सोच भी उचित नहीं कही जा सकती. इसलिए इस राह पर चलने के लिए सबसे पहले अच्छी संगत, सत्य संग या सत्संग अनिवार्य है. अकेला मन भटक जाता है इसलिए भले, सुहृदय व् सद्भावना वाले मित्रो या विचारो की बहुत आवश्यकता है. गुरु तो हमारा मन है बस उसे दिशा चाहिए जो भली सोच, सत्य संग व् सुविचारों से ही सम्भव है.

प्रश्न: शरीर नाशवान है फिर हमको क्यों पता नही चलता मन के अन्दर जो प्रकाश है वो सत्य, बहार का प्रकाश मिथ्या है ध्यान अंदर के जगत के द्वार तक ले जाता है ?

जैसे दीपक तले अँधेरा होता है, वैसे ही बाह्र्य संसार की चमक दमक में खोकर जीव अपने अंदर झाँकने का प्रयत्न भी नहीं करता। थोडा बहुत तोता रटंत पाठ करने या साष्टांग कर या शरीर की सत्ता में ही रहने और उसे सब कुछ मान लेने के कारण जीव का अंतर मन तो दूर जाग्रत मन भी अपने असली स्वरुप को नहीं पहचान पाता, पर आज की व्यवस्था व् माया जाल और ऊपर से भ्रम व् संदेह ने आम आदमी को अपने नाशवान शरीर से ही जोड़ कर रखा है, मन तो एक दूर बैठा पक्षी है जिसकी चह चहाट व् क्रंदन आज के जीव को सुनती भी नहीं.

ऐसे में ध्यान एक द्वार है लेकिन केवल शरीर को पद्मासन में बिठाकर ओम कहने से ध्यान नहीं होता और इसीलिए लोग ध्यान को भी एक टेलीविज़न का कार्यक्रम समझ कर या उसे एक योगासन समझ उसे समझ नहीं पा रहे. ध्यान के द्वार व् गहन रास्ते पर चलने से पहले हमें अपने कुछ भावो, मनोस्थितिओ व् आदतो को दुरुस्त या संतुलित करना होगा और इसीलिए व् अन्य कई अध्ययन के विषयो को समझने के लिए इस साधारण तुच्छ पृष्ठ का गठन किया गया है.

इस सम्बन्ध में आगे बढ़ने के लिए कुछ निकट भविष्य में सन्देश होंगे जिन्हे आप पढ़ने का प्रयास करना अपने जीवन में अंतर परिवर्तन लाने के लिए स्वाध्याय व् आत्म निरिक्षण से अंतर जगत का आभास होगा और कुछ अभ्यास से आपको बाह्र्य जगत भी साफ़ दिखेगा और इसके भेद कोई पहेली नहीं रहेंगे।
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2>यदि शरीर सब कुछ होता तो

यदि शरीर सब कुछ होता तो प्राण निकलने के बाद मृत शरीर को देख उसके प्रेम करने वाले इतना न रोते बिलखते। शरीर केवल एक वस्त्र या वाहन है जो नाशवान है पर उसमे ठहरने वाली अत्मिकसत्ता ही वास्तव सत्य व् अविनाशी सत्ता है. केवल जड़बुद्धि मूर्ख ही शरीर को ही एकमात्र अस्तित्व मानते हैं.

शरीर के लिये काम ढूंढ़ लो मन को मन को खुशी अपने आप मिल जायेगी । जैसे जुगनू भी तभी तक चमकता है जब तक वह उड़ता रहता है, यही हाल मन का भी है उस को काम पर लगाये रखो ।

फिर सत्य का अर्थ क्या है ओर शेष सबकुछ असत्य क्यो है???

जिसका न आदि है न अंत, जो सर्वव्यापीहै, सदा है, सर्वदा है, सदानदं है, सर्वमूल है, सर्वमुल्यवान है, सर्वशक्तिशाली है, सर्वसामर्थ्यवान है, सीमाहीन है, ससीम है, सर्वमूलकारण है, कण कण मे समाया हुआ है ओर अवर्णनिय है, जिसकी महिमा का सम्पूर्ण कभी न किया जा सका हो! सिर्फ वो ही सत्य है!

प्रश्न : राम नाम सत्य है।। मरने पर ही क्यों बोलते हैं । जन्म होने पर क्यों नहीं बोलते?

इस पृथ्वी पर किसी स्थान पर एक बच्चा उत्पन्न होता है तो वह परम आत्मा परमेश्वर के होने का संकेत होता है तो लोग ख़ुशी में सब भूल जाते हैं क्यूंकि हर पैदा होने वाला बालक उसी परम आत्मा की छवि है जो जीवित शरीर में हिलती डुलती व् रोकरअपने आने को राम नाम के सत्य होने का उद्घोषक करवाती है। दुःख है के आदमी अपने गुणों या अवगुणो से प्रभावित हो कर उस ईश्वर के रूप बच्चे को अपने जैसे ही बनाना चाहते हैं और कुछ वर्षो में उसे भी अपने आदमी द्वारा सीखे या बनाये गए काल्पिनक जगत के गुण व् अवगुण सिखा कर अपने ही प्रारूप में ढाल देते हैं. तो पैदा हुआ बच्चा ईश्वर के प्रारूप में आता है.

मूर्ख, लेकिन संसारिक दृष्टि से बुद्धिमत लोग उसे आदमी बना कर छोड़तें हैं चाहे इसके लिए कितने ही झूठ बोलने पड़ें। इसीलिए ईश्वर हर दिन अपने प्रतिरूप व् प्रारूप को भेजता है पर हम अपनी नादानी और मूर्खता से उसे अपने जैसा ही बना देतें हैं. हमारी शिक्षा, हमारा झूठा, कृत्रम संसार, झूठे नकली कर्म , धर्म व् 'ज्ञान' व् अविद्या सिखा कर उसे हमारे असली वास्तविक घर व् बीज से दूर कर देते हैं. क्या हम कभी बदलेंगे ? इस कलयुग में तो ऐसा नहीं होने वाला पर जो लोग विद्या व् बीज ज्ञान को समझ जायेंगे वह इसी संसार में रहते ईश्वरीय जगत से संपर्क कर अपने वास्तविक प्रारूप को प्राप्त होंगे.

पृथ्वी पर जन्मे नाशवान शरीर के समाप्तः हो जाने पर इस हमारे दृश्य जगत या आँखों से दिखने वाले संसार से विदाई लेते हैं तो उस परम आत्मा परमेश्वर जो अविनाशी है के, हमारे लिए जाना पहचाना एक अवतरित नाम राम का ही स्मरण, इसलिए करते हैं के केवल उसी परम आत्मा का स्वरुप ही हमेशा जैसे था वैसे ही बना रहता है - बाकी सब मूरत जो बनती तो उसी की छवि से हैं - अल्पकालिक अस्थायी है - इसीलिए राम नाम ही सत्य है - यहाँ हर तरह के सम्प्रदाय व् धर्म और उनके हजारो वर्ग अपने लिए जाना पहचाना ईश्वर का नाम लेकर उसे ही सत्य बताते हैं - और यहाँ आदमी का अहंकार व् घमंड चूर चूर हो जाता है और उसके बाद आदमी के पृथ्वी के सारे रिश्ते नाते समाप्त हो जाते हैं और जब सब रिश्ते व् अहंकार ही खत्म हो तब बाकी क्या रह जाता है ? केवल एक नाम जो सदैव मरने वाले शरीर में छिपे आत्मा के अंश को रास्ता दिखायेगा ताकि वह यहाँ भटक कर इन वासनाओं व् कामनाओं वाले भू संसार में दोबारा खो न जाए इसीलिए उसे राह दिखाने के लिए - राम नाम सत्य है का मंत्र कहा जाता है.

