Thursday, February 18, 2016

13>शाबरमंत्र=संतानसम्बन्धी प्रयोग+शाबरमंत्र+स्तोत्र+तंत्र निवारण+तंत्र में बलि +भूत, प्रेत+काला जादू”+अघोर पंथ

13>आ =Post=13>***शाबरमंत्र***( 1 to 14 )

1----------संतान सम्बन्धी कुछ प्रयोग
2----------सर्वकार्य साधक शाबरमंत्र
3----------ॐ श्री काल भैरव बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मंत्र
4-----------तंत्र निवारण प्रयोग
5-----------तंत्र में बलि की प्रमुख्यता क्यों?
6-----------भूत, प्रेत और मसान बाधा के लिए एक अनुभूत प्रयोग
7-----------काला जादू”
8-----------Aअघोर पंथ सनातन धर्म का एक संप्रदाय है।
9-----------अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है।
10----------अघोरपंथ =अघोरपीठ बाबा कीनाराम स्थल
11----------अघोरियों की रहस्यमयी दुनिया के बारे में जान उनसे डरने लगेंगे आप!
12----------अघोर पंथियों के 10 तांत्रिक पीठ
13----------कैसे आती है अघोरियों में इतनी शक्ति, मुर्दे भी देते है उनके सवालो के जवाब?
14-----------शिव के उपासक होते हैं अघोरी साधु, जानिए 12 अन्य रहस्यमय तथ्य

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शाबरमंत्र
1>संतान सम्बन्धी कुछ प्रयोग

 आजकल संतान का खराब हो जाना आम समस्या हो गई उसी के लिय आज कुछ प्रयोग लिख रहा हूँ|

🌷जब ये निश्चय हो जाय की स्त्री गर्भ से है तो उसके बाजू पर लाल धागा बाँध दे जो चमकीला न हो और बच्चे के जन्म के बाद वो धागा बच्चे को बाँध दें और माता को नया धागा बाँध दें| ये धागा फिर अगले अठारह महीनों तक बंधा रहने दे|

🌷ये रक्षा बंधन कहलाता है | इस से मिस्ग्रेज होने या जन्म लेकर बच्चे की मृत्यु होने की सम्भावना काफी हद तक कम हो जाती है|

🌷ये सन्तान की आयु विरधी करता है|

केतु के अधिपति गणेश जी है इसिलिय सन्तान के विघ्न से रक्षा के लिय गणेश जी की पूजा करे|अपने परोसे गये भोजन में से तिन भाग निकालकर एक भाग गाय को एक कुत्तों को और एक भाग कवों को डाले | संतान सुख के लिय ये सबसे उत्तम उपाय है|

🌷जब प्रसव समय नजदीक हो तो एक बर्तन में दूध डालकर और कुछ चीनीकिसी पुडिया आदि में डालकर जच्चा का हाथ लगवाकर रख लें| प्रसव आसानी से हो जाएगा | जन्म के बाद वो बर्तन किसी मन्दिर में दूध और चीनी समेत रख आये|

🌷यदि वर्षफल में राहू मंदा हो और संतान से सम्बन्धित दिक्कत होने की सम्भावना हो तो एक सफेद रंग की बोतल में पानी और जो डालकर घर में रखे| बच्चा खराब नही होगा और प्रसव आसानी से होगा |

🌷यदि किसी के बच्चे न बचते हो तो जन्मदिन पर मिठाई न बांटे बलिक नमकीन बांटे|
🌷कुतिया एक समय में कई बच्चे पैदा करती है जिसमे से कुछ मर जाते है| ऐसे में किसी कुतिया का केवल एक ही पिला नर जीवित बच्चे और बिना सन्तान वाला इंसान उसे पाल लें तो उसके सन्तान होने के योग प्रबल हो जाते है|
🌷मित्रों ये साधरण से दिखने वाले कारगर उपाय है जिन्हें करकेआप लाभ प्राप्त कर सकते हैं .
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2>. सर्वकार्य साधक शाबरमंत्र


कई बार व्यक्ति की समृद्धि अचानक रुष्ट हो जाती है,सारे बने बनाये कार्य बिगड जाते है,जीवन की सारी खुशिया नाराज सी लगती हैं,जिस भी काम में हाथ डालो असफलता ही हाथ लगती है.घर का कोई सदस्य जब चाहे तब घर से भाग जाता है,या हमेशा गुमसुम सा पागलों सा व्यवहार करता हो,तब ये प्रयोग जीवन की विभिन्न समस्याओं का न सिर्फ समाधान करता है अपितु पूरी तरह उन्हें नष्ट ही कर देता और आने वाले पूरे जीवन में भी आपको सपरिवार तंत्र बाधा और स्थान दोष ,दिशा दोष से मुक्त कर अभय ही दे देता हैं.

जीवन मे कितनी विकट स्थिति हो ओर कितनी ही परेशानी हो

अगर आप इस मन्त्र का हर रोज केवल 10 मिंट जाप करते हो तो कोई भी संकट नहीं रहेगा.

घर मे क्लेश हो यो उपरी बढ़ा हो आप खुद को असुरक्षित मह्सुश करते हो। या ओर कोई परेशानी हो तो भी घर मे सुख समृधि के लिये इस मन्त्र का जाप करे .. .

शाबरमंत्रशक्ति का एक बहुत ही शक्तिशाली मन्त्र :

मन्त्र :
ओम नमो आदेश गुरु का।

वज्र वज्रि वज्र किवाड़ वज्र से बांधा दशो द्वार, जो घात घाले उलट वेद वाही को खात ,

पहली चोकी गणपति की, दूजी चोकी हनुमंत की ,तीजी चोकी भैरव की ,

चौथी चोकी रोम रोम रक्षा करने को नृसिंह जी आयें ,

शब्द साचा पिण्ड काचा फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।।

. इस मन्त्र की महिमा अपरंपार है ..... चाहो तो आजमा कर देख लो ....... पूरे शाबर मन्त्र साहित्य मे शायद ही कोई इस मन्त्र से शक्ति शाली मन्त्र हो इस मन्त्र के 100 से अधिक प्रयोग हैं.
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3>.ॐ श्री काल भैरव बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मंत्र


ॐ अस्य श्री बटुक भैरव शाबर स्तोत्र मन्त्रस्य सप्त

ऋषिः ऋषयः, मातृका छंदः, श्री बटुक भैरव

देवता, ममेप्सित कामना सिध्यर्थे विनियोगः

ॐ काल भैरु बटुक भैरु ! भूत भैरु ! महा भैरव

महा भी विनाशनम देवता सर्व सिद्दिर्भवेत .

शोक दुःख क्षय करं निरंजनम, निराकरम

नारायणं, भक्ति पूर्णं त्वं महेशं. सर्व

कामना सिद्दिर्भवेत. काल भैरव, भूषण वाहनं

काल हन्ता रूपम च, भैरव गुनी.

महात्मनः योगिनाम महा देव स्वरूपं. सर्व

-सिद्ध्येत. ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु ! महा भैरव

महा भय विनाशनम देवता. सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ त्वं ज्ञानं, त्वं ध्यानं, त्वं योगं, त्वं तत्त्वं, त्वं

बीजम, महात्मानम, त्वं शक्तिः, शक्ति धारणं

त्वं महा देव स्वरूपं. सर्व सिद्धिर्भवेत. ॐ काल भैरु,

बटुक भैरु, भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता. सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ कालभैरव ! त्वं नागेश्वरम नाग हारम च त्वं वन्दे

परमेश्वरम, ब्रह्म ज्ञानं, ब्रह्म ध्यानं, ब्रह्म योगं,

ब्रह्म तत्त्वं, ब्रह्म बीजम महात्मनः, ॐ काल भैरु,

बटुक भैरु, भूत भैरु, महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता! सर्व सिद्दिर्भवेत.

त्रिशूल चक्र, गदा पानी पिनाक धृक ! ॐ काल

भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु, महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता! सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं विना गन्धं, विना धूपम,

विना दीपं, सर्व शत्रु विनाशनम सर्व

सिद्दिर्भवेत विभूति भूति नाशाय, दुष्ट क्षय

कारकम, महाभैवे नमः. सर्व दुष्ट विनाशनम सेवकम

सर्व सिद्धि कुरु. ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु,

महा भैरव महा भय विनाशनम देवता! सर्व

सिद्दिर्भवेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं महा-ज्ञानी , त्वं महा-

ध्यानी, महा-योगी, महा-बलि, तपेश्वर !

देही में सर्व सिद्धि . त्वं भैरवं भीम नादम च

नादनम. ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु, महा भैरव

महा भय विनाशनम देवता! सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ आं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ! अमुकम मारय मारय,

उच्चचाटय उच्चचाटय, मोहय मोहय, वशं कुरु कुरु.

सर्वार्थ्कस्य सिद्धि रूपम, त्वं महा कालम ! काल

भक्षणं, महा देव स्वरूपं त्वं. सर्व सिद्ध्येत. ॐ काल

भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु, महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता! सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं गोविन्दं गोकुलानंदम !

गोपालं गो वर्धनम धारणं त्वं! वन्दे परमेश्वरम.

नारायणं नमस्कृत्य, त्वं धाम शिव रूपं च. साधकं

सर्व सिद्ध्येत. ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु,

महा भैरव महा भय विनाशनम देवता! सर्व

सिद्दिर्भवेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं राम लक्ष्मणं, त्वं श्रीपतिम

सुन्दरम, त्वं गरुड़ वाहनं, त्वं शत्रु हन्ता च, त्वं यमस्य

रूपं, सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु. ॐ काल भैरु, बटुक

भैरु, भूत भैरु, महा भैरव महा भय विनाशनम देवता!

सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं ब्रह्म विष्णु महेश्वरम, त्वं जगत

कारणं, सृस्ती स्तिथि संहार कारकम रक्त बीज

महा सेन्यम, महा विद्या, महा भय विनाशनम .

ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु, महा भैरव महा भय

विनाशनम देवता! सर्व सिद्दिर्भवेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं आहार मध्य, मांसं च, सर्व दुष्ट

विनाशनम, साधकं सर्व सिद्धि प्रदा.

