8>आ =Post=8>***मायिक कामनाऐं ही दुःखों का कारण है।***( 1 to 7 )
1-------------------मायिक कामनाऐं ही दुःखों का कारण है।
2-------------------बुरा अच्छा समय - सुख दुःख
3-------------------हर परिस्थितियों में मनुष्य को डर और चिंताओं से बचना चाहिये।
4-------------------बुद्धि बल ही श्रेष्ठ है:
5--------------------हमारे जीवन का सत्य :-
6-------------------"जिंदगी का सार"
7-------------------অমৃতত্ব লাভের পথ
7-------------------অমৃতত্ব লাভের পথ
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1>मायिक कामनाऐं ही दुःखों का कारण है।
जिस प्रकार खाज को खुजलाने से वर्तमानकाल में सुखानुभूति तो होती है किन्तु पुनः उसका कितना भयंकर स्वरूप हो जाता है ।
उसी प्रकार अभिलाशित पदार्थों के देने से, क्षणभंगुर वासना की पूर्ति से, आनन्द तो मिलता है किन्तु वह आनन्द सीमित होता है। कुछ क्षण के पश्चात् ही दूसरी वासना का विराट् स्वरूप समक्ष मे आ जाता है।
वास्तव में सांसारिक पदार्थों द्वारा इच्छापूर्ति होने पर लोभ उत्पन्न होता है-
‘ज्यों प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’
एवं उसकी अपूर्ति होने पर क्रोध होता है। अतएव वासना के उत्पन्न होते ही दुःख स्वयं साकार होकर आ जाता है। उससे कोई भी भौतिकवादी नहीं बच सकता।
संत जन कहते है कि बहुत होने पर भी जो सन्यासी का जीवन बिताता है वह मनुष्य श्रेष्ठ है l संतोषी पुरुष सच्चा धनवान है l
भोजन ,सेवा, पाणिग्रहण और मरण इन चार कामों में किसी दूसरे की बदली नहीं चलती lये चार तो स्वयं को ही करने होते हैं l
जिसको सुख भोगने की इच्छा नहीं रहती वह कभी दुखी नहीं होता l जगत काल के वश में है पर काल तो प्रभु के आधीन है l प्रभु का आश्रय लेने वाला ही भयमुक्त होता है l
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2>बुरा अच्छा समय - सुख दुःख
समय सूर्य की किरण जैसे दमकता व् चलता रहता है सब ठीक चलता है हर वस्तु सुख देती है हर चीज़ सही दिशा में है. फिर लगता है सूर्य की नन्ही सी किरण भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती, लगता है काले बादलो में घनघोर अँधेरा अपनी छाया से जैसे सारे प्रकाश को खा जाता है. अशुभ, अति क्रूर, दुखदायी व् आघातक समय जब आता है लगता है सब समाप्त हो जाएगा।
क्या समय कभी ख़राब या अच्छा होता है?
समय तो सूर्य की तरह सदैव चमकता, चलायमान है हम जो चाहे करें, प्रतिक्रिया करें अथवा उपेक्षित कर कुछ न करें सूर्य देव एक ज्वाला बने अपनी सत्ता में रहते हैं और जीवनदायनी पृथ्वी जैसे ग्रह को ऊर्जा देते रहते हैं. काल भी इसी तरह चलता रहता है.
समय है क्या? समय काल रूप में एक आयाम है, जो दिखे न दिखे चलता रहता है कभी नहीं रुकता। समय रेखीय नहीं अर्थात एक रेखा में नहीं चक्र में घूमता है. हमारे आकाशिक ब्रह्माण्ड में मनुष्य व् देवों के लिए समय चक्र घूमता है जैसे हर ग्रह अपने कक्ष में घूमता है. युगों पूर्व जब भारत धरती के गोलाकर अटूट भूखंड का केंद्र भाग था तभी से उसके ऋषिओं को खगोल व् काल चक्रों का ज्ञान था.
