Friday, February 19, 2016

18>शरीर ही सत्यक्या यह सत्य है+यदिशरीरसबकुछहोतातो+जीवनकीगतिबढ़ानेकेलिए+आध्यात्मिक यात्रा

 18=आ =Post=18>***शरीर ही सत्यक्या यह सत्य है***( 1 to 4 )

1--------------------------यह शरीर ही सत्य है शेष सब व्यर्थ है? क्या यह सत्य है?
2--------------------------यदि शरीर सब कुछ होता तो
3--------------------------जीवन की गति को बढ़ाने के लिए परिवर्तन?
4---------------------------आध्यात्मिक यात्रा क्यों?
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1>यह शरीर ही सत्य है शेष सब व्यर्थ है? क्या यह सत्य है?

शरीर केवल आत्मिक अनंत यात्रा का एक वाहन है जिसके बिना हम दृश्य जगत के भेद नहीं पा सकते। शरीर की अपनी महिमा है और महत्व भी और जैसे कोई भी गाडी को सुचारू रूप से चलने के लिए लगातार देखभाल की आवश्यकता होती है वैसे ही शरीर रूपी गाड़ी भी अपने प्राकर्तिक व् सहज रूप में होगी तभी हम गति व् समय समझेंगे। यदि आधा समय गाडी ख़राब है तो यात्रा अधिक दूर तक न होगी. शरीर कभी बीमार या अस्वस्थ न होगा यदि हम अपने मन को जो गाडी को बनाने व् चलाने वाला है को स्वस्थ रखें. एक स्वस्थ मन एक स्वस्थ शरीर बना सकता है.

यदि शरीर सब कुछ होता तो प्राण निकलने के बाद मृत शरीर को देख उसके प्रेम करने वाले इतना न रोते बिलखते। शरीर केवल एक वस्त्र या वाहन है जो नाशवान है पर उसमे ठहरने वाली अत्मिकसत्ता ही वास्तव सत्य व् अविनाशी सत्ता है. केवल जड़बुद्धि मूर्ख ही शरीर को एकमात्र अस्तित्व मानते हैं.

सरीर के नष्ट हो जाने के बाद वही पहचान के साथ जन्म हो ऐसा नही हो सकता। मोक्ष केवल एक विचार है जो शायद जरूरत से ज्यादा विस्तारित हुआ, जिसका अर्थ अधिकतर गलत समझा गया और उसे केवल शरीर से निकलने के बाद की अवस्था जाना गया जो की सही नहीं है. मोक्ष इसी जीवन में सम्भव है पर आसक्तियों व् वासनाओं में फंसे मन व् शरीर को इस जीवन काल में संसार की दलदल से कैसे सहजता व् बिना अशरीर हुए निकला जाए वह एक प्रश्न है जिसका हल है.

मोक्ष या स्वर्ग बेचना धर्मो द्वारा किया गया शायद किसी स्वार्थ के लिए. लेकिन हम इसी जन्म में इसी जीवन में इसी संसार में रहते बहुत कुछ बदल सकते हैं जिनका उद्देश्य इसी जीवन काल को बेहतर व् सुखी बनाना है. बौद्धिक धोखाधड़ी सभी धर्मों के लिए आम बात है पर यहाँ हम किसी धर्म या स्थापित विचारो की बात नहीं कर रहे. अध्यात्म की राह या आत्मज्ञान हर व्यक्ति के लिए नहीं है. क्यूंकि बौद्धिक डिबेट व् बहस का कभी कोई अंत नहीं होता। पर एक सुखी व् सफल जीवन के लिए इसे समझे बिना आगे बढ़ने की सोच भी उचित नहीं कही जा सकती. इसलिए इस राह पर चलने के लिए सबसे पहले अच्छी संगत, सत्य संग या सत्संग अनिवार्य है. अकेला मन भटक जाता है इसलिए भले, सुहृदय व् सद्भावना वाले मित्रो या विचारो की बहुत आवश्यकता है. गुरु तो हमारा मन है बस उसे दिशा चाहिए जो भली सोच, सत्य संग व् सुविचारों से ही सम्भव है.

प्रश्न: शरीर नाशवान है फिर हमको क्यों पता नही चलता मन के अन्दर जो प्रकाश है वो सत्य, बहार का प्रकाश मिथ्या है ध्यान अंदर के जगत के द्वार तक ले जाता है ?

