Friday, February 19, 2016

19=आ =Post=19>***धनपरआधारितसंसार***( 1 to 6 )

19=आ =Post=19>***धनपरआधारितसंसार***( 1 to 6 )

1------------------धन पर आधारित संसार की वास्तविकता?
2------------------श्रम व् ऊधम कभी बुरा ना था समस्या उसे पैसे से जोड़ने के कारण उत्पन्न हुई
3------------------नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम,
4------------------दिव्य चाँद की किरणें ।।
5------------------ एक खेल का मैदान,
6>----------कैसे पाएं किसी संत का आशीर्वाद?
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1>धन पर आधारित संसार की वास्तविकता?

क्या अंतरात्मा के विरुद्ध धनी बनने से कुछ प्राप्त होगा? कैसी कमाई भली कमाई है?
यह आज लगभग हर उस व्यक्ति की वेदना है जो अपने आपको झूट बोलकर एक झूठा स्वपन दिखा कर अपने ही मिथ्या जगत को सत्य दिखाने की चेष्टा करता है. अंतरात्मा के विरुद्ध जाना वैसे ही है जैसे हम उच्च लहरो के समुद्र से लड़ने का प्रयास करें, कुछ देर तक हम प्रयास कर सकते हैं पर अंतत हम धराशायी हो जायेंगे. आज जो पाप या पाप न समझ अपना अधिकार समझ कुछ गलत काम कर जल्द धनी बनने का स्वप्न देखने के लिए अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना करते हैं उन्हें बाद में कई मुसीबतो का सामना करना पड़ता है जिसमे बुरा समय, बीमारी, तनाव भी हैं और एक हीन भावना का उत्पन्न होना है जो अंत समय तक पीछा नहीं छोड़ती।

धन से ही मनुष्यों में ये पंद्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेदबुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब। आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं। भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता। केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिये। लक्ष्य होना चाहिये कभी भी दुखी न रहना। सबसे महान प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो। हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिये। यह आदर्श पेट का धंधा नहीं, सेवा होनी चाहिये। सर्वकल्याण, समाज-सेवा सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो। हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय। जीवन केवल अर्थ शास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय। मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है, उसकी आत्मा भी है, उसका इहलोक और परलोक भी है।

पैसे के बिना क्या जीवन सम्भव् है?
आज से ३०० वर्ष पूर्व तक उत्तर व् दक्षिण अमरीका में दर्जनो मूल निवासी सभ्यताएं बिना किसी पैसे की अर्थव्यवस्था के सकुशल चलती थी. प्राचीन भारत जो सोने की चिड़िया कहा जाता था अर्थ समाजिक व्यवस्था उत्पाद, ज्ञान और विशेषज्ञता से चलती थी और कोई नागरिक भूखा नहीं सोता था. आध्यात्मिक व् धर्म के आधीन समाजिक व्यवस्था अपने आप चलती थी कोई भय, लालच या कमी न थी.
धन की इस दुनिया में, चकाचौंध के उस जमाने में जब कि सभ्यता का एकमात्र लक्ष्य केवल पैसा कमाना है, ऐसी कल्पना करना भी एक बड़ी बात लगती है पर धन में स्थापित पश्चिमी समाज धन की मर्यादा से ऊबकर सतयुगी मर्यादा की ओर मुड़ रहे हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि यह सब आडम्बर मिथ्या है। धन ही विपत्ति की जड़ है, इसी से संसार का सब विग्रह प्रारम्भ होता है और वर्गवाद, साम्यवाद या साम्राज्यवाद का उपद्रव खड़ा हो जाता है। न धन की घुड़दौड़ रहे और न यह सब विपत्तियाँ खड़ी हों।

