Friday, January 22, 2016

5>सर्वश्रेष्ठ भक्त+ त्रिदेवकेपिता+विष्णु के लक्ष्मीपैरदबाते+शुक्राचार्य बने दैत्यगुरु+ विष्णु कोबना दिया पत्थर का बूत=+

5>आ =Post=5>***सर्वश्रेष्ठ भक्त***( 1 to  5 )..

1----------------सर्वश्रेष्ठ भक्त..
2---------------ब्रह्मा, विष्णु और महेश का पिता कौन, जानिए.... त्रिदेव के पिता=+mtl
3---------------भगवान विष्णु के लक्ष्मी जी पैर दबाते हुए का क्या अर्थ है?=+mtl
4---------------भगवान विष्णु ने मारा था शुक्राचार्य की माँ को, बदले की भावना में बने दैत्यगुरु!=+mtl
5---------------सती ने सतीत्व से भगवान विष्णु को भी बना दिया पत्थर का बूत==mtl
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1>सर्वश्रेष्ठ भक्त..अर्जुन को वहम हो गया कि वो ही कृष्ण के सर्वश्रेष्ठ भक्त है,

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, ऐसे में अर्जुन को वहम हो गया कि वो ही कृष्ण के सर्वश्रेष्ठ भक्त है,
वो सोचता था कि कन्हैया ने मेरा रथ चलाया, मेरे साथ रहे.. इसलिए मै भगवान का सर्वश्रेष्ठ भक्त हूँ. उस मुर्ख को क्या पता था कि वह केवल भगवान के धर्म की स्थापना का जरिया था, फिर भी भगवान ने उसका घमंड तोड़ने के लिए उसे एक परीक्षा का गवाह बनाने अपने साथ ले गए.l
श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जोगियों का वेश बनाया और वन को चले जहाँ एक शेर पकड़कर पालतू बनाते है और पहुँच जाते है भगवान विष्णु के परम-भक्त राजा मोरध्वज के द्वार पर... राजा बहुत ही दानी और आवभगत वाले थे ,वह अपने दर पर आये किसी को भी वो खाली हाथ और बिना भोजन के जाने नहीं देते थे.
दो साधु एक सिंह के साथ दर पर आये है सुन कर राजा नंगे पांव दौड़े द्वार पर गए और भगवान के तेज से नतमस्तक हो आतिथ्य स्वीकार करने के लिए कहा. भगवान कृष्ण ने मोरध्वज से कहा कि हम मेजबानी तब ही स्वीकार करेंगे जब वो(राजा) उनकी शर्त मानें, राजा ने जोश से कहा आप जो भी कहेंगे मैं तैयार हूँ.l
भगवान कृष्ण ने कहा हम तो ब्राह्मण है कुछ भी खिला देना पर ये सिंह नरभक्षी है, तुम अगर अपने इकलौते बेटे को अपने हाथो से मारकर इसे परोसो तो ही हम तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करेंगे. भगवान की शर्त सुन मोरध्वज के होश उड़ गए, फिर भी राजा अपना आतिथ्य-धर्म नहीं तोडना चाहता था उसने भगवान से कहा प्रभु मुझे मंजूर है पर एक बार में अपनी पत्नी से पूछ लूँ.
भगवान से आज्ञा पाकर राजा महल में गया, राजा का मुंह उतरा देख कर पतिव्रता रानी ने राजा से कारण पूछा. राजा ने जब सारा हाल बताया तो रानी के आँखों से अश्रु न निकले. फिर वो अभिमान से राजा से बोली आपकी आन पर ऐसे सैकड़ो पुत्र कुर्बान.. आप साधुओ को आदर पूर्वक अंदर ले आइये.l
अर्जुन से भगवान से पूछा," माधव ये क्या माजरा है...आप ने ये क्या मांग लिया ...???
कृष्ण बोले अर्जुन तुम देखते जाओ और चुप रहो.l
राजा तीनो को अंदर ले आये और भोजन की तैयारी शुरू की, भगवान को छप्पन भोग परोसा गया पर अर्जुन के गले से उत्तर नहीं रहा था.l राजा ने स्वयं जाकर पुत्र को तैयार किया, पुत्र भी 3 साल का था नाम था रतन कँवर वो भी मात पिता का भक्त था उसने भी हँसते हँसते अपने प्राण दे दिए उफ़ ना की .
राजा रानी ने अपने हाथो में आरी ले के पुत्र के दो टुकड़े किये और सिंह को परोसा, भगवान ने भोजन ग्रहण किया पर जब रानी ने पुत्र का आधा शरीर देखा तो वो आंसू रोक न पाई. भगवान इस बात पर गुस्सा गए कि लड़के का एक फाड़ कैसे बच गया, भगवान रुष्ट होक जाने लगे तो राजा रानी रुकने की मिन्नतें करने लगे.
अर्जुन को एहसास हो गया था की भगवान मेरे ही गर्व को तोड़ने के लिए ये सब कर रहे है,
वो स्वयं भगवान के पैरो में गिर कर विनती करने लगा और कहने लगा कि आप ने मेरे झूठे मान को तोड़ दिया है. राजा रानी के बेटे को उनके ही हाथो से मरवा दिया और अब रूठ के जा रहे है.. ये गैर वाजिब है. प्रभु मुझे माफ़ करो और भक्त का कल्याण करो.l
पूरी सभा घटना की गवाह बनी चारो और चुप्पी छाई थी, तब केशव ने अर्जुन का घमंड टुटा जान कर रानी से कहा की वो अपने पुत्र को आवाज दे. रानी ने सोचा पुत्र तो मर चूका है, अब इसका क्या मतलब पर साधुओ की आज्ञा जान उसने पुत्र रतन कंवर को आवाज लगाई.l
कुछ ही क्षणों में चमत्कार हो गया. मृत रतन कंवर जिसका शरीर शेर ने खा लिया था वो हँसते हुए आकर अपनी माँ से लिपट गया.l
भगवान ने मोरध्वज और रानी को अपने विराट स्वरुप के दर्शन दिए, पुरे दरबार में वासुदेव कृष्ण की जय जय कार गूंजने लगी.l
भगवान के दर्शन पाकर अपनी भक्ति सार्थक जान मोरध्वज की ऑंखें भर आई और बिलखने लगे. भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो राजा रानी ने कहा भगवान एक ही वर दो कि अपने भक्त की ऐसी कठोर परीक्षा न ले ...जैसी आप ने हमारी ली है. तथास्तु कह के भगवान ने उसको आशीर्वाद दिया और पूरे परिवार को मोक्ष दिया l
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2>ब्रह्मा, विष्णु और महेश का पिता कौन, जानिए....     त्रिदेव के पिता