जैसे दीपक तले अँधेरा होता है, वैसे ही बाह्र्य संसार की चमक दमक में खोकर जीव अपने अंदर झाँकने का प्रयत्न भी नहीं करता। थोडा बहुत तोता रटंत पाठ करने या साष्टांग कर या शरीर की सत्ता में ही रहने और उसे सब कुछ मान लेने के कारण जीव का अंतर मन तो दूर जाग्रत मन भी अपने असली स्वरुप को नहीं पहचान पाता, पर आज की व्यवस्था व् माया जाल और ऊपर से भ्रम व् संदेह ने आम आदमी को अपने नाशवान शरीर से ही जोड़ कर रखा है, मन तो एक दूर बैठा पक्षी है जिसकी चह चहाट व् क्रंदन आज के जीव को सुनती भी नहीं.

ऐसे में ध्यान एक द्वार है लेकिन केवल शरीर को पद्मासन में बिठाकर ओम कहने से ध्यान नहीं होता और इसीलिए लोग ध्यान को भी एक टेलीविज़न का कार्यक्रम समझ कर या उसे एक योगासन समझ उसे समझ नहीं पा रहे. ध्यान के द्वार व् गहन रास्ते पर चलने से पहले हमें अपने कुछ भावो, मनोस्थितिओ व् आदतो को दुरुस्त या संतुलित करना होगा और इसीलिए व् अन्य कई अध्ययन के विषयो को समझने के लिए इस साधारण तुच्छ पृष्ठ का गठन किया गया है.

इस सम्बन्ध में आगे बढ़ने के लिए कुछ निकट भविष्य में सन्देश होंगे जिन्हे आप पढ़ने का प्रयास करना अपने जीवन में अंतर परिवर्तन लाने के लिए स्वाध्याय व् आत्म निरिक्षण से अंतर जगत का आभास होगा और कुछ अभ्यास से आपको बाह्र्य जगत भी साफ़ दिखेगा और इसके भेद कोई पहेली नहीं रहेंगे।
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2>यदि शरीर सब कुछ होता तो

यदि शरीर सब कुछ होता तो प्राण निकलने के बाद मृत शरीर को देख उसके प्रेम करने वाले इतना न रोते बिलखते। शरीर केवल एक वस्त्र या वाहन है जो नाशवान है पर उसमे ठहरने वाली अत्मिकसत्ता ही वास्तव सत्य व् अविनाशी सत्ता है. केवल जड़बुद्धि मूर्ख ही शरीर को ही एकमात्र अस्तित्व मानते हैं.

शरीर के लिये काम ढूंढ़ लो मन को मन को खुशी अपने आप मिल जायेगी । जैसे जुगनू भी तभी तक चमकता है जब तक वह उड़ता रहता है, यही हाल मन का भी है उस को काम पर लगाये रखो ।

फिर सत्य का अर्थ क्या है ओर शेष सबकुछ असत्य क्यो है???

जिसका न आदि है न अंत, जो सर्वव्यापीहै, सदा है, सर्वदा है, सदानदं है, सर्वमूल है, सर्वमुल्यवान है, सर्वशक्तिशाली है, सर्वसामर्थ्यवान है, सीमाहीन है, ससीम है, सर्वमूलकारण है, कण कण मे समाया हुआ है ओर अवर्णनिय है, जिसकी महिमा का सम्पूर्ण कभी न किया जा सका हो! सिर्फ वो ही सत्य है!

प्रश्न : राम नाम सत्य है।। मरने पर ही क्यों बोलते हैं । जन्म होने पर क्यों नहीं बोलते?

इस पृथ्वी पर किसी स्थान पर एक बच्चा उत्पन्न होता है तो वह परम आत्मा परमेश्वर के होने का संकेत होता है तो लोग ख़ुशी में सब भूल जाते हैं क्यूंकि हर पैदा होने वाला बालक उसी परम आत्मा की छवि है जो जीवित शरीर में हिलती डुलती व् रोकरअपने आने को राम नाम के सत्य होने का उद्घोषक करवाती है। दुःख है के आदमी अपने गुणों या अवगुणो से प्रभावित हो कर उस ईश्वर के रूप बच्चे को अपने जैसे ही बनाना चाहते हैं और कुछ वर्षो में उसे भी अपने आदमी द्वारा सीखे या बनाये गए काल्पिनक जगत के गुण व् अवगुण सिखा कर अपने ही प्रारूप में ढाल देते हैं. तो पैदा हुआ बच्चा ईश्वर के प्रारूप में आता है.