ॐ आं ह्रीं ह्रीं ह्रीं अघोर अघोर, महा अघोर,

सर्व अघोर, भैरव काल ! ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत

भैरु, महा भैरव महा भय विनाशनम देवता! सर्व

सिद्दिर्भवेत.

ॐ आं ह्रीं ह्रीं ह्रीं, ॐ आं क्लीं क्लीं क्लीं, ॐ आं

क्रीं क्रीं क्रीं, ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं, रूं रूं रूं, क्रूम क्रूम

क्रूम, मोहन ! सर्व सिद्धि कुरु कुरु. ॐ आं

ह्रीं ह्रीं ह्रीं अमुकम उच्चचाटय उच्चचाटय, मारय

मारय, प्रूम् प्रूम्, प्रें प्रें , खं खं, दुष्टें, हन हन अमुकम

फट स्वाहा, ॐ काल भैरु, बटुक भैरु, भूत भैरु,

महा भैरव महा भय विनाशनम देवता! सर्व

सिद्दिर्भवेत.

ॐ बटुक बटुक योगं च बटुक नाथ महेश्वरः. बटुके वट

वृक्षे वटुकअं प्रत्यक्ष सिद्ध्येत. ॐ काल भैरु बटुक भैरु

भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम देवता सर्व

सिद्दयेत.

ॐ कालभैरव, शमशान भैरव, काल रूप कालभैरव !

मेरो वैरी तेरो आहार रे ! काडी कलेजा चखन

करो कट कट. ॐ काल भैरु बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव

महा भय विनाशनम देवता सर्व सिद्दयेत.

ॐ नमो हँकारी वीर ज्वाला मुखी ! तू दुष्टें बंध

करो बिना अपराध जो मोही सतावे, तेकर

करेजा चिधि परे, मुख वाट लोहू आवे. को जाने?

चन्द्र सूर्य जाने की आदि पुरुष जाने. काम रूप

कामाक्षा देवी. त्रिवाचा सत्य फुरे,

ईश्वरो वाचा . ॐ काल भैरु बटुक भैरु भूत भैरु !

महा भैरव महा भय विनाशनम देवता सर्व

सिद्दयेत.

ॐ कालभैरव त्वं डाकिनी शाकिनी भूत

पिसाचा सर्व दुष्ट निवारनम कुरु कुरु साधका-

नाम रक्ष रक्ष. देही में ह्रदये सर्व सिद्धिम. त्वं

भैरव भैरवीभयो, त्वं महा भय विनाशनम कुरु . ॐ

काल भैरु बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय

विनाशनम देवता सर्व सिद्दयेत.

ॐ आं ह्रीं. पश्चिम दिशा में सोने का मठ, सोने

का किवार, सोने का ताला, सोने की कुंजी,

सोने का घंटा, सोने की संकुली.

पहली संकुली अष्ट कुली नाग को बांधो.

दूसरी संकुली अट्ठारह कुली जाती को बांधो.

तीसरी संकुली वैरी दुष्ट्तन को बांधो,

चौथी संकुली शाकिनी डाकिनी को बांधो,

पांचवी संकुली भूत प्रेतों को बांधो,

जरती अग्नि बांधो, जरता मसान बांधो, जल

बांधो थल बांधो, बांधो अम्मरताई,

जहाँ जहाँ जाई,जेहि बाँधी मंगावू,

तेहि का बाँधी लावो. वाचा चुके, उमा सूखे,

श्री बावन वीर ले जाये, सात समुंदर तीर.

त्रिवाचा फुरो मंत्र , ईश्वरी वाचा. ॐ काल भैरु

बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता सर्व सिद्दयेत.

ॐ आं ह्रीं. उत्तर दिशा में रूपे का मठ, रूपे

का किवार, रूपे का ताला,रूपे की कुंजी, रूपे

का घंटा, रूपे की संकुली. पहली संकुली अष्ट

कुली नाग को बांधो. दूसरी संकुली अट्ठारह

कुली जाती को बांधो.

तीसरी संकुली वैरी दुष्ट्तन को बांधो,

चौथी संकुली शाकिनी डाकिनी को बांधो,

पांचवी संकुली भूत प्रेतों को बांधो,

जरती अग्नि बांधो, जरता मसान बांधो, जल

बांधो थल बांधो, बांधो अम्मरताई,

जहाँ जहाँ जाई,जेहि बाँधी मंगावू,

तेहि का बाँधी लावो. वाचा चुके, उमा सूखे,

श्री बावन वीर ले जाये, सात समुंदर तीर.

त्रिवाचा फुरो मंत्र , ईश्वरी वाचा. ॐ काल भैरु

बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता सर्व सिद्दयेत.

ॐ आं ह्रीं. पूरब दिशा में तामे का मठ, तामे

का किवार, तामे का ताला,तामे की कुंजी,

तामे का घंटा, तामे की संकुली.

पहली संकुली अष्ट कुली नाग को बांधो.

दूसरी संकुली अट्ठारह कुली जाती को बांधो.

तीसरी संकुली वैरी दुष्ट्तन को बांधो,

चौथी संकुली शाकिनी डाकिनी को बांधो,

पांचवी संकुली भूत प्रेतों को बांधो,

जरती अग्नि बांधो, जरता मसान बांधो, जल

बांधो थल बांधो, बांधो अम्मरताई,

जहाँ जहाँ जाई,जेहि बाँधी मंगावू,

तेहि का बाँधी लावो. वाचा चुके, उमा सूखे,

श्री बावन वीर ले जाये, सात समुंदर तीर.

त्रिवाचा फुरो मंत्र , ईश्वरी वाचा. ॐ काल भैरु

बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता सर्व सिद्दयेत.

ॐ आं ह्रीं. दक्षिण दिशा में अस्थि का मठ,

तामे का किवार,

अस्थि का ताला,अस्थि की कुंजी,

अस्थि का घंटा, अस्थि की संकुली.

पहली संकुली अष्ट कुली नाग को बांधो.

दूसरी संकुली अट्ठारह कुली जाती को बांधो.

तीसरी संकुली वैरी दुष्ट्तन को बांधो,

चौथी संकुली शाकिनी डाकिनी को बांधो,

पांचवी संकुली भूत प्रेतों को बांधो,

जरती अग्नि बांधो, जरता मसान बांधो, जल

बांधो थल बांधो, बांधो अम्मरताई,

जहाँ जहाँ जाई,जेहि बाँधी मंगावू,

तेहि का बाँधी लावो. वाचा चुके, उमा सूखे,

श्री बावन वीर ले जाये, सात समुंदर तीर.

त्रिवाचा फुरो मंत्र , ईश्वरी वाचा. ॐ काल भैरु

बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता सर्व सिद्दयेत.

ॐ काल भैरव ! त्वं आकाशं, त्वं पातालं, त्वं

मृत्युलोकं, चतुर भुजम, चतुर मुखं, चतुर बाहुम, शत्रु

हन्ता त्वं भैरव ! भक्ति पूर्ण कलेवरम. ॐ काल भैरु

बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता सर्व सिद्धिर भवेत् .

ॐ काल भैरव ! तुम जहाँ जहाँ जाहू, जहाँ दुश्मन

बेठो होए, तो बैठे को मारो, चालत होए

तो चलते को मारो, सोवत होए तो सोते

को मरो, पूजा करत होए तो पूजा में मारो,

जहाँ होए तहां मरो वयाग्रह ले भैरव दुष्ट

को भक्शो. सर्प ले भैरव दुष्ट को दसो. खडग ले

भैरव दुष्ट को शिर गिरेवान से मारो. दुष्तन

करेजा फटे. त्रिशूल ले भैरव शत्रु चिधि परे. मुख

वाट लोहू आवे. को जाने? चन्द्र सूरज जाने

की आदि पुरुष जाने. कामरूप कामाक्षा देवी.

त्रिवाचा सत्य फुरे मंत्र ईश्वरी वाचा. ॐ काल

भैरु बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय विनाशनम

देवता सर्व सिद्धिर भवेत् .

ॐ काल भैरव ! त्वं. वाचा चुके उमा सूखे, दुश्मन मरे

अपने घर में. दुहाई भैरव की. जो मूर वचन झूठा होए

तो ब्रह्म का कपाल टूटे, शिवजी के तीनो नेत्र

फूटें. मेरे भक्ति, गुरु की शक्ति फुरे मंत्र

ईश्वरी वाचा. ॐ काल भैरु बटुक भैरु भूत भैरु !

महा भैरव महा भय विनाशनम देवता सर्व

सिद्धिर भवेत् .

ॐ काल भैरव ! त्वं.भूतस्य भूत नाथासचा,भूतात्म

ा भूत भावनः, त्वं भैरव सर्व सिद्धि कुरु कुरु. ॐ

काल भैरु बटुक भैरु भूत भैरु ! महा भैरव महा भय

विनाशनम देवता सर्व सिद्धिर भवेत् .

ॐ काल भैरव ! त्वं ज्ञानी, त्वं ध्यानी, त्वं

योगी, त्वं जंगम स्थावरम त्वं सेवित सर्व काम

सिद्धिर भवेत्. ॐ काल भैरु बटुक भैरु भूत भैरु !

महा भैरव महा भय विनाशनम देवता सर्व

सिद्धिर भवेत् .

ॐ काल भैरव ! त्वं वन्दे परमेश्वरम, ब्रह्म रूपम,

प्रसन्नो भव. गुनी महात्मानं महादेव स्वरूपं सर्व

सिद्दिर भवेत्.


प्रयोग :


१. सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर पीपल


की डाल वाम हस्त में लेकर, नित्य २१ बार पाठ


करने से शत्रु क्षय होता है.


२. रात्रि में पश्चिमाभिमुख होकर उपरोक्त


क्रिया सिर्फ पीपल की डाल दक्षिण हस्त में


लेकर पुष्टि कर्मों की सिद्धि प्राप्त होती है,


२१ बार जपें.


३. ब्रह्म महूर्त में पश्चिमाभिमुख तथा दक्षिण हस्त


में कुश की पवित्री लेकर ७ पाठ करने से समस्त


उपद्रवों की शांति होती है.


