Thursday, January 14, 2016

1>= मन शांतकेउपाय+ प्रह्लादनामकअसुर+ईश्वर तकरास्ता व् व्बुद्धि+आत्माकीशक्तियां+राक्षसी विचारोपरलगाम+"जिंदगी का सार"

आत्मिक = 


1>आ =Post=1>*** मन शांत करने के उपाय बताएं***( 1 to 9 ) 

 1---------प्रश्न :- मन शांत करने के उपाय बताएं जो आसान व् सरल हो ?
 2---------प्रह्लाद नामक असुर=+mtl
3---------आत्मिक ईश्वर तक का रास्ता व् बुद्धि ?
4--------- शरीर मन व् आत्मा की शक्तियां
5---------अपने राक्षसी विचारो पर ऐसे लगाम लगाए
6>--------"जिंदगी का सार"
7-----------सुख 
8-----------हे परमात्मा.......सुख के सब साथी,
9>-------- इसी को ” जिंदगी ” कहते है ।

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1> प्रश्न :- मन शांत करने के उपाय बताएं जो आसान व् सरल हो ?

सबसे पहले अपने मन को शांत करने के लिए वो सारी चीज़े जिनके कारण हमें भय, चिंता, क्रोध व् निराशा हो उन्हें एक एक करके अपने जाग्रत मन से से दूर करना चाहिए। उसके बाद हमें धीरे धीरे आज हुई घटनाओ को एक एक करके ऐसे बहार फैंकते जाना है जैसे एक एक कागज या लकड़ी के टुकड़े को ज्वलित अग्नि में अर्पित किया जाता है. तत्पश्चात हमें अपने आसपास के व् दूर के सभी मित्रो, रिश्तेदारो, व् सम्पर्को को एक एक कर क्षमाँ करना है और उनसे क्षमा मांगनी है मन ही मन, और हमें ऐसे अनुभूत करना हैं जैसे हम किसी दूर स्थान पर जा रहें हैं और वापिस लौट कर कब आना है इसका कोई पता न हो.
इसके बाद आप कोई ऐसे स्थान पर बैठे जहाँ आपको बहुत अच्छा लगता हो पर वह सोने का स्थान न हो. यहाँ कुछ पल बैठकर अपने आप को कहें सबसे विदा ले ली, सब काम हो गए, अब कोई भय, निराशा, चिंता या क्रोध करने का कारण नहीं बचा, अब मै अपनी यात्रा के लिए तैयार हूँ. उसके बाद आप अपनी आँखे बंद करें यदि खुली हों और मुस्कराएं - ये मुस्कुराहट सहज व् प्राकृतिक होनी चाहिए. अब आपको आनंद अनुभूत होगा कुछ पल के लिए. यहाँ पर विराम लगा लें, सोचे नहीं.
धीरे धीरे ये प्रक्रिया केवल कुछ मिनटों में हो सकती है, पहले कई दिन लम्बा समय लगेगा पर कुछ अभ्यास से ये दिनचर्या बन सकती है । अशांत मन आपके नियंत्रण में हैं लेकिन जोर या जबरदस्ती से मन को नियंत्रित न करें. सब कुछ सहजता से होना चाहिए. आनंद की अनुभूति कुछ देर तक रहेगी पर प्रयास कर उस अनुभव के समय को बढ़ाते रहें
ऐसा सुबह उठकर व् अपने कार्य दिवस के बाद करना बहुत उचित है. इसके बाद आप भोजन करेंगे तो उसका लाभ अधिक होगा, दिन अच्छा बीतेगा
और आपके सारे कार्य सिद्ध होंगे और रात्रि में नींद अच्छी आएगी. कृपया इसे प्रतिदिन करें.