मूर्ख, लेकिन संसारिक दृष्टि से बुद्धिमत लोग उसे आदमी बना कर छोड़तें हैं चाहे इसके लिए कितने ही झूठ बोलने पड़ें। इसीलिए ईश्वर हर दिन अपने प्रतिरूप व् प्रारूप को भेजता है पर हम अपनी नादानी और मूर्खता से उसे अपने जैसा ही बना देतें हैं. हमारी शिक्षा, हमारा झूठा, कृत्रम संसार, झूठे नकली कर्म , धर्म व् 'ज्ञान' व् अविद्या सिखा कर उसे हमारे असली वास्तविक घर व् बीज से दूर कर देते हैं. क्या हम कभी बदलेंगे ? इस कलयुग में तो ऐसा नहीं होने वाला पर जो लोग विद्या व् बीज ज्ञान को समझ जायेंगे वह इसी संसार में रहते ईश्वरीय जगत से संपर्क कर अपने वास्तविक प्रारूप को प्राप्त होंगे.

पृथ्वी पर जन्मे नाशवान शरीर के समाप्तः हो जाने पर इस हमारे दृश्य जगत या आँखों से दिखने वाले संसार से विदाई लेते हैं तो उस परम आत्मा परमेश्वर जो अविनाशी है के, हमारे लिए जाना पहचाना एक अवतरित नाम राम का ही स्मरण, इसलिए करते हैं के केवल उसी परम आत्मा का स्वरुप ही हमेशा जैसे था वैसे ही बना रहता है - बाकी सब मूरत जो बनती तो उसी की छवि से हैं - अल्पकालिक अस्थायी है - इसीलिए राम नाम ही सत्य है - यहाँ हर तरह के सम्प्रदाय व् धर्म और उनके हजारो वर्ग अपने लिए जाना पहचाना ईश्वर का नाम लेकर उसे ही सत्य बताते हैं - और यहाँ आदमी का अहंकार व् घमंड चूर चूर हो जाता है और उसके बाद आदमी के पृथ्वी के सारे रिश्ते नाते समाप्त हो जाते हैं और जब सब रिश्ते व् अहंकार ही खत्म हो तब बाकी क्या रह जाता है ? केवल एक नाम जो सदैव मरने वाले शरीर में छिपे आत्मा के अंश को रास्ता दिखायेगा ताकि वह यहाँ भटक कर इन वासनाओं व् कामनाओं वाले भू संसार में दोबारा खो न जाए इसीलिए उसे राह दिखाने के लिए - राम नाम सत्य है का मंत्र कहा जाता है.

कई केंद्रित व् समझदार जीवित लोग भी इस सत्य को समझ जाते हैं अधिकतर इसका अर्थ न समझने के कारण केवल उच्चारण ही करते हैं. जहाँ जीवित व्यक्ति दृश्य संसार के लोगो के लिए जाने वाला काल के दूसरी और चला जाता है, हमारे लिए मृत हो जाता है , वहीँ दूसरी और वही आत्मा अपने कर्मो के अनुसार एक दूसरे संसार में उत्पन्न भी होता है. मरने और जीने के बीच केवल एक पल के भी पल का अंतर होता है, जो यहाँ मृत हो गया वह दूसरे किसी संसार में उसी समय पैदा भी हो जाता है, तो एक तरह से उसका जनम भी उसी दिन होता है. कोई भी जन्मा या अजन्मा आत्मा इन पृथ्वी जैसे गृहो पर एक निश्चित सीमित अवधि के लिए ही आता है पर इस जीवनकाल का अधिक समय स्थानीय भौतिक साम्राज्य के मेले में ही खोकर गुजार देता है और पछताता है के जो कमाया सब वहीँ रह गया, जो साथ जा रहा है वह केवल उसी सर्वशक्तिमान अमृतदायी शक्ति सत्ता का कोई भी एक नाम होता है और यह नाम ही एक ऊर्जा यान का रूप धरकर आत्मा को उसकी गति अनुसार उसके गंतव्य पर पहुंचा देता है.
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3>जीवन की गति को बढ़ाने के लिए परिवर्तन?