कई केंद्रित व् समझदार जीवित लोग भी इस सत्य को समझ जाते हैं अधिकतर इसका अर्थ न समझने के कारण केवल उच्चारण ही करते हैं. जहाँ जीवित व्यक्ति दृश्य संसार के लोगो के लिए जाने वाला काल के दूसरी और चला जाता है, हमारे लिए मृत हो जाता है , वहीँ दूसरी और वही आत्मा अपने कर्मो के अनुसार एक दूसरे संसार में उत्पन्न भी होता है. मरने और जीने के बीच केवल एक पल के भी पल का अंतर होता है, जो यहाँ मृत हो गया वह दूसरे किसी संसार में उसी समय पैदा भी हो जाता है, तो एक तरह से उसका जनम भी उसी दिन होता है. कोई भी जन्मा या अजन्मा आत्मा इन पृथ्वी जैसे गृहो पर एक निश्चित सीमित अवधि के लिए ही आता है पर इस जीवनकाल का अधिक समय स्थानीय भौतिक साम्राज्य के मेले में ही खोकर गुजार देता है और पछताता है के जो कमाया सब वहीँ रह गया, जो साथ जा रहा है वह केवल उसी सर्वशक्तिमान अमृतदायी शक्ति सत्ता का कोई भी एक नाम होता है और यह नाम ही एक ऊर्जा यान का रूप धरकर आत्मा को उसकी गति अनुसार उसके गंतव्य पर पहुंचा देता है.
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3>जीवन की गति को बढ़ाने के लिए परिवर्तन?

विलासपूर्ण जीवन व् आध्यात्मिक खोज

जो व्यक्ति उत्तम जीवन बिताने का निश्चय करे उसके लिये यह आवश्यक है कि वह सब से पहले बुरा जीवन व्यतीत करना त्याग दे और उस दुष्ट अप्राकृतिक जीवन के वातावरण को बदल दे, जिससे वह घिरा रहता है। हमारा समस्त जीवन सच्चा, न्यायपूर्ण और दयालु हो तभी हमारा कोई काम सत्कार्य माना जा सकता है। यदि हमारा आधा जीवन अच्छा हो और आधा बुरा हो तो हमारे कार्य अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। पर यदि हम सर्वथा बुरा और गलत जीवन बिता रहे हैं, तो हम जो काम करेंगे वह बुरा ही हो सकता है, अच्छे काम की आशा करना ही व्यर्थ है।
जो मनुष्य भोग विलास में डूबा है वह कभी सत्यतापूर्ण जीवन नहीं बिता सकता। जब तक वह अपने जीवन में परिवर्तन नहीं करता, सत्य की ओर जाने वाली पहली सीढ़ी पर पैर नहीं रखता, तब तक सद्जीवन के लिए वह वह जो भी प्रयत्न करेगा, सब निष्फल जायेंगे। आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन को नापने का एक ही तरीका है और वह यह कि मनुष्य स्वयं या खुद को कितना प्रेम करता है और दूसरों को कितना? हम स्वयं को जितना कम प्रेम करेंगे, अपने लिए जितनी कम चिन्ता करेंगे, और अपने स्वार्थ के लिए दूसरों से जितना ही कम काम कराएंगे उतने ही उत्तम हम हो सकते हैं। दूसरों से जितना अधिक प्रेम करेंगे, हम उनके लिए जितना परिश्रम करेंगे उतना ही हमारा जीवन उत्तम माना जायगा। संसार के सभी सन्त पुरुषों ने अच्छाई का यही अर्थ बतलाया है, सभी सच्चे धार्मिक पुरुष ऐसा ही कहते हैं और आजकल जन-साधारण भी इसी सिद्धाँत को ठीक मानते हैं। मनुष्य जितना ही अधिक दूसरों को देता है और उतना ही वह श्रेष्ठ होता है। इसके विपरीत जितना ही कम वह दूसरों को देता है और अपने लिए जितना ही अधिक चाहता है, उतना ही वह ग्रसित व् स्वार्थ में लिप्त होता है।अच्छा जीवन बिताना, बुरे समय या निवेश के लिए पूंजी को बचा कर रखना बुरा नहीं है लेकिन केवल स्वार्थपूर्ण जीवन अंत में हमें कभी कुछ नहीं देता और भौतिक समृद्धि या सुख जैसे वातावरण के बावजूद सब खाली जैसा लगता है. संतुलित जीवन होना उत्तम है.
अच्छा आदमी बनने और अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य दूसरों से जितना ग्रहण करे, उससे अधिक उन्हें लौटा दे। किन्तु स्व-भोगी (अपने सुख का ध्यान रखने वाला) मनुष्य, जो ऐश आराम की जिन्दगी बिताने का अभ्यासी है ऐसा कर ही नहीं सकता।
जब आसक्तिओ से मुक्ति मिलती है सदाचार सीख लिया जाता है तो यही जीवन स्वर्ग तुल्य हो सकता है और आत्मविकास भी बहुत होगा.

आत्मिक समीक्षा में विचारों का उद्गम व् उद्देश्य ?
कुछ सन्देश केवल हमारी अबतक की धारणाओं व् विचारो को परिभाषित करने के लिए हैं. किसी भी पाठ्य कर्म में पहले भूमिका व् परिचय होता है तत्पश्चात वहां से ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ा जाता है.
उसी तरह धीरे धीरे जो कुछ हमने अब तक सुना और शास्त्रो ने बताया उसकी जानकारी प्राप्त करते हैं उसके बाद साथ साथ आत्मिक अनुभूतिओं की भी चर्चा करते हैं. अधिकांश लोग व्यस्त होने के कारण सब भूल जाते हैं इसलिए कुछ विचारो को परिभाषित करना भी आवश्यक है. ये सन्देश प्रत्यक्ष मेरी आत्मा की अनुभूति से आप तक पहुँच रहें हैं.
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4>आध्यात्मिक यात्रा क्यों?