भगवान ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश के संबंध और जनम के सम्बन्ध में हिन्दुओ और हिन्दू धर्म मैं भ्रम की स्थिति है। वे उनको ही सर्वोत्तम और स्वयंभू मानते हैं, लेकिन क्या यह सच है? क्या भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश का कोई पिता नहीं है? वेदों में लिखा है कि जो जन्मा या प्रकट है वह ईश्‍वर नहीं हो सकता। ईश्‍वर अजन्मा, अप्रकट, निराकार है।
हिन्दू ग्रन्थ शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है वही अविकारी परमेश्‍वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत् कहा गया है। सत् अर्थात अविनाशी परमात्मा।
उस अविनाशी परब्रह्म काल ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। और उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है। परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। और वह परम ब्रह्म भगवान सदाशिव है।
प्राचीन विद्वान और ग्रन्थ उन्हीं को ईश्‍वर कहते हैं। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर व दिशाओ मैं विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने शरीर से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है।
वह शक्ति अम्बिका (पार्वती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी (ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माता), नित्या मूल कारण भी कहते हैं। सदा शिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। परा शक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है।

एकाकिनी होने पर भी माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। शक्ति की देवी ने ही लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के रूप में जन्म लिया और ब्रह्मा, विष्णु और महेश से विवाह किया था। तीन रूप होकर भी वह अकेली रह गई थी। उस कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी है दुर्गा।

उस काल रूपी ब्रह्म सदाशिव ने एक समय शक्ति के साथ 'शिवलोक' नामक क्षेत्र का निर्माण किया । उस उत्तम क्षेत्र को 'काशी' कहते हैं। वह आज मोक्ष का स्थान है। यहां शक्ति और शिव अर्थात कालरूपी ब्रह्म सदाशिव और दुर्गा यहां पति और पत्नी के रूप में निवास करते हैं।.