समय के चक्रो को हम ३६० अंशो में बांटते हैं उनका अध्ययन करने के लिए. हर ग्रह का अपना समय चक्र है जब हम दो भिन्न ग्रहो के समय चक्रों का अध्ययन करतें हैं तो उसे नक्षत्र-विद्या भी कहते है पर उसके अंतर सूक्ष्म प्रकाशमान ऊर्जा के प्रभावों व् पृथ्वी पर तत्वों व् जीवों पर उनके पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन को हम ज्योतिष भी कहते हैं. ज्योतिष शास्त्र इन्ही काल चक्रों का नियमबद्ध अध्ययन हैं. ३६० अंशो को हम ३० अंशो के १२ भागों में इसलिए बांटते हैं ताकि इनको अच्छी तरह समझा जाए, ज्ञान आत्मसार करने समझने के लिए अध्ययन को अध्यायों में बाँटना पड़ता है, जैसे पूरी रोटी आदमी के मुँह में नहीं डाल सकते उसके टुकड़े करने पड़ते हैं. पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य दृश्य मान व् अदृश्य ग्रह हमारे आकाशगंगा ब्रह्मांड में स्थित हैं ज्योतिष विज्ञान पृथ्वी को या सूर्य को केंद्र मानकर किसी भी जन्मी सत्ता या घटना की तिथि अनुसार काल चक्रो, ग्रहो व् उपग्रहों के प्रभाव अनुसार, उसका विश्लेषण करता है.
समय ख़राब या अच्छा नहीं होता पर हर जन्मे जीव व् सत्ता पर समय चक्रो का प्रभाव बहुत सूक्षम रूप से पड़ता है. यह कोई जादू या चमत्कार नहीं है न ही कोई ज्योतिष किसी जीव या सत्ता पर केंद्रित ऊर्जा के प्रभाव से बचा सकता है, हाँ हम जान कर कोई निवारण ढूंढ सकते हैं.
समय बुरा नहीं होता, जीव के जीवन काल के कुछ हिस्से इस अवतरित जन्म में बुरे या भले होते हैं.
आप ने देखा होगा संभवतः अनुभव भी किया होगा जब हमारा अच्छा समय होता है हम नशे जैसी कृत्रम आनंद अवस्था में होते हैं. जब दुःख के काले बादल छाते हैं तो हम ईश्वर को स्मरण करते हैं, शास्त्रों के पठन व् मन्त्र उच्चारित करके मांगते हैं के हे प्रभु रक्षा करो मुझे बचा लो, अमुक को बचा लो, वो गिर रहा है उसे संभाल लो इत्यादि।
अदृश्य जगत से संसर्ग व् सम्पर्क
भारत के महा ज्ञानी संतो महात्माओं ने कई बार दोहराया है गाया भी है जिसे संभवतः आपने सुना भी है, की प्रार्थना अदृश्य जगत से संपर्क करने के लिए ऐसा यन्त्र है जिसका प्रभाव है पर - वह तभी होता है जब प्रार्थना अपने सुखमय, आनंदित व् अच्छे समय में करें. चाहे हम धन्यवाद दें, उपासना करें वह कहीं नहीं जायेगी जब हम उसे अपने स्वार्थ हेतु केवल दुःख में करें। इसीलिए शायद ज्ञानी अन्तरध्यानी सत्ताओं को दुःख के समय में भी इतनी पीड़ा नहीं होती जितना जन साधारण को होती है. प्रभु वह परम आत्मा सुहृदय स्थायी सत्ता है जो स्थायी रूप से सदा आनंदित है वहां पहुँच या संसर्ग का साधन केवल वह "समय" है जब हम आनंद और सुख की चरम अवस्था में हों तभी हमारी प्रार्थना कहीं जायेगी. इस अवस्था में सम्पर्क बिना शब्दों के होता है. हमारे भाव प्रभु तक पहुँच सकते हैं और अपनी आत्मा के केंद्र में द्रवित हो मन के ऊपर पड़े विकार भी धो डालेंगे.