धन रहित संसार में समृद्धि संभव है?
संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी आदमी द्वारा निर्मित कृत्रम धन है आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है। खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि-सबका कारण यही है। चूँकि सभी सुख की वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती हैं, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है। जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव पेंच में लगता है। व्यापार की दुनिया में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते।
यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिदान की भावना हो जाय तो हरेक वस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय। लाखों आदमी केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बही खाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें। यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायं तथा अपनी उत्पत्ति का आर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें, तो संसार कितना सुखमय हो जायगा। आज संसार में अटूट सम्पत्ति उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा बीमा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है। यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनिया कैसी होती। अस्पतालों में लाखों नर-नारियाँ रुपये की मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारियाँ धन के लिए जेल काट रहे हैं। प्रायः हर परिवार में इसका झगड़ा है। मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है। यदि धन की मर्यादा न होती तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता।
पैसे के कारण संसार में वर्गवाद आदि का संकट आ गया है। आज जितनी उत्पत्ति होती है, उसका पैसों में मूल्य समाप्त कर दीजिए तो संसार का कायापलट हो जायगा, कोई भूखा रहेगा न नंगा। आज हरेक काम पैसे से होता है। माता-पिता तथा संतान के बीच पैसे का सम्बन्ध है। पिता चाहता है कि लड़के कमाएं, लड़की बोझ न बने। आज हरेक व्यक्ति सोचता है कि पैसा एक अनिवार्य वस्तु है इसलिए पैसे कि अंधी दुनिया इसका निरादर नहीं कर सकती। पर कौन नहीं जानता कि जितना पैसा बढ़ता है उतना ही परिश्रम पश्चाताप तथा परेशानी बढ़ती है, धन से आत्मा सुखी नहीं हो सकती।

कैसी कमाई भली कमाई है?
हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ, समृद्धि के झूठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर परम आत्मा की शरण लेनी होगी। जो भी है पैसे के लिए झूट कपट व् भ्र्ष्टता का सहारा लेना इसलिए बुरा है के इस तरह कमाया पैसा बीमारी, दुःख और विनाश का पथ तो पक्का है।
धर्म के रास्ते पर चल कर अपने मन से अपने काम को सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने से, मन की शान्ति व् स्वस्थ मन व् शरीर हमें सदाचार व् आत्मिक उत्थान की और ले जाएंगे। केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें.
।श्री हरि।
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2> श्रम व् ऊधम कभी बुरा ना था समस्या उसे पैसे से जोड़ने के कारण उत्पन्न हुई. केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें.
पैसा कमाने के तरीको के कारण ही इतना पाप व्याप्त है. केवल धन एकत्र करना उद्देश्य नहीं है जीवन का इसे कभी नहीं भूलें. ।श्री हरि। आपको सफलता दे जो भी सेवा कार्य करें
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3>नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम,

नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम, स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त, सगुणी प्रकृति व् संस्कारित मनुष्य के बीज गुण, सदाचार व् चरित्रवान आचरण के पालन से चित्त में शान्ति का अनुभव होता है, ऐसे सदाचार को शील कहते हैं. सामान्यतया आचरणमात्र को शील कहते हैं। चाहे वे अच्छे हों, चाहे बुरे, फिर भी रूढ़ि से सदाचार ही शील कहे जाते हैं किन्तु केवल सदाचार का पालन करना ही शील नहीं है, अपितु बुरे आचरण भी शील (दु:शील) हैं अच्छे और बुरे आचरण करने के मूल में जो उन आचरणों को करने को प्रेरणा देने वाली एक प्रकार की भीतरी शक्ति होती है, उसे सु-चेतना कहते हैं। वह चेतना ही वस्तुत: 'शील' है। लोकप्रिय भाषा में इसी शील के भंग होंने से चरित्र भंग होना कहा जाता है. उकसावे के बावजूद जो अपने संयम व् आचरण से अपने को दृढ़ रख सकता हो उसे ही सु-शील व् शील कहा जाता है.
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4>।। दिव्य चाँद की किरणें ।।

