Friday, February 19, 2016

15>परमात्मा कौन+उसनेसबकुछदियामगर मेरेहाथछोटे+सुंदरतारंग में नहीं+बुद्धिसे ईश्वरप्राप्ति+जड़भरत

15>आ =Post=15>***परमात्मा कौन***( 1 to 5 )

1---------------------यह परमात्मा कौन है?
2---------------------उसने तो सब कुछ दिया था मगर मेरे ही हाथ छोटे निकले
3---------------------सुंदरता किसी रंग में नहीं होती
4---------------------बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि
5---------------------जड़भरत नामक एक अति आध्यात्मिक पुरुष
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1>यह परमात्मा कौन है?

महान आत्मा के रूप में जाना जाता है यह आत्मा का वास्तविक स्वरुप ही है

ये कहाँ है?

स्वयं के चेतन मन से थोड़ा दूर आप के भीतर आपसे अनजान आपके अंतकरण में ही है.

इसे कैसे देखते हैं?
भौतिक शरीर की आँखें इसे नहीं देख पाती यद्द्पि इसका विस्तार प्रति क्षण दीखता रहता है. अंतकरण, अपने भीतर की आंख है , अथवा भीतर आत्मा की आँखें, अपनी बाहरी आँखे बंद करें, जब आप बाहरी विस्तार और भौतिक पदार्थ की दुनिया से निकल जाए तो एक छोटा सा रास्ता एक बहुत ही शांत और ठन्डे हरे भरे वातावरण में ले जायेगा जहाँ नीले और बैंगनी प्रकाश के ऊपर अंत में एक सफ़ेद प्रकाश का एक मंदिर होगा जहाँ पहुँच कर सब अति शांत हो जाता है मन यहीं समाप्त होगा और आत्मा का स्वरुप प्रकट होता है ।
यहाँ का विस्तार बहुत विशाल और अंतहीन है और यहाँ सशरीर विचरण तभी सम्भव है जब आप अंतकरण को जागृत रखें.

इस संसार रूपी अपार समुद्र में मुझ डूबते के लिए कौन सा आश्रय है?
सम्पूर्ण जगत के परमात्मा के केंद्र के अप्रकाशित प्रकाश का एक छोटा सा अंश भी एक नौका के समान है जो एक बार पकड़ ले तो आपको कभी डूबने नहीं देगा।

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2>उसने तो सब कुछ दिया था मगर मेरे ही हाथ छोटे निकले 

उसने तो सब कुछ ठीक ही किया था // मै ही अपने रस्ते से हटता दिशा बदलता रहा

उसने तो कोई बेवफाई न की थी मगर // मेरी ही मोहब्बत में कमी रहती रही

लीला लौकिक अलौकिक उसी की थी // मै उसे अपना चमत्कार समझता रह गया
मै मूर्ख समर्पित न कर सका उसे सब कुछ // एक खाली बर्तन जैसा रह गया

वहां से तो निर्मल झरने जैसे निकला था // हर रास्ते में गंदगी उँड़ेलता रह गया
तूने मुझे अपनापन दिया प्रेम से भरे रखा // मै ही नफरत के जहर पी पी कर बेहोश होता रह गया

तूने जगत के हर कण में जगमग भर दी // मै अपने अंधेरो में ही फंसा रह गया
तूने संसार के हर कोने को संगीतमय कर दिया // एक बांसुरी से लाखो सुर निकले
इक तार से हजार स्वर निकले // कण कण में वाद्य हर बूँद में गीत छिपे
तेरे पल पल में लय और सुर ताल है // मै बेसुरे राग अलाप्ता रह गया

तूने अपनी रहमत और दया की बारिश कर दी लेकिन // मै ही बेजान चीज़ो से घर भरता रहा
दरवाजे पर आये भिक्षुक रूप को भगाता रह गया // तूने कितने रूप दिखाकर मुझ भटके को रास्ता दिखाना चाहा
मै आत्मा पर बड़े बोझ तले दबा सा रह गया

तूने मुझे पंख दिए उड़ने को उंचाईयो पर /मै संसार की गहराईओं में उड़ना सीखता ही रह गया
तू तो स्वयं ही मुझ में समाया था हर पल हर समय // मै ही मंदिरो मस्जिदो में माथा रगड़ता रह गया।