दुःख ? सुख में तो सब हमें मित्र समझेंगे पर दुःख में अपने कर्म या कोई भी साथ न दे तो हम अदृश्य जगत की शरण में जाते हैं. दुःख तो समुपस्थित या लगभग तय हैं के आएंगे ही बचना कठिन है चाहे कुछ भी करें इस जन्म में चाहे दुष्कर्म या पाप न भी हों पिछले जन्म के पाप उभरेंगे; वह भी तब जब हम कभी सोच भी नहीं सकते। सुनने में बुरा लगता है. बुरा नहीं सत्य है. सत्य सदैव कडुवा है ग्रहण करो या नहीं।
बुरे समय में प्रभु से प्रार्थना न कर उसे धन्यवाद दें के कृपया इन दुखों के सहने की क्षमता देना, जो भी हो रहा है मेरे ही अज्ञानता पूर्वक किये कार्यो के परिणाम हैं. जब समय पर पढ़े नहीं परीक्षा फल तो दुखद ही है.
बार बार धन्यवाद करें जीवन धारा अभी भी बहे जा रही है बस जल कम हो रहा है. दुःख के समय केवल तब आते हैं जब हम सुख में, मौज में आनंद में तो परमात्मा को भूले रहे और अब स्वार्थवश काम पड़ा तो उसे याद करलें, मंदिरो मस्जिदो में माथा रगड़ें - ऐसा करने से कुछ प्राप्त नहीं होता.
तो अच्छे समय में प्रार्थना कर सम्पर्क स्थापति करें। बुरे समय में धन्यवाद देते रहें। जब भी कभी परमात्मा के आँखों से दर्शन करने हों तो गायों के पास जाकर बैठ जाएँ उनकी सेवा करें; किसी भी जीव जो वेदना में हैं उसे अपनी निष्काम सेवा द्वारा आरोग्य करने की चेष्टा करें, ऐसा होने पर आपका सन्देश अदृश्य जगत तक तत्काल पहुंचेगा.
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3> हर परिस्थितियों में मनुष्य को डर और चिंताओं से बचना चाहिये।
हर परिस्थितियों में मनुष्य को डर और चिंताओं से बचना चाहिये। चिंता से ही डर की प्राप्ति होती है। डर से मन में कमजोरियां आती हैं। चिंता से नींद नहीं आती। नींद की कमी से मानसिक तनाव आता है एवं कई रोग आपके इर्द-गिर्द आकर खड़े हो जाते हैं। मस्तिष्क के तनाव के कारण रोगों का आक्रमण दुश्ननों की तरह शुरू हो जाता है। जिसको जहां मौका मिलता है, वहीं अपना अस्तित्व दिखाना चालू करता है। चिता और चिंता में इतनी ही फर्क है, चिता एक बार मानव शरीर को जलाती है और चिंता चौबीस घंटा आपको जला-जलाकर अस्त-व्यस्त कर देती है। एक परिवार के दो भाईयों पर एक केस दर्ज हुआ। पुलिस दोनों परिवारों के घर पर पूछताछ करने गयी। सहयोग ऐसा कि दोनों ही घर पर नहीं मिले। संध्या के समय घर में आने पर परिवार ने जानकारी दीं। छोटा भाई तुरंत पुलिस स्टेशन पहुंच गया, अधिकारी से मुलाकात की एवं घर पर आने की जानकारियां प्राप्त की। पूछताछ पूरी कराकर घर लौट चैन की नींद सो गया। दूसरी ओर बड़े भाई ने सोचना शुरू किया, मेरे यहां पुलिस क्यों आई, अगर मुझे पकड़ कर ले जाएगी तो मेरी बेइज्जती हो जाएगी, मैं अपने रिश्तेदारों से राय मांगूंगा तो वे क्या सोचेंगे, मैं क्या करुं इस चिंता में घर में रात में सोना बंद कर दिया। फिस जाना बंद कर दिया। सिर्फ खाना खाने आते थे। मौका-बेमौका घर में आते थे, दरवाजे की घंटी सुनते ही बाथरूम में भाग जाते थे। इसी तरह 15 दिन निकल गये। संयोग से छोटे भाई ने बड़े भाई को अपने घर निमंत्रण दिया। सभी परिवार शामिल हुए। दुःखी आदमी की शक्ल दूर से पहचान में आती है। भाई ने अपनी भाभी से पूछा क्या बात आप सब इतने परेशान क्यों नजर आ रहे हो? भाभी ने डरते-डरते सब बातें बताई। सुनते ही भाई के चेहरे पर हंसी आ गयी। भइया को बोला मेरे साथ पुलिस स्टेशन चलिये। मैं, जिस दिन पुलिस आयी थी, उसी दिन जाकर आ गया था। आप भी चलिए और पूछताछ करवा आइये। दोनों भाइयों में क्या फर्क है। एक डरता है, एक डटकर परिस्थितियों का सामना करता है। आप इन दोनों में क्या बनना चाहते हैं। यह आप पर निर्भर करता है।