विलासपूर्ण जीवन व् आध्यात्मिक खोज

जो व्यक्ति उत्तम जीवन बिताने का निश्चय करे उसके लिये यह आवश्यक है कि वह सब से पहले बुरा जीवन व्यतीत करना त्याग दे और उस दुष्ट अप्राकृतिक जीवन के वातावरण को बदल दे, जिससे वह घिरा रहता है। हमारा समस्त जीवन सच्चा, न्यायपूर्ण और दयालु हो तभी हमारा कोई काम सत्कार्य माना जा सकता है। यदि हमारा आधा जीवन अच्छा हो और आधा बुरा हो तो हमारे कार्य अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। पर यदि हम सर्वथा बुरा और गलत जीवन बिता रहे हैं, तो हम जो काम करेंगे वह बुरा ही हो सकता है, अच्छे काम की आशा करना ही व्यर्थ है।
जो मनुष्य भोग विलास में डूबा है वह कभी सत्यतापूर्ण जीवन नहीं बिता सकता। जब तक वह अपने जीवन में परिवर्तन नहीं करता, सत्य की ओर जाने वाली पहली सीढ़ी पर पैर नहीं रखता, तब तक सद्जीवन के लिए वह वह जो भी प्रयत्न करेगा, सब निष्फल जायेंगे। आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन को नापने का एक ही तरीका है और वह यह कि मनुष्य स्वयं या खुद को कितना प्रेम करता है और दूसरों को कितना? हम स्वयं को जितना कम प्रेम करेंगे, अपने लिए जितनी कम चिन्ता करेंगे, और अपने स्वार्थ के लिए दूसरों से जितना ही कम काम कराएंगे उतने ही उत्तम हम हो सकते हैं। दूसरों से जितना अधिक प्रेम करेंगे, हम उनके लिए जितना परिश्रम करेंगे उतना ही हमारा जीवन उत्तम माना जायगा। संसार के सभी सन्त पुरुषों ने अच्छाई का यही अर्थ बतलाया है, सभी सच्चे धार्मिक पुरुष ऐसा ही कहते हैं और आजकल जन-साधारण भी इसी सिद्धाँत को ठीक मानते हैं। मनुष्य जितना ही अधिक दूसरों को देता है और उतना ही वह श्रेष्ठ होता है। इसके विपरीत जितना ही कम वह दूसरों को देता है और अपने लिए जितना ही अधिक चाहता है, उतना ही वह ग्रसित व् स्वार्थ में लिप्त होता है।अच्छा जीवन बिताना, बुरे समय या निवेश के लिए पूंजी को बचा कर रखना बुरा नहीं है लेकिन केवल स्वार्थपूर्ण जीवन अंत में हमें कभी कुछ नहीं देता और भौतिक समृद्धि या सुख जैसे वातावरण के बावजूद सब खाली जैसा लगता है. संतुलित जीवन होना उत्तम है.
अच्छा आदमी बनने और अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य दूसरों से जितना ग्रहण करे, उससे अधिक उन्हें लौटा दे। किन्तु स्व-भोगी (अपने सुख का ध्यान रखने वाला) मनुष्य, जो ऐश आराम की जिन्दगी बिताने का अभ्यासी है ऐसा कर ही नहीं सकता।
जब आसक्तिओ से मुक्ति मिलती है सदाचार सीख लिया जाता है तो यही जीवन स्वर्ग तुल्य हो सकता है और आत्मविकास भी बहुत होगा.

आत्मिक समीक्षा में विचारों का उद्गम व् उद्देश्य ?
कुछ सन्देश केवल हमारी अबतक की धारणाओं व् विचारो को परिभाषित करने के लिए हैं. किसी भी पाठ्य कर्म में पहले भूमिका व् परिचय होता है तत्पश्चात वहां से ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ा जाता है.
उसी तरह धीरे धीरे जो कुछ हमने अब तक सुना और शास्त्रो ने बताया उसकी जानकारी प्राप्त करते हैं उसके बाद साथ साथ आत्मिक अनुभूतिओं की भी चर्चा करते हैं. अधिकांश लोग व्यस्त होने के कारण सब भूल जाते हैं इसलिए कुछ विचारो को परिभाषित करना भी आवश्यक है. ये सन्देश प्रत्यक्ष मेरी आत्मा की अनुभूति से आप तक पहुँच रहें हैं.
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4>आध्यात्मिक यात्रा क्यों?