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3>सुंदरता किसी रंग में नहीं होती

रंग केवल आंतरिक आत्मिक सुंदरता को परिभाषित करते हैं. // सुंदरता किसी व्यक्ति, समय, स्थान में नहीं होती
वह केवल हमारी आत्मा की आँखों में होती है // जिसे हम सुंदरता समझते हैं वह हमारी उस समय की
आवश्यक्ता व् लालसा होती है, इसलिए बाहरी सुंदरता के पीछे भागना // मूर्खता का बोध है।
सुंदरता को बाहरी दो आँखों से कभी ना देखें // अपने अंदर की सुंदरता को खोजने के लिए ध्यान लगाएं
पहले कृष्ण अंधकार को समझे और उसकी स्थायी सुंदरता को देखें
तत्पश्चात लाल रंग को लाएं, फिर नारंगी रंग को देखें // उसके बाद पीतवर्ण, सुवर्ण पीले रंग को ध्यान में लाएं
धीरे धीरे कुछ दिनों के बाद आपको पीले से हरे सब्ज रंग में जाना है
इसके बाद समुद्र और आकाश के नीले रंग को ध्यान में लाएं // एक फूल की पँखुडिओ और उनकी चमक को देखें
केंद्रित मन से आप अपने अंदर छिपी सुंदरता को जब देखना आरम्भ
करेंगे तो बाहर फैली सुंदरता ऐसे दिखेगी जैसे कहीं मिटटी गारे में दबा हीरा // छिप्पा होता है.

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4>बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि


भाई जी बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि आप को ज्ञान और ज्ञान व् अविद्या का भेद पता हो. आज जितने भी कथित धर्म जो बेचे जा रहें हैं ये सब मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट यानि बनाये गए उत्पादन हैं जो पहले से ही जड़ व्यक्ति को और अधिक जड़ बनाते हैं. इसी बुद्धि को दुरूपयोग में ला ये मजहब रिलिजन व् धर्म बेचने वाले साधारण मनुष्य को मूर्ख सिद्ध करते हैं. इसलिए बुद्धि पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वास्विक गहन ज्ञान जब होगा तो बुद्धि यदि आत्मिक अंश
को समझ उसे अनुभूत करने का प्रयास करे तो ऐसा संभव है. आत्मिक चैतन्य मनुष्य की साधारण बुद्धि से बहुत पर एक अलग डायमेंशन या संसार है
जहाँ स्थूल विचार व् दृश्य या झूठ मूठ के धर्म आदि न हों और इसमें प्रवेश करने के लिए सत्यत बुद्धि के छोटे से दायरे से निकलना बहुत आवश्यक भी है और
आवश्यकता भी. इसलिए बाह्र्य व् झूट मूठ के इस संसार के अधिकतर प्रपंच आदमी को और जड़ बनाने के लिए कुछ मूर्ख प्राणिओ द्वारा रचित नाटक हैं
जो लगते तो सच हैं पर वो खोखले व् मिटटी के ढेर जैसे हैं. इसीलिए आत्मिक यात्रा को शरीर व् इसी साधरण बुद्धि से तुलनात्मक रूप में भी नहीं देखा जा सकता. ये एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हम सभी को बहुत मनन करना है और आडम्बरो से लिप्त इस प्लास्टिक सुंदरता वाले संसार से पीछा छुड़ाना है.

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5> जड़भरत नामक एक अति आध्यात्मिक पुरुष