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2>प्रह्लाद नामक असुर


किसी आदि सत्य युग में प्रह्लाद नामक असुर ने अपने अंतर् गुणों द्वारा इन्द्र से उसका राज्य छीन लिया था। तीनों लोक का राज्य उसके हाथ में आ गया था। इन्द्र ने बृहस्पति जी को कहा हे महाराज कृपया बताइये कि किस वस्तु के द्वारा आनन्द प्राप्त हो सकता है। बृहस्पति जी ने उत्तर दिया कि ज्ञान सबसे बड़ा आनन्द का द्वार है। परन्तु इन्द्र को इससे सन्तोष न हुआ। वह तो प्रह्लाद से अपना त्रिलोकों का राज्य चाहता था। फिर उसने पूछा कि क्या इससे बढ़कर कोई वस्तु है। बृहस्पति ने उत्तर दिया पुत्र इससे भी बढ़ कर है, परन्तु वह तुम्हें शुक्राचार्य जो असुरों के पुरोहित है बतायेंगे।
इन्द्र उनके पास गया और उनसे भी वही प्रश्न पूछा। शुक्राचार्य ने भी ब्रह्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताया। परन्तु इससे भी इन्द्र संतुष्ट न हुए। वह तो ऐश्वर्या चाहता था। इन्द्र ने कहा क्या इससे भी बड़ी कोई चीज है। शुक्राचार्य ने कहा कि हाँ है इसका पता तुम्हें असुरों के राजा से लगेगा।
इन्द्र एक ब्राह्मण के भेष में प्रह्लाद के पास गया और वही प्रश्न पूछा जो उसने बृहस्पति व शुक्राचार्य से पूछा था। प्रह्लाद ने कहा समय नहीं है क्योंकि सारा समय तीनों लोकों के राज्य करने में व्यतीत हो जाता है, मैं तुम्हें कुछ शिक्षा नहीं दे सकता। ब्राह्मण ने कहा कि वह उनके खाली समय की प्रतीक्षा करेगा और जब वह कहेंगे तभी उनसे शिक्षा लेगा। उसने बहुत समय तक एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह उनकी प्रतीक्षा की और जो कुछ प्रह्लाद कहते थे वह बड़ी सावधानी से करता था।
एक दिन फिर ब्राह्मण ने पूछा कि महाराज किस गुण के कारण आप को तीनों लोकों का राज्य मिला।

प्रह्लाद ने कहा मुझे अपने राज्य का कण मात्र भी अभिमान नहीं है। परन्तु जो शुक्राचार्य ने कहा है, मैं उसका पालन करता हूँ और उनके अनुसार चलता हूँ। मैंने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली है। मैं माता-पिता, बड़ों की सेवा करता हूँ। मुझे कोई बुराई नहीं है। मैंने अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर ली। सब इन्द्रियाँ मेरे वश में हैं। गुरु मुझे परामर्श देते हैं। मैं उनके द्वारा अमृत पान करता हूँ। वह शिक्षा जो उनके मुखसे निकलती है मनुष्य को अमर कर देती है। यही वह बुद्धि है जो मनुष्य को बड़ा बनाती है।
ब्राह्मण ने भक्ति भाव से सब सुना। प्रह्लाद उसकी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुए और उससे वर माँगने के लिए कहा।
ब्राह्मण ने कहा महाराज मुझे दान में अपना “शील” दे दो। प्रह्लाद को ब्राह्मण की इस प्रार्थना पर बड़ा आश्चर्य हुआ। परन्तु अपने प्रण के अनुसार उन्होंने अपना शील उसे दे दिया।अब प्रह्लाद दुविधा में पड़ गये पछतावा तो था पर शील के अर्थ का नहीं पता था

एक प्रकाशमयी अलौकिक आकृति उनके शरीर से निकली। प्रह्लाद ने पूछा कि तुम कौन हो। उसने कहा कि मैं तुम्हारा शील हूँ। तुमने मुझे छोड़ दिया है। अब मैं ब्राह्मण के शरीर में निवास करूंगा। इतना कहते ही वह आकृति विलीन हो गई। उस आकृति के अन्तर्ध्यान होते ही दूसरी सत्ता उनके सामने आई प्रह्लाद ने पूछा तुम कौन हो। उसने उत्तर दिया : मैं धर्म हूँ। मैं शील के साथ ही निवास करता हूँ। इसलिए मुझे उनका अनुसरण करना है।
तीसरी आकृति उनके सामने आई। प्रह्लाद ने फिर पूछा कौन हो। उसने कहा मैं सत्य हूँ, मैं धर्म का अनुगामी हूँ। जहाँ धर्म है वही मैं हूँ। उसने भी प्रह्लाद के शरीर का त्याग कर दिया और ब्राह्मण के शरीर में प्रवेश किया। फिर वृत्ति उनके शरीर से प्रकट हुई उसने कहा :जहाँ सत्य है वहीं मैं हूँ। फिर एक आवाज के साथ नई आकृति निकली, उसने कहा मैं आत्म बल हूँ। जहाँ वृत्ति है वहीं मेरा वास है। फिर एक तेजस्वी देवी प्रगट हुई उसने कहा मैं श्री हूँ जहाँ यह सब शक्तियाँ रहती हैं वहीं पर मैं भी वास करती हूँ। हाथ मलते उदास प्रह्लाद ने देवी से पूछा हे देवी यह ब्राह्मण कौन है?

