Friday, January 22, 2016

6>घृणि सूर्याय नम+साधना-पथ+तुलसी के दोहो+तुलसी के पौधों

6>आ =Post=6>****ॐ घृणि सूर्याय नमः*=तुलसी ***( 1 to 4 )

1----------------ॐ घृणि सूर्याय नमः*
2-----------------साधना-पथ 
3-----------------तुलसी के दोहो से जुडी महाभारत की अनसुनी कहानिया=+mtl
4-----------------तुलसी के पौधों के बारे में चली आ रही परम्पराओ के ये है वैज्ञानिक कारण!=+mtl
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*ॐ घृणि सूर्याय नमः*

1>=ॐ घृणि सूर्याय नमः
भगवान् सूर्य देव के आशीर्वाद से ही यश की प्राप्ति होती हैं
आज आपको सूर्य से सम्बंधित हस्त रेखा विषय पर कुछ लिख रहे हैं


अनामिका अंगुली के मूल में सूर्य का स्थान होता है। सूर्य का उभार जितना अधिक होगा, प्रभाव भी उतना ही अधिक प्राप्त होता है। सूर्य पर्वत का उभार अच्छा हो तथा स्पष्ट और सरल सूर्य रेखा हो तो व्यक्ति श्रष्ेठ पशासक, पुलिसकर्मी, सफल उद्योग पति हातो है। पर्वत अधिक उभार वाला हो तथा रेखा कटी या टूटी हुई हो तो व्यक्ति घमंडी, अभिमानी, स्वार्थी, क्रूर, कंजूस तथा अविवेकी होता है। यदि हथेली में सूर्य पर्वत शनि की ओर झुका या संयुक्त होता है तो व्यक्ति न्यायाधीश, पंच या सफल अधिवक्ता होता है। दूषित पर्वत की स्थिति में अपराधी, कुखयात अपराधी या बदनाम व्यक्तित्व वाला होता है। सूर्य पर्वत तथा बुध पर्वत के संयुक्त उभार की स्थिति में योग्यता, चतुराई तथा निर्णय शक्ति अधिक होती है। श्रेष्ठवक्ता सफल व्यापारी या उच्च स्थानों का प्रबंधक होता है। ऐसे व्यक्तियों की धन पा्रप्ति की महत्वाकाक्षां असीमित होती है। दूषित उभार या अव्यवस्थित रेखाएं धनाभाव की स्थिति बनाती है तथा व्यक्ति जीवन के उत्तरार्ध में अवसाद से पीड़ित हो सकता है। हथेली में सूर्य पर्वत के साथ यदि बृहस्पति का पर्व उन्नत है तो व्यक्ति विद्वान, ज्ञानवान, मेधावी और धार्मिक विचारों वाला होता है और यदि सूर्य तथा शुक्र पर्वत उभार वाले है तो विपरीत लिंग के प्रति शीघ्र व स्थायी प्रभाव डालने वाला, धनवान, परोपकारी, सफल प्रशासक, सौंदर्य और विलासिताप्रिय होता है तथा दूषित पर्वत से कामी, लाभेी, लम्पट तथा घमडंी आरै दश्ुचरित्र वाला हो जाता है। सूर्य पर्वत पर जाली हो तो गर्व करने वाला किंतु कुटिल स्वभाव वाला होता है तथा किसी पर भी विश्वास न करने वाला होता है। तारा का चिन्ह हो तो धनहानि कारक किंतु प्रसिद्धि, अप्रत्याशित रूप से प्राप्त होती है। गुणा का चिन्ह हो तो सट्टा या शयेर में धन का नाश हो सकता है। सूर्य पर्वत पर त्रिभुज हो तो उच्च पद की प्राप्ति, प्रतिष्ठा तथा प्रशासनिक लाभ होते हैं। सूर्य पर्वत पर बिंदु या वृत्त हो तो निश्चित रूप से सूर्योदय के पहले या बाद का जन्म समय तथा आंखों में विशेष परेशानी होती है। सूर्य पर्वत पर चौकड़ी हो तो सर्वत्र लाभ तथा सफलता की प्राप्ति होती है। त्रिशूलाकार चिन्ह यश, आनंद, विलासिता व सफलता प्रदान करता है।
वैष्णव जन तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे पर दु:खे उपकार करे तोए मन अभिमान ना आने
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2>साधना-पथ