एक दूसरे युग में जड़भरत नामक एक अति आध्यात्मिक पुरुष हुए. जैसे शराब का नशा तामसिक और अन्न का नशा रजस उसी तरह वैराग्य व् अध्यात्म का नशा सात्विक होता है. जड़भरत के परिवार व् मित्र उन्हें नकारा समझते थे, वह कैसे उनकी दुनिया को समझ सकते थे ! एक बार जड़भरत जी अपने वैराग में कहीं चले जा रहे थे और कुछ डाकू उन्हें बलि देने के लिए जबरदस्ती पकड़ कर अपने सरदार के पास ले गए । जड़भरत जी ने कोई विरोध नहीं किया पर उनके मुख से तेज व् प्रकाश के होने से उन्होंने सोचा के इन्ही महापुरुष से दिखने वाले व्यक्ति की बलि देने से देवी खुश होगी।
डाकू के पुरोहित बने ठग ने उन्हें मारने के लिए, भद्रकाली देवी को पुकारा, प्रार्थना कर एक भयानक कटार निकाली, जड़भरत जी ने इस पर भी कोई प्रार्थना नहीं की, और वह मुस्कुराते रहे के चलो ईश्वर के दर्शनों का समय आया है, आत्मा के तेज प्रकाश की ज्वाला इतनी तीव्र थी की देवी तक उनका तेज पहुँच गया और उसी समय देवी प्रकट हो गयी और उन्हें उन मूर्ख व् जड़बुद्धि बलि देने वालो को अपने क्रोध से श्राप दिया और अपने उच्च ज्वलित रूप से उन्होंने सारे दुष्ट दस्यु गिरोह के शरीरो को समाप्त कर दिया। देवी ने जड़भरत जी से कोई वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने सोचा और मना करने लगे; तब देवी के कहने पर उन्हें उन डाकुओ को जीवित करने का वरदान माँगा। देवी जो धरती जैसे मानवीय गृह में इस प्रकार के देव पुरुष को देख कर चकित थी, उसने मांगे गए वरदान को पूर्ण किया.
अपने प्राण लेने वाले दुष्टो के प्रति यह दया व् सद्भावना देखकर सभी डाकू दहाड़े मार मार कर बालको की तरह रो पड़े, अपने अपने हथियार फेंके और साध लिया के उस समय पश्चात कोई अपराध या किसी को भी दुःख नहीं देंगे, उनके पैरो पड़े और क्षमा मांगी।
भगवत गीता में भी जड़भरत की चर्चा की गई है.
इन्ही त्यागी जड़भरत जी एक बार एक राजा के यहाँ नौकरी के लिए रखे गए और उन्हें राजा की पालकी उठाने वाले कहार का काम दिया गया अब एक आध्यात्मिक जगत में रहने वाले बेचारे साध को किसी बात की चिंता नहीं थी जो भी मिलता ठीक था.
एक बार राजा की पालकी लिए कहार चले तो जड़भरत जी नीचे देख देख कर चल रहे थे कहीं कोई जीव पैरो तले न दब जाये इस प्रकार वे देख देख कर चलने के कारण बाकी कहारों से उनकी चाल से मेल न होने से पालकी उलटी सीधी होने लगी और डगमगा उठी.
अब राजा को ये देख बहुत बुरा लगा और क्रोध में आ कर कहार को बुरा भला कहा और उसे मार डालने की धमकी दी। जड़भरत जी पर राजा की क्रोध पूर्ण बात का कोई असर न हुआ और बोले : " हे राजन, कौन ऊपर है कौन नीचे है , मुझ पर पालकी है, और आप पालकी पर, आप पर छत , और छत पर आकाश, मारेंगे तो किसे मारेंगे ? आत्मा तो अजर अमर है और ये शरीर तो नाशवान है "
राजा रहुगुण जी इन शब्दों को सुनकर अपनी पालकी से वहीँ कूद पड़े, और उन्हें आगे कुछ बात की और उन्हें पता लगा के बहुत गलती हो गयी है ये तो महात्मा हैं कहार के रूप में और झट से उनके चरणो में गिर पड़े और ज्ञान की भीक देने की प्रार्थना की।
जड़भरत जी को राजा पर दया व करुणा आई और उन्हें उपदेश दिया, राजा को आत्मिक भेद व अध्यात्मिक जीवन की गहराईओं का ज्ञान हुआ और राजा ने वैराग्य लेकर परम आत्मा की प्राप्ति की.
इस संसार के पदार्थो में आसक्ति ना होना ही वैराग्य होता है. वैराग का अर्थ केवल घर संसार छोड़ना या पीले, भगवे वस्त्र पहनना नहीं है बल्कि इस संसार के सभी सुखो, साधनो व् पदार्थो के होने या न होने या होते हुए भी उनमे आसक्ति व मोह का ना होना ही वास्तविक वैराग्य है.

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