श्री ने कहा यह ब्राह्मण के रूप में इन्द्र था। उसने चतुरता से तुमसे तीनों लोकों का ऐश्वर्य लूट लिया है। जब आपने अपना शील छोड़ दिया तो इसका अर्थ यह है कि आपने अपना धर्म, सत्य, वृत्ति, आत्म बल सभी कुछ दे दिया क्योकि हम सब का बीज - शील है।
इसलिए ‘शील’ संस्कार की वृद्धि करनी चाहिए। मनुष्य को विपन्नता में या मुसीबत में भी अपने शील व आत्मिक गुणों संस्कारो का त्याग नहीं करना चाहिए। शील, विद्या, तप, दान, चरित्र, गुण एवं धर्म कर्तव्य से विहीन व्यक्ति पृथ्वी का भार है। वह मानव नहीं, पशु के समान है। मनुष्य के संस्कार ही उसका साथ सदैव देते हैं जन्मो के इस जीवन चक्र में; शेष सब व्यर्थ स्वपन समान है.
नैतिक सभ्य आचरण, गुणवत्त, आंतरिक संयम, स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त, सगुणी प्रकृति व् संस्कारित मनुष्य के बीज गुण, सदाचार व् चरित्रवान आचरण के पालन से चित्त में शान्ति का अनुभव होता है, ऐसे सदाचार को शील कहते हैं. सामान्यतया आचरणमात्र को शील कहते हैं। चाहे वे अच्छे हों, चाहे बुरे, फिर भी रूढ़ि से सदाचार ही शील कहे जाते हैं किन्तु केवल सदाचार का पालन करना ही शील नहीं है, अपितु बुरे आचरण भी शील (दु:शील) हैं अच्छे और बुरे आचरण करने के मूल में जो उन आचरणों को करने को प्रेरणा देने वाली एक प्रकार की भीतरी शक्ति होती है, उसे सु-चेतना कहते हैं। वह चेतना ही वस्तुत: 'शील' है। लोकप्रिय भाषा में इसी शील के भंग होंने से चरित्र भंग होना कहा जाता है. उकसावे के बावजूद जो अपने संयम व् आचरण से अपने को दृढ़ रख सकता हो उसे ही सु-शील व् शील कहा जाता है.
कोई स्थिति या व्यक्ति उकसाए या हमें लालच दे या भय दिखाए यदि सयंम होगा तो हम उसका मुकाबला कर सकते हैं इस शक्ति को ही शील कहा जाता है. इसी शील गुण को तप से बनाया जाता है और जिसके लिए कई जन्मो के कर्म सम्मिलित होते हैं.

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3>आत्मिक ईश्वर तक का रास्ता व् बुद्धि ?