इस स्थान काशी पुरी को प्रलयकाल में भी शिव और शिवा ने अपने सान्निध्य से कभी मुक्त नहीं किया था। इस आनंदरूप वन में रमण करते हुए एक समय शिव को यह इच्‍छा उत्पन्न हुई ‍कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें।

ऐसा निश्‍चय करके शक्ति सहित परमेश्वररूपी शिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। फिर वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, 'वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम 'विष्णु' विख्यात होगा।'
इस प्रकार विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं।

शिवपुराण के अनुसार ब्रह्माजी अपने पुत्र नारदजी से कहते हैं कि विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे (ब्रह्माजी) अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही मुझे विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्य गर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ।

मैंने (ब्रह्मा) उस कमल के सिवाय दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मेरा क्या कार्य है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूं किसने इस समय मेरा निर्माण किया है? इस प्रकार में संशय में पड़ा हूं.

इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन देवताओं में गुण हैं और सदाशिव गुणातीत माने गए हैं। एक बार ब्रह्मा विष्‍णु दोनों में सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई हो गई, तो बीच में काल रूपी एक स्तंभ आकर खड़ा हो गया। तब दोनों ने पूछा- 'प्रभो, सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।'


ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा- 'पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके मुझसे सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार और तिरोभाव (अकृत्य) मुझसे प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।'

सदाशिव कहते हैं- 'ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।'

काल रूपी सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सर्व प्रथम मेरे मुख से ओंकार अर्थात 'ॐ' प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूं और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूं। प्रति दिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।

मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ।

अब यहां 7 आत्मा हो गईं- ब्रह्म से सदाशिव, सदाशिव से दुर्गा। ‍‍सदा शिव दुर्गा से विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, महेश्वर। इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और महेश के जन्मदाता कालरूपी सदाशिव और दुर्गा हैं। ये बातें अन्य पुराणों में घुमा-फिराकर लिखी गई हैं और इसी कारण भ्रम की उत्पत्ति होती है।

भ्रम को छोड़कर सभी पुराण और वेदों को पढ़ने की चेष्टा करें तो असल में समझ में आएगा। मनगढ़ंत लोक मान्यता के आधार पर अधिकतर हिन्दू सच को नहीं जानते हैं।
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3>==भगवान विष्णु के लक्ष्मी जी पैर दबाते हुए का क्या अर्थ है?

आप ने कभी सोचा नहीं होगा कि भगवान विष्णु के ज्यादातर चित्र में शेषनाग के ऊपर आराम से लेटे और लक्ष्मीमाँ इनके पैर दबा रही है, कभी सोचा है भगवान विष्णु का यह रूप किस ओर का इशारा कर रहा है। इसके पीछे बहुत गहरा और गंभीर संदेश छिपा हुआ है। और इसको अगर हम अपना ले तो हमारा पारिवारिक और सामाजिक जीवन काफी हद तक अच्छा और ख़ुशी से भर जायेगा। आइए समझते हैं कि भगवान विष्णु का चित्र क्या सिखा रहा है?