संसार में अरबों मनुष्य हैं । उनमें किन्हीं इने-गिने मनुष्यों में साधना करने की पवित्र भावना जगती है और वे साधना के पथ पर चल पड़ते हैं । साधना के पथ पर वे चल पाते हैं, जिनके पूर्व जन्म के साधना विषयक संस्कार होते हैं अथवा होते हैं अथवा वर्तमान के परिवेश (माहौल )का गहरा प्रभाव रहता है, अरबों संख्या वाले समुदाय में साधना करने वालों की संख्या अत्यल्प है । अत्यल्प संख्या वाले साधक महानुभाव भी साधना के क्षेत्र में साधना करते-करते साधना को या तो सर्वथा छोड़ बैठते हैं, या साधना के क्षेत्र में रहते हुए ही जैसे-तैसे समय व्यतित कर रहे होते हैं । कोई विरले ही साधना के महत्त्व को, उपयोगिता को, लाभों को और न करने से हानियों को भली-प्रकार जानकर-समझकर साधना को यथोचित स्तर पर करते हुए साधना की गहराइयों को आत्मसात करते हुए साधना की उच्च स्थिति को प्राप्त होते हैं ।

जो साधक साधना को छोड बैठते हैं या साधना के पथ पर चलते हुए भी जैसे-तैसे समय व्यतित करते हैं । उनका इस प्रकार साधना को छोड देना या साधना पथ पर व्यर्थ समय व्यतीत करना, किन कारणों से होता हैं ? इस पर दृष्टि डालने से एक महत्वपूर्ण कारण सामने आता है और वह कारण है -ज्ञान (जानकारी )। ज्ञान एक ऐसा महत्वपूर्ण कारण है, जिस पर सम्पूर्ण मानव जीवन आश्रित है । मनुष्य का प्रत्येक कार्य ज्ञान पर आश्रित है । साधना रूपी कार्य, महत्वपूर्ण कार्य है। महत्वपूर्ण कार्य बिना ज्ञान के कैसे सम्भव हो पायेगा ? मानव का स्वभाव है कि सुख को प्राप्त करना और दुःख को दूर करना । सुख भी सामान्य नहीं, अनेकों विश्षणों से युक्त सुख चाहिए और सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना ही मानव का ध्येय है । सुख पाना हो या दुःख दूर करना हो, बिना कार्य के नहीं हो सकता । कैसे-कैसे कर्म करने से कैसे-कैसे सुख प्राप्त होते है और कैसे-कैसे दुःख दूर होते हैं, यह सब ज्ञान पर आश्रित है । ऐसे महत्वपूर्ण ज्ञान को अपनाये बिना साधना का पथ प्रशस्त नहीं हो पायेगा ।


जो भी साधक साधना को छोड बैठते हैं या साधना के पथ पर चलते हुए समय व्यर्थ करते हैं । उनके जीवन में ज्ञान का अल्प होना एक महत्वपूर्ण कारण है । साधक साधना में रूचि रखते हैं, श्रद्धा रखते हैं, उसके लिए तप करते हैं, और नाना प्रकार के उपायों को भी अपनाते है । परन्तु उनकी दृष्टि ज्ञान पर प्रायः कम रहती हैं या न के बराबर रहती है । शास्त्र पड़ना, उनके मत में व्यर्थ समय बिताना है । शास्त्र पढना व शास्त्र चर्चा करना उनके लिए कोसों दूर है । वे ऐसा मानते हैं कि साधना के लिए शास्त्र पड़ने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए वे शास्त्र नहीं पढ़ते हुए केवल साधना करना चाहते हैं और शास्त्र पढ़ने वालों से अलग एकांत में रहते हैं । वस्तुतः वे ज्ञान से दूर रहते हुए साधना से ही कोसों दूर होते जा रहे है । जितना अधिक ज्ञान बढ़ता है उतनी अधिक साधना उत्तम बनती जाती है । यह बात ज्ञान की गहराई को जानने पर ही ज्ञात हो सकती है ।

साधक गण इस बात को अच्छी प्रकार जान लें कि साधना का आधार अष्टांग-योग है । अर्थात जितना अधिक योग को अपनाया जाये, उतनी अधिक साधना उत्कृष्ट बनती है । योग स्पष्ट रूप से विधान करता है कि 'स्वाध्याय 'करना चाहिए। महर्षि वेदव्यास ने 'स्वाध्याय 'की परिभाषा इस प्रकार की है -