बुद्धि से ईश्वर प्राप्ति हो सकती है यदि आप को ज्ञान और ज्ञान व् अविद्या का भेद पता हो. आज जितने भी कथित धर्म जो बेचे जा रहें हैं ये सब मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट यानि बनाये गए उत्पादन हैं जो पहले से ही जड़ व्यक्ति को और अधिक जड़ बनाते हैं. इसी बुद्धि को दुरूपयोग में ला ये मजहब, रिलिजन व् धर्म बेचने वाले साधारण मनुष्य को मूर्ख सिद्ध करते हैं. इसलिए बुद्धि पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वास्तविक गहन ज्ञान जब होगा तो बुद्धि यदि आत्मिक अंश को समझ उसे अनुभूत करने का प्रयास करे तो ऐसा संभव है. आत्मिक चैतन्य, मनुष्य की साधारण बुद्धि से बहुत परे एक अलग डायमेंशन या संसार है जहाँ स्थूल विचार व् दृश्य या झूठ मूठ के धर्म आदि न हों और इसमें प्रवेश करने के लिए सत्यतः बुद्धि के छोटे से दायरे से निकलना बहुत जरूरी भी है और आवश्यकता भी. इसलिए बाह्र्य व् झूट मूठ के इस संसार के अधिकतर प्रपंच आदमी को और जड़ बनाने के लिए कुछ मूर्ख प्राणिओ द्वारा रचित नाटक हैं जो लगते तो सच हैं पर वो खोखले व् मिटटी के ढेर जैसे हैं जिनमे न आत्मा की सुगंध है न मन की लहरें. इसीलिए आत्मिक यात्रा को शरीर व् इसी साधारण बुद्धि से तुलनात्मक रूप में भी नहीं देखा जा सकता. ये एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हम सभी को बहुत मनन करना है और आडम्बरो से लिप्त इस प्लास्टिक सुंदरता वाले संसार से पीछा छुड़ाना है. इस सारे नाटकीय जगत की सत्यता या मिथ्यता क्या है ये जानकार भी कुछ प्राप्त न होगा. लेकिन इसे समझना जरूरी है ताकि हम अपना समय व्यर्थ न गंवाएं। तत्व को समझे और ज्ञान के बीज को प्राप्त करें. उसके बाद एक नया संसार आरम्भ होगा.

स्थूल प्रकृति या सांसारिक दृश्य असत्य व् मिथ्या क्यों हैं?
दृश्य कौन देख रहा है और कहाँ से देख रहा है? साधारण दृष्टि से सब प्रकृति अपने स्थूल रूप में अपनी छवि दिखाती दिखती है ,चाहे वह शनेः शनेः परिवर्तित हो रही हो या अपना रूप बदल रही हो. हमारा साधारण जड़ व् स्थूल दृष्टि स्थित मन, उस प्रकृति को सत्य समझ उसी में अपनी छवि देख कर उसे अपने से जोड़कर उसे अपने ही प्रारूप से भिन्न न मान कर उसी में समा जाता है. यह मूल कारण है के ९९% जन्मे जीवो का जो अपने अस्थायी लेकिन स्थूल भौतिक शरीर को ही सत्य समझ उस जड़ परन्तु परिवर्तन शील प्रकृति का अंग समझ अपने को एक अति साधारण जीव समझने लगते है.
कई जीवो को जो जाग रहे हैं संदेह, फिर संशय, फिर त्रुटिपूर्ण लगने लगता है और वो अपने को उस प्रकृति से अलग कर एक शक्ति तत्व की तरह देखने की चेष्टा करते हैं .
तो फिर इस मिथ्य जगत जो पल पल बदलते दृश्य मात्र व् स्थूलकाय है को सत्य तो हमारा स्थूल मन मान लेता है लेकिन ज्यों ही हम ऊपर उठते हैं और इस बाह्र्य संसार से आगे चलते हैं और अंतर्जगत में प्रविष्ट होते हैं तो वह मिथ्या जो सत्य जैसे दिखता है हमें सम्पूर्ण असत्य प्रतीत होता है. तो ये केवल देखने वाले पर निर्भर करता है. हमारा उद्देश्य इन साधारण स्थूलकाय आत्माओं को उन की वास्तिवक प्ररूपता दिखाने का है ताकि वह अपने इस शरीर रूपी जीवन से ऊपर उठकर अपने छिपे रूप को पहचान कर उसमे स्थापित हों और अपने आप अपनी अंतर्मन की आँखों से सत्य व् असत्य या मिथ्या के अंतर को जाने.
सत्य जो रासायनिक भौतिक दीखता है वह सब प्रकृति है - जड़ है. उसमे सत्यता तब तक है जब तक उसमे आत्मिक अंश रहेगा.सत्य केवल आत्मिक अंश रूपी तत्व में है जो हर जीवन काल में ऐसा कूदता है जैसे मधुमखी एक फूल से दूसरे फूल में जाता है,
अमृत को चुगता है और दूसरे फूल में चला जाता है. यह आत्मा ही "जीवन" है "सत्य" है और इसी तत्व में पिछले सारे जीवन कालो का लेखा जोखा है और रहेगा। ये जन्म केवल एक स्वपन है. लगता बिलकुल यथार्थ है क्यूंकि सब कुछ 'जीवित' लगता है लेकिन यह स्वपन आपके आत्मिक अंश का है, जो इस स्वपन को जी कर उसमे विचरण कर रहा है. यह सपना कब टूटेगा इसमें जाग्रत मन कुछ नहीं करता - सुप्त मन ही पीछे से इस शरीर को कठपुतली की तरह चलाने वाला है.
कृपया मुझे क्षमा करें यदि मेरे शब्दों में आपको मेरे कहने के भाव न व्यक्त हुएं हों, क्यूंकि आप जो भी मेरे आत्मा से विचार पढ़ें उन्हें कई दृष्टियों से देखने की चेष्टा करें।
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कृपया इस ऑडियो को सुने और ऑंखें बंद कर कुछ भी न सोचें