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4>तंत्र निवारण प्रयोग

यह प्रयोग बहुत ही तीक्ष्ण और प्रभावसालि है।। इसके करने से दूकान मकान या किसी भी व्यक्ति पे किया अभिचार ख़त्म हो जाता है।।रात शमशान गया तो किसी और काम से मगर इस मंत्र को सिद्ध कर डाला।। एक बुराई करने गया था वहा एक
अच्छा मंत्र मिल गया।।

किसी भी दिन लाल वस्त्र धारण करे उत्तर दिशा में मुँह करके रात्री 10 बजे के बाद ये प्रयोग करे।।रुद्राक्ष की माला और इसमें 108 रक्त गूंजा की जरुरत पड़ती है।।21 माला का प्राबधान है ।।पहले गुरु पूजन करे गणेश पूजन कर 21 माला मंत्र जाप करे।।जब जाप खत्म हो जाए तो अग्नि जलाकर 108 आहुति रक्त गूंजा की आहुति दे।। और अगले सारी सामग्री किसी बहते पानी में या कुए नदी तालाब में बहा दे ।।इस मंत्र को करने में बहुत बेचैनी हो सकती घबराहट हो सकती है लेकिन घबराये ना बस गुरु का नाम लेकर करे सबका कल्याण होगा
मंत्र---

ॐ क्रीं धू फट ।।
ॐ kreeng dhoom fat।।
मात्र यही मंत्र है

इस मन्त्र को शिद्ध करने के बाद प्रयोग किस प्रकार करना हे केवल अपने लिए करना हे या फिर सिद्ध करने के बाद दूसरे दुखी इंसान की भी मदद कर सकते हे ।

और यदि दूसरे के लिए कर सकते हे तो किस प्रकार करना हे कृपया बताए गुरूजी जिज्ञासा ख़त्म करे।
जय महाकाली
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5>तंत्र में बलि की प्रमुख्यता क्यों?

हिंदू धर्म में सिर्फ़ वाम मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिसमें त्याग की बात कम कही गई

है और बलि पर अधिक से अधिक ज़ोर दिया गया है। यहाँ मैं बलि और त्याग में

जो एक महीन अन्तर है वह पहले व्यक्त करता हूँ।
त्याग का मतलब है किस को छोड़ देना परन्तु अगर मौका मिले तो फ़िर से त्याग
की गई वस्तु वापस अपनाई जा सकती है। सनातन धर्म के अधिकतर संप्रदाय में त्याग को महत्त्व दिया गया है। परन्तु सिर्फ़ वाम मार्ग में बलि को प्राथमिकता
दी गई है। बलि क्यों?? बलि का मतलब होता है किसी का अंत। इसलिए तंत्र में
बलि की महत्वता है। क्योंकि बलि की गई वस्तु वापस नही आ सकती है। त्याग
की गई वस्तु को वापस अपनाया जा सकता है पर बलि देने के बाद हम उस वस्तु को
पहले के सामान कभी भी अपना नही सकते।
आम साधक बलि का सही भावार्थ नही समझ पाते हैं। बलि को हमेशा किसी प्राणी के अंत से ही देखा जाता है। परन्तु सही रूप में बलि तो हमें अपने अन्दर छिपे
दोष और अवगुणों का देना चाहिए। वाम मार्ग में तथा तंत्र में एक सही साधक हमेशा
अपने अवगुणों की ही बलि देता है। हमेशा भटके हुए साधक, जिन्हे तंत्र का पूरा
ज्ञान नही है वह दुसरे जीवों की बलि दे कर समझते हैं की उन्होंने इश्वर को
प्रसन्न कर दिया। पर माँ काली का कहना है की उन्हे साधक के अवगुणों की बलि
चाहिए ना की मूक जीवों की। त्यागी व्यक्ति को हमेशा यह भय रहता है की कही वह अपनी त्याग की गई वस्तु,
आदत को वापस न अपना लें। इसलिए त्यागी संत या साधक पूरी तरह से निर्भय
नही हो पाते हैं। परन्तु तांत्रिक साधक जब बलि दे देता है तो वह भयहीन हो जाता
है। इसलिए वह बलि देने के बाद माँ के और समीप हो जाते है।
यदि एक उच्च कोटि का साधक बनना है तो बलि देने की आदत जरुरी है। बलि
का मतलब यहाँ हिंसा से कभी भी नही है। एक सफल साधक साधना में लीनं होने के लिए निम्न प्रकार की बलि देता है:
१> निजी मोह की बलि देता है।
२> निजी वासना की बलि देता है।
३> लज्जा की बलि देता है।
४> क्रोध की बलि देता है।
इसलिए त्याग से उत्तम बलि देना होता है। जो मनुष्य गृहस्थ आश्रम में है तथा सामान्य भक्ति करते हैं वह अपने जीवन में अगर कुछ हद तक मोह,वासना,ईष्या, और
क्रोध की बलि दें तो वह इश्वर के समीप जा सकते है और उनका जीवन सफल होता
है।

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6>भूत, प्रेत और मसान बाधा के लिए एक अनुभूत प्रयोग

मित्रो अक्सर बहुत सारे ग्रुप्स में लोगो को भूत प्रेत या मसान बाधा से सम्बंधित प्रश्न पूछते देखता हूँ । आज उसके लिए ही एक ऐसा अनुभूत प्रयोग प्रस्तुत कर रहा हूँ जो यदि अपने ठीक से किया तो कुछ ही दिनों में पीड़ित व्यक्ति इन बाधाओं से मुक्त हो जायेगा नहीं तो जब तक आपको कोई सही व्यक्ति उपचार करने के लिए नहीं मिल जाता यानि कोई असली साधक या तांत्रिक तब तक ये फर्स्ट ऐड का काम अवश्य करेगा इसकी १००% गारंटी है ।

अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें और यदि पीड़ित ज्यादा कष्ट में हो तो किसी भी दिन कर सकते हैं । इसके लिए हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। । घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।

हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी लेकर गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावा लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस बत्ती को तिल के तेल थोडा सा चमेली का तेल मिलकर दिए में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूप भी जलाएं ।

जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी सिद्ध होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे या प्रसाद चढ़ाएंगे सुन्दरकाण्ड का पाठ कराएँगे आदि । फिर हनुमान जी की पंचोपचार पूजा करें फिर जो आटे का दिया अपने बनाया था वो जलाएं , गुग्गुल की धूप दें गुलाब के पुष्प हनुमानजी को अर्पित करें । अब अपनी सुरक्षा के लिए एकादश मुख हनुमान कवच का पाठ करें और फिर शुद्ध उच्चारण से यानि जोर जोर से बोलते हुए हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है अर्थात १०८ जप करने हैं । कुछ भी हो जाये पाठ बीच में छोड़कर उठाना नहीं है साथ में एक लोटे में जल रख लें । जप पूर्ण होने के पश्चात् इस जल के छींटे पीड़ित व्यक्ति पर डालें, उसे पिलायें, पूरे घर में डालें और घर के सब सदस्य इसे पियें इसमें समय अवश्य लगेगा पर इसका असर अतुलनीय है । बजरंगबली की कृपा हुई तो पीड़ित व्यक्ति या आपका घर उस पीड़ा से मुक्त हो जायेगा यदि कहीं कुछ कमी रह गयी हो फिर भी ये इतना असर करेगा की आपकी समस्या में फर्स्ट ऐड का कम करेगा इसके बाद जब तक कोई उचित ज्ञानी व्यक्ति न मिल जाये प्रतिदिन बजरंग बन का तीन बार नियमित पाठ करते रहें ।

गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।

यदि किसी असाध्य रोग से ग्रसित हों या कोई भी पीड़ा या कष्ट जिसका समाधान न मिल रहा हो उसके लिए ये प्रयोग अवश्य करें ।

इस प्रयोग से सम्बंधित किसी जानकारी या अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी अथवा समस्या निराकरण के लिए
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7>काला जादू”

अफ्रीका के जुलू कबीले में शताब्दियों पहले से एनर्जी को अपनी इच्छानुसार चला सकने की कला मौज़ूद रही है। अगर आपका इस कबीले की पुरानी पीढ़ी से कभी संयोगवश मुलाकात हो जाए तो आप उनकी इस अनोखी कला से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकेंगे। क्या करते हैं इस कबीले के लोग, जिससे उनसे मिलने वाला इंसान अचरज में पड़ जाता है?
“काला जादू” हां सही सुना आपने काला जादू करते हैं यहां के लोग। लेकिन ये काला जादू उनके लिए कोई करिश्मा नहीं केवल मौज़-मज़े की बात है। ये बात दिगर है कि बाहरी दुनिया से यहां आने वाले लोग इसके पूर्ण असर में आकर इसे कला न मान कोई दैवीय शक्ति समझ बैठते हैं।

काले जादू के संदर्भ में हमसे कई लोग पूछते हैं। उनकी जिज्ञासा कई बार बड़ी भोली होती है, जैसे कि क्या ऐसी कोई विधा वाकई मौज़ूद है? क्या काले जादू के इस्तेमाल से किसी की जान ली सकती है या फिर काले जादू से वशीकरण-सम्मोहन किया जा सकता है आदि-आदि.....

ऐसे सभी जिज्ञासुओं को हमारा एक जवाब हमेशा मिलता रहा है कि आप काला जादू को किसी करिश्मे की तरह देखने की बजाय एक बेहतरीन कला की तरह देखो तभी जाकर आप इसके लाभ को समझ सकोगे अन्यथा की स्थिति में आप केवल भ्रमित होकर अपना नुकसान कर बैठोगे।

ऊर्जा चक्रण एक वर्तुल की तरह होता है जिसे आप अपने प्रयासों से गति दे सकते हैं। अपनी इच्छानुसार इस वर्तुल को संचालित करने के लिए कुछ विशिष्ट क्रिया विधियों की अनिवार्यता होती है। एनर्जी के फ्लो को आप अपनी सहूलियत से कैसे प्रवाहित करने में सफल हो सकते है, यही सबसे बड़ी कला है।

एक और महत्वपूर्ण बात इस मुद्दे के बाबत हमें अवश्य जाननी चाहिए। ऊर्जा कभी सकारात्मक या नकारात्मक नहीं होती वरन् इसे संचालित करने की मंशा निगेटिव या पॉजिटिव होती है। जैसे आप विद्युत या अग्नि को कभी निगेटिव या पॉजिटिव नहीं मान सकते ठीक वैसे ही काले जादू को भी आप निगेटिव या पॉजिटिव कैसे मान लेंगे?