स्वाध्यायो माक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा ।

अर्थात मोक्ष को प्राप्त कराने वाले शास्त्रों का अध्ययन करना और प्रणव =ओ३म् का जप करना स्वाध्याय कहलाता है । महर्षि वेदव्यास के कथन से स्पष्ट होता है कि मोक्ष को प्राप्त करना है, तो मोक्ष को प्राप्त कराने वाले शास्त्र पढ़ने चाहिए । मोक्ष को प्राप्त कराने वाले शास्त्र पढ़ने से साधक को वह ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे साधना का मार्ग प्रशस्त होता है । क्योंकि साधना में विशेष गति तब हो सकती है, जब विशेष जानकारी होती है और विशेष जानकारी बिना शास्त्र पढ़े नहीं हो सकती । शास्त्र पढ़ना साधक का परम कर्तव्य है क्योंकि 'स्वाध्याय 'से साधना उत्कृष्ट और पुष्ट होती है ।

स्वाध्याय करने का स्वरूप क्या हो सकता है? अर्थात मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करने का स्वरूप क्या हो सकता है? कोई साधक यह अभिप्राय ले सकता है कि किसी गुरु के सानिध्य में रह कर गुरु मुख से पढ़ना या किसी शास्त्रवेता के मुख से (प्रवचन के रूप में )सुनना या शास्त्र पढ़े हुए साधकों के क्रिया-कलापों को देखकर सीखना या और किसी भी रूप में हो । परन्तु शास्त्रों में मोक्ष को प्राप्त करने के लिए जो जानकारी दी गई है, उसे जानना साधक के लिए अनिवार्य है । क्योंकि मोक्ष को प्राप्त करना रूपी कर्म =कार्य संसार में सब से उत्कृष्ट कर्म है । जितना उत्कृष्ट कर्म होगा, उसके लिए उतने ही उत्कृष्ट ज्ञान की आवश्यकता होती है । चाहे साधक स्वयं स्वाध्याय करें या गुरु के माध्यम से करे या जो स्वाध्याय करके साधना को उत्कृष्ट बना रहे हैं, उनको देखकर करे । कैसे भी करे, किन्तु स्वाध्याय तो करना ही होगा । साधक बिना स्वाध्याय के साधना को साधना के रूप में नहीं कर सकता । इसलिए साधक को चाहिए कि शास्त्रों से मुख ना मोड़े और ज्ञान से उदासीन ना रहे । ऐसा न हो कि जिस साधना को करने के लिए साधक बनें, वही साधना साधक को ज्ञान के अभाव में साधना से कोसों दूर ले चले । इसलिए साधक ज्ञान के साथ ही साधना को लेकर चले । बिना ज्ञान के नहीं । अस्तु ।

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3>=तुलसी के दोहो से जुडी महाभारत की अनसुनी कहानिया

तुलसी नर का क्या बड़ा समय बड़ा बलवान, काबा लूटी गोपिया वही अर्जुन वाही बाण" इस दोहे से जुडी कहानी का अनुवाद हम करते है आप के लिए जो एक प्रेरक प्रसंग है.

महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था, मथुरा नगरी पर मुस्लिम काल यमन ने हमला कर दिया था. जरासंध वध के बाद सुरक्षित लग रही मथुरा अब फिर खतरे में थी. वरदान पाये हुए काल यमन को कृष्ण बलराम मार नहीं सकते थे इसलिए वो बार बार बड़ी सेना लेके आक्रमण करता था. एक बार कृष्ण युद्ध में घायल हो गए तब अर्जुन ने उनसे मिलाने का फैसला किया. जब अर्जुन रस्ते में थे तो उन्हें नारद मुनि मिले और उन्होंने कहा की, जा रहे हो अर्जुन पर कृष्ण के घावों को छूना मत नहो तो तुम्हारी शक्ति क्षीण हो जाएगी.

अर्जुन दुविधा में कृष्ण के पास पहुंचा, कृष्ण ने अर्जुन को अपने सिरहाने बैठने बोला पर अर्जुन हिचकिचा रहा था. भगवान ने अर्जुन का संशय समझ लिया और सीधे अर्जुन से कहा की कोई बात नहीं अर्जुन तुम में घाव हाथ से मत चुना पर तुम्हानी कमान से तो इसे छू कर देख ही सकते हो. अर्जुन को बात समझ में आ गई और उसने कृष्णा के घाव देखने के लिए अपनी कमान का इस्तेमाल किया और जायजा लिया. अर्जुन ने गुस्से में युद्ध में उतरने की इच्छा जाहिर की तो कृष्ण ने मना कर दिया, और बताया की कैसे वर प्राप्त कालयमन उसके लिए खतरा हो सकता है.