चिंता से बचने का एक ही उपाय है। सीधा और सरल, बगैर पैसे का, ढेला न खर्च हो, अंटी का सब काम हो जाए। सभी डर और चिंताओं को परमपिता पिता परमेश्वर को समर्पित कर दीजिए। आप चिंता मुक्त हो जायेंगे। हर मुश्किलें आसान हो जायेगी। व्यापार अपने तीर्व गति से चलने लगेगा। क्योंकि आपने समर्पण कर दिया। समर्पण की शक्ति एक सैनिक से पूछिए कि समर्पण के बाद वो देश पर मर मिटने को तैयार रहता है। एक भक्त से पूछिये समर्पण क्या होता है, उसका जवाब आपको यही मिलेगा, समर्पण के बाद चिंता मुक्त हो गया, स्वस्थ हो गया, मस्त हो गया। इसका मुख्य कारण क्या है। उसने परमपिता परमात्मा को अपना अभिभावक बना लिया है। बंदर से आप जब डर कर भागते हैं, आपके पीछे-पीछे भगता है। आप तनकर खड़े हो जाते हैं, बंदर भाग जाता है। डर भी बंदर की तरह ही है। विवेक और पुरुषार्थ की शक्तियों के साथ तन कर खड़े हो जाइये। डर और चिंता भाग जायेगी। 🚩
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4>बुद्धि बल ही श्रेष्ठ है:
बुद्धि के बल को ही सबसे श्रेष्ठ क्यों माना गया है?
इस सवाल के जवाब में पहले हमें उन बातों पर विचार करना होगा, जिनके मुताबिक अगर किसी कारणवश बुद्धि भ्रष्ट हो जाए, तो इंसान अपना भला- बुरा नहीं सोच पाता है और इस वजह से उसका पतन हो जाता है। गीता में कहा गया है, 'विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्यों की उन्हीं विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघन् पड़ने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, यानी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट होने से स्मरण-विलुप्त हो जाता है, अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि अथवा स्मृति के विनाश होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है।'
महाभारत के उद्योग पर्व में यह सवाल उठाया गया है कि जब सर्वशक्तिमान ईश्वर किसी की रक्षा करना चाहता है या उसे नष्ट करना चाहता है, तो वह क्या करता है? इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि इसके लिए ईश्वर किसी को विष नहीं देता या कोई तेज धार वाले शस्त्र का प्रयोग नहीं करता। न ही ईश्वर अपने किसी प्रतिनिधि को ऐसा करने के लिए भेजता है। ईश्वर जिसकी रक्षा करना चाहता है, उसे संकट के समय उत्तम बुद्धि देता है। जिसे नष्ट करना होता है, उस मनुष्य की बुद्धि का हरण कर लेता है, यानी बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, ताकि वह व्यक्ति स्वयं ही कुमार्ग पर अग्रसर होकर अपना सर्वस्व नष्ट कर ले। भ्रष्ट बुद्धि वाला व्यक्ति अपना सर्वनाश स्वयं कर लेता है। जब बुद्धि का हरण हो जाता है, तो परिणामस्वरूप उसकी दृष्टि कुकर्मों की ओर झुक जाती है। बुद्धि भ्रष्ट होने के कारण ही कौरवों का विनाश हुआ था।
बुद्धि किस तरह ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ वरदान है?