भारतवर्ष अपने आध्यात्मिक ज्ञान के लिए प्रसिद्ध ही नहीं रहा पृथ्वी पर मनुष्य सभ्यता का शीर्ष रहा है । आज से नहीं हजारों वर्ष से यहाँ के साधु और ज्ञानी देश और विदेशों में सम्मान के पात्र रहे हैं। सिकन्दर जैसे सम्राट ने भी यहाँ के साधुओं के सामने मस्तक झुकाया था। इस युग में भी स्वामी दयानंद, विवेकानंद, रामतीर्थ व् अन्य दर्जनो मनीषिओ ने भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान का उत्कर्ष दिखाकर दूर-दूर के भूखण्डों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है। यही कारण है कि इस देश की अनपढ़ जनता ही नहीं वरन् समझदार विद्वान व्यक्ति भी आध्यात्मिकता का नाम सुनकर सहज ही उस तरफ आकर्षित हो जाते हैं और अध्यात्मज्ञानी कहलाने वाले व्यक्तियों को श्रद्धा तथा भक्ति की भावना से देखते हैं।समय के प्रभाव से भारतीय अध्यात्म में बहुत परिवर्तन हो गया है और उसमें तपस्वी व्यक्तियों के बजाए स्वार्थी और ढोंगी व्यक्ति बहुत मात्रा में घुस गये हैं। यह नहीं कि ऐसा आजकल ही होने लगा है। किसी समय में सभी साधु वेशधारी महात्मा थे। हम मानते हैं कि साधुवेश धारियों में वास्तविक महात्माओं की संख्या सदैव बहुत थोड़ी रही है। पहले साधारण साधुओं का उद्देश्य पेट भरने तक ही सीमित रहता था आजकल जिस प्रकार अन्य अनेक विषयों में मनुष्यों ने ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग कर नकली चीजों का रूप कुछ प्राकर्तिक चीजों से बढ़कर बना दिया है, उसी प्रकार आध्यात्मिकता के क्षेत्र में भी कुछ ढोंगी लोग सच्चे लोगों से आगे बढ़ गये और दुष्कर्म करके धार्मिकता और आध्यात्मिकता का नाम बदनाम कर रहे हैं। ऐसे ढोंगी और ठगने वाले महापुरुषों जैसे दीखते लोग इतने चालाक हो गये हैं भण्डाफोड़ होने पर भी कुछ सुप्त लोगों की आँखें नहीं खुलतीं, दुष्प्रभाव ये है की लोग अंधभक्ति में आत्मिक उन्नति में पिछड़ से गए और पुरानी मान्यताओ को ही सच समझते रहे, जरुरी नहीं के अगर कोई "ज्ञान" पुराना लगता है तो वो सत्य ही हो.
आप अपने आत्मज्ञान को जाग्रत कर अपने आस पास के लोगों को जगाएं। याद रखें के अधिकतर सन्यासी व् साधु बहुत निर्मल व् भले हैं. लेकिन कोई अपनी यात्रा में कहाँ है ये कोई नहीं जान सकता. कभी कभी भी किसी को बुरा भला न कहें। धर्म ध्वज को ऊपर लहराए रखें और भारत वर्ष अपने आप ठीक हो जाएगा यदि हम अपने आप को जान सकें और अपने अंतर में परिवर्तन लाएं.

आध्यात्मिक यात्रा का क्या लाभ हो सकता है?
ये दुनिया ठीक चल रही है अगर ऐसा हो तो अधिकतर लोग इतने दुःख में क्यों हैं?
जब हम काम क्रोध व् लालच की बात करते हैं तो हम इन्हे अपने नियंत्रण में रखने की बात करते हैं अगर ऐसा नहीं होता तो आदमी अपना नियंत्रण खोकर इन्ही विकारो चक्र व्यूह में फंसा समाप्त हो जाता है. जब आसक्तिओ से मुक्ति मिलती है सदाचार सीख लिया जाता है तो येही जीवन स्वर्ग तुल्य हो सकता है और आत्मविकास भी बहुत होगा.

कृपया न भूलें के यदि आप इस पृष्ठ के संदेशो को पढ़ते हैं तो इसके सन्देश को भलीभांति ग्रहण करते हैं तो आप अपने आत्मिक उत्थान की और अग्रसर हो सकते हैं, यहाँ नो तो कोई लालच, स्वार्थ या कोई छिपा कारण है. ये सब आत्मा की अनुभूति अनुभव हैं और उद्देश्य केवल विलासिता, झूट मूठ के सुख व् इस कृत्रम संसार के सत्य को उजागर कर अपने आप को अंतर जगत की और उन्मुख करना है जिसका लाभ आपके न केवल इस जीवन बल्कि आत्मा की लम्बी यात्रा में सहायक हो सकता है. यहाँ पर न कोई दुकान है न कुछ बेचने के लिए. आपके जीवन में उजाला हो, प्रसन्नता हो, आपके अंतर्मन में संतोष हो और आपका जीवन सुखमय हो यह ही मेरी कामना है.
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17>संसारसमस्यानहीं+अंतकरणकीज्योतिकोदेखाजासकता+चमत्कार व् तपकाभेद+गुरुअंतरमें

17=आ =Post=17>***संसारसमस्यानहीं***( 1 to 4 )

1------------------------ संसार समस्या नहीं है
2-------------------------क्या अंतकरण की ज्योति को देखा जा सकता है ?
3-------------------------चमत्कार व् तप का भेद
4-------------------------गुरु हमारे ही अंतर में है
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1> संसार समस्या नहीं है

संसार समस्या नहीं है वह तो प्रकृति है जो माया जाल है समस्या केवल उसमे रहने वाले जीव की है जो हम हैं शरीर या शरीर के पर यानि अशरीर किसी भी स्थिति में हमें ही इस पहेली को समझना है और उसका हल भी
हमारे ही अपने अंदर है यदि आप कुछ सन्देश और पढ़े तो आपको इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा - ऐसी मेरी आशा और प्रार्थना है
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2>क्या अंतकरण की ज्योति को देखा जा सकता है ?

ज्योत व् उसका प्रकाश ध्यान लगाने पर केवल अंतर्मन ही "देख" सकता है.

एक स्थिति ऐसी होती है जहाँ अंतर्मन ही कार्यरत होता है उस स्थिति में प्रकाशित ज्योति केवल अंतकरण के चक्षु ही देख सकते हैं. ज्योति अपने ही प्रकाश में इतनी प्रज्जवलित होती है के उसे देखने के लिए बाह्र्य आँखे काम नहीं करतीं।

प्रश्न ये नहीं के ज्योत दिखे या नहीं, क्यूंकि एक दिन अपने आप उसे अनुभूत कर सकते हैं, और कुछ अवस्थाओं में बाह्र्य संसार या अस्थायी माया अंधकार सा लगने लगता है. इस स्थिति में आप शून्यस्थ होते हैं पर शुद्धतम अवस्था केवल तभी सम्भव है जब मन में छिपी या रहने वाली मलिनता सम्पूर्ण रूप से स्वच्छ हो.