यह पूरी तरह इस्तेमाल करने वाले की नीयत पर निर्भर करता है कि वह इन्हें किस प्रकार के उपयोग में लाता है। डाइनामाइट के अन्वेषक एल्फ्रेड नोबल के नाम पर शांति का नोबल प्राइज़ प्रदान किया जाता है। लेकिन उनके इस आविष्कार का व्यापक स्तर पर दुरुपयोग हुआ। हर तरह के विनाश के लिए इस महान खोज का इस्तेमाल हुआ तथा आज भी हो रहा है। किंतु इसका उपयोग कुछ रचनात्मक कार्यों के लिए भी हुआ, और यही उद्देश्य इसके आविष्कारक का भी था।

ठीक इसी भांति काला जादू भी है, जिसका नकारात्मक व सकारात्मक दोनों ही रूपों में प्रयोग हो सकता है। ये पूरी तरह इसके एक्सपर्ट की मंशा पर निर्भर करता है कि वह इससे क्या हासिल करना चाहता है। इसके साथ एक और जरूरी बात ये जुड़ी है कि इनका ज्यादातर अंश मनोवैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित है। यानि यदि आप पूर्ण जागरण अवस्था में हों तो आपको काले जादू का कोई भी चमत्कारिक भाग नहीं दिखेगा। लेकिन आपकी तन्द्रा यानि उनींदी अवस्था इसके चमत्कार से आपको अभीभूत करने में सक्षम है।

इसी सिलसिले में एक बात आपको और मालूम होनी चाहिए कि काले जादू के नाम पर हाथ की सफाई की कला से भी आपको विस्मित किया जा सकता है। बंगाल का काला जादू हाथ की सफाई यानि एक अलग तरह का आर्ट है, जिसका तंत्र-मंत्र-यंत्र आदि से कोई संबंध नहीं होता है। इसके लिए जितने भी उपक्रम आजमाए जाते हैं, वे केवल दर्शकों को बांध कर अपनी कला को सार्थकता तक पहुंचाने के लिए होते हैं।
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8>Aअघोर पंथ सनातन धर्म का एक संप्रदाय है।

अघोरियों का जीवन जितना कठिन है, उतना ही रहस्यमयी भी। अघोरियों की दुनिया ही नहीं, उनकी हर बात निराली होती है। अघोरियों की रहस्यमयी जिंदगी की कुछ खास बातें:

अघोरी मूलत: तीन तरह की साधनाएं करते हैं। शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना। शिव साधन और शव साधना में प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाई जाती है। तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। श्मशान में पूजा की जाती है। यहां गंगा जल और प्रसाद के रूप में मांस-मदिरा की जगह दूध से बना मावा चढ़ाया जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि अघोरी साधना बल से मुर्दों से भी बात कर सकते हैं। अघोरी गाय का मांस छोड़ कर मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक खा लेते हैं। अघोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। इसलिए वे श्मशान में रहना ही ज्यादा पंसद करते हैं। श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं। इसीलिए साधना में विध्न पडऩे का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उनके मन से अच्छे बुरे का भाव निकल जाता है।

कहा जाता है कि आज भी ऐसे अघोरी और तंत्र साधक हैं जो पराशक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं। ये साधनाएं श्मशान में होती हैं और दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं जहां तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम बंगाल), कामाख्या पीठ (असम) का श्मशान, त्र्र्यम्बकेश्वर (नासिक) और उज्जैन (मध्य प्रदेश) का श्मशान
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9अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है।

इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, परन्तु इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। ये भारत के प्राचीनतम धर्म "शैव" (शिव साधक) से संबधित हैं। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति अपने विचित्र व्यवहार, एकांतप्रियता और रहस्यमय क्रियाओं की वजह से जाने जाते हैं। अघोर संप्रदाय की सामाजिक उदासीनता और निर्लिप्ति के कारण इसे उतना प्रचार नहीं मिला है

अघोर पंथ की उत्पत्ति और इतिहास[संपादित करें]
शैव सम्प्रदाय का विकास तथा अघोर पन्थ

अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।

अघोर दर्शन और साधना[संपादित करें]

अघोर साधनाएं मुख्यतः श्मशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है। शव साधना एक विशेष क्रिया है जिसके द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव किया जाता है। अघोर विश्वास के अनुसार अघोर शब्द मूलतः दो शब्दों 'अ' और 'घोर' से मिल कर बना है जिसका अर्थ है जो कि घोर न हो अर्थात सहज और सरल हो। प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है। बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता। अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं और इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं।

भारत के कुछ प्रमुख अघोर स्थान[संपादित करें]
भारत मैं सबसे ज्यादा अघोरी असम के कामख्या मंदिर में रहते है हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार जब माता सती भस्म हुई थी तो उनकी योनि इसी स्थान पर गिरी थी, असम के अलावा ये अघोरी बाबा पश्चिम बंगाल के तारापीठ, नासिक के अर्धज्योतिर्लिंग और उज्जैन के महाकाल के आस पास देखें जाते है ऐसा भी कहा जाता है की इन स्थानो पर सबसे जल्दी सिद्धिया हासिल होती है इनके अलावा वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं।
अघोर पंथ, नर भक्षण और भ्रांतियां[संपादित करें]

अघोर संप्रदाय के साधक मृतक के मांस के भक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। मृतक का मांस जहां एक ओर सामान्य जनता में अस्पृश्य होता है वहीं इसे अघोर एक प्राकृतिक पदार्थ के रूप में देखते हैं और इसे उदरस्थ कर एक प्राकृतिक चक्र को संतुलित करने का कार्य करते हैं। मृत मांस भक्षण के पीछे उनकी समदर्शी दृष्टि विकसित करने की भावना भी काम करती है। कुछ प्रमाणों के अनुसार अघोर साधक मृत मांस से शुद्ध शाकाहारी मिठाइयां बनाने की क्षमता भी रखते हैं। लोक मानस में अघोर संप्रदाय के बारे में अनेक भ्रांतिया और रहस्य कथाएं भी प्रचलित हैं। अघोर विज्ञान में इन सब भ्रांतियों को खारिज कर के इन क्रियाओं और विश्वासों को विशुद्ध विज्ञान के रूप में तार्किक ढ़ंग से प्रतिष्ठित किया गया है
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10=अघोरपंथ
अघोरपीठ बाबा कीनाराम स्थल

पुष्प दन्त जी ने ‘शिव महिम्न’ में कहा है- “अधोरान्ना परो मंत्रों नास्ति तत्वं, गुरौः परम।” अघोर कोई तंत्र-मंत्र या तांत्रिक क्रिया नहीं है। यह तो गुरु के माध्यम से आत्मा का परमात्मा से मिलन की साधना है। यह धर्म, सम्प्रदाय, परम्परा या पंथ नहीं है, यह मनुष्य की एक मानसिक स्थिति की अवस्था है जिसे प्राप्त कर मनुष्य मृत्यु लोक के माया के कुचक्र से मुक्त होकर परमात्मा को स्वयं में समाहित कर लेता है। अघोर का अर्थ है अनघोर। अर्थात जो घोर, कठिन, जटिल न होकर सभी के लिए सहज, सरल, मधुर और सुगम हो। अघोरेश्वर बाबा भगवान राम ने कहा है “जो अघ को दूर कर दे वह अघोर है।” अघ का अर्थ है पाप। अतः अघोर व्यक्ति को पाप से मुक्त कर पवित्र बना देता है। मनुष्य के इस अवस्था में पहुंचने पर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनेक नामों से सुशोभित या सम्बोधित किया जाता है जैसे- औघड़, अवधूत, कापालिक, औलिया, मलंग इत्यादि। अघोर साधना करने और समझने की प्रक्रिया है न कि इसे तर्क से ग्रहण किया जा सकता है। अघोरेश्वर साधक संशय से दूर रहते हैं। वह संसार के सभी प्राणियों से परस्पर स्नेह रखते हैं। इनका एकमात्र लक्ष्य होता है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ के माध्यम से पराशक्ति परमात्मा से मिलन। इनकी कोई भेषभूषा नहीं होती और न ही कोई जातिधर्म। साधना पथ पर जो भी मिला उसे ग्रहण कर लिया। अघोरी घृणित से घृणित कार्य करने वाले और चरित्र वाले को स्नेहपूर्वक अपने पास घेर कर रखते हैं ताकि वह समाज को इससे बचा सकें। अघोर साधकों के रहन-सहन, खान-पान के प्रति सामान्य मनुष्य के मन की जो सोच है, वह मात्र एक भ्रम है। अघोरी साधक ऐसा इसलिए करते है ताकि वह संसार में ही सांसारिक मोह माया से दूर रहकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। अघोर साधना के लिए ब्रह्मचर्य एवं वाणी पर नियत्रंण आवश्यक है। भगवान शिव ही अघोर साधना के प्रथम गुरू है। पिड़ितों के पीड़ा पर रूदन करने वाले और अत्याचारियों को अपने रौद्र रूप से रूलाने के कारण ही शिव ‘रूद्र’ कहलाये। यह रूद्र रूप अघोर का है। लिंगपुराण के अनुसार शिव के पांच रूपों में एक अघोर का स्वरूप है। ब्रह्माण्ड को पाप से मुक्त करने के लिए शिव ने यह रूप धारण किया। काशी में अघोर साधना को केन्द्र शिवाला स्थित क्रीं-कुण्ड है। शिवाला अर्थात शिव का आलय। जहां शिव औघड़ दानी के रूप में सदैव विराजमान रहते हैं। प्राचीन समय में यहा ‘हिंग्वाताल’ नाम का एक सरोवर था। बनारस गजेटियर 1883 के बन्दोबस्ती नक्सा में भी भदैनी मुहल्ले में ‘हिंग्वाताल’ को दर्शाया गया है। सरोवर का नाम क्रि-कुण्ड माँ हिंग्लाज के बीज मंत्र क्रीं से अभिमंत्रित होने के कारण पड़ा। ऐसा माना जाता है कि सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को इसी सरोवर के तट पर सर्प ने कांटा था। अघोर साधना का यह केन्द्र कीनाराम के कारण प्रसिद्ध हुआ। इस अघोर साधना केन्द्र को कीनाराम-स्थल भी कहते है। सम्वत 1684 में चन्दौली जिले के रामगढ में कीनाराम का जन्म हुआ था, माँ हिंग्लॉज देवी की आज्ञा से काशी के शिवाला क्षेत्र में स्थित क्रीं-कुण्ड को उन्होने अपनी साधना का केन्द्र बनाया। श्री आदिगुरु दत्तात्रेय जी ने ही औघड़ बाबा कालूराम के स्वरूप में कीनाराम को अघोर साधना की दीक्षा प्रदान की थी।

