Monday, January 25, 2016

7> दिशा प्रणाम+तप क्या है तपस्वी कौन है1+2+ ध्यान क्या है ++-योग ==( 1 to 8 )



7>आ =Post=7>***-दिशा प्रणाम : दिशा प्रणाम***( 1 to 8 )

1------------ दिशा प्रणाम : दिशा प्रणाम
2--------------तप क्या है और क्यों? तपस्वी कौन है? भाग १
3--------------तप क्या है? वास्तविक तपस्वी कौन है? २
4--------------तप क्या है और क्यों? तपस्वी कौन है? भाग 1 + 2
5--------------तप क्या है? वास्तविक तपस्वी कौन है? २
6-------------- ध्यान क्या है "
7>-------------योग क्या है ?
8>योग के बारे में 5 सूत्र

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1>   दिशा प्रणाम : दिशा प्रणाम
हमारे मन में लगातार कई तरह के विचार आते है जिन पर हमारा बस नहीं चलता। कई बार ये हमें चलाने लगते है। कई बार हम ध्यान नहीं लगा पाते। ऐसी नकारात्मक भावनाओं से छुटकारा पाने के लिए दिशा प्राणायाम जाता है।
इसके लिए सबसे पहले एक जगह पर खड़े हो जाए।पूर्व दिशा की और मुख कर ले। आँखें बंद कर नमस्कार की मुद्रा में ॐ का उच्चारण करें। निचे वज्रासन में बैठ कर सिर ज़मीन पर टिका दे और हाथ आगे की और फैला दे। पूरी भावना के साथ ये सोचे की मोह और बंधन की भावना हमें पूर्व दिशा के देवताओं से मिलती है। ये उन्हें समर्पित है।जब मन में खालीपन की भावना आ जाए ; तो उठ कर खड़े हो जाए।
दक्षिण - दक्षिण दिशा की ओर मुड जाए और आँख बंद कर नमस्कार कर ॐ बोले। फिर वज्रासन में प्रणाम कर हाथ आगे फैलाकर मन में सोचे काम की भावना हमें दक्षिण दिशा के देवताओं से मिलती है। ये सिर्फ सर्जन के लिए ही काम आये।अतिरिक्त काम विकार उन्हें समर्पित।फिर मन में खालीपन लगने पर उठे।
पश्चिम - अब उठ कर यही क्रिया पश्चिम दिशाभिमुख हो कर करें। क्रोध और लोभ की भावनाएं हमें पश्चिम दिशा के देवताओं से मिलती है ; ये उन्हें समर्पित।
उत्तर - अब उत्तराभिमुख हो कर यही प्रक्रिया करें। अहंकार और ईर्ष्या की भावना हमें उत्तर दिशा के देवताओं से मिलती है। ये उन्हें समर्पित।
अब उठ कर से पूर्व दिशा की और मुड खड़े हो जाए। एक एक कर अपने पितरों , माता -पिता , देवताओं और गुरु तत्व को याद कर उनके आशीर्वाद प्राप्त हुए ऐसा महसूस करें।
इसे एक ही बार भी पूरी भावना के साथ करने से आप अपनी नकारात्मक भावनाओं में आश्चर्यजनक रूप से कमी पायेंगे।इसे रोज़ करे।
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2>==तप क्या है और क्यों? तपस्वी कौन है? भाग १


तप करना, तपस्वी, तपोवन, तपोभूमि जैसे शब्द आपने कहीं न कहीं सुने होंगे.


तप अथवा तपस् का मूल अर्थ था प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि तत्व में अनुभव होता है। धीरे-धीरे उसका एक अर्थ विकसित होता गया, किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा।


कई सच्चे और झूठे लोग आपको कहते मिलेंगे के उन्होंने बहुत तप किया किसी सिद्धि के लिए - चाहे उनका उद्देश्य सकारात्मक हो या नकारात्मक. तपस् का वह स्वरूप, जिसका उद्देश्य दूसरे को हानि पहुँचाना अथवा दूसरे के आक्रमण से अपने को बचाना भी हो सकता है.
मूलत: मोक्ष की प्राप्ति का इच्छुक संन्यासी ही तपश्चर्या में रत हुआ। ब्रह्म ज्ञान व् ब्रह्म की प्राप्ति उसका उद्देश्य हो जाता है। सर्वस्व त्याग उसके लिये आवश्यक माना गया, यह समझा जाने लगा कि संसार में आवागमन के बंधनों से मुक्त होने के लिये वैराग्य ही नहीं नैतिक जीवन भी आवश्यक है। अत: जीवन के सभी सुखों का त्याग ही नहीं, शरीर को अनेक प्रकार से जलाना या तपस् अथवा कष्ट देना भी नियम सा बन गया.


उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्या ध्यायी ब्रह्मचारी:, धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा पत्नी चाहने वाले व्यक्ति, ईश्वर में लीन भक्त एवं देवी देवताओं की कृपा चाहने वाले सर्वसाधारण स्त्री पुरुष, स्वधर्म और धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते रहें हैं।

तपस् की प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया। साधारण तपस्वी वो अल्पाहार, जटाजूट धारण, नखवृद्धि, वेदोच्चारण, यज्ञक्रियात्मकता और दयालुता के अभ्यास मात्र तक सीमित रहता था, किंतु उग्र तपस्वी गर्मी की ऋतु में पंचाग्नि - ऊपर से सूर्य और चारों ओर प्रज्जवलित अग्नि के ताप का सहन - , जाड़े में जलनिवास अथवा भीगे कपड़ों को पहन बाहर रहना, तीन समय स्नान, कंदमूल खाना, भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास और शरीर के सभी सुखों को त्याग कर उसे कष्ट देना तपस्या का लक्षण माना जाने लगा। यही नहीं, एक मुद्रा से, यथा--हाथों को उठाए रखना, चलते रहना अथवा इसी प्रकार के अन्य रूपकों का धारण्- कुछ दिनों अथवा जीवन भर बनाए रखना तप की पराकाष्ठा समझी जाने लगी। आज भी ऐसे अनेक तपस्वी और हठयोगी भारतवर्ष के सभी कोनों, विशेषत: तीर्थों, आश्रमों, नदी के किनारों और पर्वतों की कंदराओं में मिलेंगे। सर्वसाधारण वर्ग, व् कभी कभी तो सुबोध किंतु श्रद्धालु समाज भी, ऐसे तपस्वियों का आदर करता रहा है तथा उनमें किसी अतिमानवीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिष्ठित होने में विश्वास भी करता रहा है।


संसार का त्याग, संन्यास, साधु जीवन, शरीर को कष्ट देना और इच्छाओं के दमन की अप्राकृतिक और अमनोवैज्ञानिक प्रवृति क्या वास्तव में तप है या नहीं?
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3>==तप क्या है? वास्तविक तपस्वी कौन है? २


तप का अर्थ है तपाना या अग्निपथ से गुजरना। जैसे भट्टी में गलाने के पश्चात ही स्वर्ण में प्रखरता आती है व् शुद्धता के उपरांत कैसे भी अकार दिया जा सकता है, इसी प्रकार अपने जीवन को विशेष आकार व् आयाम देने की सामर्थ्य तप, श्रम से ही प्राप्त होती है. तपस्वी वह है जिसने अपनी मानवीय दुर्बलताओं या कमजोरियों पर विजय पायी हो । अपनी इंद्रियों का निग्रह करना ही तप है। हम अपनी कर्मेंद्रियों-ज्ञानेंद्रियों पर संयम करें, तभी तपस्वी कहलाने के अधिकारी हैं। उत्तम तप है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है।
हमारे जीवन की सार्थकता श्रम व् तप में ही है. किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए जो कर्म हम करते हैं, शरीर व् मन की कठिनाइयों की चिंता किये बिना जुटे रहते हैं वही तप है. इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जानेवाला रजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर; दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं हो सकता। समाचार यह है के वन में १० वर्ष रहना या शरीर को गलाना तप नहीं है यदि आप अपने कार्य को बहुत मन लगाकर श्रद्धा से करते हैं तो वह भी तप ही है.