ध्यान कैसे लगाएं और इसके बाद क्या होता है?
ध्यान व् एकाग्रता के स्थायित्व होने पर क्या होता है, क्या परिवर्तन आते हैं हमारे जीवन में, इसका वर्णन अगले लेख में. ध्यान की प्रक्रिया और उसमें कैसे स्थापति हों इसकी पूर्ण व्याख्या दो तीन लेखो में होगी. कृपया प्रतीक्षा करें.
स्मरण रहे के ध्यान लगाने से पहले कुछ विशेष परिवर्तन अनिवार्य नहीं तो आवश्यक हैं जिनकी जानकारी कुछ दिनों में चर्चा करेंगे.
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3>चमत्कार व् तप का भेद

चमत्कारों की इस युग की कसौटी यह है कि कौन व्यक्ति , वस्तु या घटना किस हद तक सदुद्देश्यपूर्ण, मानवता की सेवा करने वाली एवं धर्म मर्यादा के अनुकूल है। पिछले समय में साधु महात्माओं के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की मान्यता जन साधारण में रही है कि जो जितना पहुँचा हुआ फकीर-सिद्ध, महात्मा होगा, वह उतना ही चमत्कार दिखला सकेगा। इस गलत कसौटी के कारण अनेक सत्पुरुष, जो अपनी सत्य निष्ठा पर कायम रहे, जनता में सम्मान प्राप्त न कर सके और न किसी पर अपना प्रभाव जमा सके। इस असफलता से खिन्न होकर कई सत्पुरुषों ने मौन स्वीकृति से अपने चमत्कार होने की बात स्वीकार कर ली, और अनेक अपने भक्तों द्वारा गुण गाथा गाये जाने से सिद्ध बन गये, कुछ ने तो जान बूझकर इस प्रकार का आडम्बर स्वयं बना लिया। धूर्तों की इस अज्ञानान्धकार में खूब बन आई। आज भी अनेक साधु और महात्मा नामधारी ऐसे ही अड्डे जगह-जगह लगाये बैठे हैं।
सौभाग्यवश यह अज्ञानान्धकार का युग अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है और महापुरुषों की महानता का मूल्याँकन दूसरी कसौटी पर किया जाने लगा है। चमत्कारों की पुरानी, खोटी कसौटी पर तो केवल अज्ञान और धूर्तता की वृद्धि होना ही संभव है।

तप एक विज्ञान है और प्रत्येक विज्ञान एक शक्ति उत्पन्न करता है। कोई भी साधारण साधक या विशेष तपस्वी यदि साधना करता है, तो निश्चित है कि उसे अपने परिश्रम के अनुकूल आत्मबल प्राप्त होगा। जिस प्रकार बुद्धिबल, बाहुबल, धनबल, संगठनबल, पुण्यबल आदि बलों के द्वारा अनेक प्रकार की सफलताएं और परास्त और समृद्धि को वरण किया जा सकता है, उसी प्रकार तप द्वारा उत्पन्न आत्मबल के बदले में भी भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दान आदि का यही रहस्य है। तप-साधना का विज्ञान यही है कि कोई मनुष्य चाहे तो स्वयं परिश्रम करके तप-शक्ति एकत्रित करे, या कोई तपस्वी किसी के दुख पर द्रवित होकर अपना पुण्यफल उसे दान करके सुखी बना दे। बस इतनी ही तप-शक्ति की मर्यादा है।

जो व्यक्ति लोगों को आश्चर्य में डालने वाली करामातें दिखाते हैं वे या तो धूर्त या मूर्ख होते हैं। एक दो करामात दिखाने में ही वर्षों की संचित तपस्या व्यय हो जाती है। केवल बाजीगर जैसा कौतुक करने में कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपनी तपस्या के फल को निरर्थक नष्ट करेगा यह बात समझ में नहीं आती। यदि कोई करता है तो उसे अवश्य महामूर्ख समझा जायगा। अन्यथा ऐसे व्यक्ति में धूर्तता का छिपा होना निश्चित है। इस प्रकार की अगणित घटनाओं का भंडाफोड़ होते रहने के कारण जनता अब बहुत सतर्क हो गई है और उसने अपने महानता नापने के गज को ठीक कर लिया है। अब जनता उन व्यक्तियों तथा कार्यों में महानता का दर्शन करना चाहती है जिनमें स्वार्थत्याग, आत्मसंयम, परोपकार, लोकहित का कुछ अंश पाया जाता है

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4> गुरु हमारे ही अंतर में है

i गुरु हमारे ही अंतर में है जो इस शरीर व् मन को चलाने वाला है. हम उस "सुप्त" गुरु को कैसे
आवेदन करें के वह हमारा मार्ग दर्शन करे - उसी क्रिया को क्रियान्वित करने के लिए यह पृष्ठ प्रकाशित किया गया है. गुरु जरुरी नहीं के आपके सामने ही हो या पुस्तको के माध्यम से आपके पास आये. जब आप जाग्रत होने की इच्छा रखेंगे गुरु जाग्रत होगा और आपके सम्मुख होगा.

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16>से कौन सोता+कौन जागता+एकाग्रता व् ध्यान+ब्रह्म है+आप भी जाल में फंसी+बहुमूल्य वस्तु क्या

16>आ =Post=16>***से कौन सोता+कौन जागता***( 1 to 6 )

1---------------------वास्तव में सुख से कौन सोता है? कौन जाग्रत है?
2---------------------कौन जागता है अथवा जाग्रत है?
3----------------------मन की एकाग्रता व् ध्यान?
4----------------------प्रत्येक आत्मा का अंश अव्यक्त ब्रह्म है।
5----------------------क्या आप भी जाल में फंसी मकड़ी जैसे तो नहीं?
6----------------------जीवन की सबसे कीमती व् बहुमूल्य वस्तु क्या है ?
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1>वास्तव में सुख से कौन सोता है? कौन जाग्रत है?

वास्तव में सुख से कौन सोता है? कौन जाग्रत है?
दो प्रश्न हैं और उनका उत्तर है जिनकी संक्षिप्त व्याख्या दो भागो में करते हैं .
पहले प्रश्न पर चलते हैं, दोनों का उत्तर पढ़ना आवश्यक है इस पूरी स्थिति को समझने के लिए.
वास्तव में कौन है जो समाधि निष्ठ हो कर सुख से सोता है?

वही व्यक्ति अथवा सत्ता जो परमात्मा के स्वरुप में हमारे ही अंतकरण में स्थित या स्थापित है! परमात्मा का एक "स्वरुप" ही हम हैं और वह ही सब करता है. "हम" कौन हैं फिर? "मै जो जाग्रत अवस्था में सोचता है, करता है, जिसे भूख प्यास लगती है हमारा अहंकार है जो हमें इस शरीर से जोड़कर उसी को "मै - हम" बना देता है. पर आत्मिक ज्ञान होने पर जब सब दीखता है तो ज्ञात होता है के जिस सत्ता को हम "मै " समझते थे, वह तो केवल एक हाड मांस का एक शरीर है जिसे चलाने वाला वही अंतकरण में स्थापित देव मूर्त परम आत्मा है; जिसे हम अनदेखा कर, इस शरीर व् मायावी संसार के चक्कर में, पाप पर पाप करते चले जाते हैं. याद रखे के इसीलिए हम सुख से नहीं सो पाते, क्यूंकि हमने पापो का इतना बोझ पीठ पर लाद रखा है के हम दुःख में ही रहते हैं पर जब हम उस अंतर स्थित स्थापित सत्ता से जुड़ जाते हैं और इस संसार के मायावी रूप के लबादे को उतार कर, हलके फुल्के हो जाते हैं; अपने पाप कर्मो पर दृष्टि डालते हैं तब हम जिस स्थिति व् अवस्था में होंगे वहां न कोई चिंता होगी न किसी पाप कर्म का बोझ होगा न कभी न पूरी होने वाली इच्छाओ, स्वरूपी राक्षसो का भय होगा, तब हम अपने उस स्वरुप में सम्मलित होकर एक ही रूप में होंगे और वह ही हमारा वास्तविक रूप है, ये जो दीखता है वह तो उसी स्वरूप के भावो का प्रत्यक्ष प्रतिरूप है. जब इस बाहरी रुप को उस आंतरिक स्वरुप से जोड़ देंगे तो हमें इस संसार से कोई विशेष लालच ,मोह या जुड़ाव नहीं रहेगा. इसीलिए "मै " और "सत्ता" सुख से सोएँगे.