कृष्ण ने अर्जुन से कहा की में घायल हूँ और मुझसे मिलने के लिए गोपिया आ रही है, तुम इतना करना की यमनो से उनकी रक्षा करना. अर्जुन ने घमंड में हाँ बोला और दहाड़ा उसे अपने बल पर घमंड हो चूका था. जब अगले दिन गोपिया कृष्ण से मिलने आई तो यमन लुटेरो ने उन्हें लुटने के लिए घेर लिया. अर्जुन तैनात था पर उसके लाख चाहने पर भी वो उनका कुछ ना बिगाड़ सका.

कमान घावों पर लगाने से वो मन्त्र भूल गया और निशक्त हो गया, लुटेरो ने गोपियों को लूट लिया. अर्जुन शर्मिंदा था, कृष्णा से नजर मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई. उसे भी समझ में आ गया की महाभारत के युद्ध में ताकत मेरी नहीं समय की थी. समय ही व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ और कमजोर बनता है. तुलसीदास अंतर्यामी थे इस कारण उन्हें ये कथा मालूम थी जिसपे उन्होंने ये दोहा लिखा जो बहुत सम्मानित हुआ
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4==तुलसी के पौधों के बारे में चली आ रही परम्पराओ के ये है वैज्ञानिक कारण!

तुलसी के पौधे के बारे में ढेरो परम्पराए (मैिथस) चली आ रही है जिन्हे हम सही मान कर आज भी जारी रखे हुए है, जैसे की तुलसी को दांतो से मत चबाओ, रविवार के दिन तुलसी से पूछ के तोड़ो या द्वादशी के दिन तुलसी मत तोड़ो फ्ला फ्ला.. लेकिन क्या असल में इसके कोई मायने है?

आज बात करेंगे इन्ही परम्पराओ के वैज्ञानिक और परुानिक मान्यताओ पे, जो की साबित करती है की क्या सही है और क्यों है? तुलसी को छूने भर और पास से निकलने तक ई मनाही की भी बात होती है वोभी करेंगे, लेकिन सबसे पहले जान ले की तुलसी कौन है और क्यों है?

जालंधर असुर को मरने के लिए सती वृंदा की पूजा तोड़नी जरुरी थी जिसके लिए विष्णु जी जालंधर का रूप धार वृंदा के महल में पहुंचे. जैसे ह वृंदा उठी और उन्हें अपना पति समझ प्रणाम किया उसका सतीत्व भंग हुआ और जालंधर का शिव ने वध किया, लेकिन तब सती वृंदा ने विष्णु जी को पत्थर का कर दिया.

लक्ष्मी जी की विनती के बाद वृंदा ने अपना श्राप वापिस लिया लेकिन तब से विष्णु जी वृंदा के पति के रूप में पत्थर स्वरुप पूजे जाते है, वृंदा सती हुई तो उसकी राख की जगह तुलसी का पौधा उगा जो की आज भी उसी के रूप में और विष्णु पत्नी के रूप में पूजा जाता है, लोग दोनों के विवाह को मान्यता देते है.

अब बात करें परम्पराओ की तो तुलसी के पते में पारा बहुत ज्यादा मात्र में होता है जिसके दांतो से खाने से आपके दांत जल्दी कमजोर होके, काले भी होके टूट जाने का खतरा पैदा हो जाता है. इसलिए इसे निगला जाता है न की चबाया, वंही इसे इतवार को पूछ के तोड़ने और द्वादशी को न तोड़ने के पीछे भी पौराणिक तथ्य है.
तुलसी (वृंदा) के बारे में मान्यता है की वो द्वादशी के दिन उपवास रखती थी, इस लिए उस दिन वो भूखे पेट रहती है ऐसे में उसे परेशान न किया जाये ये सोच है जो की पौराणिक है. वंही इतवार के दिन पूछ के तोड़ने के पीछे शायद इसे बचाये जाने की प्रासंगिकता रही होगी.

महिलाओ के तुलसी न तोड़ने या पास से न गुजरने के पीछे वैज्ञानिक तथ्य है, महिलाओ में मासिकी होने के कारण उनके शरीर में ज्यादा ताप होता है. इसके चलते तुलसी का पौधा सुख कर मुरझा सकता है, इसी कारन महिलाये उस दौरान विशेष कर तुलसी के आसपास भी नही दिखती है.
तुसली एक आयुर्वेदिक औषधि भी है जो की मधुमेह, सरदर्द, अपचय, किडनी पथरी, त्वचा के रोगो, एंटी डैंड्रफ और एंटी कैंसर भी होतीं है. तो आज ही अगर नही है तो घर में लगाये तुलसी का पौधा और गिनते जाइये इसके फायदे...

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