सात्विक तप : देह की चिंता न करते हुए जो मनुष्य ईश्वर परम आत्मा की प्राप्ति में साधना में लगा है वह सात्विक तप है. उससे भी ऊपर प्रत्येक प्राणी में स्थित ईश्वर तत्व या आत्मिक अंश को पहचान कर जन सेवा में जिसने अपने को आजीवन समर्पित किया वह जीवन वास्तव में सात्विक तप है. यानि दुसरो की किसी भी रूप में सेवा करना ऐसा है जैसे चन्दन को घिसकर संसार में सुगंध फ़ैलाने जैसा है. सात्विक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह, अहिंसा और भाव संशुद्धि से सिद्ध होता है।


राजसी तप : धन, कीर्ति, लोकप्रियता, प्रतिष्ठा, राज या अधिकार के लिए जो श्रम व् तप है या लाखो प्रयोग करने वाले उस वैज्ञानिक जो सृष्टि की अज्ञात शक्तिओ की खोज कर जन जीवन को आसान बनाये, या अपने लगातार अभ्यास से किसी कार्य में सिद्धि प्राप्त करे वह राजसी तप है. रजस तप वाणी, सत्य और प्रिय भाषण तथा स्वाध्याय से होता है.


तामसिक तप : द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थ या दुसरो को तकलीफ पहुंचा कर, उनका नाश कर या उन्हें पीड़ा दे कर, भ्रष्टाचार में लिप्त हो, पापो में लगन रह कर या अपनी शूद्र या निम्न लालसाओं, वासनाओं से ग्रसित हो जो कुकर्म करते समय कष्ट पूर्ण जीवन बिताये वह ही तामसिक तप है. चोरी, दुसरो की चीज़ हड़पना, बलपूर्वक किसी को वश करना, काला जादू, बलि देना, किसी भी जीव को दुःख देना या भले व् भोले लोगो को भ्रम व् कुबुद्धि के रास्ते पर ले जाकर उन्हें लूटने की विद्या तमस तप है और इसका परिणाम अत्यंत भयानक होता है.


तप या तपस्या वास्तव में तभी सम्भव है जब हमारा कोई लक्ष्य, उद्देश्य व् धेय्य है जो की सात्विक या रजस हो तो ठीक है पर तामसिक तप घोर अपराध व् पाप है. अगर आप विद्यार्थी है या कोई कार्य रत हैं सोचे के आपका ध्येय क्या है. आप किस दिशा में जाना चाहेंगे.जो भी करें उसके लिए घोर तप करें और साधना रत हो कर आगे बढ़ें, आपका तप आपके लक्ष्य तक ले जायेगा. कुछ भी हो तामसिक कार्य न करना चाहे उसके लिए कुछ सुख त्यागने पड़ें या कुछ दुःख उठाना पड़े।

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4>==तप क्या है और क्यों? तपस्वी कौन है? भाग 1 + 2


तप करना, तपस्वी, तपोवन, तपोभूमि जैसे शब्द आपने कहीं न कहीं सुने होंगे.

तप अथवा तपस् का मूल अर्थ था प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि तत्व में अनुभव होता है। धीरे-धीरे उसका एक अर्थ विकसित होता गया, किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा।

कई सच्चे और झूठे लोग आपको कहते मिलेंगे के उन्होंने बहुत तप किया किसी सिद्धि के लिए - चाहे उनका उद्देश्य सकारात्मक हो या नकारात्मक. तपस् का वह स्वरूप, जिसका उद्देश्य दूसरे को हानि पहुँचाना अथवा दूसरे के आक्रमण से अपने को बचाना भी हो सकता है.
मूलत: मोक्ष की प्राप्ति का इच्छुक संन्यासी ही तपश्चर्या में रत हुआ। ब्रह्म ज्ञान व् ब्रह्म की प्राप्ति उसका उद्देश्य हो जाता है। सर्वस्व त्याग उसके लिये आवश्यक माना गया, यह समझा जाने लगा कि संसार में आवागमन के बंधनों से मुक्त होने के लिये वैराग्य ही नहीं नैतिक जीवन भी आवश्यक है। अत: जीवन के सभी सुखों का त्याग ही नहीं, शरीर को अनेक प्रकार से जलाना या तपस् अथवा कष्ट देना भी नियम सा बन गया.

उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्या ध्यायी ब्रह्मचारी:, धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा पत्नी चाहने वाले व्यक्ति, ईश्वर में लीन भक्त एवं देवी देवताओं की कृपा चाहने वाले सर्वसाधारण स्त्री पुरुष, स्वधर्म और धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते रहें हैं।
तपस् की प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया। साधारण तपस्वी वो अल्पाहार, जटाजूट धारण, नखवृद्धि, वेदोच्चारण, यज्ञक्रियात्मकता और दयालुता के अभ्यास मात्र तक सीमित रहता था, किंतु उग्र तपस्वी गर्मी की ऋतु में पंचाग्नि - ऊपर से सूर्य और चारों ओर प्रज्जवलित अग्नि के ताप का सहन - , जाड़े में जलनिवास अथवा भीगे कपड़ों को पहन बाहर रहना, तीन समय स्नान, कंदमूल खाना, भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास और शरीर के सभी सुखों को त्याग कर उसे कष्ट देना तपस्या का लक्षण माना जाने लगा। यही नहीं, एक मुद्रा से, यथा--हाथों को उठाए रखना, चलते रहना अथवा इसी प्रकार के अन्य रूपकों का धारण्- कुछ दिनों अथवा जीवन भर बनाए रखना तप की पराकाष्ठा समझी जाने लगी। आज भी ऐसे अनेक तपस्वी और हठयोगी भारतवर्ष के सभी कोनों, विशेषत: तीर्थों, आश्रमों, नदी के किनारों और पर्वतों की कंदराओं में मिलेंगे। सर्वसाधारण वर्ग, व् कभी कभी तो सुबोध किंतु श्रद्धालु समाज भी, ऐसे तपस्वियों का आदर करता रहा है तथा उनमें किसी अतिमानवीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिष्ठित होने में विश्वास भी करता रहा है।

संसार का त्याग, संन्यास, साधु जीवन, शरीर को कष्ट देना और इच्छाओं के दमन की अप्राकृतिक और अमनोवैज्ञानिक प्रवृति क्या वास्तव में तप है या नहीं?
शेष भाग २ में पढ़े ...> वास्विक तप क्या है व् तपस्वी कौन है?
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5>==तप क्या है? वास्तविक तपस्वी कौन है? २

तप का अर्थ है तपाना या अग्निपथ से गुजरना। जैसे भट्टी में गलाने के पश्चात ही स्वर्ण में प्रखरता आती है व् शुद्धता के उपरांत कैसे भी अकार दिया जा सकता है, इसी प्रकार अपने जीवन को विशेष आकार व् आयाम देने की सामर्थ्य तप, श्रम से ही प्राप्त होती है. तपस्वी वह है जिसने अपनी मानवीय दुर्बलताओं या कमजोरियों पर विजय पायी हो । अपनी इंद्रियों का निग्रह करना ही तप है। हम अपनी कर्मेंद्रियों-ज्ञानेंद्रियों पर संयम करें, तभी तपस्वी कहलाने के अधिकारी हैं। उत्तम तप है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है।
हमारे जीवन की सार्थकता श्रम व् तप में ही है. किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए जो कर्म हम करते हैं, शरीर व् मन की कठिनाइयों की चिंता किये बिना जुटे रहते हैं वही तप है. इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जानेवाला रजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर; दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं हो सकता। समाचार यह है के वन में १० वर्ष रहना या शरीर को गलाना तप नहीं है यदि आप अपने कार्य को बहुत मन लगाकर श्रद्धा से करते हैं तो वह भी तप ही है.

सात्विक तप : देह की चिंता न करते हुए जो मनुष्य ईश्वर परम आत्मा की प्राप्ति में साधना में लगा है वह सात्विक तप है. उससे भी ऊपर प्रत्येक प्राणी में स्थित ईश्वर तत्व या आत्मिक अंश को पहचान कर जन सेवा में जिसने अपने को आजीवन समर्पित किया वह जीवन वास्तव में सात्विक तप है. यानि दुसरो की किसी भी रूप में सेवा करना ऐसा है जैसे चन्दन को घिसकर संसार में सुगंध फ़ैलाने जैसा है. सात्विक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह, अहिंसा और भाव संशुद्धि से सिद्ध होता है।

राजसी तप : धन, कीर्ति, लोकप्रियता, प्रतिष्ठा, राज या अधिकार के लिए जो श्रम व् तप है या लाखो प्रयोग करने वाले उस वैज्ञानिक जो सृष्टि की अज्ञात शक्तिओ की खोज कर जन जीवन को आसान बनाये, या अपने लगातार अभ्यास से किसी कार्य में सिद्धि प्राप्त करे वह राजसी तप है. रजस तप वाणी, सत्य और प्रिय भाषण तथा स्वाध्याय से होता है.