+ कौन जागता है के लिए दूसरा भाग पढ़े

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2>कौन जागता है अथवा जाग्रत है?

वही व्यक्ति जिसे सत्य व् असत्य का विवेक व् ज्ञान है. प्रश्न उठेगा के सत्य क्या है व् असत्य क्या है ?
जो जो दृश्य आँखों से दीखते हैं वो असत्य है !
वह जो हमारा आंतरिक स्वरूप व् अंतकरण में स्थित सत्ता देख रही है, वह ही सत्य है!

अब बाहरी दृश्य देखने वाला मन पूछेगा ये कैसे हो सकता है ये जो दिख रहा है - ये सत्य क्यों नहीं है? ये सत्य नहीं है, ये केवल दृश्य जगत का आभास है, प्रकृति है, जड़वत माया है; जो भौतिक, रासायनिक पदार्थो व् तत्वों का सम्मोहन मात्र है - इसे केवल एक अर्ध मूर्ख, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मूर्ख, ही सत्य कहेगा. जो आपको इस प्रकृति के दृश्यों को सच बताता हो, उसका आदर सत्कार करना पर उसकी बात को स्वीकार न करें.
सत्ता जो इस प्रकृति व् तत्वों के माया जाल को चलाती है, केवल वह ही सत्य देख पाती है.
तो उस सत्य को पहले देखना होगा, जब तक आप उस सत्य को न देख पाएं, आपको सब सच पता है इस अहंकार में पड़े रहने से आप अपने को सिद्ध न कर पाओगे।
ये सत्य नहीं है जो दिख रहा है.
जो घटित हो रहा है, और घटित करने वाली सत्ता ही सत्य है और जो कर्म व् परिवर्तन कर रही है वह ही सत्य है. जब तक आप उस सत्ता में स्थापित न होंगे, सत्य को देख पाने की बाते करना मूर्खता नहीं तो क्या है?
तो ये जो लोग अपने को सत्य - सच देखता बता रहें हैं उनमे और जड़वत वृक्ष, या ऊँठ, बैल या चिड़िया में कोई अधिक अंतर नहीं है.

अब आते हैं असत्य पर। असत्य क्या है? यहाँ तक यदि आपका चित "मेरे" साथ है तो असत्य को झूठ, फरेब; एक मूर्ख शरीर या जीवन की समझ न रखने वाले, "चिंतक" विचारक की दृष्टि से सांसारिक सच समझने वाले इस संसार के मूर्खो का सत्य है। बोलो स्वामी मूर्खानंद की जय. बोलो झूठे भगवन, ईश्वर, खुदा व् गॉड को बेचने वाले दुकानदारो की जय.

यह संसार जो हमारे आसपास घटित हो रहा है, ये जो आज हमें लग रहा है के कुछ चल रहा है या कुछ "हो" रहा है, परिवर्तनशील समय है जो मनुष्य के समय को नापने का एक उपकरण मात्र है, चित या चेतक सत्ताओ का कार्य शील मंच है, जो लगता है के जैसे वो हम हैं. ये कार्य शील कार्य रत्त चेतन या अचेतन इस प्रकृति में विचरण करते आत्मा हैं जो अपने पूर्व कर्मो के अनुसार, अपने उपयुक्त समय के अंश में, अपने निर्णय ले कर, जो करते हैं पर हमें ऐसा प्रतीत मात्र होता है के हम कर रहें हैं, ही असत्य है.
तो असत्य हमें दीखता है जिसे हम अपने द्वारा निर्मित या कार्यान्वित सत्य समझते हैं वह ही सत्य जैसा माया है, 'हमारी' स्थिति एक मकड़ी जैसी है जो लगातार जाल बुन रही है, यह जाल जितना अधिक गहरा और जटिल होगा, उतना ही जटिल उसमे से निकलना होगा।
हमें भूलना नहीं चाहियें के इस जीवन का उद्देश्य मूर्खतापूर्वक अपने को या किसी को भी किसी जाल में बुनना या फंसाना नहीं है अपितु इस बहुमूल्य जीवन रूपी विचरण व् अवस्था को अपने आप को जानने में लगाना है और सब जानकार अपने अंतर चित को ध्यान लगा कर अपने पूर्व कर्मो का समाधान ढूंढकर उनका प्रायश्चित करना है ताकि हम उन पूर्व कर्मो को, अच्छे या बुरे, अपने आत्मा के केंद्र से एक एक कर दूर करते रहें.

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3>मन की एकाग्रता व् ध्यान?

चित्त को एकाग्र करके किसी एक वस्तु पर केन्द्रित कर देना ध्यान कहलाता है। ध्यान एक क्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने मन को चेतना की एक विशेष अवस्था में लाने का प्रयत्न करता है। ध्यान का उद्देश्य कोई लाभ प्राप्त करना हो सकता है या ध्यान करना अपने-आप में एक लक्ष्य हो सकता है। 'ध्यान' से अनेकों प्रकार की क्रियाओं का बोध होता है। इसमें मन को विशान्ति देने की सरल तकनीक से लेकर आन्तरिक ऊर्जा या जीवन-शक्ति, प्राण का निर्माण तथा करुणा, प्रेम, धैर्य, उदारता, क्षमा आदि गुणों का विकास आदि सब समाहित हैं।
ध्यान की अवस्था में ध्यान करने वाला अपने आसपास के वातावरण को तथा स्वयं को भी भूल जाता है। ध्यान करने से आत्मिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है। जिस वस्तु को चित मे बांधा जाता है उस मे इस प्रकार से लगा दें कि बाह्य प्रभाव होने पर भी वह वहाँ से अन्यत्र न हट सके, उसे ध्यान कहते है।
ध्यान से हमे अपने जीवन का उद्देश्य समझने में सहायता मिलती है। इसी तरह किसी कार्य का उद्देश्य एवं महत्ता का सही ज्ञान हो पाता है।
मन की यही प्रकृति है कि वह छोटी-छोटी अर्थहीन बातों को बडा करके गंभीर समस्यायों के रूप में बदल देता है। ध्यान से अर्थहीन बातों की समझ बढ जाती है; हम उनकी चिन्ता करना छोड देते हैं; सदा बडी तस्वीर देखने के अभ्यस्त हो जाते हैं।
मन शान्त होने पर उत्पादक शक्ति बढती है; शरीर की रोग-प्रतिरोधी शक्ति में वृद्धि, रक्तचाप में कमी, तनाव में कमी, स्मृति-क्षय में कमी (स्मरण शक्ति में वृद्धि), वृद्ध होने की गति में कमी जैसे लाभ होते हैं।

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4>प्रत्येक आत्मा का अंश अव्यक्त ब्रह्म है।

बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है

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5>क्या आप भी जाल में फंसी मकड़ी जैसे तो नहीं?

क्या आप भी जाल में फंसी मकड़ी जैसे तो नहीं? एक महत्वपूर्ण सूचना आपके भविष्य के लिए ?