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4> शरीर मन व् आत्मा की शक्तियां - रहस्य व् कैसे बलशाली बना जीवन को सार्थक बनाये

जीवन में शरीर ही दीखता है सबसे पहले तो शरीर को बल देने के लिए हर उपाय किया जाता है. काया का स्वस्थ्य, संतुलन व् अच्छा होना आवश्यक है इस जीवन को चलाने के लिए. शरीर का बल उपयुक्त मात्र में होना ही चाहिए और उसके लिए संतुलित आहार व् खान पान व् सोने की अच्छी आदतें होनी जरूरी हैं. शरीर एक वाहन की तरह हैं जो अगर सुचारू नहीं होगा तो जीवन की गति में रुकावट होगी. शरीर भोजन से बनता है तो सात्विक भोजन से सात्विक शरीर बनेगा, तामसिक भोज से शरीर तामसिक बनेगा.शरीर को चलाता कौन हैं? चलाने वाला तो अंतर स्थापित आत्मा है. तो ये वाहन किस प्रकार के ईंधन से चलता है?
आत्मा तो अचेतन हैं तो फिर?
आत्मा का एक चेतन स्वरुप भी है. इस चेतन स्वरुप या सूक्ष्म शरीर को हम मन कहते हैं. मन के दो भाग हैं, एक जाग्रत व् दूसरा अचेतन या सुप्त। जब हम सोते हैं या ध्यान अवस्था में होते हैं तब सुप्त मन 'हमसे' सीधा सम्पर्क करता है. सुप्त मन आत्म तत्व के अधिक समीप होता है.
चित मन सदैव चेतन या जाग्रत अवस्था में होता है तभी हम इस माया रुपी संसार को अपने चेतन स्वरुप चित या कांशसनेस के द्वारा अनुभूत व् अनुभव करते हैं. आत्मा की लम्बी हजारो आजीवनो की जीवन यात्रा में हर जीवन काल में मन नए रूप में निर्मित होता है. मन मस्तिष्क में नहीं होता यद्यपि मस्तिष्क मन के क्षेत्र का धरातल है, यदि मन एक वायुयान है तो मस्तिष्क उसका विमान पत्तन या एयरपोर्ट है याद रहे इसकी नियंत्रण टॉवर में बैठा सुप्त मन रूपी आत्मा ही इसको दूर से देखता रहता है. यह स्वंय शक्तिमान अति सुंदर व् अंतर आयामी आत्मा मन की हर उड़ान को अपने लेखे में पंजीकृत करता है पर उसे नियंत्रित नहीं करता. मन स्वछंद है व् कहीं भी जा सकता है।
इस मन तत्व ईंधन को मनोबल कह सकते हैं. मनोबल वास्तव में शरीर रूपी वाहन को चलाने वाली शक्ति है. ये शक्ति हर जीव में एक सीमित मात्र में होती है, पर यह माता पिता की देखभाल, परिवार, शिक्षा व् स्वयं नियत्रित सयंम से उत्त्पन्न होता है जितना अधिक मनोबल होगा उतना ही इस दृश्य जगत में सफलता मिलेगी. निर्बल व् शक्तिहीन में मनोबल केवल जीवित रहने जितना ही होगा. तो इस मनोबल रूपी ईंधन को उत्पन्न करना सम्भव है? हाँ है.