तामसिक तप : द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थ या दुसरो को तकलीफ पहुंचा कर, उनका नाश कर या उन्हें पीड़ा दे कर, भ्रष्टाचार में लिप्त हो, पापो में लगन रह कर या अपनी शूद्र या निम्न लालसाओं, वासनाओं से ग्रसित हो जो कुकर्म करते समय कष्ट पूर्ण जीवन बिताये वह ही तामसिक तप है. चोरी, दुसरो की चीज़ हड़पना, बलपूर्वक किसी को वश करना, काला जादू, बलि देना, किसी भी जीव को दुःख देना या भले व् भोले लोगो को भ्रम व् कुबुद्धि के रास्ते पर ले जाकर उन्हें लूटने की विद्या तमस तप है और इसका परिणाम अत्यंत भयानक होता है.

तप या तपस्या वास्तव में तभी सम्भव है जब हमारा कोई लक्ष्य, उद्देश्य व् धेय्य है जो की सात्विक या रजस हो तो ठीक है पर तामसिक तप घोर अपराध व् पाप है. अगर आप विद्यार्थी है या कोई कार्य रत हैं सोचे के आपका ध्येय क्या है. आप किस दिशा में जाना चाहेंगे.जो भी करें उसके लिए घोर तप करें और साधना रत हो कर आगे बढ़ें, आपका तप आपके लक्ष्य तक ले जायेगा. कुछ भी हो तामसिक कार्य न करना चाहे उसके लिए कुछ सुख त्यागने पड़ें या कुछ दुःख उठाना पड़े।
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6>" ध्यान क्या है "
ध्यान का अर्थ है : समर्पण |
ध्यान का अर्थ है :अपने को पूरी तरह छोड़ देना परमात्मा के हाथों में |
ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है |
ध्यान का अर्थ है : कुछ भी नहीं करना है और छोड़ देना है उसके हाथों में , जो कि सचमुच ही हमें 
   सम्हाले हुए है |
ध्यान के लिए पहली बात तो स्मरण रखना : समर्पण , सरेंडर , टोटल सरेंडर |
जिसने अपने को थोडा भी पकड़ा वह ध्यान में नहीं जा सकेगा ; क्योंकि अपने को पकड़ना यानी 
   रुक जाना अपने तक और छोड़ देना यानी पहुंच जाना उस तक , जहां छोड़ कर हम पहुंच ही 
    जाते हैं |
ध्यान में जाने के लिए तीन सीढियां है :
पहला सीढ़ी है : बहने का अनुभव :-
बहने का मतलब है , नदी में तैरना नहीं बहना , नदी के साथ एक हो जाना है| नदी जहां ले जाए 
वहीं हमारी मंजिल है | तब फिर नदी से कोई दुश्मनी नहीं रह जाती है |
समर्पण का पहला अर्थ है : इस जीवन के साथ हमारी कोई दुश्मनी न रह जाए | इस जीवन के साथ हम बह सकें , तैरें न |

दूसरी सीढ़ी : मरने का , मृत्यु का , मिट जाने का |
जैसे कोई बीज मिटता है तो फिर अंकुर हो जाता है | जैसे कोई कली मिटतीं है तो फूल हो जाती है | 
जब कुछ मिटता है, तभी कुछ हो पाता है | जब हम आदमी की तरह मिटेंगे , तभी हम परमात्मा की 
तरह हो पाएंगे | जन्म की पहली कड़ी मृत्यु है | और जो मरना नहीं सीख पाता , मिटना नहीं सीख पाता , 
वह कभी भी उस विराट तक नहीं पहुंच पाता , जहां तक पहुंचने में सब कुछ छुट जाना जरूरी है|