भारत में १९९० तक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में उपभोग पर इतना जोर नहीं दिया जाता था क्यूंकि लोगो में अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने में ही अधिक समय लगता था. १९९१ के बाद भारत के लोगो को उपभोक्ता बनाने के लिए प्रयास शुरू हुए और अगर आप ध्यान लगाए तो देखेंगे के जो आदमी या परिवार उपभोग के चक्करव्यूह में एक बार फंसगया उसकी स्थिति जाल में फंसी मकड़ी जैसी हो जाती है।
आज भारत के ४० % लोग पूर्ण रूप से उपभोक्ता बन चुके हैं. रेडियो,टीवी व् छपा मीडिया व् झूट और अफवाहों द्वारा एक चित्र बनाया जाता है जिसमे आपको कुछ लुभावने दृश्य दिखाए जाते हैं के कैसे आपका जीवन एक मनोरम व् सुंदर आरामदायक स्वर्ग बन जायेगा, लेकिन याद रखें की हर चीज़, वस्तु व् सेवा का उपभोग अगर एक छोटी ख़ुशी देने का वायदा करता है , उसके बदले में वो ३ या ५ गुना दुःख भी देकर जाएगा।
यह याद रखे और प्रयास करें व् एक सूची तैयार करें और देखें के ८६% उपभोग के सामान व् सेवाएं आपको कभी भी कोई सुख नहीं दे पायीं बल्कि उनसे दुःख अधिक मिला है. ये छोटे छोटे सुख या "मजा" जो विज्ञापन प्रेरित करते हैं , ये केवल शरीर तक ही सीमित हैं
और इनसे कभी कोई "आनंद" प्राप्त नहीं होगा. यद्यपि आरम्भ में लगेगा के बहुत सुख और "मजा" आया लेकिन उसके पीछे छिपे दुःख आप कभी देख नहीं पाते। यदि आप चिरस्थायी अनंत आनंद को चाहते हैं तो आज से अपने को भोक्ता, उपभोक्ता व् चक्करव्यूह में फंसी मकड़ी बनाने की अपेक्षा, अपने को इन उपभोग के संसाधनो से दूर रखने की चेष्टा करें; आप देखेंगे के आपके जीवन की ८६% मुसीबते, दुःख व् गन्दी आदतो की समाप्ति होनी आरम्भ होगी.
भारत के लोगो को जिन झूठे सपनो को दिखाकर कुछ मक्कार व् चालाक लोग अपने आप को कुबेर बनाने में लगे हैं और ये पूरा तंत्र व् "सिस्टम" केवल आपको गुलाम, दास बनाकर आपसे जीवन भर कोल्हू के बैल, जिसके गले में फंदा डालकर १२ घंटे कोल्हू के चक्के को उठाकर, एक छोटे दायरे या परिधि में घुमा कर काम करवाया जाता था, की तरह काम लिया जायेगा. कृपया इस विषय पर विचार करे.
इन झूठे, चमकते लोगों, विज्ञापनों, टीवी के कार्यक्रमों व् कहानिओं को सच ना समझें, ये सब हमें भ्रमित कर हमें अपने चंगुल में फंसाने के उपाय हैं जो चालाक और पापी प्रवृति के लोगो द्वारा कल युग की अति माया वादी संस्कृति का तामसिक जाल हैं. कृपा कर इस पुरे प्रकरण को अपने जीवन का भाग नहीं बनाएं। इन सब संसाधनो व् व्यवस्था के ताने बाने में आपको कभी कोई संतोष या आनंद प्राप्त नहीं होगा.
आज से इस बात पर मनन करें के क्या आप एक उपभोक्ता बन चुके हैं या बनने की श्रेणी में हैं या आप इस पर पहले से ही प्रश्न कर रहे थे.
मैंने इस संसार के कई चक्कर लगाए, निर्धन से "अति विकसित" देशो व् समाजो को बहुत पास से देखा और मुझे आज तक कोई उपभोग में रचा बसा समाज खुश नहीं दिखा। भारत एक अति विकसित व् स्वयं निर्भर समाज था और इसे उपभोक्ता बनाकर जो जाल बुना जा रहा है
उसका अंत बहुत बुरा होगा। आज जो अपने को विकसित व् बहुत उन्नत हैं उन समाजो की दरिद्रता केवल एक अंतर्मन से जाग्रत आत्मा ही देख
सकता है. आज जितने भी महा विकसित कहे जाने वाले देश हैं वह कर्जे में दबे, बीमारियो के शिकार, अति दुखी उपभोक्ता हैं जहाँ ख़ुशी को भौतिक सामान व् वस्तुओं में तलाशने के प्रयास किये जाते हैं, परन्तु वहां अँधेरे, नाकामी, अवसाद, निराशा व् शक्तिहीनता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता।
अपने को इस माया जाल से मुक्त करें.
अपने शरीर को उपभोग व् भोग की वस्तुओं से छुटकारा दिलाएं और ऐसा करने पर आत्मा तक पहुँचने का रास्ता आसान होगा.
कृपया सोचें, अपने मित्रो व् प्रिय लोगो को इस सन्देश को पहुंचाए और अपने को इस मायावादी राक्षस भौतिकवाद निर्मित उपभोग संस्कृति
से मुक्त करें.

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6>जीवन की सबसे कीमती व् बहुमूल्य वस्तु क्या है ?

हमारे वर्तमान जीवन की एकमात्र संपत्ति समय है जिसे उतना ही पकड़ा जा सकता है जितना अपने हाथों में मुट्ठी भर पानी पकड़ सकते हैं.

अपने समय का दुरुपयोग न करें नहीं तो समय हमसे दुर्व्यवहार व् हमारा ही दुरूपयोग करेगा।