क्रीं-कुण्ड के मुख्य द्वार से प्रतीत होता है कि यह तंत्र साधना का केन्द्र है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। कीनाराम स्थल के मुख्यद्वार के उपर दो नर-मुण्ड स्थापित किये गये है, ऐसा माना जाता है की जब कीनाराम माँ हिंग्लॉज देवी के आज्ञा से काशी में आये तो हरिश्चन्द्र घाट पर आदिगुरू दत्तात्रेय जी औघड़ कालूराम जी के स्वरूप में पहले से ही विराजमान थे और अपने चारों ओर नरमुण्डों को चना खिला रहे थे, कीनाराम को समझते देर न लगी की यह मेरी परीक्षा है और उन्होंने उन नर मुण्डों को चना खाने से रोक दिया। इन्हीं किंवदंतियों के स्मृति में यह नर मुण्ड स्थापित किये गये हैं, जबकी मुख्य द्वार पर दोनों ओर एक के उपर एक तीन नर मुण्ड का निर्माण हुआ है जो अभेद का प्रतीक है और कार्य के अनुसार तीन स्वरूप में दर्शाये गये हैं। मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर सामने लाल पत्थर से निर्मित विशाल मंदिरनुमा समाधि है, जिसमें जाने के लिये गुफानुमा रास्ता है। गुफा के अन्दर मां हिंग्लॉज देवी की यन्त्रवत उपस्थिति है, जिसके बगल में कीनाराम की समाधि स्थित है। यहां तक पहुंचने के सकरे मार्ग के एक तरफ कालूराम जी की समाधि और दूसरी तरफ औघड़ बाबा राजेश्वर राम जी की सफेद प्रतिमा स्थापित है। यह मार्ग वर्ष में दो बार ही खुलता है। पहला लोलार्क षष्ठी को और दूसरी बार अभिषेक और निर्वाण दिवस(दस फरवरी) पर। क्रीं-कुण्ड परिसर में ही दाहिनी तरफ एक प्राचीन कुआं है, जिसके जल को ग्रहण करने से सभी तरह के रोग दूर होते हैं। इस कुंए पर कीनाराम के पदचिह्न स्थापित किये गये हैं। कहा जाता है कि कीनाराम जी इसी कुयें में कुद कर अदृश्य हो गये थे, भक्तों के अनुरोध पर उन्होंने कहां- ‘तुम जाओं मैं आऊगां’। इसी के प्रतीक स्वरूप यह पदचिह्न स्थापित किया गया है। परिसर में एक सफेद आसन स्थित है जिस पर महाराज कीनाराम विशेष अवसरों पर आसन ग्रहण करते थे। कीनाराम के समाधि ग्रहण करने के पश्चात इस आसन को तत्कालीन गुरु ने इसे बारादरी में स्थिर कर दिया। इस आसन से उत्तर दिशा की ओर ही क्रीं-कुण्ड है। रविवार और मंगलवार को मिलाकर कुल पांच दिन कुण्ड में स्नान करने के पश्चात वस्त्रों को त्यागकर वहां स्थित समाधि का तीन बार परिक्रमा करने के बाद विभूति ग्रहण करने से व्यक्ति को विपत्ति, आपदा और भवबाधा से मुक्ति मिलती है। श्माशान घाट से लाई गई लकड़ियों से यहां सदैव घुनि की अखण्ड अलख जलती रहती है। इस धुनि को साक्षात आग्नेय रूद्र का स्वरूप माना जाता है, इस धुनि की राख (विभूति) ही यहां का एकमात्र प्रसाद है। क्रि-कुण्ड परिसर में दक्षिण की ओर विशाल और भव्य समाधि कीनाराम के साथ ही ग्यारह अघोर पीठाधीशों के समाधियो की श्रृंखला है जिसे एकाशद रूद्र का स्वरूप माना जाता है। इन समाधियों के उपरी भाग पर भगलिंगात्मक यंत्र बना हुआ है जिसकी अर्चना करने से सिद्धियां प्राप्त होती है। इस अघोर साधना केन्द्र में मछली, चावल एवं शराब का प्रसाद ही चढाया जाता है तथा प्रत्येक शनिवार को श्रद्धालुओं को प्रसाद स्वरूप इसे वितरीत भी किया जाता है।

सिद्धपीठ औघड़नाथ का तकिया

कबीरचौरा मुहल्ले में स्थित औघड़ नाथ की तकिया प्रसिद्ध अघोर सिद्ध पीठ है। इस पीठ पर गुरु गोरखनाथ के समकालीन अवघूत महाराज ब्रम्हनाथ जी ने सिद्धि प्राप्त कर समाधि ग्रहण की थी। उनके पश्चात उन्ही के परम्परा के तेरह औघड़ संतों ने यहाँ सिद्धि प्राप्त की, इन तेरह औघड़ संतों की भी समाधिया परिसर में स्थापित हैं। यही के एक औघड़ संत मसाननाथ नाम से जाने जाते थे, जिनके समय मे मसान से लकड़ियाँ लाकर यहा पर धुनि जलाई जाती थी। इस सिद्धपीठ परिसर में ही एक अद्भुत कुआँ है, जिसके चारों किनारे के पानी का स्वाद अलग-अलग है तथा इस पानी का सेवन करने से पेट से जुड़ी सभी तरह की बिमारिया दूर हो जाती है। इस सिद्धपीठ में दूर-दूर से श्रद्धालुओं का आवागमन होता रहता है।

सिद्धपीठ सर्वेश्वरी समूह आश्रम

सन 1961 में अघोरेश्वर भगवान राम ने राजघाट पुल के पास, पड़ाव पर सर्वेश्वरी समूह की स्थापना की। बाबा अवधूत भगवान राम ने अघोर परम्परा में एक नया अध्याय आरम्भ किया, यज्ञ- अनुष्ठान, मंत्र-जाप के साथ ही मानव कल्याणार्थ कार्य के स्थान को भी सिद्धपीठ बताया। उनका विचार था कि औघड़ी साधना को समाजोन्मुखी बनाया जाय। लगभग चौदह-पन्द्रह वर्ष की अवस्था में काशी के अघोर साधना के केन्द्र क्रीं-कुण्ड में तत्कालीन पीठाधीश्वर राजेश्वर राम से अघोर दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात साधना के लिये अनेक गुफाओं, कन्दराओं, श्मशानों पर भ्रमण किया। इन यात्राओं से उन्हें समझ में आया कि लोग अघोरियों से भय रखते है, अतः अघोर साधना से समाज को बहुत कम लाभ ही मिल पाता है। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक स्थितियों के अनुसार तथा अघोर साधकों एवं साधना को समाज के समीप लाने के लिये सर्वेश्वरी समूह की स्थापना कर समाज के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होने सर्वेश्वरी समूह के आश्रम में उन सभी क्रिया-कलापों जैसे- शराब,भांग,गाँजा के सेवन व अघोरियों के विकट और उद्दंड स्वभाव प्रदर्शित करने तक को प्रतिबन्धित कर दिया जिससे समाज अघोरियो से भय रखता था, इसके स्थान पर कुष्ठ रोगियों के इलाज के लिये एक चिकित्सालय की स्थापना की, जहाँ देशी उपचारों के आधार पर जड़ी-बुटियों के द्वारा इलाज किया जाता है। इस चिकित्सालय में इतने अधिक कुष्ठ रोगियों का सफल इलाज किया गया है कि इसका नाम गिनिज एवं लिम्का बुक में शामिल हो गया है। इसके साथ ही इस समूह द्वारा समाज में व्याप्त दहेज एवं अन्य विभिन्न आडम्बरों से मुक्ति के लिये सार्थक प्रयास किये जाते हैं। सर्वेश्वरी समूह के देश-विदेश में लगभग 130 शाखाएँ सक्रिय हैं। वर्तमान में इस पीठ के पीठाधीश्वर औघड़ गुरूपद सम्भवराम जी हैं, जो सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष भी हैं। पड़ाव स्थित सर्वेश्वरी समूह के पास ही अघोरेश्वर भगवान राम की समाधि है, सर्वेश्वरी समूह आश्रम में आने के पश्चात श्रद्धालु समाधि का दर्शन करना नही भूलते हैं।
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11=अघोरियों की रहस्यमयी दुनिया के बारे में जान उनसे डरने लगेंगे आप!

अघोरी हमेशा ही आम लोगों के लिए एक रहस्यमयी व्यक्तित्व होते है, वैसे तो उनकी उत्पति की कोई व्याख्या हमारे पास नही है, लेकिन भगवन शिव का एक रूप अघोरी भी है तब से उनके अनुयायी इस रूप में उनके स्वरुप में रहते है. उनकी जीवन चर्या और दिनचर्या बेहद ही अजीब और रहस्यमयी होती है, जो की उनके नाम से ही छलकती है.

हालाँकि उन्हें कुम्भ के मेले और आम लोगों में देख कर हमें वो भोले भले लगते है, हालाँकि उनकी वेशभूषा से बच्चे हो या बड़े सब डर जाते है लेकिन वो स्वाभाव से बेहद सरल होते है. वो लोग झुण्ड में रहते है बावजूद इसके उनमे आपस में कभी भी किसी तरह का द्वेष भाव या झगड़ा भारत के इतिहास में देखा और सुना नही गया है.

अब आपको उनके दिनचर्या की वो खास बातें बताते है जो आपको डरा देगी, जिस तरह माँ काली ने गुस्से में अपने पति शिव पर ही पैर रख दिया था और उनका गुस्सा तब शांत हुआ था वैसे ही अघोरी मृत शव पे खड़े होके फिर साधना करते है. मुर्दे को प्रसाद स्वरुप मांसाहार और दारू चढ़ाई जाती है कई मामलो में वो शमशान में पूजा करते है पर वंहा कुछ मीठा चढ़ाया जाता है.