सभी को पता है कि इस सृष्टि के तीन प्रमुख भगवान कौन हैं, यह तीन ब्रह्मा, विष्णु और शिव है। ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु इस रचना का संचालन और शिव संहार करते। विष्णु सृष्टि के संचालक है इसलिए हमारी हर जरुरत को पूरा करते हैं, व धर्म को स्थापित भी करते हैं, और धर्म पर अधर्म ज्यादा होने लगता है तो यह अवतार भी लेते हैं। यह क्षीर नामक सागर में रहते हैं, यह सारा संसार भी एक महासागर की तरह है, जिसमें सुख-दु:ख भरपूर है। और ये शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं, गृहस्थी का जीवनकाल भी ऐसा होता है।

जो अपने घर का मुखिया होता है, उसके ऊपर कई सारी जिम्मेदारियां होती हैं, इसीकारण से शेषनाग के कई फन हैं। और फिर भी भगवान विष्णु का चेहरा मुस्कुराता रहता है, तथा यह सिखाता है कि हम चाहे कितनी ही जिम्मेदारियों से घिरे हुए हों, अपना धर्य कभी भी नहीं खोना चाहिए, मन में शांति बनाई रखनी चाहिए और अपना व्यवहार ऐसा रखो कि परिवार का एक भी सदस्य या व्यक्ति आपसे दूर न रह सके। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु के पैरों में है और उनकी सेवा कर रही है।

यहां पर दो संदेश दिए गए हैं पहला है जो व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का संचालन कुशलता पूर्वक करता है, और परिवार को प्रेम के बंधन में बांधे रखता है लक्ष्मी सदा ही उसके पैरों की सेवा में लगी हुई है। एवं दूसरा संदेश इसप्रकार समझो कि हमारे जीवन के अंदर परिवार और कर्तव्य का सबसे पहला स्थान है और लक्ष्मी का आखिरी स्थान, तब जाकर प्रेम में कभी लालच या मोह नहीं आएगा।

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4==भगवान विष्णु ने मारा था शुक्राचार्य की माँ को, बदले की भावना में बने दैत्यगुरु!

शुक्राचार्य का नाम तो सबने सुना ही होगा, इतना सबको पता है की वो दैत्यों और राक्षसो के गुरु थे लेकिन ये कोई नही जानता होगा की वो कौन थे कान्हा से आये थे. आज उनका पूरा कच्चा चिटठा खोल देते है और आपको बताते है उनके ऋषि से दैत्यगुरु होने की कथा.

नवग्रहों में शुमार शुक्र ही शुक्राचार्य है, शुक्राचार्य ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ भृगु ऋषि के पुत्र है भृगुऋषि जिन्हे धरती के सब ऋषियों ने तीनो देवो (ब्रह्मा विष्णु महेश) में कौन सर्वश्रेष्ठ है जांचने की जिम्मेदारी. ऐसे प्रतापित ऋषि का पुत्र होके भी शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु कैसे बन गए?


बाद बहुत पुरानी है भृगु ऋषि की दो पत्निया थी पहली दक्ष की कन्या थी और दूसरी थी ख्याति जिनसे उन्हें पुत्र मिला शुक्राचार्य. शुक्रवार को जन्मे थे भृगु इसलिए उनके नाम पे ही शुक्र का नाम शुक्रवार पड़ा, पिता ने उन्हें ब्रह्मऋषि अंगरीशी के पास शिक्षा के लिए भेजा.

अंगरीशी ब्रह्मा के मानस पुत्रो में सर्वश्रेष्ठ थे, शुक्राचार्य के साथ उनके पुत्र बृहस्पति (जो बाद में देवो के गुरु बने) भी पढ़ते थे. शुक्राचार्य बृहस्पति की तुलना में काफी होशियार थे, लेकिन फिर भी बृहपति को पुत्र होने के चलते ज्यादा अच्छी तरह से शिक्षा नही मिली

ईर्ष्यावश वो वंहा से दीक्षा छोड़ के सनक ऋषियों और गौतम ऋषि से शिक्षा लेने लगे. इस दौरान उन्हें प्रेरणा मिली और जब बृहस्पति देवो के गुरु बने तो ईर्ष्या वष वो दैत्यों के गुरु बने. दैत्य देवो से नित हारते थे इसलिए उन्होंने (शुक्राचार्य) शिव को प्रसन्न कर संजीवनी मन्त्र (मरे हुए को जीवित करने का मन्त्र) हेतु तपस्या में बैठ गए.
लेकिन देवो ने मौके का फायदा उठा के दैत्यों का संघार आरम्भ कर दिया, शुक्राचार्य को तपस्या में जान दैत्य उनकी माता ख्याति की शरण में चले गए. ख्याति ने दैत्यों को शरण दी और जो भी देवता दैत्यों को मारने आता वो उसे मूर्छित कर देती या अपनी शक्ति से लकवाग्रस्त.