हो सकता है जो समय हम उपयोग में नहीं ला रहे वह समय का भाग शायद दोबारा वहां हो ही नहीं; जब हमें उसकी सख्त आवश्यकता पड़ेगी।
ये जो समय "हमारा" है ये हमारे हाथ में सदैव नहीं रहने वाला न ये कोई कीमती धातु या पत्थर की भांति किसी तिजोरी में बंद कर के रखा सकता है के चलो आज तो हम इसे रख दें या गवां दे, कल इसे फिर से प्रयोग में लाएंगे.. कल जो आने वाला है उसमे यह समय की पूँजी जो आज हाथ में है वहां नहीं होगी.
ये पूंजी केवल दिन में अर्थात आज के दिन में सिर्फ एक बार ही मिलेगी. ये जो आज है न ये बड़ा बेशकीमती है ये जमाने व् दुनिया भर की दौलत भी नहीं खरीद पायेगी। इसकी कीमत व् मूल्य सिर्फ वह ही जान सकता है जिसने सिर्फ कुछ मिनटों या घंटो के कारण अपना बहुत या सब कुछ खो दिया हो. इससे ज्यादा कीमती व् बहुमूल्य वस्तु आप के हाथ कभी नहीं आ सकती।
आज जो प्रेम अपने अंदर है आज जो सोच, विचार व् अच्छा अवसर हमारे मन या हाथ में है कल वो वहां नहीं मिलने वाला।
इसलिए उठो अपनी एकमात्र मूल्यवान परिसंपत्ति का मूल्य जानो व् इसकी कीमत का आकलन करना सीखो। जिसका पूर्णअधिकार अभी अपने हाथ में है
ये जो पैसा रुपया, कीमती चीज़े या आदमी की बनाये वस्तुएं हैं ये तो कभी भी खरीदी जा सकती हैं और सदैव कहीं न कहीं से प्राप्त हो जाएंगी पर मूल्यवान समय कहीं नहीं मिलेगा किसी भी कीमत पर.
मात्र सस्ते या महंगे मनोरंजन, बेकार गतिविधियों, चीजों के संग्रह, या कब्जे या अस्थायी सपनों का या किसी सुन्दर सूरत का पीछा करते हुए इस जीवन के कीमती मोती बरबाद मत करो। यह सब जल पर बहते अस्थायी बुलबुले हैं.
इस जीवन को और इस आज के इस पल व् टाइम, वक़्त या समय को जीवन को देखने व् समझने के लिए एक अवसर के रूप में देखें अब तक की गलत या अवांछनीय शिक्षाओं को अपने अंतर्मन से निकाले कर फेंके, जो गुजर चुका , अच्छा या बुरा उसे भुला दें, और फिर ध्यान देते हैं अंतर्मन के ध्यान पर जिसका वास्तविक लक्ष्य जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के लिए नजर डालना हैं। आत्मा का ज्ञान ही असली ज्ञान है. शेष जो भी है वो यूँ ही गुजर जाएगा जिसका कोई वास्तविक मूल्य न रहेगा, पर आत्मिक ज्ञान प्राप्त होने पर जीवन में एक खजाना मिलेगा जो आपकी स्थायी पूंजी व् निधि होगी जो कभी
कोई भी न चुरा सकेगा न मिटा सकेगा. अगर आप अपने जीवन में सम्पूर्ण बदलाव लाने के लिए उत्सुक हों तो मेरे साथ विचार व् मनन करें और धीरे धीरे आपको एक ज्योति दिखने लगेगी जो अंतकरण की यात्रा करते हुए ब्रह्म ज्ञान तक भी ले जा सकती है.
इस आध्यात्मिक प्रक्रिया को करने से आप अपने सारे लक्ष्य सिद्ध कर सकते हैं और अपने और अपने आसपास के वातावरण को अर्थपूर्ण बना सकते हैं.

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15>परमात्मा कौन+उसनेसबकुछदियामगर मेरेहाथछोटे+सुंदरतारंग में नहीं+बुद्धिसे ईश्वरप्राप्ति+जड़भरत

15>आ =Post=15>***परमात्मा कौन***( 1 to 5 )

1---------------------यह परमात्मा कौन है?
2---------------------उसने तो सब कुछ दिया था मगर मेरे ही हाथ छोटे निकले
3---------------------सुंदरता किसी रंग में नहीं होती
4---------------------बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि
5---------------------जड़भरत नामक एक अति आध्यात्मिक पुरुष
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1>यह परमात्मा कौन है?

महान आत्मा के रूप में जाना जाता है यह आत्मा का वास्तविक स्वरुप ही है

ये कहाँ है?

स्वयं के चेतन मन से थोड़ा दूर आप के भीतर आपसे अनजान आपके अंतकरण में ही है.

इसे कैसे देखते हैं?
भौतिक शरीर की आँखें इसे नहीं देख पाती यद्द्पि इसका विस्तार प्रति क्षण दीखता रहता है. अंतकरण, अपने भीतर की आंख है , अथवा भीतर आत्मा की आँखें, अपनी बाहरी आँखे बंद करें, जब आप बाहरी विस्तार और भौतिक पदार्थ की दुनिया से निकल जाए तो एक छोटा सा रास्ता एक बहुत ही शांत और ठन्डे हरे भरे वातावरण में ले जायेगा जहाँ नीले और बैंगनी प्रकाश के ऊपर अंत में एक सफ़ेद प्रकाश का एक मंदिर होगा जहाँ पहुँच कर सब अति शांत हो जाता है मन यहीं समाप्त होगा और आत्मा का स्वरुप प्रकट होता है ।
यहाँ का विस्तार बहुत विशाल और अंतहीन है और यहाँ सशरीर विचरण तभी सम्भव है जब आप अंतकरण को जागृत रखें.

इस संसार रूपी अपार समुद्र में मुझ डूबते के लिए कौन सा आश्रय है?
सम्पूर्ण जगत के परमात्मा के केंद्र के अप्रकाशित प्रकाश का एक छोटा सा अंश भी एक नौका के समान है जो एक बार पकड़ ले तो आपको कभी डूबने नहीं देगा।

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2>उसने तो सब कुछ दिया था मगर मेरे ही हाथ छोटे निकले 

उसने तो सब कुछ ठीक ही किया था // मै ही अपने रस्ते से हटता दिशा बदलता रहा

उसने तो कोई बेवफाई न की थी मगर // मेरी ही मोहब्बत में कमी रहती रही

लीला लौकिक अलौकिक उसी की थी // मै उसे अपना चमत्कार समझता रह गया
मै मूर्ख समर्पित न कर सका उसे सब कुछ // एक खाली बर्तन जैसा रह गया

वहां से तो निर्मल झरने जैसे निकला था // हर रास्ते में गंदगी उँड़ेलता रह गया
तूने मुझे अपनापन दिया प्रेम से भरे रखा // मै ही नफरत के जहर पी पी कर बेहोश होता रह गया

तूने जगत के हर कण में जगमग भर दी // मै अपने अंधेरो में ही फंसा रह गया
तूने संसार के हर कोने को संगीतमय कर दिया // एक बांसुरी से लाखो सुर निकले
इक तार से हजार स्वर निकले // कण कण में वाद्य हर बूँद में गीत छिपे
तेरे पल पल में लय और सुर ताल है // मै बेसुरे राग अलाप्ता रह गया

तूने अपनी रहमत और दया की बारिश कर दी लेकिन // मै ही बेजान चीज़ो से घर भरता रहा
दरवाजे पर आये भिक्षुक रूप को भगाता रह गया // तूने कितने रूप दिखाकर मुझ भटके को रास्ता दिखाना चाहा
मै आत्मा पर बड़े बोझ तले दबा सा रह गया

तूने मुझे पंख दिए उड़ने को उंचाईयो पर /मै संसार की गहराईओं में उड़ना सीखता ही रह गया
तू तो स्वयं ही मुझ में समाया था हर पल हर समय // मै ही मंदिरो मस्जिदो में माथा रगड़ता रह गया।

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3>सुंदरता किसी रंग में नहीं होती

रंग केवल आंतरिक आत्मिक सुंदरता को परिभाषित करते हैं. // सुंदरता किसी व्यक्ति, समय, स्थान में नहीं होती
वह केवल हमारी आत्मा की आँखों में होती है // जिसे हम सुंदरता समझते हैं वह हमारी उस समय की
आवश्यक्ता व् लालसा होती है, इसलिए बाहरी सुंदरता के पीछे भागना // मूर्खता का बोध है।
सुंदरता को बाहरी दो आँखों से कभी ना देखें // अपने अंदर की सुंदरता को खोजने के लिए ध्यान लगाएं
पहले कृष्ण अंधकार को समझे और उसकी स्थायी सुंदरता को देखें
तत्पश्चात लाल रंग को लाएं, फिर नारंगी रंग को देखें // उसके बाद पीतवर्ण, सुवर्ण पीले रंग को ध्यान में लाएं
धीरे धीरे कुछ दिनों के बाद आपको पीले से हरे सब्ज रंग में जाना है
इसके बाद समुद्र और आकाश के नीले रंग को ध्यान में लाएं // एक फूल की पँखुडिओ और उनकी चमक को देखें
केंद्रित मन से आप अपने अंदर छिपी सुंदरता को जब देखना आरम्भ
करेंगे तो बाहर फैली सुंदरता ऐसे दिखेगी जैसे कहीं मिटटी गारे में दबा हीरा // छिप्पा होता है.