हमारे पहले के लेखों में आप दुनिया के भयंकर रिवाज में आप इसके बारे में पढ़ चुके है की वो शव कंहा से लाते है.
उनकी साधना से वो इतने बलशाली हो जाते है जिसकी हम लोग कल्पना भी नही कर सकते है, लोग तो इतना तक कहते है की वो मुर्दो से भी बातें करने में सक्षम हो जाते है. आप उनकी शक्तियों को भूल के भी आजमाने की कोशिश न करें नही तो आप बड़ी मुसीबत में फंस सकते है.

वो अनजान और वीरान जगहों जैसे की शमशान में ही रहते है, उनके आस पास सिर्फ कुक्कर(कुत्ता) जानवर ही देखा जा सकता है. उनकी ऑंखें लाल ही रहती है जो उन्हें और भी डरावना बनाती है, वो स्वाभाव से जिद्दी होते है और वो अपनी हर बात मनवाने की ताकत भी रखते है.

बीफ पर देश में घमासान है लेकिन जान ले की खुद अघोरी भी गाय का मांस नही खाते है, लेकिन वो इंसानो तक का मांस खा जाते है जिनसे उन्हें काफी बल मिलता है और उनका मौत का भय जाता रहता है. रक्षशो की तरह ही वो लोग दिन में सोते है और रात में अपनी साधना में तल्लीन रहते है.

सबसे ज्यादा ये अघोरी असम के कामख्या मंदिर( जन्हा सती के भस्म होने पर उनकी योनि गिरी थी), पश्चिम बंगाल के तारापीठ, नासिक के अर्धज्योतिर्लिंग और उज्जैन के महाकाल के आस पास ही देखें जाते है. कहा जाता है की इन स्थानो पर सबसे जल्दी सिद्धिया हासिल होती है, हालाँकि हमने थोड़े में ज्यादा बताया है लेकिन उनके रहश्यमयी संसार का ज्ञान खुद उनको ही है किसी भी आम इंसान को नही.

12>अघोर पंथियों के 10 तांत्रिक पीठ

अघोर पंथ को शैव और शाक्त संप्रदाय की एक तांत्रिक शाखा माना गया है। अघोर पंथ की उत्पत्ति काल के बारे में कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, लेकिन इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं।

मान्यता है कि भगवान शिव ने स्वयं की इस पंथ की स्थापना की थी। अघोर पंथ का प्रारंभिक गढ़ शिव की नगरी काशी को माना गया है, लेकिन आगे चलकर यह शक्तिपीठों में साधना करने लगे। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख अघोर तीर्थ के बारे में...

सबसे कठिन साधना का स्थल, अगले पन्ने पर...

तारापीठ :

तारापीठ को तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सबमें समान रूप से प्रमुख और पूजनीय माना गया है। इस स्थान पर सती पार्वती की आंखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं इसलिए यह शक्तिपीठ बन गया।

यह स्थल तारा साधन के लिए जगत प्रसिद्ध रहा है। यहां सती के रूप में तारा मां का मंदिर है और पार्श्व में महाश्मशान। सबसे पहले इस मंदिर की स्थापना महर्षि वशिष्ठ ने की थी। पुरातन काल में उन्होंने यहां कठोर साधना की थी।

मान्यता है कि वशिष्ठजी मां तारा को प्रसन्न नहीं कर पाए थे। कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य किसी साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं। माना जाता है कि यह साधना भगवान बुद्ध जानते थे। बौधों में वज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाए जाते हैं। अघोर साधुओं को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है।

प्रमुख अघोराचार्य में बामा चट्टोपाध्याय का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इन्हें बामाखेपा कहा जाता था।

शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बंगाल के बीरभूम अंचल में रामपुर हाट रेलवे स्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है। कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग 265 किलोमीटर है। यह स्थल रेल एवं सड़क मार्ग दोनों से जुड़ा है।

दूसरा प्रमुख तीर्थ 'नानी का हज',

हिंगलाज धाम :

हिंगलाज धाम अघोर पंथ के प्रमुख स्थलों में शामिल है। हिंगलाज धाम वर्तमान में विभाजित भारत के हिस्से पाकिस्तान के बलूचिस्तान राज्य में स्थित है। यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से 120 किलोमीटर और समुद्र से 20 किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर-पश्चिम में 125 किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है।

माता के 52 शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है। यहां हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कट कर गिरा था। यह अचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है। इसे भावसार क्षत्रियों की कुलदेवी माना जाता है।
अब यह क्षेत्र मुसलमानों के अधिकार में चला गया है। यहां के स्थानीय मुसलमान हिंगलाज पीठ को 'बीबी नानी का मंदर' कहते हैं। अप्रैल के महीने में स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं और इस स्थान पर आकर लाल कपड़ा चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते है और शिरीनी का भोग लगाते हैं। वे इस यात्रा को 'नानी का हज' कहते हैं।

हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है। माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों द्वारा किया गया था, इसीलिए रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है। पास ही एक भैरवजी का भी स्थान है। भैरवजी को यहां पर 'भीमालोचन' कहा जाता है।

* यह हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से में चले जाने के बाद वाराणसी की एक गुफा क्रीं कुण्ड में बाबा कीनाराम हिंगलाज माता की प्रतिमूर्ति स्थापित की गई है।

* इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

जनश्रुति की मानें तो विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त थे। अतः माता हिंगलाज अग्नि रूप में जगन्नाथ मंदिर के रंधनशाला में भी विराजमान हैं। उन्हीं अग्निरूपा माता हिंगलाज का मंदिर तालचेर के पास स्थापित है।

 महिषासुर के वध के बाद जहां ठहरी थी माता...
विंध्याचल : 

विंध्याचल की पर्वत श्रृंखला जगप्रसिद्ध है। यहां पर विंध्यवासिनी माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थल में तीन मुख्य मंदिर हैं- विंध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा। इन मंदिरों की स्थिति त्रिकोण यंत्रवत है। इनकी त्रिकोण परिक्रमा भी की जाती है।

यहां छोटे-बड़े सैकड़ों मंदिर हैं और तीन प्रमुख कुंड हैं। प्रथम है सीताकुंड जहां से ऊपर सीढ़ियों से यात्रा शुरू होती है। यात्रा में पहले अष्टभुजा मंदिर है, जहां माता सरस्वती की मूर्ति विराजमान है। उससे ऊपर कालीखोह है, जहां माता काली विराजमान हैं। फिर आता है और ऊपर विंध्याचल का मुख्य मंदिर माता विंध्यवासिनी मंदिर।

स्थान का महत्व : 

कहा जाता है कि महिषासुर वध के पश्चात माता दुर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गई थीं। भगवान राम ने यहां तप किया था और वे अपनी पत्नी सीता के साथ यहां आए थे। इस पर्वत में अनेक गुफाएं हैं जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं। आज भी अनेक साधक, सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहां भेंट हो सकती है।

भैरवकुंड के पास यहां की एक गुफा में अघोरेश्वर रहते थे। गुफा के भीतर भक्तों, श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ अघोरेश्वर की चरण पादुका एक चट्टान में जड़ दी गई है। यहां कई साधक आकर नाना प्रकार की साधनाएं करते और अघोरेश्वर की कृपा से सिद्धि पाकर कृतकृत्य होते हैं।

विंध्याचल पर्वत से किलोमीटर की दूरी पर मिरजापुर में रेलवे स्टेशन है। सड़क मार्ग से यह स्थान बनारस, इलाहाबाद, मऊनाथभंजन, रीवा और औरंगाबाद से जुड़ा हुआ है। बनारस से 70 किलोमीटर तथा इलाहाबाद से 83 किलोमीटर की दूरी पर विंध्याचल धाम स्थित है।

 भगवान दत्तात्रेय की जन्म स्थली...
चित्रकूट :

अघोर पथ के अन्यतम आचार्य दत्तात्रेय की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिए तीर्थस्थल है। औघड़ों की कीनारामी परंपरा की उ‍त्पत्ति यहीं से मानी गई है। यहीं पर मां अनुसूया का आश्रम और सिद्ध अघोराचार्य शरभंग का आश्रम भी है।
यहां का स्फटिक शिला नामक महाश्मशान अघोरपंथियों का प्रमुख स्थल है। इसके पार्श्व में स्थित घोरा देवी का मंदिर अघोर पंथियों का साधना स्थल है। यहां एक अघोरी किला भी है, जो अब खंडहर बन चुका है।

 प्रसिद्ध अघोर तीर्थ...

कालीमठ: 
हिमालय की तराइयों में नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है। यहां अनेक साधक रहते हैं। यहां से 5,000 हजार फीट ऊपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है, जहां पहुंचना बहुत ही मुश्किल है। कालशिला में भी अघोरियों का वास है।
माना जाता है कि कालीमठ में भगवान राम ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है।
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जगन्नाथ पुरी:

जगतप्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर और विमला देवी मंदिर, जहां सती का पाद खंड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी स्थित है जिसे वशिष्ठ कहते हैं।

इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है। इस श्मशान के पार्श्व में मां तारा मंदिर के खंडहर में ऋषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएं स्थापित हैं।
जगन्नाथ मंदिर में भी श्रीकृष्णजी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है।

मदुरई का कपालेश्वर मंदिर...

मदुरई :दक्षिण भारत में औघड़ों का कपालेश्वर का मंदिर है। आश्रम के प्रांगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है और भी समाधियां हैं। मंदिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि-विधान से की जाती है।

सबसे प्रसिद्ध कोलकाता का काली मठ...

कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की 4 अंगुलियां गिरी थीं इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है।
यह स्थान प्राचीन समय से ही शक्तिपीठ माना जाता था, लेकिन इस स्थान पर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने मंदिर का निर्माण करवाया था। 25 एकड़ क्षेत्र में फैले इस मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1855 पूरा हुआ।

नेपाल में अघोर कुटी...
नेपाल : नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही स्थित हैं। अघोरेश्वर भगवान राम के शिष्य बाबा सिंह शावक रामजी ने काठमांडू में अघोर कुटी स्थापित की है।
उन्होंने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन रामजी ने समाजसेवा को नया आयाम दिया है। कीनारामी परंपरा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है।

अफगानिस्तान में लालजी पीर...