एक आदमी रात को झोँपड़ी में बैठकर एक छोटे से दीये को जलाकर कोई शास्त्र पढ़ रहा था । आधी रात बीत गयी । जब वह थक गया तो फूंक मारकर उसने दीया बुझा दिया ।

लेकिन वह यह देखकर हैरान हो गया कि जब तक दीया जल रहा था, तब तक पूर्णिमा का चाँद बाहर खड़ा रहा । लेकिन जैसे ही दीया बुझ गया तो चाँद की किरणें उस झोंपड़ी में फैल गयीं ।

वह आदमी बहुत हैरान हुआ, यह देखकर कि एक छोटे से दीये ने इतने बड़े चाँद को बाहर रोेककर रखा । इसी तरह हमने भी अपने जीवन में अहंकार के बहुत छोटे-छोटे दीये जला रखे हैं, जिसके कारण परमात्मा का दिव्य चाँद बाहर ही खड़ा रह जाता है ।

हमारे अहंकार के ये बहुत से दिये यदि बुझ जायें तो परमात्मा के दिव्य चाँद की किरणें हमारे भीतर प्रवेश कर सकती हैं, अन्यथा यह दिव्य चाँद बाहर ही खड़ा रह जाता है ।

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5> एक खेल का मैदान,

आठ लडकियाँ रेस लगाने के लिए खड़ी हैं..
Ready
Steady-----और धायँ..
पिस्तौल की आवाज़ के साथ ही आठों लडकियां दौड़ पड़ती हैं..
सभी लड़कीया 5 या 6 मीटर आगे गयी होंगी की एक लड़की फिसल कर गिर जाती है और उसे
चोट लग जाती है..
दर्द के मारे वह लड़की रोने लगती है, बाकि की सातों लड़कियों को उसके रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है..
और ये क्या ..??
अचानक वो सातों लडकियाँ रुक जाती हैं, एक पल के लिए वो सभी एक दुसरे को देखती हैं और सातों वापस उस घायल लड़की की तरफ दौड़ पड़ती हैं..

मैदान में सन्नाटा छा गया, आयोजक परेशान, अधिकारी हैरान !
तभी एक अप्रत्याशित घटना घटती है
वो सातों लडकियाँ अपनी घायल प्रतिभागी को उठा लेती हैं, और फिर चल पड़ती हैं उस तरफ जहाँ जीत की रेखा खीची गयी है.. एक साथ आठों लडकियाँ उस जीत की रेखा पर पहुँच जाती है..
ये क्या लोगों की आँखों में आँसूं ?
क्यों ? किसलिए ?
मित्रों ये रेस
NATIONAL INSTITUTE OF MENTAL HEALTH
द्वारा आयोजित थी और वो आठों लडकियां मानसिक रूप से बीमार थी..
लेकिन जो इंसानियत जो मानवता, जो प्यार, जो Sportsman Ship, जो Team Work, जो समानता का भाव..
उन आठों ने दिखाया वो शायद हम जैसे मानसिक रूप से विकसित और पूर्ण रूप से ठीक नही दिखा पाते..
क्योंकि,
हमारे पास दिमाग है उनके पास नही था,
हमारे पास ईगो है उनके पास नही था,
हमारे पास Attitude है उनके पास नही था..
मित्रों,
प्यार इंसान से करो उसकी औकात से नही, रूठो उनकी बातों से उनसे नही, भूलो उनकी गलतियों को उनको नही,
रिश्तों से बढकर कुछ भी नही,
अगर दोस्त न मिलते तो ये कभी समझ नही आता, की अजनबी लोग भी अपनों से ही नही अपनी जान से
भी प्यारे हो सकते हैं...
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6>कैसे पाएं किसी संत का आशीर्वाद?