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4>बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि


भाई जी बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि आप को ज्ञान और ज्ञान व् अविद्या का भेद पता हो. आज जितने भी कथित धर्म जो बेचे जा रहें हैं ये सब मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट यानि बनाये गए उत्पादन हैं जो पहले से ही जड़ व्यक्ति को और अधिक जड़ बनाते हैं. इसी बुद्धि को दुरूपयोग में ला ये मजहब रिलिजन व् धर्म बेचने वाले साधारण मनुष्य को मूर्ख सिद्ध करते हैं. इसलिए बुद्धि पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वास्विक गहन ज्ञान जब होगा तो बुद्धि यदि आत्मिक अंश
को समझ उसे अनुभूत करने का प्रयास करे तो ऐसा संभव है. आत्मिक चैतन्य मनुष्य की साधारण बुद्धि से बहुत पर एक अलग डायमेंशन या संसार है
जहाँ स्थूल विचार व् दृश्य या झूठ मूठ के धर्म आदि न हों और इसमें प्रवेश करने के लिए सत्यत बुद्धि के छोटे से दायरे से निकलना बहुत आवश्यक भी है और
आवश्यकता भी. इसलिए बाह्र्य व् झूट मूठ के इस संसार के अधिकतर प्रपंच आदमी को और जड़ बनाने के लिए कुछ मूर्ख प्राणिओ द्वारा रचित नाटक हैं
जो लगते तो सच हैं पर वो खोखले व् मिटटी के ढेर जैसे हैं. इसीलिए आत्मिक यात्रा को शरीर व् इसी साधरण बुद्धि से तुलनात्मक रूप में भी नहीं देखा जा सकता. ये एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हम सभी को बहुत मनन करना है और आडम्बरो से लिप्त इस प्लास्टिक सुंदरता वाले संसार से पीछा छुड़ाना है.

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5> जड़भरत नामक एक अति आध्यात्मिक पुरुष

एक दूसरे युग में जड़भरत नामक एक अति आध्यात्मिक पुरुष हुए. जैसे शराब का नशा तामसिक और अन्न का नशा रजस उसी तरह वैराग्य व् अध्यात्म का नशा सात्विक होता है. जड़भरत के परिवार व् मित्र उन्हें नकारा समझते थे, वह कैसे उनकी दुनिया को समझ सकते थे ! एक बार जड़भरत जी अपने वैराग में कहीं चले जा रहे थे और कुछ डाकू उन्हें बलि देने के लिए जबरदस्ती पकड़ कर अपने सरदार के पास ले गए । जड़भरत जी ने कोई विरोध नहीं किया पर उनके मुख से तेज व् प्रकाश के होने से उन्होंने सोचा के इन्ही महापुरुष से दिखने वाले व्यक्ति की बलि देने से देवी खुश होगी।
डाकू के पुरोहित बने ठग ने उन्हें मारने के लिए, भद्रकाली देवी को पुकारा, प्रार्थना कर एक भयानक कटार निकाली, जड़भरत जी ने इस पर भी कोई प्रार्थना नहीं की, और वह मुस्कुराते रहे के चलो ईश्वर के दर्शनों का समय आया है, आत्मा के तेज प्रकाश की ज्वाला इतनी तीव्र थी की देवी तक उनका तेज पहुँच गया और उसी समय देवी प्रकट हो गयी और उन्हें उन मूर्ख व् जड़बुद्धि बलि देने वालो को अपने क्रोध से श्राप दिया और अपने उच्च ज्वलित रूप से उन्होंने सारे दुष्ट दस्यु गिरोह के शरीरो को समाप्त कर दिया। देवी ने जड़भरत जी से कोई वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने सोचा और मना करने लगे; तब देवी के कहने पर उन्हें उन डाकुओ को जीवित करने का वरदान माँगा। देवी जो धरती जैसे मानवीय गृह में इस प्रकार के देव पुरुष को देख कर चकित थी, उसने मांगे गए वरदान को पूर्ण किया.
अपने प्राण लेने वाले दुष्टो के प्रति यह दया व् सद्भावना देखकर सभी डाकू दहाड़े मार मार कर बालको की तरह रो पड़े, अपने अपने हथियार फेंके और साध लिया के उस समय पश्चात कोई अपराध या किसी को भी दुःख नहीं देंगे, उनके पैरो पड़े और क्षमा मांगी।
भगवत गीता में भी जड़भरत की चर्चा की गई है.
इन्ही त्यागी जड़भरत जी एक बार एक राजा के यहाँ नौकरी के लिए रखे गए और उन्हें राजा की पालकी उठाने वाले कहार का काम दिया गया अब एक आध्यात्मिक जगत में रहने वाले बेचारे साध को किसी बात की चिंता नहीं थी जो भी मिलता ठीक था.
एक बार राजा की पालकी लिए कहार चले तो जड़भरत जी नीचे देख देख कर चल रहे थे कहीं कोई जीव पैरो तले न दब जाये इस प्रकार वे देख देख कर चलने के कारण बाकी कहारों से उनकी चाल से मेल न होने से पालकी उलटी सीधी होने लगी और डगमगा उठी.
अब राजा को ये देख बहुत बुरा लगा और क्रोध में आ कर कहार को बुरा भला कहा और उसे मार डालने की धमकी दी। जड़भरत जी पर राजा की क्रोध पूर्ण बात का कोई असर न हुआ और बोले : " हे राजन, कौन ऊपर है कौन नीचे है , मुझ पर पालकी है, और आप पालकी पर, आप पर छत , और छत पर आकाश, मारेंगे तो किसे मारेंगे ? आत्मा तो अजर अमर है और ये शरीर तो नाशवान है "
राजा रहुगुण जी इन शब्दों को सुनकर अपनी पालकी से वहीँ कूद पड़े, और उन्हें आगे कुछ बात की और उन्हें पता लगा के बहुत गलती हो गयी है ये तो महात्मा हैं कहार के रूप में और झट से उनके चरणो में गिर पड़े और ज्ञान की भीक देने की प्रार्थना की।
जड़भरत जी को राजा पर दया व करुणा आई और उन्हें उपदेश दिया, राजा को आत्मिक भेद व अध्यात्मिक जीवन की गहराईओं का ज्ञान हुआ और राजा ने वैराग्य लेकर परम आत्मा की प्राप्ति की.
इस संसार के पदार्थो में आसक्ति ना होना ही वैराग्य होता है. वैराग का अर्थ केवल घर संसार छोड़ना या पीले, भगवे वस्त्र पहनना नहीं है बल्कि इस संसार के सभी सुखो, साधनो व् पदार्थो के होने या न होने या होते हुए भी उनमे आसक्ति व मोह का ना होना ही वास्तविक वैराग्य है.

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