मन "रूपी सूक्ष्म सरीर" से भी ऊपर एक अति सूक्ष्म शरीर है जो अंतकरण में स्थापित आत्मा तत्व है. आत्मबल मनोबल से अधिक महत्व रखता है. यह शरीर और मन दोनों को अपनी ऊर्जा देता है. आत्मबल को मनुष्य की सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत भी कहा जा सकता है. आत्मबल पिछले जीवन कालो की जमा पूंजी व् इस जन्म के सुकर्मो से बनता है. आत्मबल मनोबल की तरह एक मात्रा में होता है लेकिन हम अपने श्रम से इसे दोहरा या तिहरा या कई गुना कर सकते हैं.
आत्मबल जितना अधिक होगा, आपके शरीर के आसपास का आभा मंडल या दिव्या मंडल उतना ही विशाल होगा.
यदि आपकी आत्मशक्ति व् ऊर्जा बहुत हो जाती है तो आप बहुत दूर तक समय व् अंतरिक्ष, में उतने ही विस्तार से जा सकते हैं
गुरु यदि उनकी आत्मशक्ति विकसित है तो वह अपने शिष्य को बहुत दूर से देख सकते हैं. देव पुरुषो का बाह्र्य रूप चाहे आम व्यक्ति जैसा हो उनका प्रभा मंडल व् उसकी परिधि बहुत विशाल होती है.
वह केवल एक स्थानीय दृश्य से लेकर इस पृथ्वी गृह के किसी भी कोने में देख पाते हैं, मुक्त व् दैविक शक्तिओ से परिपूर्ण देव पुरुष व् देवियाँ अपनी आत्मशक्ति से न केवल पृथ्वी बल्कि हमारे तारकपुंज व् आकाशगंगा के ऊपर भी जा सकते हैं व् त्रिकाल समय के तीन आयामो में देख सकते हैं.

शिक्षा, धन अर्जन करने मात्र से मनोबल या आत्मबल नहीं बढ़ता पर यदि हम अपने समय को सही दिशा में लगाकर अपने आप को परिवर्तित कर सकें तो बहुत बड़े परिवर्तन के दर्शन होंगे.
यदि आप अपने शरीर, मन व् आत्मा का बल विस्तार करना चाहें, या उसमें वृद्धि करना चाहें तो जुड़े रहें, संदेशो को बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ना, उद्देश्य आपके जीवन को न केवल सफल बनाने में सहायता करना है बल्कि आपको जीवन के रहस्यों से परिचित करवा आपके मनोबल व् आत्मबल को विशाल करना है.
अपने दुःख को कैसे कम करें और सच्चे सुख को कैसे अग्रसर हों , अपने जीवन को कैसे सरल सुगम बनाये?
कुछ समय उपरांत हम सात्विक तप, ध्यान व् ईश्वर प्राप्ति के साधनो पर विचार करेंगे पर उससे पहले हमें अपने अंदर कुछ परिवर्तन करने होंगे और जिसके लिए हमें कुछ बातो को समझना होगा जो कई बार हम जानते हुए भी नहीं समझ पाते. उद्देश्य आपको उस राह की तरफ अग्रसर करना है. इसमें न कोई लालच है न कुछ बेचता हूँ. इसका किसी आदमी निर्मित धर्म से भी कोई सम्बन्ध नहीं.अगर आप अपने जीवन को एक आदर्श दिशा में ले जाने के लिए अपना समय बचाना चाहें तो इस पृष्ठ से जुड़े रहें.आपके कमेंट, टिप्पणी, व् प्रश्न को पढ़ने का प्रयास करूँगा, आपको यथा समय आपके हर प्रश्न का उत्तर भी दूंगा.
आप की भलाई व् आत्मिक उन्नति में कुछ सहायक सिद्ध हूँ यही कामना है। नमस्ते !!!