ऐसे में दैत्य बलशाली हो गए और धरती पर पाप बढ़ने लगा, धरती पे धर्म की स्थापना के लिए भगवान विष्णु ने शुक्राचार्य की माँ और भृगु ऋषि की पत्नी ख्याति का सुदर्शन चक्र से सर काट दैत्यों के संघार में देवो की और समूचे जगत की मदद की. इस्पे शुक्राचार्य को बेहद खेद हुआ और वो शिव की तपस्या में और कड़ाई से लग गए.

आखिर कार उन्होंने संजीवनी मन्त्र पाया और दैत्यों के राज्य को पुनः स्थापित कर अपनी माँ का बदला लिया, तब से शुक्राचार्य का भगवान विष्णु से छत्तीस का आंकड़ा हो गया और वो उनके शत्रु बन गए. भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को इस्पे श्राप दिया की तुम्हे बार बार पृथ्वी में जाके गर्भ में रह कष्ट भोगना पड़ेगा चूँकि उन्होंने एक स्त्री का वध किया.

उससे पहले भगवान प्रकट हो के ही अवतार लेते थे जैसे की वराह, मतस्य, कुर्मा और नरसिंघ लेकिन उसके बाद उन्होंने परशुराम राम कृष्ण बुद्ध रूप में जन्म लिया तो माँ के पेट में कोख में रहने की पीड़ा झेलनी पड़ी थी. बाद में शुक्राचार्य से बृहस्पति के पुत्र ने संजीवन विधा सिख उनका पतन किया. जय श्री हरी
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5==सती ने सतीत्व से भगवान विष्णु को भी बना दिया पत्थर का बूत

तुलसी की पुरे भारत भर में पूजा होती है और उन्हें भगवान के भोग में चढ़ाया जाता है पर वो कौन है और उन्हें ये उपमा क्यों मिली जानिए हमारे साथ. तुलसी भगवान शिव और विष्णु की परम भक्त थी एक बार वो गणेश पर मोहित हो गई और उन्होंने उनसे शादी का प्रस्ताव रखा पर गणेश ने ब्रह्मचर्य का हवाला देकर प्रस्ताव ठुकरा दिया तब उन्होंने गणेश को दो शादिया होने का श्राप दिया और गणेश की ऋद्धि सिद्धि से शादी हुई. गणेश ने भी बदले में श्राप दिया की वो राक्षस कुल में जन्म लेगी और राक्षस की माँ बनेगी.
फलस्वरूप राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था। वृंदा बचपन से ही भगवान विष्णु जी की परम भक्त थी। बड़े ही प्रेम से भगवान की पूजा किया करती थी। जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था। वृंदा सती स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी।
एक बार देवो और दानवों में युद्ध हुआ, जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने जीत के लिए अनुष्ठान किया, और जब उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गए।
सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि-वृंदा मेरी परम भक्त है मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते हैं। भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पहुंच गए जैसे ही सती ने अपने पति को देखा, उन्होंने अनुष्ठान रोक दिया और उनके चरण छू लिए। जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओं ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब सती ने देखा कि पति का सिर तो कटा पड़ा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?
उन्होंने पूछा - आप कौन हैं जिसका स्पर्श मैंने किया,तब भगवान अपने रूप में आ गए पर वे निरुत्तर थे, वृंदा समझ गई। उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप (काले सालिग्राम) पत्थर के हो जाओ,भगवान तुंरत पत्थर के हो गए। सभी देवता हाहाकार करने लगे। लक्ष्मी जी रोने लगीं और प्राथना करने लगीं तब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गई। उनके बरते शंखचूड़ भी बाद में शिव के हाथो मारे गए.

उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा- आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जाएगा और मैं बिना तुलसी जी के प्रसाद स्वीकार नहीं करुंगा। तब से तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है।
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