तीसरी सीढ़ी है : तथाता
तथाता का अर्थ है : चीजें जैसी हैं वैसी हैं | हमे उनसे कोई विरोध नहीं | पक्षी आवाज कर रहें , 
कर रहे हैं | धूप गरम है , है | हवाएं चलती हैं और ठंड मालूम पडती है , मालूम पडती है | 
जिंदगी जैसी है वैसी हमें स्वीकार है | न हम उसमें कोई बदल करना चाहते हैं , न कोई हेर - फेर 
करना चाहते हैं | हमारा कोई विरोध नहीं , हमारी कोई अस्वीकृति नहीं |
तथाता का अर्थ है : परिपूर्ण राजी हो जाना , टोटल एक्सेप्टेबिलिटी |
परमात्मा को जानना है अगर , तो जीवन को पूरी तरह स्वीकार करके ही जान सकेंगे |
तथता , सब स्वीकार |
इन तीनों सीढ़ियों को पार कर ध्यान में प्रवेश होता है |
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7>योग क्या है ?
जय गुरू देवा🏻
प्राण नाथाय नमो नमः🏻


गीता में योग की परिभाषा योगःकर्मसु कौशलम् की गयी है । 

दूसरी परिभाषा समत्वं योग उच्यते है । 
कर्म की कुशलता और समता को इन परिभाषाओं में योग बताया गया है । 
पातंजलि योग दर्शन में योगश्चिय वृत्ति निरोधः 
== चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है । 
इन परिभाषाओं पर विचार करने से योग कोई ऐसी रहस्यमय या अतिवादी वस्तु नही रह जाती
कि जिसका उपयोग सवर्साधारण द्वारा न हो सके । 

दो वस्तुओं के मिलने को योग कहते हैं ।
पृथकता वियोग है और सम्मिलन योग है ।
आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से जोड़ना योग होता है ।
जीवत्म परमात्म संयोगो योगःकहकर भगवान याज्ञवल्क्य ने जिस योग की विवेचना की वह
केवल कल्पना नहीं, अपितु हमारे दैनिक जीवन की एक अनुभूत साधना है और एक ऐसा उपाय है
जिसके द्वारा हम अपने साधारण मानसिक क्लेशों एवं जीवन की अन्यान्य कठिनाइयों का
बहुत सुविधापूर्वक निराकरण कर सकते हैं । 

हमारे अन्दर मृग के कस्तूरी के समान रहने वाली जीवात्मा एक ओर मन की चंचल चित्तवृत्तियों
द्वारा उसे ओर खींची जाती है और दूसरी ओर परमात्मा उसे अपनी ओर बुलाता है । 

इन्हीं दोनों रज्जुओं से बँध कर निरन्तर काल के झूले में झूलने वाली जीवात्मा चिर काल तक कर्म
कलापों में रत रहती है । यह जानते हुए भी कि जीवात्मा दोनों को एक साथ नहीं पा सकती
और एक को खोकर ही दूसरे को पा सकना सम्भव है वह दोनों की ही खींचतान की द्विविधा में
पड़ी रहती है । 

इसी द्विविधा द्वारा उत्पन्न संघर्षो को संकलन समाज और समाजों का सम्पादन विश्व कहलाता है ।
उर्पयुक्त विवेचना का एक दूसरा स्वरूप भी है और वह यह है कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच
मन बाधक के रूप में आकर उपस्थित होता है । 

कुरुक्षेत्र में पार्थ ने मन की इस सत्ता से भयभीत होकर ही प्रार्थना की थी चंचलं हि मनः कृष्ण
प्रमाथि बलवदृढ़म । मन मनुष्य को वासना की ओर खींचकर क्रमशःउसे परमात्मा से दूर करता
जाता है । उसे सीमित करना पवन को बन्धन में लाने के समान ही दुष्कर है । 

आत्मा और परमात्मा के निकट आये बिना आनन्द का अनुभव नहीं होता । 
ज्यों-ज्यों जीवात्मा मन से सन्निकटता प्राप्त करती जाती है वह क्लेश एवं संघर्षों से लिपटती जाती । 
आत्मा का एकाकार ही परमानन्द की स्थिति है । 
सन्त कबीर ने इस एकाकार को ही आध्यात्मिक विवाह का रूप दिया है और गाया है ।
जिस डर से सब जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
कब भारिहों कब पाइहों पूरन परमानन्द ॥
मन को वश में करने की मुक्ति ही योग है ।
महर्षि पातंजलि ने कहा भी है-योगश्चित्त वृत्ति निरोधः । 