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5>अपने राक्षसी विचारो पर ऐसे लगाम लगाए

पने राक्षसी विचारो पर ऐसे लगाम लगाए जैसे एक नरभक्षी राक्षस को लगाते हैं. उस हरि दर्शन के लिए प्यासी अपनी आत्मा को बचाएं, पापी विचारो, कृत्यों और कुकर्मी मनुष्यो के साथ सानिध्य से. इनमे कुछ प्राप्त नहीं होगा,

पत्थर और पाषाणों में जैसे फूल और जल नहीं होगा वैसे ही इस झूठे, मक्कार संसार और इसके मोह जाल से कुछ ना मिलेगा. क्यों अपना बचा समय व्यर्थ में गँवा रहे हो?

कृपया करके अपने जीवन की तीव्र गति से चलती गाडी को ब्रेक लगाए और इन थकी आँखों को बंद कर कुछ आराम दें, दिन में ४ बार १० मिनट के लिए - ध्यान लगाएं - और अपने अंतर्मन के अति सुन्दर दृश्यों को देखने का प्रयास करे।
पहले कई दिन केवल रंगीन बादल दिखेंगे पर एक दिन जब आपके अंतर चक्षु खुलने लगेंगे, बहुत कुछ दिखेगा.
इस वीडियो को सुने और इस इस पर विचार करें।

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6>"जिंदगी का सार"

एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?

कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।


नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।

कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।

शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।

जीत किसके लिए, हार किसके लिए
ज़िंदगीभर ये तकरार किसके लिए....

जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
फिर ये इतना अहंकार किसकेलिये

सिमरन करले तू ए बंदे ,
साँसे अभी भी काफी हैं ,

किए जो तुमने गुनाह हैं सारे ..
इस दर पर उनकीं माफी हैं !!!
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7>सुख

पहला सुख निरोगी काया,//..........दूजा सुख घर में हो माया।
तीजा सुख कुलवंती नारी,//..........चौथा सुख पुत्र हो आज्ञाकारी।
पंचम सुख स्वदेश में वासा,//..........छठवा सुख राज हो पासा।
सातवा सुख संतोषी जीवन,//..........ऐसा हो तो धन्य हो जीवन ।
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8>हे परमात्मा.......सुख के सब साथी,

✡सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई।

सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई॥
सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई।
मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम एक सांचा दूजाना कोई॥
↪सुख के सब साथी,दुःख में ना कोई।
जीवन आणि जानी छाया॥
जीवन आणि जानी छाया।
जूठी माया,झूठी काया॥
फिर काहे को सारी उमरिया।
फिर काहे को सारी उमरिया।
पाप को गठरी ढोई॥


✡सुख के सब साथी,दुःख में ना कोई।
मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम।
एक सांचा दूजा ना कोई॥
↪ना कुछ तेरा,ना कुछ मेरा।
ना कुछ तेरा,ना कुछ मेरा॥
यह जग योगी वाला फेरा।
राजा हो या रंक सभी का॥
राजा हो या रंक सभी काअंत एक सा होई॥


✡सुख के सब साथी,दुःख में ना कोई।
मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम,
एक सांचा दूजा ना कोई॥
↪बाहर की तो माटी फांके।
बाहर की तो माटी फांके॥
मन के भीतर क्यूँ ना झांके।
उजले तन पर मान किया॥
उजले तन पर मान किया।
और मन की मैल ना धोई॥


✡सुख के सब साथी,दुःख में ना कोई।
मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम,
एक सांचा दूजा ना कोई॥
↪सुख के सब साथी,दुःख में ना कोई।
सुख के सब साथी,दुःख में ना कोई ॥

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9> इसी को ” जिंदगी ” कहते है ।

चलने वाले पैरों में कितना फर्क है ।।
एक आगे तो एक पीछे ,,
पर ना तो आगे वाले को अभिमान है ।।
और ना पीछे वाले को अपमान
क्योंकि ,,
उन्हें पता होता है कि पलभर में ये बदलने वाला है ।।
इसी को ” जिंदगी ” कहते है ।
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