अफगानिस्तान : अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परंपरा के संतों को दान में दिया था। इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं। औघड़ रतनलालजी यहां पीर के रूप में आदर पाते हैं। उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियां इस स्थल पर आज भी श्रद्धा-नमन के लिए स्थित हैं।

उपरोक्त स्थलों के अलावा अन्य जगहों पर भी जैसे रामेश्वरम, कन्याकुमारी, मैसूर, हैदराबाद, बड़ौदा, बोधगया आदि अनेक औघड़, अघोरेश्वर लोगों की साधना स्थली, आश्रम, कुटिया पाई जाती हैं।
जानिए अघोरियों की रहस्यमयी दुनिया की कुछ अनजानी और रोचक बातें-

अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, परन्तु इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। ये भारत के प्राचीनतम धर्म “शैव” (शिव साधक) से संबधित हैं। अघोरियों को इस पृथ्वी पर भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है। शिवजी के पांच रूपों में से एक रूप अघोर रूप है। अघोरी हमेशा से लोगों की जिज्ञासा का विषय रहे हैं। अघोरियों का जीवन जितना कठिन है, उतना ही रहस्यमयी भी। अघोरियों की साधना विधि सबसे ज्यादा रहस्यमयी है। उनकी अपनी शैली, अपना विधान है, अपनी अलग विधियां हैं। अघोरी उसे कहते हैं जो घोर नहीं हो। यानी बहुत सरल और सहज हो। जिसके मन में कोई भेदभाव नहीं हो। अघोरी हर चीज में समान भाव रखते हैं। वे सड़ते जीव के मांस को भी उतना ही स्वाद लेकर खाते हैं, जितना स्वादिष्ट पकवानों को स्वाद लेकर खाया जाता है।

अघोरियों की दुनिया ही नहीं, उनकी हर बात निराली है। वे जिस पर प्रसन्न हो जाएं उसे सब कुछ दे देते हैं। अघोरियों की कई बातें ऐसी हैं जो सुनकर आप दांतों तले अंगुली दबा लेंगे। हम आपको अघोरियों की दुनिया की कुछ ऐसी ही बातें बता रहे हैं, जिनको पढ़कर आपको एहसास होगा कि वे कितनी कठिन साधना करते हैं। साथ ही उन श्मशानों के बारे में भी आज आप जानेंगे, जहां अघोरी मुख्य रूप से अपनी साधना करते हैं। जानिए अघोरियों के बारे में रोचक बातें-

1. अघोरी मूलत: तीन तरह की साधनाएं करते हैं। शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना। शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। बाकी तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पैर है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाई जाती है।
शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ (जिस स्थान पर शवों का दाह संस्कार किया जाता है) की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहां प्रसाद के रूप में भी मांस-मदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।

अघोरी शव साधना के लिए शव कहाँ से लाते है?

हिन्दू धर्म में आज भी किसी 5 साल से कम उम्र के बच्चे, सांप काटने से मरे हुए लोगों, आत्महत्या किए लोगों का शव जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया या गंगा में प्रवाहित कर कर दिया जाता है। पानी में प्रवाहित ये शव डूबने के बाद हल्के होकर पानी में तैरने लगते हैं। अक्सर अघोरी तांत्रिक इन्हीं शवों को पानी से ढूंढ़कर निकालते और अपनी तंत्र सिद्धि के लिए प्रयोग करते हैं।

2. बहुत कम लोग जानते हैं कि अघोरियों की साधना में इतना बल होता है कि वो मुर्दे से भी बात कर सकते हैं। ये बातें पढऩे-सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन इन्हें पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता। उनकी साधना को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।
अघोरियों के बारे में कई बातें प्रसिद्ध हैं जैसे कि वे बहुत ही हठी होते हैं, अगर किसी बात पर अड़ जाएं तो उसे पूरा किए बगैर नहीं छोड़ते। गुस्सा हो जाएं तो किसी भी हद तक जा सकते हैं। अधिकतर अघोरियों की आंखें लाल होती हैं, जैसे वो बहुत गुस्सा हो, लेकिन उनका मन उतना ही शांत भी होता है। काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी गले में धातु की बनी नरमुंड की माला पहनते हैं।
3. अघोरी अक्सर श्मशानों में ही अपनी कुटिया बनाते हैं। जहां एक छोटी सी धूनी जलती रहती है। जानवरों में वो सिर्फ कुत्ते पालना पसंद करते हैं। उनके साथ उनके शिष्य रहते हैं, जो उनकी सेवा करते हैं। अघोरी अपनी बात के बहुत पक्के होते हैं, वे अगर किसी से कोई बात कह दें तो उसे पूरा करते हैं।

4. अघोरी गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों को खाते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक। अघोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। इसलिए वे श्मशान में रहना ही ज्यादा पंसद करते हैं। श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है।
श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं। इसीलिए साधना में विध्न पडऩे का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उनके मन से अच्छे बुरे का भाव निकल जाता है, इसलिए वे प्यास लगने पर खुद का मूत्र भी पी लेते हैं।

5. अघोरी अमूमन आम दुनिया से कटे हुए होते हैं। वे अपने आप में मस्त रहने वाले, अधिकांश समय दिन में सोने और रात को श्मशान में साधना करने वाले होते हैं। वे आम लोगों से कोई संपर्क नहीं रखते। ना ही ज्यादा बातें करते हैं। वे अधिकांश समय अपना सिद्ध मंत्र ही जाप करते रहते हैं।

6. आज भी ऐसे अघोरी और तंत्र साधक हैं जो पराशक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं। ये साधनाएं श्मशान में होती हैं और दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं जहां तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम बंगाल), कामाख्या पीठ (असम) काश्मशान, त्र्र्यम्बकेश्वर (नासिक) और उज्जैन (मध्य प्रदेश) का श्मशान।

तारापीठ

यह मंदिर पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिले में एक छोटा शहर है। यहां तारा देवी का मंदिर है। इस मंदिर में मां काली का एक रूप तारा मां की प्रतिमा स्थापित है। रामपुर हाट से तारापीठ की दूरी लगभग 6 किलोमीटर है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहां पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता है।
तारापीठ मंदिर का प्रांगण श्मशान घाट के निकट स्थित है, इसे महाश्मशान घाट के नाम से जाना जाता है। इस महाश्मशान घाट में जलने वाली चिता की अग्नि कभी बुझती नहीं है। यहां आने पर लोगों को किसी प्रकार का भय नहीं लगता है। मंदिर के चारों ओर द्वारका नदी बहती है। इस श्मशान में दूर-दूर से साधक साधनाएं करने आते हैं।
कामाख्या पीठ
असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है।
पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। यह स्थान तांत्रिकों के लिए स्वर्ग के समान है। यहां स्थित श्मशान में भारत के विभिन्न स्थानों से तांत्रिक तंत्र सिद्धि प्राप्त करने आते हैं।

नासिक

त्र्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर महाराष्ट्र के नासिक जिले में है। यहां के ब्रह्म गिरि पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। मंदिर के अंदर एक छोटे से गड्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये सात सौ सीढिय़ां बनी हुई हैं।

इन सीढिय़ों पर चढऩे के बाद रामकुण्ड और लक्ष्मण कुण्ड मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं। भगवान शिव को तंत्र शास्त्र का देवता माना जाता है। तंत्र और अघोरवाद के जन्मदाता भगवान शिव ही हैं। यहां स्थित श्मशान भी तंत्र क्रिया के लिए प्रसिद्ध है।

उज्जैन
महाकालेश्वर मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी माना जाता है। इस कारण तंत्र शास्त्र में भी शिव के इस शहर को बहुत जल्दी फल देने वाला माना गया है। यहां के श्मशान में दूर-दूर से साधक तंत्र क्रिया करने आते हैं।
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वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं।

भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं।

अघोरी श्‍मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं -
श्‍मशान साधना, शिव साधना, शव साधना। ऐसी साधनाएँ अक्सर तारापीठ के श्‍मशान, कामाख्या पीठ के श्‍मशान, त्र्यम्‍बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्‍मशान में होती है।

अघोरपन्थ की तीन शाखाएँ प्रसिद्ध हैं -
औघड़, सरभंगी, घुरे। इनमें से पहली शाखा में कल्लूसिंह व कालूराम हुए, जो किनाराम बाबा के गुरु थे। कुछ लोग इस पन्थ को गुरु गोरखनाथ के भी पहले से प्रचलित बतलाते हैं और इसका सम्बन्ध शैव मत के पाशुपत अथवा कालामुख सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं।

बाबा किनाराम अघोरी वर्तमान बनारस ज़िले के समगढ़ गाँव में उत्पन्न हुए थे

और बाल्यकाल से ही विरक्त भाव में रहते थे। बाबा किनाराम ने 'विवेकसार' , 'गीतावली', 'रामगीता' आदि की रचना की। इनमें से प्रथम को इन्होंने उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बैठकर लिखा था। इनका देहान्त संवत 1826 में हुआ।
'विवेकसार' इस पन्थ का एक प्रमुख ग्रन्थ है,

जिसमें बाबा किनाराम ने 'आत्माराम' की वन्दना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य पुरुष व निरंजन है, जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्त रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रन्थ में उन अंगों का भी वर्णन है, जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टि रहस्य, काया परिचयय, पिंड ब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है।

अगले तीन में योगसाधना,

निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में सम्पूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है। बाबा किनाराम ने इस पन्थ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश: चार मठों की स्थापना की। जिनमें से चौथा प्रधान केनद्र है।

असम, जिसे कभी कामरूप प्रदेश के नाम से भी जाना जाता था,

ऐसा ही एक स्थान है जहां रात के अंधेरे में शमशाम भूमि पर तंत्र साधना कर पारलौकिक शक्तियों का आह्वान किया जाता है। यहां होने वाली तंत्र साधनाएं पूरे भारत में प्रचलित हैं। यूं तो अभी भी कुछ समुदायों में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था चलती है लेकिन कामरूप में इस व्यवस्था की महिलाएं तंत्र विद्या में बेहद निपुण हुआ करती थीं।

तारापीठ :

तारापीठ को तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सबमें समान रूप से प्रमुख और पूजनीय माना गया है। इस स्थान पर सती पार्वती की आंखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं इसलिए यह शक्तिपीठ बन गया।