चित्तवृत्ति के निरोध से ही योग की उत्पत्ति की उत्पत्ति होती है और इसी को प्राप्ति ही योग का लक्ष है । 
गीता में भगवान कृष्ण ने योग की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि यद्यपि मन चंचल है फिर भी
योगाभ्यास तथा उसके द्वारा उत्पन्न वैराग्य द्वारा उसे वश में किया जा सकता है ।
व्यावहारिक रूप से योग का तात्पर्य होता है जोड़ना या बाँधना । 

जिस प्रकार घोड़े को एक स्थान पर बाँधकर उसकी चपलता को नष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार 
योग द्वारा मन को सीमित किया जा सकता है । विस्तार पाकर मन आत्मा को अच्छादित न करले 
इसलिए योग की सहायता आवश्यक भी हो जाती हे ।
भक्तियोग और राजयोग से ऊपर उठाकर त्रिकालयोग के दर्शन होते हैं और यही सर्वश्रेष्ठ
योग है ।
इन्हीं तीनों योगों का व्यावहारिक साधारणीकरण कर्मयोग है और आज के संघर्षमय
युग में कर्मयोग ही सबसे पुण्य साधना है ।
संसार और उसकी यथार्थता ही कर्मयोगी का कार्य क्षेत्र है । फल के प्रति उदासिन रहकर कर्म
के प्रति जागरूक होकर ही मनुष्य क्रमशः मन पर विजय पाता है और परमात्मा से अपना सम्बन्ध
सुदृढ़ करता है । कर्मयोग की प्रेरणा किसी कर्मयोगी के जीवन को आदर्श मानकर ही
प्राप्त होती है । 

अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विषय जन्य भावनाओं के प्रति निराशक्ति ही कर्मयोग की पहली 
सीढ़ी है ।
कर्मयोगी के जीवन में निराशा अथवा असफलता के लिए कोई स्थान नहीं क्योंकि एक तो वह इनकी 

सत्ता ही स्वीकार नहीं करता और दूसरे उसकी दृष्टि कर्म से उठकर परिणाम तक पहुँच ही नहीं पाती । 
यहाँ तक की सच्चा कर्मयोगी परमात्मा की प्राप्ति के प्रति भी बीत राग हो जाता है । उस स्थिति पर
तस्माद्योगी भवाजुर्न के अनुसार कर्मयोगी वह पद प्राप्त कर लेता है जहाँ मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं जैसे
रश्मि प्रकाश के रूप में आत्मा और परमात्मा में
कोई अन्तर नहीं रह जाता ।
।।मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है।।
!!अलख निरंजन!!

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8>योग के बारे में 5 सूत्र


योग केवल आसनों के अभ्यास तक ही सीमित नहीं है। योग जीवन के पूर्ण रूपांतरण से जुड़ा है। पढ़ें कुछ सूत्र योग के वास्तविक अर्थ के बारे में…

सच्ची खुशहाली को अनुभव करने का सिर्फ एक ही तरीका है – अपने भीतर की ओर मुड़ना। योग का यही अर्थ है – ऊपर नहीं, बाहर नहीं, बल्कि अंदर। बाहर निकलने की एकमात्र राह अंदर की ओर है।
योग का संबंध जीवन में सशक्‍त व सबल होकर जीने से है, यह सिर्फ सब्जियां खाने, खुद को तोड़ने-मरोड़ने, या अपनी आंखें बंद करना भर नहीं है।
योग का अर्थ है – जीवन की चक्रीय प्रक्रिया को तोड़कर इसे एक सीधी रेखा बनाना।
आपके मस्तिष्क की गतिविधियां, आपके शरीर की केमेस्ट्री, यहां तक कि आपके वंशानुगत गुण भी योगाभ्यास से बदले जा सकते हैं।
योग इस बारे में है कि हम अपनी पूंजी को शरीर, दिमाग, और भावनाओं से हटाकर अपनी अन्तरात्मा (जीव या प्राणों) में लगाएं – कल्पना से हटाकर वास्तविकता में लगाएं।

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