भारतवर्ष अपने आध्यात्मिक ज्ञान के लिए प्रसिद्ध ही नहीं रहा पृथ्वी पर मनुष्य सभ्यता का शीर्ष रहा है । आज से नहीं हजारों वर्ष से यहाँ के साधु और ज्ञानी देश और विदेशों में सम्मान के पात्र रहे हैं। सिकन्दर जैसे सम्राट ने भी यहाँ के साधुओं के सामने मस्तक झुकाया था। इस युग में भी स्वामी दयानंद, विवेकानंद, रामतीर्थ व् अन्य दर्जनो मनीषिओ ने भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान का उत्कर्ष दिखाकर दूर-दूर के भूखण्डों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है। यही कारण है कि इस देश की अनपढ़ जनता ही नहीं वरन् समझदार विद्वान व्यक्ति भी आध्यात्मिकता का नाम सुनकर सहज ही उस तरफ आकर्षित हो जाते हैं और अध्यात्मज्ञानी कहलाने वाले व्यक्तियों को श्रद्धा तथा भक्ति की भावना से देखते हैं।समय के प्रभाव से भारतीय अध्यात्म में बहुत परिवर्तन हो गया है और उसमें तपस्वी व्यक्तियों के बजाए स्वार्थी और ढोंगी व्यक्ति बहुत मात्रा में घुस गये हैं। यह नहीं कि ऐसा आजकल ही होने लगा है। किसी समय में सभी साधु वेशधारी महात्मा थे। हम मानते हैं कि साधुवेश धारियों में वास्तविक महात्माओं की संख्या सदैव बहुत थोड़ी रही है। पहले साधारण साधुओं का उद्देश्य पेट भरने तक ही सीमित रहता था आजकल जिस प्रकार अन्य अनेक विषयों में मनुष्यों ने ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग कर नकली चीजों का रूप कुछ प्राकर्तिक चीजों से बढ़कर बना दिया है, उसी प्रकार आध्यात्मिकता के क्षेत्र में भी कुछ ढोंगी लोग सच्चे लोगों से आगे बढ़ गये और दुष्कर्म करके धार्मिकता और आध्यात्मिकता का नाम बदनाम कर रहे हैं। ऐसे ढोंगी और ठगने वाले महापुरुषों जैसे दीखते लोग इतने चालाक हो गये हैं भण्डाफोड़ होने पर भी कुछ सुप्त लोगों की आँखें नहीं खुलतीं, दुष्प्रभाव ये है की लोग अंधभक्ति में आत्मिक उन्नति में पिछड़ से गए और पुरानी मान्यताओ को ही सच समझते रहे, जरुरी नहीं के अगर कोई "ज्ञान" पुराना लगता है तो वो सत्य ही हो.
आप अपने आत्मज्ञान को जाग्रत कर अपने आस पास के लोगों को जगाएं। याद रखें के अधिकतर सन्यासी व् साधु बहुत निर्मल व् भले हैं. लेकिन कोई अपनी यात्रा में कहाँ है ये कोई नहीं जान सकता. कभी कभी भी किसी को बुरा भला न कहें। धर्म ध्वज को ऊपर लहराए रखें और भारत वर्ष अपने आप ठीक हो जाएगा यदि हम अपने आप को जान सकें और अपने अंतर में परिवर्तन लाएं.

आध्यात्मिक यात्रा का क्या लाभ हो सकता है?
ये दुनिया ठीक चल रही है अगर ऐसा हो तो अधिकतर लोग इतने दुःख में क्यों हैं?
जब हम काम क्रोध व् लालच की बात करते हैं तो हम इन्हे अपने नियंत्रण में रखने की बात करते हैं अगर ऐसा नहीं होता तो आदमी अपना नियंत्रण खोकर इन्ही विकारो चक्र व्यूह में फंसा समाप्त हो जाता है. जब आसक्तिओ से मुक्ति मिलती है सदाचार सीख लिया जाता है तो येही जीवन स्वर्ग तुल्य हो सकता है और आत्मविकास भी बहुत होगा.

कृपया न भूलें के यदि आप इस पृष्ठ के संदेशो को पढ़ते हैं तो इसके सन्देश को भलीभांति ग्रहण करते हैं तो आप अपने आत्मिक उत्थान की और अग्रसर हो सकते हैं, यहाँ नो तो कोई लालच, स्वार्थ या कोई छिपा कारण है. ये सब आत्मा की अनुभूति अनुभव हैं और उद्देश्य केवल विलासिता, झूट मूठ के सुख व् इस कृत्रम संसार के सत्य को उजागर कर अपने आप को अंतर जगत की और उन्मुख करना है जिसका लाभ आपके न केवल इस जीवन बल्कि आत्मा की लम्बी यात्रा में सहायक हो सकता है. यहाँ पर न कोई दुकान है न कुछ बेचने के लिए. आपके जीवन में उजाला हो, प्रसन्नता हो, आपके अंतर्मन में संतोष हो और आपका जीवन सुखमय हो यह ही मेरी कामना है.
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1 comment:

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