हिंगलाज धाम :
हिंगलाज धाम अघोर पंथ के प्रमुख स्थलों में शामिल है। हिंगलाज धाम वर्तमान में विभाजित भारत के हिस्से पाकिस्तान के बलूचिस्तान राज्य में स्थित है। यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से 120 किलोमीटर और समुद्र से 20 किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर-पश्चिम में 125 किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है। माता के 52 शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है। यहां हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कट कर गिरा था। यह अचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है। इसे भावसार क्षत्रियों की कुलदेवी माना जाता है।

विंध्याचल :

विंध्याचल की पर्वत श्रृंखला जगप्रसिद्ध है। यहां पर विंध्यवासिनी माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थल में तीन मुख्य मंदिर हैं- विंध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा। इन मंदिरों की स्थिति त्रिकोण यंत्रवत है। इनकी त्रिकोण परिक्रमा भी की जाती है। कहा जाता है कि महिषासुर वध के पश्चात माता दुर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गई थीं। भगवान राम ने यहां तप किया था और वे अपनी पत्नी सीता के साथ यहां आए थे। इस पर्वत में अनेक गुफाएं हैं जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं। आज भी अनेक साधक, सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहां भेंट हो सकती है।

चित्रकूट :

अघोर पथ के अन्यतम आचार्य दत्तात्रेय की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिए तीर्थस्थल है। औघड़ों की कीनारामी परंपरा की उ‍त्पत्ति यहीं से मानी गई है। यहीं पर मां अनुसूया का आश्रम और सिद्ध अघोराचार्य शरभंग का आश्रम भी है। यहां का स्फटिक शिला नामक महाश्मशान अघोरपंथियों का प्रमुख स्थल है।

कालीमठ :

हिमालय की तराइयों में नैनीताल से आगे गुप्तकाशी से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है। यहां अनेक साधक रहते हैं। यहां से 5,000 हजार फीट ऊपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है, जहां पहुंचना बहुत ही मुश्किल है। कालशिला में भी अघोरियों का वास है। माना जाता है कि कालीमठ में भगवान राम ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है।

कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की 4 अंगुलियां गिरी थीं इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है।
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13=कैसे आती है अघोरियों में इतनी शक्ति, मुर्दे भी देते है उनके सवालो के जवाब?

अघोरी हमेशा ही आम लोगों के लिए एक रहस्यमयी व्यक्तित्व होते है, वैसे तो उनकी उत्पति की कोई व्याख्या हमारे पास नही है, लेकिन भगवन शिव का एक रूप अघोरी भी है तब से उनके अनुयायी इस रूप में उनके स्वरुप में रहते है. उनकी जीवन चर्या और दिनचर्या बेहद ही अजीब और रहस्यमयी होती है, जो की उनके नाम से ही छलकती है.

हालाँकि उन्हें कुम्भ के मेले और आम लोगों में देख कर हमें वो भोले भले लगते है, हालाँकि उनकी वेशभूषा से बच्चे हो या बड़े सब डर जाते है लेकिन वो स्वाभाव से बेहद सरल होते है. वो लोग झुण्ड में रहते है बावजूद इसके उनमे आपस में कभी भी किसी तरह का द्वेष भाव या झगड़ा भारत के इतिहास में देखा और सुना नही गया है.

अब आपको उनके दिनचर्या की वो खास बातें बताते है जो आपको डरा देगी, जिस तरह माँ काली ने गुस्से में अपने पति शिव पर ही पैर रख दिया था और उनका गुस्सा तब शांत हुआ था वैसे ही अघोरी मृत शव पे खड़े होके फिर साधना करते है. मुर्दे को प्रसाद स्वरुप मांसाहार और दारू चढ़ाई जाती है कई मामलो में वो शमशान में पूजा करते है पर वंहा कुछ मीठा चढ़ाया जाता है.

उनकी साधना से वो इतने बलशाली हो जाते है जिसकी हम लोग कल्पना भी नही कर सकते है, लोग तो इतना तक कहते है की वो मुर्दो से भी बातें करने में सक्षम हो जाते है. आप उनकी शक्तियों को भूल के भी आजमाने की कोशिश न करें नही तो आप बड़ी मुसीबत में फंस सकते है.

वो अनजान और वीरान जगहों जैसे की शमशान में ही रहते है, उनके आस पास सिर्फ कुक्कर(कुत्ता) जानवर ही देखा जा सकता है. उनकी ऑंखें लाल ही रहती है जो उन्हें और भी डरावना बनाती है, वो स्वाभाव से जिद्दी होते है और वो अपनी हर बात मनवाने की ताकत भी रखते है

बीफ पर देश में घमासान है लेकिन जान ले की खुद अघोरी भी गाय का मांस नही खाते है, लेकिन वो इंसानो तक का मांस खा जाते है जिनसे उन्हें काफी बल मिलता है और उनका मौत का भय जाता रहता है. रक्षशो की तरह ही वो लोग दिन में सोते है और रात में अपनी साधना में तल्लीन रहते है.

सबसे ज्यादा ये अघोरी असम के कामख्या मंदिर( जन्हा सती के भस्म होने पर उनकी योनि गिरी थी), पश्चिम बंगाल के तारापीठ, नासिक के अर्धज्योतिर्लिंग और उज्जैन के महाकाल के आस पास ही देखें जाते है. कहा जाता है की इन स्थानो पर सबसे जल्दी सिद्धिया हासिल होती है, हालाँकि हमने थोड़े में ज्यादा बताया है लेकिन उनके रहश्यमयी संसार का ज्ञान खुद उनको ही है किसी भी आम इंसान को नही
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14>शिव के उपासक होते हैं अघोरी साधु, जानिए 12 अन्य रहस्यमय तथ्य

अघोर पंथ हिन्दू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, लेकिन इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष माना जाता है।
इस पंथ का पालन करने वाले साधुओं की जीवनचर्या अप्रचलित और सभ्य समाज से अलग होती है। यही वजह है कि लोगों में इनके प्रति जिज्ञासा का भाव अधिक होता है। जानिए इनके कुछ हैरान कर देने वाले अन्य तथ्य।
1. शिव भक्ति
अघोरी साधुओं को शैव संप्रदाय का माना जाता है, यानी कि वे शिव जी के उपासक हैं। उनका मानना है कि शिव ही वह एकमात्र ताकत है, जो इस दुनिया को अपने नियंत्रण में रखता है और निर्वाण का आखिरी सारथी है।
2. सार्वलौकिक दवा
अघोरियों का मानना है कि उनके पास इंसान की सारी बीमारियों और रोगों का इलाज है। वे लाशों में से असाधारण तेल निकालकर उनसे दवाइयां बनाते हैं, जिन्हें अत्यंत प्रभावी माना जाता है।
3. कठोर परिस्थितियों में जीवन
अघोरी साधु दुनिया के सबसे कठोर और सख्त प्राणियों में से हैं। निर्जन-भूमि की झुलसाने वाली गर्मी हो या बर्फ से ढकी हुई कड़कड़ाती हिमालय की ठंड, वे हर मौसम में कपड़ों के बिना जीते हैं।
4. कोई विकर्षण नहीं
अघोरियों का मलिन रहने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण है। उनका मानना है कि परमात्मा के पास पहुंचने के लिए उन्हें छोटी-छोटी चीज़ों से विकर्षित नहीं होना चाहिए, जैसे की सफाई रखना और बदन ढकना। यही कारण है कि वे बाल कटाने को भी आवश्यक नहीं समझते हैं।
5. लाशों पर ध्यान करना
मन्त्र उच्चारण से मोहावस्था की स्थिति में आने के बाद, अघोरी श्मशान में ध्यान लीन हो जाते है। उनका मानना है कि इसी से उन्हें मोक्ष का मार्ग प्राप्त होगा।
6. वस्त्र हीनता
अघोरी साधु बहुत ही कम कपड़े पहनते हैं और अपने नंगे शरीर से शर्माते नहीं हैं। वे दुनिया के सारे सांसारिक सुखों को ईश्वर से मिलन के लिए त्याग देते हैं और मानते हैं कि वस्त्र-हीनता भी उसी ईश्वर को पाने का एक ज़रिया है।
7. किसी से लिए कोई घृणा नहीं
अघोरी सांसारिक घृणाओं से कोसों दूर रहते हैं। अपने कर्म के आधार पर भगवान शिव के द्वारा दी गई सभी चीज़ों को सद्भावना के साथ स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार मोक्ष पाने के लिए यह करना आवश्यक है।
8. वस्त्र और आभूषण
अघोरी भले ही कपड़ों का त्याग कर देते हैं, परन्तु वे अपने शरीर को जलती चिता से बनी हुई राख से ढकते हैं। वे इंसान की हड्डी और कपाल को आभूषण की तरह पहनते हैं।
9. यौन अनुष्ठान
वे स्त्रियों के साथ सम्भोग करते तो हैं, लेकिन उनकी मर्ज़ी के बगैर उन्हें छूते भी नहीं। उनके साथ यौन क्रियाएं वे सिर्फ शमशान भूमि में लाशों के ऊपर करते हैं। यौन संबंध जब बनाए जाते हैं, उस वक्त ढोल बजाए जाते हैं। वे यह आनंद के लिए नहीं, बल्कि मोहावस्था की स्थिति में आने के लिए करते हैं।
10. नरमांस-भक्षण तथा मांस-भक्षण
अघोरियों को मनुष्य का मांस-कच्चा एवं पका हुआ खाते देखा गया है। यह प्रथा आश्चर्यजनक और ग़ैरकानूनी होने के बावजूद वाराणसी के गांठ पर खुलेआम प्रचलित है।
11. तांत्रिक शक्तियां
कहा जाता है कि ज़्यादातर अघोरियों के पास तांत्रिक शक्तियां होती हैं। वे काले जादू में माहिर होते हैं और जब वे मंत्रों का जाप आरंभ कर दे, तब उनमें अलौकिक शक्तियां आ जाती हैं।
12. गांजे का उपयोग
अघोरियों को खुले आम गांजे का दम लेते देखा जा सकता है। वे गांजे को नशे में चूर होने के लिए नहीं, बल्कि भक्ति और ध्यान में मदमस्त होकर परमेश्वर के निकट पहुंचने के लिए उपयोग करते हैं।
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