वैदिक विचारधारा कहती है कि बुद्धि ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ वरदान है। बुद्धि के द्वारा व्यक्ति अपना, समाज और राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। कल्याणकारी कर्मों से व्यक्ति लौकिक संपदा का स्वामी तो बनता ही है, साथ ही, वह ईश्वर के अपार आनन्द का उत्तराधिकारी भी बन जाता है। मेधा प्राप्त व्यक्ति कठिन और सूक्ष्म विषयों को सरलता से समझ पाता है। ऐसे व्यक्ति का ज्ञान निश्चयात्मक होता है। उसके मन में किसी प्रकार का संदेह या दुविधा नहीं रहती। विद्या-अविद्या, धर्म- अधर्म, सत्य-असत्य के मर्म को जानने की क्षमता उसमें रहती है। इसी कारण सभी समझदार व्यक्ति बुद्धि की याचना करते हैं। बुद्धि की तीव्रता व सूक्ष्मता को पुरुषार्थ से बढ़ाया जा सकता है।
आखिर सद्बुद्धि किस प्रकार हासिल हो सकती है?
ईश्वर उपासना सद्बुद्धि की प्राप्ति का सवोर्त्तम साधन है। ईश्वर ज्ञान स्वरूप है, उसके ज्ञान की कोई सीमा नहीं। हमारे पास जो ज्ञान है, उसका मूल स्त्रोत वह सर्वव्यापक ईश्वर ही है। जब हम श्रद्धा से मन को एकाग्र कर प्रतिदिन ईश्वर की सात्विक भाव से उपासना करेंगे, तो हमारे भीतर ज्ञान का प्रकाश बढ़ेगा। ईश्वर के ध्यान से हमारी बुद्धि पवित्र बनेगी और उससे विवेक जागृत होगा। विवेकवान होने पर हम कभी कोई गलत काम नहीं कर सकते। विवेक ही हमें सच और झूठ का अंतर बताता है? उससे यह भी पता चलता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है? इस बारे में चाणक्य का कहना है कि जिसके पास बुद्धि है, उसके पास बल है। बुद्धिहीन के पास बल कहां?
क्या मंत्रों के उच्चारण भी बुद्धि बढ़ती है?
सभी महान संतों व महात्माओं ने गायत्री मंत्र को पवित्र मेधा (बुद्धि) प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन बताया है। गायत्री मंत्र एक वैदिक छंद है, जिसमें ईश्वर-आराधना की तीनों अवस्थाएं अर्थात् स्तुति, प्रार्थना और उपासना सम्मिलित हैं। गायत्री मंत्र का नियमित जप, ध्यान और मनन करने से संकट के समय में धैर्य और विवेक के साथ आत्मबल का भी संचार होता है। इसके साथ ही, आधुनिक जीवन की चुनौतियों पर जीत हासिल करने के लिए मेधा-शक्ति को जागृत करता है। गायत्री मंत्र में सुखस्वरूप ईश्वर से हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना की गई है। इस मंत्र के द्वारा हम सृष्टिपालक परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारी बुद्धि और मन को श्रेष्ठ मार्ग पर ले जाए और उत्तम कार्यों में लगाए। नियमित रूप से गायत्री मंत्र के जप से आक्रोश, आत्मग्लानि पर विजय प्राप्त की जा सकती है और बुद्धि को स्थिर रखा जा सकता है।
यह सच है कि मानव की विशेषता उसकी बुद्धि से है। आज जिस स्तर पर भी हम जीवन जी रहे हैं, उसका मुख्य कारण हमारी बुद्धि है। यह जितनी सात्विक होगी, व्यक्ति का जीवन उतना ही पवित्र होता है।
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5>हमारे जीवन का सत्य :-
आदमी सुनता है मन भर, सुनने के बाद प्रवचन देता है टन भर, और खुद ग्रहण नही करता कण भर ॥
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6>"जिंदगी का सार"
एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?
कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।
नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।
कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।
शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।
जीत किसके लिए, हार किसके लिए
ज़िंदगीभर ये तकरार किसके लिए....
जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
फिर ये इतना अहंकार किसकेलिये
सिमरन करले तू ए बंदे ,
साँसे अभी भी काफी हैं ,
किए जो तुमने गुनाह हैं सारे ..
इस दर पर उनकीं माफी हैं !!!
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7>অমৃতত্ব লাভের পথ-- ( সংগ্রহ- নিবোধত -29শ বর্ষ -2 য় সংখ্যা )
" অমৃতত্ব লাভের পথ হল নিজের ক্ষুদ্রতা,ল্ঘুতাকে,জয় করে বিরাট,উদার,নিঃস্বার্থ ও মহৎ
হওয়া।
এবার শ্রী রামকৃষ্ণের কৃপা সকলের ওপর , তাঁর আশীর্বাদ :-"তোমাদের চৈতন্য হোক। "
আমরা কবে সব অনুদার চিন্তা ত্যাগ করে ওই বিরাটের অনুসারী হব। তখনই অমৃতের
সরণি দৃশ্যমান হয়ে উঠবে। জগতের নাথ জাগ্রত হবেন জগতের প্রতিটি মানুষের অন্তরে।
জগন্নাথ রুপী শ্রী রামকৃষ্ণ এবং শ্রী রামকৃষ্ণ রুপী জগন্নাথকে বার বার নত হয়ে আজ এই
প্রার্থনাই নিবেদন করি। "রমা -শম্ভূ -সুরপতি-গণেশাচির্ত পদঃ। "
শ্রী জগন্নাথ আমাদের নয়নপথগামী হোন। জগতের সকলের মধ্যে যেন আমরা সেই জগতের
নাথকেই দর্শণ করি। সত্যযুগ এগিয়ে আসছে। বহু বহু বৎসর যারা অস্পৃশ্য়, অনাথ ,অশিক্ষিত
হয়ে সকলের ঘৃনাস্পদ হয়ে আছে , সেই সবার চিত্তবাসি জগন্নাথ এবার আমাদের "নয়নপথগামী"
হয়ে পূজা গ্রহণ করুণ।"
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Follow Diary No-MBCo-2016// (1 )-Page No-244
7>অমৃতত্ব লাভের পথ-- ( সংগ্রহ- নিবোধত -29শ বর্ষ -2 য় সংখ্যা )
" অমৃতত্ব লাভের পথ হল নিজের ক্ষুদ্রতা,ল্ঘুতাকে,জয় করে বিরাট,উদার,নিঃস্বার্থ ও মহৎ
হওয়া।
এবার শ্রী রামকৃষ্ণের কৃপা সকলের ওপর , তাঁর আশীর্বাদ :-"তোমাদের চৈতন্য হোক। "
আমরা কবে সব অনুদার চিন্তা ত্যাগ করে ওই বিরাটের অনুসারী হব। তখনই অমৃতের
সরণি দৃশ্যমান হয়ে উঠবে। জগতের নাথ জাগ্রত হবেন জগতের প্রতিটি মানুষের অন্তরে।
জগন্নাথ রুপী শ্রী রামকৃষ্ণ এবং শ্রী রামকৃষ্ণ রুপী জগন্নাথকে বার বার নত হয়ে আজ এই
প্রার্থনাই নিবেদন করি। "রমা -শম্ভূ -সুরপতি-গণেশাচির্ত পদঃ। "
শ্রী জগন্নাথ আমাদের নয়নপথগামী হোন। জগতের সকলের মধ্যে যেন আমরা সেই জগতের
নাথকেই দর্শণ করি। সত্যযুগ এগিয়ে আসছে। বহু বহু বৎসর যারা অস্পৃশ্য়, অনাথ ,অশিক্ষিত
হয়ে সকলের ঘৃনাস্পদ হয়ে আছে , সেই সবার চিত্তবাসি জগন্নাথ এবার আমাদের "নয়নপথগামী"
হয়ে পূজা গ্রহণ করুণ।"
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