 भागवत के अंक 334 में आपने पढ़ा...इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है अब आगे...
संत के पास जब उनके दर्शनार्थ जाया जाए तो अहंकार रहित नम्र बन कर जाना चाहिए। संत पुरुष इस बात को तोड़ जाते हैं कि यह नम्रता ओढ़ी हुई है अथवा स्वाभाविक। अत: नम्रता को स्वाभाविक बनाने का, साधक को प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि साधक विद्वान है तो विद्वत्ता का अभिमान नहीं होना चाहिए। पाण्डित्य का प्रदर्शन करने, संत की परीक्षा लेने संत के पास जाओगे तो रिक्तहस्त ही वापस आओगे। 
अत्युत्तम तो यही है कि जीव में प्रभु-प्रेम की सच्ची लगन हो। बाकी सभी नम्रता, सौम्यता, निरहंकारता इत्यादि स्वाभाविक लक्षण अपनेआप प्रकट होते जाएंगे। ऐसे जीव को ही अधिकारी कहा गया है।ऐसे अधिकारी, भक्त-साधक के लिए संत अगम्य नहीं रहते। वह उनकी कृपा प्राप्त करने में, प्रभु कृपा से सफल होता है तथा परिणाम स्वरूप परम-प्रेम-रूपा भक्ति फल को प्राप्त करता है। 
अब तनिक संतों की कृपा की अमोघता पर विचार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के सामने बैठने पर शरीर को गरमी मिलेगी, जल ग्रहण करने पर पिपासा निवृत्ति होगी ही, इसी प्रकार संत की कृपा का फल परम-प्रेम-रूपा भक्ति प्राप्त होगी ही, किन्तु रात को सोया हुआ व्यक्ति सूर्योदय हो जाने के उपरांत भी सोता ही रहे तो उसे सूर्याेदय का ज्ञान ही नहीं होगा। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को संत की कृपा तथा उससे प्राप्त होने वाले फल का ज्ञान नहीं होता, उसका पता नहीं चलता।
भक्ति-शक्ति का अन्तुर्मुखी जाग्रत होना तथा क्रियाशीलता, यह दोनों एक दूसरे से भिन्न बातें हैं। संत कृपा होने पर मनुष्य को तत्काल उसका फल प्राप्त हो जाता है, किन्तु किन्हीं अवस्थाओं में उसके क्रियाशील होने में कुछ देर लग जाती है। जाग्रति का ज्ञान, उसके क्रियाशील होने पर ही होता है। तब तक भक्त पूर्ववत् निद्रावस्था में ही रहता है। इसमें उसके प्रबल विपरीत संस्कार ही कारण होते हैं। शक्ति को प्रथम, इन संस्कारों को हटाकर, चित्त को क्रिया योग्य बनाना होता है। यह भी क्रिया ही होती है जिसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।
संतों और महापुरूषों के सान्निध्य के लिए सबसे बड़ा सूत्र यह है कि वे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, वो क्या कह रहे हैं अपना मन वहां लगाएं। आजकल लोग संतों का वैभव ही देखते रहते हैं उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते। शब्दों को समझेंगे तो ही ज्ञान आएगा। जो वैभव है, संत उसके बिना भी रह सकते हैं, लेकिन अगर हम वैभव पर टिक गए तो फिर इसी के मोह में उलझकर रह जाएंगे। हम माया में फंसकर इसी को सबकुछ मान बैठेंगे। संतों का साथ अमोघ तभी होगा जब हम उनके रहन-सहन की बजाय उनके उपदेशों पर ध्यान देंगे। 
भाव यह है कि महापुरुषों की कृपा प्राप्ति का मार्ग कहीं अधिक सरल तथा निश्चित है, किन्तु इतना सरल भी नहीं कि कोई कैसा भी हो जब चाहे, जहां चाहे उसे प्राप्त कर सकता है। यदि यह कृपा कहीं एक बार प्राप्त हो जाए तो उसका फल निश्चित है, क्योंकि वह अमोघ है। इतने पर भी भक्त कभी निराश नहीं होता। उसे प्रभु पर विश्वास होता है कि वह एक न एक दिन उसे संत दर्शन भी अवश्य कराएंगे तथा उस पर कृपा भी करेंगे।
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